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प्रायश्चित्तानि
अग्निरुवाच
देवाश्रमार्चनादीनां
प्रायश्चित्तन्तु लोपतः ।
पूजालोपे चाष्टशतं
जपेद्द्विगुणपूजनं ॥०१॥
पञ्चोपनिषदैर्मन्त्रैर्हुत्वा
ब्राह्मणभोजनं ।
सूतिकान्त्यजकोदक्यास्पृष्टे देवे
शतं जपेत् ॥०२॥
पञ्चोपनिषदैः पूजां द्विगुणं
स्नानमेव च ।
विप्रभोज्यं होमलोपे होमस्नानं
तथार्चनं ॥०३॥
होमद्रव्ये मूषिकाद्यैर्भक्षिते
कीटसंयुते ।
तावन्मात्रं परित्यज्य प्रोक्ष्य
देवादि पूजयेत् ॥०४॥
अङ्कुरार्पणमात्रन्तु छिन्नं भिन्नं
परित्यजेत् ।
अस्पृश्यैश्चैव संस्पृष्टे
अन्यपात्रे तदर्पणं ॥०५॥
देवमानुषविघ्नघ्नं पूजाकाले तथैव च
।
मन्त्रद्रव्यादिव्यत्यासे मूलं
जप्त्वा पुनर्जपेत् ॥०६॥
कुम्भेनाष्टशतजपो देवे तु पतिते
करात् ।
भिन्ने नष्टे चोपवासः शतहोमाच्छुभं
भवेत् ॥०७॥
कृते पापेऽनुतापो वै यस्य पुंसः
प्रजायते ।
प्रायश्चित्तन्तु तस्यैकं
हरिसंस्मरणं परं ॥०८॥
चान्द्रायणं पराको वा
प्राजापत्यमघौघनुत् ।
सूर्येशशक्तिश्रीशदिमन्त्रजप्यमघौघनुत्
॥०९॥
गायत्रीप्रणवस्तोत्रमन्त्रजप्यमघान्तकं
।
काद्यैरावीजसंयुक्तैराद्यैराद्यैस्तदन्तकैः
॥१०॥
सूर्येशशक्तिश्रीशादिमन्त्राः कोट्यधिकाः
पृथक् ।
ओंह्रीमाद्याश्चतुर्थ्यन्ता
नमोन्ताः सर्वकामदाः ॥११॥
नृसिंहद्वादशाष्टार्णमालामन्त्राद्यघौघनुत्
।
आग्नेयस्य पुराणस्य पठनं श्रवणादिकं
॥१२॥
द्विविद्यारूपको विष्णुरग्निरूपस्तु
गीयते ।
परमात्मा देवमुखं सर्ववेदेषु गीयते
॥१३॥
प्रवृत्तौ तु निवृत्तौ तु इज्यते
भुक्तिमुक्तिदः ।
अग्निरूपस्य विष्णोर्हि हवनं
ध्यानमर्चनं ॥१४॥
जप्यं स्तुतिश्च प्रणतिः
शारीराशेषाघौघनुत् ।
दशस्वर्णानि दानानि धान्यद्वादशमेव
च ॥१५॥
तुलापुरुषमुख्यानि महादानानि षोडश ।
अन्नदानानि मुख्यानि सर्वाण्यघहराणि
हि ॥१६॥
तिथिवारर्क्षसङ्क्रान्तियोगमन्वादिकालके
।
ब्रतादि
सूर्येशशक्तिश्रीशादेरघघातनं ॥१७ ॥
गङ्गा गया प्रयागश्च काश्ययोध्या
ह्यवन्तिका ।
कुरुक्षेत्रं पुष्करञ्च नैमिषं
पुरुषोत्तमः ॥१८॥
शालग्रामप्रभासाद्यं
तीर्थञ्चघोघघातकं ।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिरिति
ध्यानमघौघनुत् ॥१९॥
पुराणं ब्रह्म चाग्नेयं ब्रह्मा
विष्णुर्महेश्वरः ।
अवताराः सर्वपूजाः
प्रतिष्ठाप्रतिमादिकं ॥२०॥
ज्योतिःशास्त्रपुराणानि स्मृतयस्तु
तपोव्रतं ।
अर्थशास्त्रञ्च सर्गाद्या आयुर्वेदो
धनुर्मतिः ॥२१॥
शिक्षा छन्दो व्याकरणं
निरुक्तञ्चाभिधानकं ।
कल्पो न्यायश्च मीमांसा
ह्यन्यत्सर्वं हरिः प्रभुः ॥२२॥
एके द्वयोर्यतो यस्मिन् यः सर्वमिति
वेद यः ।
तं दृष्ट्वान्यस्य पापानि
विनश्यन्ति हरिश्च सः ॥२३॥
विद्याष्टादशरूपश्च सूक्ष्मः
स्थूलोऽपरो हरिः ।
ज्योतिः सदक्षरं ब्रह्म परं
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अग्निदेव कहते हैं—
देव मन्दिर के पूजन आदि का लोप करने पर प्रायश्चित्त करना चाहिये। पूजा
का लोप करने पर एक सौ आठ बार जप करे और दुगुनी पूजा की व्यवस्था करके पञ्चोपनिषद्-
मन्त्रों से हवन कर ब्राह्मण भोजन करावे । सूतिका स्त्री, अन्त्यज
अथवा रजस्वला के द्वारा देवमूर्ति का स्पर्श होने पर सौ बार गायत्री जप करे ।
दुगुना स्नान करके पश्चोपनिषद् मन्त्रों से पूजन एवं ब्राह्मण भोजन कराये। होम का
नियम भङ्ग होने पर होम, स्नान और पूजन करे। होम- द्रव्य को
चूहे आदि खा लें या वह कीटयुक्त हो जाय, तो उतना अंश छोड़कर
तथा शेष द्रव्य का जल से प्रोक्षण करके देवताओं का पूजन करे। भले ही अङ्कुरमात्र
अर्पण करे, परंतु छिन्न-भिन्न द्रव्य का बहिष्कार कर दे।
अस्पृश्य मनुष्यों का स्पर्श हो जाने पर पूजा द्रव्य को दूसरे पात्र में रख दे।
पूजा के समय मन्त्र अथवा द्रव्य की त्रुटि होने पर दैव एवं मानुष विघ्नों का विनाश
करनेवाले गणपति के बीज मन्त्र का जप करके पुन: पूजन करे। देव मन्दिर का कलश नष्ट
हो जाने पर सौ बार मन्त्र जप करे। देवमूर्ति के हाथ से गिरने एवं नष्ट हो जाने पर
उपवासपूर्वक अग्नि में सौ आहुतियाँ देने से शुभ होता है। जिस पुरुष के मन में पाप
करने पर पश्चात्ताप होता है, उसके लिये श्रीहरि का स्मरण ही
परम प्रायश्चित्त है। चान्द्रायण, पराक एवं प्राजापत्य व्रत
पापसमूहों का विनाश करनेवाले हैं। सूर्य, शिव, शक्ति और विष्णु के मन्त्र का जप भी पापों का प्रशमन करता है। गायत्री
प्रणव, पापप्रणाशनस्तोत्र एवं
मन्त्र का जप पापों का अन्त करनेवाला है। सूर्य, शिव,
शक्ति और विष्णु के 'क' से
प्रारम्भ होनेवाले, 'रा' बीज से
संयुक्त, रादि आदि और रान्त मन्त्र करोड़गुना फल देनेवाले
हैं। इनके सिवा 'ॐ क्लीं' से प्रारम्भ
होनेवाले चतुर्थ्यन्त एवं अन्त में 'नमः' संयुक्त मन्त्र सम्पूर्ण कामनाओं को सिद्ध करनेवाले हैं। नृसिंह भगवान् के
द्वादशाक्षर एवं अष्टाक्षर मन्त्र का जप पापसमूहों का विनाश करता है। अग्निपुराण का
पठन एवं श्रवण करने से भी मनुष्य समस्त पापसमूहों से छूट जाता है। इस पुराण में
अग्निदेव का माहात्म्य भी वर्णित है। परमात्मा श्रीविष्णु ही मुखस्वरूप अग्निदेव
हैं, जिनका सम्पूर्ण वेदों में गान किया गया है। भोग और
मोक्ष प्रदान करनेवाले उन परमेश्वर का प्रवृत्ति और निवृत्ति-मार्ग से भी पूजन
किया जाता है। अग्निरूप में स्थित श्रीविष्णु के उद्देश्य से हवन, जप, ध्यान, पूजन, स्तवन एवं नमस्कार शरीर-सम्बन्धी सभी पापों का विध्वंस करनेवाला है। दस
प्रकार के स्वर्णदान, बारह प्रकार के धान्यदान, तुलापुरुष आदि सोलह महादान एवं सर्वश्रेष्ठ अन्नदान - ये सब महापापों का
अपहरण करनेवाले हैं। तिथि, वार, नक्षत्र,
संक्रान्ति, योग, मन्वन्तरारम्भ
आदि के समय सूर्य, शिव, शक्ति तथा
विष्णु के उद्देश्य से किये जानेवाले व्रत आदि पापों का प्रशमन करते हैं। गङ्गा,
गया, प्रयाग, अयोध्या, उज्जैन, कुरुक्षेत्र, पुष्कर,
नैमिषारण्य, पुरुषोत्तमक्षेत्र, शालग्राम, प्रभासक्षेत्र आदि तीर्थ पापसमूहों को
विनष्ट करते हैं। 'मैं परम प्रकाशस्वरूप बल हूँ।' - इस प्रकार की धारणा भी पापों का विनाश करनेवाली है। ब्रह्मपुराण, अग्निपुराण, ब्रह्मा, विष्णु,
महेश, भगवान् के अवतार, समस्त
देवताओं की प्रतिमा-प्रतिष्ठा एवं पूजन, ज्यौतिष, पुराण, स्मृतियाँ, तप, व्रत, अर्थशास्त्र, सृष्टि के आदितत्त्व,
आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिक्षा,
छन्द:- शास्त्र, व्याकरण, निरुक्त, कोष, कल्प, न्याय, मीमांसा शास्त्र एवं अन्य सब कुछ भी भगवान्
श्रीविष्णु की विभूतियाँ हैं। वे श्रीहरि एक होते हुए भी सगुण-निर्गुण दो रूपों में
विभक्त एवं सम्पूर्ण संसार में संनिहित हैं। जो ऐसा जानता है, श्रीहरि स्वरूप उन महापुरुष का दर्शन करने से दूसरों के पाप विनष्ट हो
जाते हैं। भगवान् श्रीहरि ही अष्टादश विद्यारूप, सूक्ष्म,
स्थूल, सच्चित्- स्वरूप, अविनाशी परब्रह्म एवं निष्पाप विष्णु हैं ॥ १-२४ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे
प्रायश्चित्तानि नाम चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'प्रायश्चित्त-वर्णन' नामक एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ १७४ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 175
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