प्राणसूक्त
प्राण अर्थात् आत्मा जो कि सूर्य
अर्थात् तेज का प्रतीक है, प्राणसूक्त का पाठ
करने से जीवन में तेज की वृद्धि होती है । अथवा किसी मूर्ति के प्राणप्रतिष्ठा में
मूर्ति में प्राण डालने के लिए इस सूक्त का पाठ किया जाता है । यहाँ २ प्राणाख्यसूक्त दिया जा रहा है। आप किसी
१ अथवा दोनों का ही पाठ कर सकते हैं।
प्राणसूक्तम्
ध्रुवसूक्त के मंत्र का उच्चारण कर
पुन: मूर्ति के सिर पर हाथ रखकर उनका ध्यान करते हुए निम्न प्राणसूक्त अथवा प्राणाख्यसूक्त
का पाठ करें। यह सूक्त तैत्तरीय ब्राह्मण में वर्णित है।
प्राणाख्यसूक्त
ॐ प्राणो रक्षति विश्वमेजत् । इर्यो
भूत्वा बहुधा बहूनि । स इत्सर्व व्यान शे । यो देवषु विभूरन्तः । आवृदूदात्क्षेत्रियध्वगध्दृषा
। तमित्प्राणं मनसोपशिक्षत। अग्रं देवानामिदमत्तु नो हविः । मनसश्चित्तेदम् । भूतं
भव्यं च गुप्यते । तद्धि देवेष्वग्रियम् ॥१॥
आ न एतु पुरश्चरम् । सह देवैरिमঌहवम् ।
मनश्श्रेयसि श्रेयसि। कर्मन् यज्ञपर्त्ति दधत् । जुषतां मे वागिदঌ हविः । विराड्
देवी पुरोहिता हव्यवाडनपायिनी। यमारूपाणि बहुधा वदन्ति। पेशाঌ सि देवा: परमे
जनित्रे । सा नो विराडनपस्फुरन्ती॥२॥
वाग्देवी जुषतामिदঌहविः ।
चक्षुर्देवानां ज्योतिरमृते न्यक्तम् । अस्य विज्ञानाय बहुधा निधीयते । तस्य
सुम्नमशीमहि । मानो हासीद्विचक्षणम्। आयुरिन्नः प्रतीर्यताम् । अनन्धाश्चक्षुषा
वयम् । जीवा ज्योतिरशी महि । सुवर्ज्योतिरुतामृतम् । श्रोत्रेण भद्रमुत शृण्वन्ति
सत्यम् । श्रोत्रेण वाचं बहुधोद्यमानाम्। श्रोत्रेण मोदश्च महश्च श्रूयते ।
श्रोत्रेण सर्वां दिश आ शृणोमि। येन प्राच्या उत दक्षिणा । प्रतीच्यै
दिशशृण्वन्त्युत्तरात् । तदिच्छ्रोत्रं बहुधोद्यामानम्। आरान्न नेमिः परि सर्वं
बभूव। अग्नियमनपस्फुरन्ती सत्यঌ सप्त च ॥३॥ (तैत्तरीय ब्राह्मण २।१
पृ० २२५-२२९)
प्राण सूक्त
इस प्राणसूक्त अथवा प्राणाख्यसूक्त
को अथर्ववेद के १० वें काण्ड सूक्त ४ में
श्लोक १-२६ में दिया गया है।
प्राणसूक्तम्
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे ।
यो भूतः सर्वस्येश्वरो
यस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।१।।
इस प्राण के लिए नमस्कार है,
जिसके वश में यह समस्त चराचर जगत् है। यह प्राण सब का ईश्वर है और
इसी में सारा जगत् स्थित है ।
नमस्ते प्राण क्रन्दाय नमस्ते
स्तनयित्नवे ।
नमस्ते प्राण विद्युते नमस्ते प्राण
वर्षते ।।२।।
प्राण! तुम्हारे लिए नमस्कार है,
मेघ घटा में घुस कर वर्षा करने वाले तुम्हारे लिए नमस्कार है। बिजली
के रूप में प्रकाशित एवं वर्षा करते हुए तुम्हें नमस्कार है।
यत् प्राण
स्तनयित्नुनाभिक्रन्दत्योषधीः ।
प्र वीयन्ते गर्भान् दधतेऽथो
बह्वीर्वि जायन्ते ।।३।।
जब प्राण अर्थात् सूर्यात्मक देव
वर्षा काल में मेघ ध्वनि के द्वारा जौ, गेहूं,
एवं जंगली वृक्षों को लक्ष्य कर के गरजते हैं, तब सभी फसलें गर्भ धारण करती हैं एवं अनेक प्रकार से उत्पन्न होती हैं।
यत् प्राण
ऋतावागतेऽभिक्रन्दत्योषधीः।
सर्वं तदा प्रमोदते यत् किं च
भूम्यामधि ।।४।।
जब प्राण अर्थात् सूर्यात्मक देव
वर्षा ऋतु आने पर फसलों को लक्ष्य कर के गर्जन करते हैं,
तब भूमि पर जितने भी प्राणी हैं, वे सब
प्रसन्न होते हैं।
यदा प्राणो अभ्यवर्षीद् वर्षेण
पृथिवीं महीम् ।
पशवस्तत् प्र मोदन्ते महो वै नो
भविष्यति ।।५।।
जिस समय प्राण अर्थात् सूर्य देव,
पृथ्वी को वर्षा के जल से सभी ओर गीला कर देते हैं, उस समय गाय आदि पशु प्रसन्न होते हैं कि घास की अधिकता से हमारे लिए उत्सव
होगा।
अभिवृष्टा ओषधयः प्राणेन समवादिरन् ।
आयुर्वैः न प्रातीतरः सर्वा नः
सुरभीरकः ।।६।।
प्राण अर्थात् सूर्य देव के द्वारा
वर्षा के जल से सींची गई फसलें और जड़ीबूटियां सूर्य से संभाषण करने लगती हैं-
"हे प्राण अर्थात् सूर्य देव! तुम हमारा जीवन बढ़ाओ तथा हमें शोभन गंध वाली
बनाओ।"
नमस्ते अस्त्वायते नमो अस्तु परायते
।
नमस्ते प्राण तिष्ठत आसीनायोत ते
नमः ।।७ ।।
प्राण देव! तुझ आते हुए को नमस्कार
है और वापस जाते हुए को नमस्कार है। हे प्राण देव! तुझ स्थिर रहने वाले को तथा
बैठे हुए को नमस्कार है।
नमस्ते प्राण प्राणते नमो
अस्त्वपानते ।
पराचीनाय ते नमः प्रतीचीनाय ते नमः
सर्वस्मै त इंद नमः ।।८।।
हे प्राण देव! सांस लेने का व्यापार
करने वाले तुम्हें नमस्कार है तथा अपान वायु छोड़ने वाले तुम्हें नमस्कार है। अधिक
कहने से क्या लाभ है, समस्त व्यापार
अर्थात् क्रियाएं करने वाले तुम्हें नमस्कार है।
या ते प्राण प्रिया तनूर्यो ते
प्राण प्रेयसी ।
अथ यद् भेषजं तव तस्य नो धेहि जीवसे
।।९।।
हे प्राण देव! तुम्हारा प्रिय जो
शरीर है एवं प्राण, अपान अर्थात् अग्नि
और सोम रूपी तुम्हारी जो दो प्रियाएं हैं तथा जो तुम्हारी अमरता प्रदान करने वाली
ओषधि है, इन सब से हमें जीवन के अमृत का साधन ओषधि प्रदान
करो।
प्राणः प्रजा अनु वस्ते पिता
पुत्रमिव प्रियम् ।
प्राणो ह सर्वस्येश्वरो यच्च
प्राणति यच्च न ।।१०।।
हे प्राण देव! समस्त प्रजाओं के
शरीर में तुम इस प्रकार निवास करते हो, जिस
प्रकार पिता अपने वस्त्र से प्रिय पुत्र को ढकता है। प्राण उन सब के स्वामी हैं,
जो सांस लेते हैं अथवा सांस नहीं लेते हैं।
प्राणो मृत्युः प्राणस्तक्मा प्राणं
देवा उपासते ।
प्राणो ह सत्यवादिनमुत्तमे लोक आ
दधत् ।।११।।
ये प्राण देव ही मृत्यु करने वाले
हैं एवं यही जीवन को कष्टमय बनाने वाले ज्वर हैं। शरीर के मध्य में वर्तमान इन्हीं
प्राण की देवगण उपासना करते हैं।
प्राणो विराट् प्राणो देष्ट्री
प्राणं सर्व उपासते ।
प्राणो ह सूर्यश्चन्द्रमाः
प्राणमाहुः प्रजापतिम् ।।१२।।
प्राण अर्थात् स्थूल प्रपंच का
अभिमानी देवता ईश्वर प्राण है तथा अपने अपने व्यापारों में सब को प्रेरित करने
वाला परम देवता प्राण है। अपने मनचाहे फल को पाने के लिए सभी प्राण की उपासना करते
हैं। प्राण सूर्य और चंद्रमा है तथा प्राण को ही ज्ञानीजन सब की रचना करने वाला
प्रजापति कहते हैं।
प्राणापानौ व्रीहियवावनड्वान् प्राण
उच्यते ।
यवे ह प्राण आहितो ऽ पानो
व्रीहिरुच्यते ।।१३।।
प्राण और अपान प्रधान प्राण की
विशेष वृत्तियां हैं। प्राण ही गेहूं, जौ
तथा अपान बैल कहे जाते हैं। प्राण वायु जौ में आश्रित है तथा अपान वायु को ही
गेहूं कहा जाता है।
अपानति प्राणति पुरुषो गर्भे अन्तरा
।
यदा त्वं प्राण जिन्वस्यथ स जायते
पुनः ।।१४।।
पुरुष स्त्री के गर्भाशय के मध्य
सांस लेता और अपान वायु छोड़ता है। हे प्राण ! जब तुम गर्भस्थ भ्रूण को पुष्ट करते
हो,
तब वह जन्म लेता है।
प्राणमाहुर्मातरिश्वानं वातो ह
प्राण उच्यते ।
प्राणे ह भूतं भव्यं च प्राणे सर्वं
प्रतिष्ठितम् ।।१५।।
प्राण को मातरिश्वा अंतरिक्ष का
स्वामी वायु कहा जाता है। उसी वायु को प्राण कहा जाता है। उन दोनों में केवल नाम
का भेद है। जगत् के आधार बने हुए उस प्राण में भूतकाल से संबंधित और भविष्य काल
में उत्पन्न होने वाला जगत् आश्रित रहता है। इस प्रकार प्राणों में ही सब
प्रतिष्ठित हैं।
आथर्वणीराङ्गिरसीर्देवीर्मनुष्यजा
उत ।
ओषधयः प्रजायन्ते यदा त्वं प्राण
जिन्वसि ।।१६।।
अथर्वा महर्षि द्वारा,
अंगिरा महर्षि द्वारा, देवों द्वारा तथा
मनुष्यों द्वारा उत्पन्न अनेक प्रकार की जड़ीबूटियों और फसलों को हे प्राण! तुम ही
वर्षा का जल प्रदान कर के प्रसन्न करते हो।
यदा प्राणो अभ्यवर्षीद् वर्षेण
पृथिवीं महीम् ।
ओषधयः प्रजायन्तेऽथो याः काश्च
वीरुधः ।।१७।।
प्राण जब वर्षा के रूप में विशाल
पृथ्वी पर जल गिराता है, तभी जड़ीबूटियां, फसलें और जो भी वृक्ष हैं, वे सब उत्पन्न होते हैं।
यस्ते प्राणेदं वेद यस्मिंश्चासि
प्रतिष्ठितः ।
सर्वे तस्मै बलिं हरानमुष्मिंल्लोक
उत्तमे ।।१८।।
प्राण! यह कहा हुआ तुम्हारा माहात्म्य
जो जानता है एवं जिस विद्वान् में तुम प्रतिष्ठित रहते हो,
उसके लिए सभी देव स्वर्ग में अमृतमय भाग प्रस्तुत करते हैं।
यथा प्राण बलिहृतस्तुभ्यं सर्वाः
प्रजा इमाः ।
एवा तस्मै बलिं हरान् यस्त्वा
शृणवत् सुश्रवः ।।१९।।
हे प्राण! जिस प्रकार ये सभी
प्रजाएं तुम्हारे लिए बलि प्रस्तुत करें। हे सुनने वाले प्राण ! जो तुम्हारा
माहात्म्य सुनता है, उसके लिए भी सब बलि
प्रस्तुत कर देते हैं।
अन्तर्गर्भश्चरति देवतास्वाभूतो
भूतः स उ जायते पुनः ।
स भूतो भव्यं भविष्यत् पिता पुत्रं
प्रविवेशा शचीभिः ।।२०।।
प्राण गर्भ होकर देवताओं में विचरण
करता है,
वही भलीभांति व्याप्त होकर मनुष्य आदि के शरीर के रूप में पुनः
उत्पन्न होता है। नित्य वर्तमान वह प्राण भूतकाल की वस्तुओं में तथा भविष्य काल की
वस्तुओं के रूप में उत्पन्न होता है। वही अपनी शक्तियों से पिता और पुत्र में
प्रवेश करता है।
एकं पादं नोत्खिदति सलिलाद्धंस
उच्चरन् ।
यदङ्ग स तमुत्खिदेन्नैवाद्य
न श्वः स्यान्न रात्री नाहः स्यान्न
व्युच्छेत् कदा चन ।।२१।।
हंस अर्थात् जगत् के प्राण बने हुए
सूर्य जल से उदित होते हुए अपने एक चरण अर्थात् भाग को जल से ऊपर नहीं उठाते हैं।
यदि वे अपने दूसरे चरण को भी ऊपर उठा लें तो काल विभाजन नहीं हो सकेगा। तब वे कहीं
न जा सकेंगे और न दिन और रात हो सकेंगे।
अष्टाचक्रं वर्तत एकनेमि
सहस्राक्षरं प्र पुरो नि पश्चा ।
अर्धेन विश्वं भुवनं जजान
यदस्यार्धं कतमः स केतु: ।।२२।।
त्वचा,
रक्त आदि आठ धातुएं शरीर का निर्माण करती हैं। उन्हीं का यहां रथ के
पहियों के रूप में निरूपण है- यह शरीर आठ पहियों वाला रथ है। प्राण ही इसकी
एकमात्र धुरी है। लोक में रथ के पहिए धुरी को घेरे रहते हैं। प्राण रूपी धुरी एक
पहिए से निकल कर दूसरे में प्रवेश करती है। वह प्राण अपने एक अंश से सारे
प्राणियों में प्रवेश करके आत्मा के रूप में उत्पन्न होता है। उसका दूसरा भाग
असीमित ब्रह्म का झंडा अर्थात् ब्रह्मांड बन जाता है।
यो अस्य विश्वजन्मन ईशे विश्वस्य
चेष्टतः ।
अन्येषु क्षिप्रधन्वने तस्मै प्राण
नमोऽस्तु ते ।।२३।।
जो प्राण नाना रूपों को जन्म देने
वाला है,
जो इस संसार का स्वामी है तथा नाना प्राणियों के शरीरों में व्याप्त
है, उस तीव्रता से व्याप्त होने वाले हे प्राण! तुम्हारे लिए
नमस्कार है।
यो अस्य सर्वजन्मन ईशे सर्वस्य
चेष्टतः ।
अन्द्रो ब्रह्मणा धीरः प्राणो मानु
तिष्ठतु ।।२४।।
वह जगदीश्वर प्राण आलस्य रहित सदा
सूर्य के रूप में विचरण करने वाला, ज्ञानवान
एवं सर्वव्यापक होने के कारण मेरा अनुवर्तन करे।
ऊर्ध्वः सुप्तेषु जागार ननु
तिर्यङ्ग नि पद्यते ।
न सुप्तमस्य सुप्तेष्वनु शुश्राव
कश्चन ।।२५।।
प्राण! तुम ऊर्ध्वगामी होकर निद्रा
परवश प्राणियों में जागते रहो। सोने वाला प्राणी निद्रा के वशीभूत हो जाता है।
इसलिए उसकी रक्षा हेतु तुम जाग्रत रहो। ऐसा किसी ने नहीं सुना है कि मनुष्य के
निद्रा पर वश होने पर उसका प्राण भी सो गया हो।
प्राण मा मत् पर्यावृतो न मदन्यो
भविष्यसि ।
अपां गर्भमिव जीवसे प्राण बध्नामि
त्वा मयि ।।२६।।
हे प्राण! आप मुझसे न तो विमुख हों
तथा न मुझे त्याग कर अन्यत्र जाएं। जल जिस प्रकार वाडवाग्नि को धारण करते हैं,
उसी प्रकार हम अपनी देह में आपको धारण करते हैं।
इति: प्राणसूक्तम्॥
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