अग्निपुराण अध्याय १६९

अग्निपुराण अध्याय १६९             

अग्निपुराण अध्याय १६९ में ब्रह्महत्या आदि विविध पापों के प्रायश्चित्त का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १६९

अग्निपुराणम् एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 169               

अग्निपुराण एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः १६९         

अग्निपुराणम् अध्यायः १६९ – प्रायश्चित्तानि

अथैकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

पुष्कर उवाच

एतत्प्रभृतिपापानां प्रायश्चित्तं वदामि ते ।

ब्रह्महा द्वादशाब्दानि कुटीङ्कृत्वा वने वसेत् ॥०१॥

भिक्षेतात्मविशुद्ध्यर्थं कृत्वा शवशिरोध्वजं ।

प्रास्येदात्मानमग्नौ वा समिद्धे त्रिरवाक्शिराः ॥०२॥

यजेत वाश्वमेधेन स्वर्जिता गोसवेन वा ।

जपन्वान्यतमं वेदं योजनानां शतं ब्रजेत् ॥०३॥

सर्वस्वं वा वेदविदे ब्राह्मणायोपपादयेत् ।

व्रतैरेतैर्व्यपोहन्ति महापातकिनो मलं ॥०४॥

पुष्कर कहते हैं- अब मैं आपको इन सब पापों का प्रायश्चित्त बतलाता हूँ। ब्रह्महत्या करनेवाला अपनी शुद्धि के लिये भिक्षा का अन्न भोजन करते हुए एवं मृतक के सिर की ध्वजा धारण करके, वन में कुटी बनाकर, बारह वर्षतक निवास करे । अथवा नीचे मुख करके धधकती हुई आग में तीन बार गिरे। अथवा अश्वमेधयज्ञ या स्वर्ग पर विजय प्राप्त करानेवाले गोमेध यज्ञ का अनुष्ठान करे। अथवा किसी एक वेद का पाठ करता हुआ सौ योजनतक जाय या अपना सर्वस्व वेदवेत्ता ब्राह्मण को दान कर दे। महापातकी मनुष्य इन व्रतों से अपना पाप नष्ट कर डालते हैं ॥ १-४ ॥

उपपातकसंयुक्तो गोघ्नो मासं यवान् पिवेत् ।

कृतवापो वसेद्गोष्ठे चर्मणा तेन संवृतः ॥०५॥

चतुर्थकालमश्रीयादक्षारलवणं मितं ।

गोमूत्रेण चरेत्स्नानं द्वौ मासौ नियतेन्द्रियः ॥०६॥

दिवानुगच्छेद्गाश्चैव तिष्ठन्नूर्ध्वं रजः पिवेत् ।

वृषभैकादशा गास्तु दद्याद्विचारितव्रतः ॥०७॥

अविद्यमाने सर्वस्वं वेदविद्भ्यो निवेदयेत् ।

पादमेकञ्चरेद्रोधे द्वौ पादौ बन्धने चरेत् ॥०८॥

योजने पादहीनं स्याच्चरेत्सर्वं निपातने ।

कान्तारेष्वथ दुर्गेषु विषमेषु भयेषु च ॥०९॥

यदि तत्र विपत्तिः स्यादेकपादो विधीयते ।

घण्टाभरणदोषेण तथैवर्धं विनिर्दिशत् ॥१०॥

दमने दमने रोधे शकटस्य नियोजने ।

स्तम्भशृङ्खलपाशेषु मृते पादोनमाचरेत् ॥११॥

शृङ्गभङ्गेऽस्थिभङ्गे च लाङ्गूलच्छेदने तथा ।

यावकन्तु पिवेत्तावद्यावत्सुस्था तु गौर्भवेत् ॥१२॥

गोमतीञ्च जपेद्विद्यां गोस्तुतिं गोमतीं स्मरेत् ।

एका चेद्बहुभिर्दैवाद्यत्र व्यापादिता भवेत् ॥१३॥

पादं पादन्तु हत्यायाश्चरेयुस्ते पृथक्पृथक् ।

उपकारे क्रियमाणे विपत्तौ नास्ति पातकं ॥१४॥

गोवध करनेवाला एवं उपपातकी एक मासतक यवपान करके रहे। वह सिर का मुण्डन कराकर उस गौ का चर्म ओढ़े हुए गोशाला में निवास करे। दिन के चतुर्थ प्रहर में लवणहीन अन्न का नियमित भोजन करे। फिर दो महीनों तक इन्द्रियों को वश में करके नित्य गोमूत्र से स्नान करे। दिन में गौओं के पीछे-पीछे चले और खड़े होकर उनके खुरों से उड़ती हुई धूलि का पान करे। व्रत का पूर्णरूप से अनुष्ठान करके एक बैल के साथ दस गौओं का दान करे। यदि इतना न दे सके तो वेदवेत्ता ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर दे। यदि रोकने से गौ मर जाय तो एक चौथाई प्रायश्चित्त, बाँधने के कारण मर जाय तो आधा प्रायश्चित्त, जोतने के कारण मर जाय तो तीन पाद प्रायश्चित्त और मारने पर मर जाय तो पूरा प्रायश्चित्त करना चाहिये। वन, दुर्गम स्थान, ऊबड़-खाबड़ भूमि और भयप्रद स्थान में गौ की मृत्यु हो जाय तो चौथाई प्रायश्चित्त का विधान है। आभूषण के लिये गले में घण्टा बाँधने से गौ की मृत्यु हो तो आधा प्रायश्चित्त करे। दमन करने, बाँधने, रोकने, गाड़ी में जोतने, खूंटे, रस्सी अथवा फंदे में बाँधने पर यदि गौ की मृत्यु हो जाय तो तीन चरण प्रायश्चित्त करे। यदि गौ का सींग अथवा हड्डी टूट जाय या पूँछ कट जाय तो जबतक गौ स्वस्थ न हो जाय, तबतक जौ की लप्सी खाकर रहे और गोमती विद्या का जप करे, गौ की स्तुति एवं गोमती का स्मरण करे। यदि बहुत-से मनुष्यों के द्वारा एक गौ मारी जाय तो वे सब लोग अलग-अलग गोहत्या का एक-एक पाद प्रायश्चित्त करें। उपकार करते हुए यदि गौ मर जाय तो पाप नहीं लगता है ॥५- १४ ॥

एतदेव व्रतं कुर्युरुपपातकिनस्तथा ।

अवकीर्णवर्जं शुद्ध्यर्थञ्चान्द्रायणमथापि वा ॥१५॥

अवकीर्णी तु कालेन गर्धभेन चतुष्पथे ।

पाकयज्ञविधानेन यजेत निर्ऋतिं निशि ॥१६॥

कृत्वाग्निं विधिवद्धीमानन्ततस्तु समित्तृचा ।

चन्द्रेन्द्रगुरुवह्नीनां जुहुयात्सर्पिषाहुतिं ॥१७॥

अथवा गार्धभञ्चर्म वसित्वाब्दञ्चरेन्महीं ।

उपपातक करनेवालों को भी इसी व्रत का आचरण करना चाहिये। 'अवकीर्णी'* को अपनी शुद्धि के लिये चान्द्रायण व्रत करना चाहिये। अथवा अवकीर्णी रात के समय चौराहे पर जाकर पाकयज्ञ के विधान से निर्ऋति के उद्देश्य से काले गदहे का पूजन करे। तदनन्तर वह बुद्धिमान् ब्रह्मचारी अग्नि-संचयन करके अन्त में 'समासिञ्चन्तु मरुतः - इस ऋचा से चन्द्रमा, इन्द्र, बृहस्पति और अग्नि के उद्देश्य से घृत की आहुति दे अथवा गर्दभ का चर्म धारण करके एक वर्षतक पृथ्वी पर विचरण करे ।। १५- १७अ ॥

* कामतो रेतसः सेकं व्रतस्थस्य द्विजन्मनः ।

अतिक्रमं व्रतस्याहुर्धर्मज्ञा ब्रह्मवादिनः ॥ (मनु० ११ । १२१)

'ब्रह्मचारि व्रत में स्थित द्विज का इच्छापूर्वक किसी स्त्री में वीर्यपात करना धर्म को जाननेवाले ब्रह्मवादियों द्वारा व्रत का अतिक्रमण बताया गया है। ऐसा करनेवाले ब्रह्मचारी को हो 'अवकीर्णी' कहते हैं।'

हत्वा गर्भमविज्ञातं ब्रह्महत्याव्रतं चरेत् ॥१८॥

सरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवर्णां सुरां पिवेत् ।

गोमूत्रमग्निवर्णं वा पिवेदुदकमेव वा ॥१९॥

सुवर्णस्तेयकृद्विप्रो राजानमभिगम्य तु ।

स्वकर्म ख्यापयन् व्रूयान्मां भवाननुशास्त्विति ॥२०॥

गृहीत्वा मुशलं राजा सकृद्धन्यात्स्वयङ्गतं ।

बधेन शुद्ध्यते स्तेयो ब्राह्मणस्तपसैव वा ॥२१॥

गुरुतल्पो निकृत्यैव शिश्नञ्च वृषणं स्वयं ।

निधाय चाञ्चलौ गच्छेदानिपाताच्च नैर्ऋतिं ॥२२॥

चान्द्रायणान् वा त्रीन्मासानभ्यसेन्नियतेन्द्रियः ।

जातिभ्रंशकरं कर्म कृत्वान्यतममिच्छया ॥२३॥

चरेच्छान्तपनं कृच्छ्रं प्राजापत्यमनिच्छया ।

सङ्करीपात्रकृत्यासु मासं शोधनमैन्दवं ॥२४॥

मलिनीकरणीयेषु तप्तं स्याद्यावकं त्र्यहं ।

तुरीयो ब्रह्महत्यायाः क्षत्रियस्य बधे स्मृतः ॥२५॥

वैश्येऽष्टमांशे वृत्तस्थे शूद्रे ज्ञेयस्तु षोडशः ।

मार्जरनकुलौ हत्वा चासं मण्डूकमेव च ॥२६॥

श्वगोधोलूककाकांश्च शूद्रहत्याव्रतं चरेत् ।

चतुर्णामपि वर्णानां नारीं हत्वानवस्थितां ॥२७॥

अमत्यैव प्रमाप्य स्त्रीं शूद्रहत्याव्रतं चरेत् ।

सर्पादीनां बधे नक्तमनस्थ्नां वायुसंयमः ॥२८॥

अज्ञान से भ्रूण हत्या करने पर ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त करे। मोहवश सुरापान करनेवाला द्विज अग्नि के समान जलती हुई सुरा का पान करे। अथवा तपाकर अग्नि के समान रंगवाले गोमूत्र या जल का पान करे। सुवर्ण की चोरी करनेवाला ब्राह्मण राजा के पास जाकर अपने चौर्य-कर्म के विषय में बतलाता हुआ कहे- 'आप मुझे दण्ड दीजिये।' तब राजा मूसल लेकर अपने-आप आये हुए उस ब्राह्मण को एक बार मारे। इस प्रकार वध होने से अथवा तपस्या करने से सुवर्ण की चोरी करनेवाले ब्राह्मण की शुद्धि होती है। गुरु- पत्नी-गमन करनेवाला स्वयं अपने लिङ्ग और अण्डकोष को काटकर उसे अञ्जलि में ले, मरनेतक नैर्ऋत्यकोण की ओर चलता जाय। अथवा इन्द्रियों को संयम में रखकर तीन मासतक चान्द्रायण' व्रत करे। जान-बूझकर कोई सा भी जाति-भ्रंशकर पातक करके सांतपनकृच्छ्र' और अज्ञानवश हो जाने पर 'प्राजापत्यकृच्छ्र' करे। संकरीकरण अथवा अपात्रीकरण पातक करने पर एक मासतक चान्द्रायणव्रत करने से शुद्धि होती है। मलिनीकरण पातक होने पर तीन दिनतक तप्तयावक का पान करे। क्षत्रिय का वध करने पर ब्रह्महत्या का चौथाई प्रायश्चित्त विहित है। वैश्य का वध करने पर अष्टमांश, सदाचारी शूद्र का वध करने पर षोडशांश प्रायश्चित्त करे। बिल्ली, नेवला, नीलकण्ठ, मेढक, कुत्ता, गोह, उलूक, काक अथवा चारों में से किसी वर्ण की स्त्री की हत्या होने पर शूद्रहत्या का प्रायश्चित्त करे। स्त्री की अज्ञानवश हत्या करके भी शूद्रहत्या का प्रायश्चित्त करे। सर्पादि का वध होने पर 'नक्तव्रत' और अस्थिहीन जीवों की हत्या होने पर 'प्राणायाम' करे ॥ १८-२८ ॥

द्रव्याणामल्पसाराणां स्तेयं कृत्वान्यवेश्मतः ।

चरेच्छान्तपनं कृच्छं व्रतं निर्वाप्य सिद्ध्यति ॥२९॥

भक्षभोज्यापहरणे यानशय्यासनस्य च ।

पुष्पमूलफलानाञ्च पञ्चगव्यं विशोधनं ॥३०॥

तृणकाष्ठद्रुमाणान्तु शुष्कान्नस्य गुडस्य च ।

चेलचर्मामिषाणान्तु त्रिरात्रं स्यादभोजनं ॥३१॥

मणिमुक्ताप्रवालानां ताम्रस्य रजतस्य च ।

अयःकांस्योपलानाञ्च द्वादशाहं कणान्नभुक् ॥३२॥

कार्पासकीटजीर्णानां द्विशफैकशफस्य च ।

पक्षिगन्धौषधीनान्तु रज्वा चैव त्र्यहम्पयः ॥३३॥

दूसरे के घर से अल्पमूल्यवाली वस्तु की चोरी करके 'सांतपनकृच्छ्र' करे। व्रत के पूर्ण होने पर शुद्धि होती है। भक्ष्य और भोज्य वस्तु, यान, शय्या, आसन, पुष्प, मूल और फलों की चोरी में पञ्चगव्य के पान से शुद्धि होती है। तृण, काष्ठ, वृक्ष, सूखे अनाज, गुड़, वस्त्र, चर्म और मांस की चोरी करने पर तीन दिनतक भोजन का परित्याग करे। मणि, मोती, मूँगा, ताँबा, चाँदी, लोहा, काँसा अथवा पत्थर की चोरी करनेवाला बारह दिनतक अन्न का कणमात्र खाकर रहे। कपास, रेशम, ऊन तथा दो खुरवाले बैल आदि एक खुरवाले घोड़े आदि पशु, पक्षी, सुगन्धित द्रव्य, औषध अथवा रस्सी चुरानेवाला तीन दिनतक दूध पीकर रहे ॥ २९-३३ ॥

गुरुतल्पव्रतं कुर्याद्रेतः सिक्त्वा स्वयोनिषु ।

सख्युः पुत्रस्य च स्त्रीषु कुमारोष्वन्त्यजासु च ॥३४॥

पितृस्वस्रेयीं भगिनीं स्वस्रीयां मातुरेव च ।

मातुश्च भ्रातुराप्तस्य गत्वा चान्द्रायणञ्चरेत् ॥३५॥

अमानुषीषु पुरुष उदक्यायामयोनिषु ।

रेतः सिक्त्वा जले चैव कृच्छ्रं शान्तपनञ्चरेत् ॥३६॥

मैथुनन्तु समासेव्य पुंसि योषिति वा द्विजः ।

गोयानेऽप्सु दिवा चैव सवासाः स्नानमाचरेत् ॥३७॥

चण्डालान्त्यस्त्रियो गत्वा भुक्त्वा च प्रतिगृह्य च ।

पतत्यज्ञानतो विप्रो ज्ञानात्साम्यन्तु गच्छति ॥३८॥

विप्रदुष्टां स्त्रियं भर्ता निरुन्ध्यादेकवेश्मनि ।

यत्पुंसः परदारेषु तदेनाञ्चारयेद्व्रतं ॥३९॥

साचेत्पुनः प्रदुष्येत सदृशेनोपमन्त्रिता ।

कृच्छ्रञ्चाद्रायणञ्चैव तदस्याः पावनं स्मृतं ॥४०॥

यत्करोत्येकरात्रेण वृषलीसेवनं द्विजः ।

तद्भैक्ष्यभुक्जपेन्नित्यं त्रिभिर्वषैर्व्यपोहति ॥४१॥

मित्रपत्नी, पुत्रवधू, कुमारी और चाण्डाली में वीर्यपात करके गुरुपत्नीगमन का प्रायश्चित्त करे। फुफेरी बहन, मौसेरी बहन और सगी ममेरी बहन से गमन करनेवाला चान्द्रायण व्रत करे। मनुष्येतर योनि में, रजस्वला स्त्री में, योनि के सिवा अन्य स्थान में अथवा जल में वीर्यपात करनेवाला मनुष्य 'कृच्छ्रसांतपन - व्रत' करे। पुरुष अथवा स्त्री के साथ बैलगाड़ी पर, जल में या दिन के समय मैथुन करके ब्राह्मण वस्त्रोंसहित स्नान करे। चाण्डाल और अन्त्यज जाति की स्त्रियों से अज्ञानवश समागम करके, उनका अन्न खाकर या उनका प्रतिग्रह स्वीकार करके ब्राह्मण पतित हो जाता हैं। जान-बूझकर ऐसा करने से वह उन्हीं के समान हो जाता है। व्यभिचारिणी स्त्री का पति उसे एक घर में बंद करके रखे और परस्त्रीगामी पुरुष के लिये जो प्रायश्चित्त विहित है, वह उससे करावे। यदि वह स्त्री अपने समान जातिवाले पुरुष के द्वारा पुनः दूषित हो तो उसकी शुद्धि 'कृच्छ्र' और 'चान्द्रायण व्रत से बतलायी गयी है। जो ब्राह्मण एक रात वृषली का सेवन करता है, वह तीन वर्षतक नित्य भिक्षान्न का भोजन और गायत्री जप करने पर शुद्ध होता है ।। ३४-४१ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे प्रायश्चित्तानि नाम एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'प्रायश्चित्तों का वर्णन' नामक एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६९॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 170 

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