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अथाष्टषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
दण्डं कुर्यान्नृपो नॄणां
प्रायश्चित्तमकुर्वतां ।
कामतोऽकामतो वापि प्रायश्चित्तं
कृतं चरेत् ॥१॥
मत्तक्रुद्धातुराणां च न भुञ्जीत
कदाचन ।
महापातकिनां स्पृष्टं यच्च
स्पृष्टमुदक्यया ॥२॥
गणान्नं गणिकान्नं च
वार्धुषेर्गायनस्य च ।
अभिशप्तस्य षण्डस्य
यस्याश्चोपपतिर्गृहे ॥३॥
रजकस्य नृशंसस्य वन्दिनः कितवस्य च
।
मिथ्यातपस्विनश्चैव
चौरदण्डिकयोस्तथा ॥४॥
कुण्डगोलस्त्रीजितानां
वेदविक्रयिणस्तथा ।
शैलूषतन्त्रवायान्नं
कृतघ्नस्यान्नमेव च ॥५॥
कर्मारस्य निषादस्य चेलनिर्णेजकस्य
च ।
मिथ्याप्रव्रजितस्यान्नम्पुंश्चल्यास्तैलिकस्य
च ॥६॥
आरूढपतितस्यान्नं विद्विष्टान्नं च
वर्जयेत् ।
तथैव ब्राह्मणस्यान्नं
ब्राह्मणेनानिमन्त्रितः ॥७॥
ब्राह्मणान्नञ्च शूद्रेण
नाद्याच्चैव निमन्त्रितः ।
एषामन्यतमस्यान्नममत्या वा त्र्यहं
क्षपेत् ॥८॥
मत्या भुक्त्वा चरेत्कृच्छ्रं
रेतोविण्मूत्रमेव च ।
चण्डालश्वपचान्नन्तु भुक्त्वा
चान्द्रायणं चरेत् ॥९॥
अनिर्दिशं च प्रेतान्नं गवाघ्रातं
तथैव च ।
शूद्रोच्छिष्टं शुनोच्छिष्टं
पतितान्नं तथैव च ॥१०॥
तप्तकृच्छ्रं प्रकुर्वीत अशौचे
कृच्छ्रमाचरेत् ।
अशौचे यस्य यो भुङ्क्ते
सोप्यशुद्धस्तथा भवेत् ॥११॥
मृतपञ्चनखात्कूपादमेध्येन
सकृद्युतात् ।
अपः पीत्वा त्र्यहं तिष्ठेत्सोपवासो
द्विजोत्तमः ॥१२॥
सर्वत्र शूद्रे पादः
स्याद्द्वित्रयं वैश्यभूपयोः ।
विड्वराहखरोष्ट्राणां गोमायोः
कपिकाकयोः ॥१३॥
प्राश्य मूत्रपुरीषाणि द्विजश्चान्द्रायणं
चरेत् ।
शुष्काणि जग्ध्वा मांसानि
प्रेतान्नं करकाणि च ॥१४॥
क्रव्यादशूकरोष्ट्राणां गोमायोः
कपिकाकयोः ।
गोनराश्वखरोष्ट्राणां छत्राकं
ग्रामकुक्कुटं ॥१५॥
मांसं जग्ध्वा कुञ्जरस्य
तप्तकृच्छ्रेण शुद्ध्यति ।
आमश्राद्धे तथा भुक्त्वा ब्रह्मचारी
मधु त्वदन् ॥१६॥
लशुनं गुञ्जनं
चाद्यात्प्राजापत्यादिना शुचिः ।
भुक्त्वा चान्द्रायणं
कुर्यान्मांसञ्चात्मकृतन्तथा ॥१७॥
पेलुगव्यञ्च पेयूषं तथा श्लेष्मातकं
मृदं ।
वृथाकृशरसंयावपायसापूपशष्कुलीः ॥१८॥
अनुपाकृटमांसानि देवान्नानि हवींषि
च ।
गवाञ्च महिषीणां च वर्जयित्वा
तथाप्यजां ॥१९॥
सर्वक्षीराणि वर्ज्याणि
तासाञ्चैवाप्यन्निर्दशं ।
शशकः शल्यकी गोधा खड्गः कूर्मस्तथैव
च ॥२०॥
भक्ष्याः पञ्चनखाः प्रोक्ताः
परिशेषाश्च वर्जिताः ।
पाठीनरोहितान्मत्स्यान्
सिंहतुण्डांश्च भक्षयेत् ॥२१॥
यवगोधूमजं सर्वं पयसश्चैव विक्रियाः
।
वागषाड्गवचक्रादीन् सस्नेहमुषितं
तथा ॥२२॥
अग्निहोत्रपरीद्धाग्निर्ब्राह्मणः
कामचारतः ।
चान्द्रायणं चरेन्मासं वीरवध्वासनं
हितं ॥२३॥
पुष्कर कहते हैं- जो मनुष्य पापों का
प्रायश्चित्त न करें, राजा उन्हें दण्ड
दे। मनुष्य को अपने पापों का इच्छा से अथवा अनिच्छा से भी प्रायश्चित्त करना
चाहिये। उन्मत्त, क्रोधी और दुःख से आतुर मनुष्य का अन्न कभी
भोजन नहीं करना चाहिये। जिस अन्न का महापातकी ने स्पर्श कर लिया हो, जो रजस्वला स्त्री द्वारा छूआ गया हो, उस अन्न का भी
परित्याग कर देना चाहिये। ज्यौतिषी, गणिका, अधिक मुनाफा करनेवाले ब्राह्मण और क्षत्रिय, गायक,
अभिशप्त, नपुंसक, घर में
उपपति को रखनेवाली स्त्री, धोबी, नृशंस,
भाट, जुआरी, तप का
आडम्बर करनेवाले, चोर, जल्लाद, कुण्डगोलक, स्त्रियों द्वारा पराजित, वेदों का विक्रय करनेवाले, नट, जुलाहे, कृतघ्न, लोहार,
निषाद, रंगरेज, ढोंगी
संन्यासी, कुलटा स्त्री, तेली, आरूढ पतित और शत्रु के अन्न का सदैव परित्याग करे। इसी प्रकार ब्राह्मण के
बिना बुलाये ब्राह्मण का अन्न भोजन न करे। शूद्र को तो निमन्त्रित होने पर भी
ब्राह्मण के अन्न का भोजन नहीं करना चाहिये । इनमें से बिना जाने किसी का अन्न
खाने पर तीन दिनतक उपवास करे। जान-बूझकर खा लेने पर 'कृच्छ्रव्रत'
करे। वीर्य, मल, मूत्र
तथा श्वपाक चाण्डाल का अन्न खाकर 'चान्द्रायणव्रत' करे। मृत व्यक्ति के उद्देश्य से प्रदत्त, गाय का
सूँघा हुआ, शूद्र अथवा कुत्ते के द्वारा उच्छिष्ट किया हुआ
तथा पतित का अन्न भक्षण करके 'तप्तकृच्छ्र' करे। किसी के यहाँ सूतक होने पर जो उसका अन्न खाता है, वह भी अशुद्ध हो जाता है। इसलिये अशौचयुक्त मनुष्य का अन्न भक्षण करने पर '
कृच्छ्रव्रत' करे। जिस कुएँ में पाँच नखोंवाला
पशु मरा पड़ा हो, जो एक बार अपवित्र वस्तु से युक्त हो चुका
हो, उसका जल पीने पर श्रेष्ठ ब्राह्मण को तीन दिन तक उपवास
रखना चाहिये। शूद्र को सभी प्रायश्चित्त एक चौथाई, वैश्य को
दो चौथाई और क्षत्रिय को तीन चौथाई करने चाहिये। ग्रामसूकर, गर्दभ,
उष्ट्र, श्रृंगाल, वानर
और काक-इनके मल-मूत्र का भक्षण करने पर ब्राह्मण चान्द्रायण- व्रत' करे। सूखा मांस, मृतक व्यक्ति के उद्देश्य से दिया
हुआ अन्न, करक तथा कच्चा मांस खानेवाले जीव, शूकर, उष्ट्र, श्रृंगाल,
वानर, काक, गौ, मनुष्य, अश्व, गर्दभ, छत्ता शाक, मुर्गे और हाथी का मांस खाने पर 'तप्तकृच्छ्र' से शुद्धि होती है। ब्रह्मचारी
अमाश्राद्ध में भोजन, मधुपान अथवा लहसुन और गाजर का भक्षण
करने पर 'प्राजापत्यकृच्छ्र' से पवित्र
होता है। अपने लिये पकाया हुआ मांस, पेलुगव्य (अण्डकोष का
मांस), पेयूष ( ब्यायी हुई गौ आदि पशुओं का सात दिन के अंदर का
दूध), श्लेष्मातक (बहुवार), मिट्टी एवं
दूषित खिचड़ी, लप्सी, खीर, पूआ और पूरी, यज्ञ सम्बन्धी संस्कार रहित मांस,
देवता के निमित्त रखा हुआ अन्न और हवि- इनका भक्षण करने पर 'चान्द्रायण व्रत' करने से शुद्धि होती है। गाय,
भैंस और बकरी के दूध के सिवा अन्य पशुओं के दुग्ध का परित्याग करना
चाहिये। इनके भी ब्याने के दस दिन के अंदर का दूध काम में नहीं लेना चाहिये।
अग्निहोत्र की प्रज्वलित अग्नि में हवन करनेवाला ब्राह्मण यदि स्वेच्छापूर्वक जौ
और गेहूँ से तैयार की हुई वस्तुओं, दूध के विकारों, वागषाड्गवचक्र आदि तथा तैल-घी आदि चिकने पदार्थों से संस्कृत बासी अन्न को
खा ले तो उसे एक मासतक 'चान्द्रायणव्रत' करना चाहिये; क्योंकि वह दोष वीरहत्या के समान माना
जाता है ॥ १-२३ ॥
ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं
गुर्वङ्गनागमः ।
महान्ति पातकान्याहुः संयोगश्चैव
तैः सह ॥२४॥
अनृते च समुत्कर्षो राजगामि च
पैशुनं ।
गुरोश्चालीकनिर्बन्धः समानं
ब्रह्महत्यया ॥२५॥
ब्रह्मोज्झ्यवेदनिन्दा च
कौटसाक्ष्यं सुहृद्बधः ।
गर्हितान्नाज्ययोर्जग्धिः
सुरापानसमानि षट् ॥२६॥
निक्षेपस्यापहरणं नराश्वरजतस्य च ।
भूमिवज्रमणीनाञ्च रुक्मस्तेयसमं
स्मृतं ॥२७॥
रेतःसेकः स्वयोन्याषु
कुमारीष्वन्त्यजासु च ।
सख्युः पुत्रस्य च स्त्रीषु
गुरुतल्पसमं विदुः ॥२८॥
गोबधोऽयाज्य संयाज्यं
पारदार्यात्मविक्रियः ।
गुरुमातृपितृत्यागः
स्वाध्ययाग्न्योः सुतस्य च ॥२९॥
परिवित्तितानुजेन परिवेदनमेव च ।
तयोर्दानञ्च कन्यायास्तयोरेव च
याजनं ॥३०॥
कन्याया दूषणञ्चैव वार्धुष्यं
व्रतलोपनं ।
तडागारामदाराणामपत्यस्य च विक्रियः
॥३१॥
व्रात्यता बान्धवत्यागो
भृताध्यापनमेव च ।
भृताच्चाध्ययनादानमविक्रेयस्य
विक्रयः ॥३२॥
सर्वाकारेष्वधीकारो
महायन्त्रप्रवर्तनं ।
हिंसौषधीनां स्त्र्याजीवः
क्रियालङ्गनमेव च ॥३३॥
इन्धनार्थमशुष्काणां दुमाणाञ्चैव
पातनं ।
योषितां ग्रहणञ्चैव
स्त्रीनिन्दकसमागमः ॥३४॥
आत्मार्थञ्च क्रियारम्भो
निन्दितान्नदनन्तथा ।
अनाहिताग्नितास्तेयमृणानाञ्चानपक्रिया
॥३५॥
असच्छास्त्राधिगमनं दौःशील्यं
व्यसनक्रिया ।
धान्यकुप्यपशुस्तेयं
मद्यपस्त्रीनिषेवणं ॥३६॥
स्त्रीशूद्रविट्क्षत्रबधो
नास्तिक्यञ्चोपपातकं ।
ब्राह्मणस्य रुजः कृत्यं घ्रातिरघ्रेयमद्ययोः
॥३७॥
जैंभं पुंसि च मैथुन्यं
जातिभ्रंशकरं स्मृतं ।
श्वखरोष्ट्रमृगेन्द्राणामजाव्योश्चैव
मारणं ॥३८॥
सङ्कीर्णकरणं ज्ञेयं मीनाहिनकुलस्य
च ।
निन्दितेभ्यो धनादानं बाणिज्यं
शूद्रसेवनं ॥३९॥
अपात्रीकरणं ज्ञेयमसत्यस्य च भाषणं
।
कृमिकीटवयोहत्या मद्यानुगतभोजनं
॥४०॥
फलैधःकुसुमस्तेयमधैर्यञ्च मलावहम्
॥४१॥
ब्रह्महत्या,
सुरापान, चोरी, गुरुतल्पगमन
– ये 'महापातक' कहे गये हैं। इन पापों के
करनेवाले मनुष्यों का संसर्ग भी 'महापातक' माना गया है। झूठ को बढ़ावा देना, राजा के समीप किसी
की चुगली करना, गुरु पर झूठा दोषारोपण - ये 'ब्रह्महत्या के समान हैं। अध्ययन किये हुए वेद का विस्मरण, वेदनिन्दा, झूठी गवाही, सुहका
वध, निन्दित अन्न एवं घृत का भक्षण - ये छः पाप सुरापान के
समान माने गये हैं। धरोहर का अपहरण, मनुष्य, घोड़े, चाँदी, भूमि और हीरे
आदि रत्नों की चोरी सुवर्ण की चोरी के समान मानी गयी है। सगोत्रा स्त्री, कुमारी कन्या, चाण्डाली, मित्रपत्नी
और पुत्रवधू – इनमें वीर्यपात करना 'गुरुपत्नीगमन'
के समान माना गया है। गोवध, अयोग्य व्यक्ति से
यज्ञ कराना, परस्त्रीगमन, अपने को
बेचना तथा गुरु, माता, पिता, पुत्र, स्वाध्याय एवं अग्नि का परित्याग, परिवेत्ता अथवा परिवित्ति होना—इन दोनों में से किसी
को कन्यादान करना और इनका यज्ञ कराना, कन्या को दूषित करना,
ब्याज से जीविका - निर्वाह, व्रतभङ्ग, सरोवर, उद्यान, स्त्री एवं
पुत्र को बेचना, समय पर यज्ञोपवीत ग्रहण न करना, बान्धवों का त्याग, वेतन लेकर अध्यापन कार्य करना,
वेतनभोगी गुरु से पढ़ना, न बेचनेयोग्य वस्तु को
बेचना, सुवर्ण आदि की खान का काम करना, विशाल यन्त्र चलाना, लता, गुल्म
आदि ओषधियों का नाश, स्त्रियों के द्वारा जीविका उपार्जित
करना, नित्य नैमित्तिक कर्म का उल्लङ्घन, लकड़ी के लिये हरे-भरे वृक्ष को काटना, अनेक
स्त्रियों का संग्रह, स्त्री- निन्दकों का संसर्ग, केवल अपने स्वार्थ के लिये सम्पूर्ण कर्मों का आरम्भ करना, निन्दित अन्न का भोजन, अग्निहोत्र का परित्याग,
देवता, ऋषि और पितरों का ऋण न चुकाना, असत् शास्त्रों को पढ़ना, दुःशीलपरायण होना, व्यसन में आसक्ति, धान्य, धातु
और पशुओं की चोरी, मद्यपान करनेवाली नारी से समागम, स्त्री, शूद्र, वैश्य अथवा
क्षत्रिय का वध करना एवं नास्तिकता – ये सब 'उपपातक' हैं। ब्राह्मण को प्रहार करके रोगी बनाना,
लहसुन और मद्य आदि को सूँघना, भिक्षा से निर्वाह
करना, गुदामैथुन - ये सब 'जाति-भ्रंशकर
पातक' बतलाये गये हैं। गर्दभ, घोड़ा,
ऊँट, मृग, हाथी, भेंड़, बकरी, मछली, सर्प और नेवला- इनमें से किसी का वध 'संकरीकरण'
कहलाता है। निन्दित मनुष्यों से धनग्रहण, वाणिज्यवृत्ति,
शूद्र की सेवा एवं असत्य- भाषण - ये 'अपात्रीकरण
पातक' माने जाते हैं। कृमि और कीटों का वध, मद्ययुक्त भोजन, फल, काष्ठ और
पुष्प की चोरी तथा धैर्य का परित्याग -ये 'मलिनीकरण पातक'
कहलाते हैं ॥२४-४१॥
इत्याग्नेये महापुराणे
महापातकादिकथनं नामाष्टषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'महापातक आदि का वर्णन' नामक एक सौ अड़सठवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥१६८॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 169
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