ध्रुवसूक्त
ध्रुव अर्थात् अटलसत्य अथवा स्थिर । इस सूक्त का पाठ जीवन में ठहराव या किसी कार्य में स्थिरता लाने अथवा किसी मूर्ति के प्राणप्रतिष्ठा के समय मूर्ति को स्थिर अर्थात् मूर्ति को पूर्ण चैतन्यता प्रदान करने के लिए किया जाता है । यहाँ २ ध्रुवसूक्त दिया जा रहा है। आप किसी १ अथवा दोनों का ही पाठ कर सकते हैं।
ध्रुवसूक्तम्
Dhruv suktam
ॐ ध्रुवासिध्रुवोयं
यजमानोस्मिन्नायतनेप्रजयापशुभिर्भूर्यात् ।
घृतेन द्यावा पृथिवी
पूर्येथामिन्द्रस्यच्छदिरसि विश्वजनस्यछाया ॥ १ ॥
ॐ
आत्वाहार्षमन्तरभूद्ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलिः ।
विशस्त्वा
सर्वार्वावाञ्छन्तुमात्वद्राष्टमधिभ्रशत् ॥ २ ॥
ॐ ध्रुवासिधरुणास्तृताविश्वकर्मणा ।
मात्वासमुद्राऽउद्वधीन्मा- सुपर्णोव्यथमानापृथिवीन्दृঌ ह ॥ ३ ॥
ध्रुव सूक्त
यह ध्रुवसूक्त ऋग्वेद के मण्डल १० सूक्त १७३ में श्लोक १-६ तथा सूक्त १७४ में श्लोक १-५ में वर्णित है।
ध्रुवसूक्तम्
आ त्वा॑हार्षम॒न्तरे॑धि
ध्रु॒वस्ति॒ष्ठावि॑चाचलिः ।
विश॑स्त्वा॒ सर्वा॑ वाञ्छन्तु॒ मा
त्वद्रा॒ष्ट्रमधि॑ भ्रशत् ॥१०.१७३.१॥
भावार्थ - (त्वा) हे राजन् ! मैं
पुरोहित राजसूययज्ञ में तुझे राष्ट्र के स्वामी होने के लिये राजसूयवेदी पर
(आहार्षम्) लाया हूँ-लाता हूँ (अन्तः-एधि) हमारे मध्य में स्वामी हो (ध्रुवः)
ध्रुव (अविचाचलिः-तिष्ठ) राजपद पर नियत-अविचलित हुआ प्रतिष्ठित हो (सर्वाः-विशः)
सारी प्रजाएँ (त्वा वाञ्छन्तु) तुझे चाहें चाहती हैं (त्वत्-राष्ट्रम्) तुझसे-तेरे
शासन से राष्ट्र (मा-भ्रशत्) नष्ट न हो ॥१॥
इ॒हैवैधि॒ माप॑ च्योष्ठा॒: पर्व॑त
इ॒वावि॑चाचलिः ।
इन्द्र॑ इवे॒ह ध्रु॒वस्ति॑ष्ठे॒ह
रा॒ष्ट्रमु॑ धारय ॥१०.१७३.२॥
भावार्थ -(इह-एव) इस राष्ट्र में ही
(एधि) स्वामी होकर हे राजन् ! वर्त्तमान हो (मा-अप च्योष्ठाः) तू राजपद से च्युत नहीं होगा (पर्वतः-इव) पर्वत के
समान (अविचाचलिः) अत्यन्त अविचलित हो (इन्द्रः-इव) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर के समान
(इह ध्रुवः तिष्ठ) यहाँ-इस राष्ट्र में स्थिर रह (इह राष्ट्रम्-उ धारय) इस
राजसूययज्ञ के अवसर पर प्रजाजनों के समक्ष राष्ट्र को धारण कर ॥२॥
इ॒ममिन्द्रो॑ अदीधरद्ध्रु॒वं
ध्रु॒वेण॑ ह॒विषा॑ ।
तस्मै॒ सोमो॒ अधि॑ ब्रव॒त्तस्मा॑ उ॒
ब्रह्म॑ण॒स्पति॑: ॥ १०.१७३.३॥
भावार्थ -(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्
परमेश्वर (ध्रुवेण हविषा) स्थिर उपहाररूप से (इमं ध्रुवम्) इस राष्ट्रपद अधिकार को
(अदीधरत्) तेरे में स्थापित करता है (तस्मै सोमः-अधिब्रवत्) इस कार्य के लिए तुझे
पुरोहित ब्राह्मण अधिकारपूर्वक आज्ञा करता है कि राज्य कर (तस्मै-बृहस्पतिः) उसके
लिए-उसके ग्रहण करने के लिए वेदज्ञ ब्रह्मा भी आज्ञापित करता है ॥३॥
ध्रु॒वा द्यौर्ध्रु॒वा पृ॑थि॒वी
ध्रु॒वास॒: पर्व॑ता इ॒मे ।
ध्रु॒वं विश्व॑मि॒दं जग॑द्ध्रु॒वो
राजा॑ वि॒शाम॒यम् ॥१०.१७३.४॥
भावार्थ -(ध्रुवा द्यौः) द्युलोक
ध्रुव है (पृथिवी-ध्रुवा) पृथिवी ध्रुवा (इमे पर्वताः-ध्रुवासः) ये पर्वत ध्रुव
हैं (इदं विश्वं जगत्-ध्रुवम्) यह सारा जगत् ध्रुव है,
नियम में वर्त्तमान है (विशाम्-अयं राजा ध्रुवः) प्रजाओं का यह राजा
ध्रुव है, इसलिए तू भी ध्रुव हो ॥४॥
ध्रु॒वं ते॒ राजा॒ वरु॑णो ध्रु॒वं
दे॒वो बृह॒स्पति॑: ।
ध्रु॒वं त॒ इन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑
रा॒ष्ट्रं धा॑रयतां ध्रु॒वम् ॥१०.१७३.५॥
भावार्थ -(ते) हे राजन् ! तेरा
राष्ट्र (वरुणः) गुण से प्रकाशित पुरोहित (ध्रुवं धारयताम्) राष्ट्र को ध्रुव धारण
करता है (बृहस्पतिः-देवः-ध्रुवम्) ब्रह्मा तेरे राष्ट्र को ध्रुव धारण करता है (ते
राष्ट्रम्) तेरे राष्ट्र को (इन्द्रः-च ध्रुवम्) सेनाध्यक्ष ध्रुव धारण करे (अग्निः-च
ध्रुवम्) सभाध्यक्ष या विद्वान् तेरे राष्ट्र को ध्रुव धारण करता है,
हे राजन् ! तू अकेला नहीं है, ये सब तेरे
सहायक हैं ॥५॥
ध्रु॒वं ध्रु॒वेण॑ ह॒विषा॒भि सोमं॑
मृशामसि ।
अथो॑ त॒ इन्द्र॒: केव॑ली॒र्विशो॑
बलि॒हृत॑स्करत् ॥१०.१७३.६॥
भावार्थ -(ध्रुवेण हविषा) स्थिर
उपहार के द्वारा (ध्रुवं सोमम्) राजसूययज्ञ में तुझे स्थिर स्तोतव्य निष्पन्न
संस्कृत करने योग्य राजा को (अभि मृशामसि) आशीर्वाददानार्थ स्पर्श करते हैं
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (ते) तेरे लिए (केवलीः-विशः) अनन्यभक्त प्रजा को
(बलिहृतः-करत्) उपहार देनेवाली कर देनेवाली बनाता है ॥६॥
अ॒भी॒व॒र्तेन॑ ह॒विषा॒ येनेन्द्रो॑
अभिवावृ॒ते ।
तेना॒स्मान्ब्र॑ह्मणस्पते॒ऽभि
रा॒ष्ट्राय॑ वर्तय ॥१०.१७४.१॥
भावार्थ -(ब्रह्मणस्पते) हे पुरोहित
! (येन-अभीवर्तेन हविषा) जिस शत्रु के प्रति आक्रमण साधन धुँआ देनेवाले विषमिश्रित
गन्धक योग से (इन्द्रः) राजा (अभिवावृते) इधर-उधर से समृद्धि को प्राप्त करता है
तथा आगे प्रगति करता है (तेन) उसके द्वारा (राष्ट्राय) राष्ट्रहित के लिए
(अस्मान्) हमें (अभि वर्तय) समृद्ध कर ॥१॥
अ॒भि॒वृत्य॑ स॒पत्ना॑न॒भि या नो॒
अरा॑तयः ।
अ॒भि पृ॑त॒न्यन्तं॑ तिष्ठा॒भि यो न॑
इर॒स्यति॑ ॥१०.१७४.२॥
भावार्थ -(सपत्नान्) शत्रुओं पर
(अभिवृत्य) आक्रमण करके (नः) हमारे (याः-अरातयः) जो शत्रुता करनेवाली-हमारी धन
सम्पत्ति का हरण करनेवाली जो शत्रुसेना है, उस
पर आक्रमण करके (पृतन्यन्तम्) हमारे साथ संग्राम करते हुए शत्रुगण पर (अभि०)
आक्रमण करके तथा (यः) जो (नः) हम पर (इरस्यति) ईर्ष्या करता है, उस पर (अभि तिष्ठ) आक्रमण करके स्वाधीन कर, स्ववश कर
॥२॥
अ॒भि त्वा॑ दे॒वः स॑वि॒ताभि सोमो॑
अवीवृतत् ।
अ॒भि त्वा॒ विश्वा॑
भू॒तान्य॑भीव॒र्तो यथास॑सि ॥१०.१७४.३॥
भावार्थ -(त्वा) हे अभीवर्त हवि !
विजय का साधन गन्धमय धूम तुझे (सविता देवः) अग्निदेव (अभि-अवीवृतत्) शत्रुओं के
प्रति पुनः-पुनः प्रवृत्त करता है-फैलाता है (सोमः) वायु (अभि) शत्रुओं के प्रति
प्रेरित करता है (विश्वा भूतानि) सारी वस्तुओं को (यया-अभीवर्तः) जिससे कि आक्रमण
साधनभूत प्रयोग (अससि) तू सफल होवे ॥३॥
येनेन्द्रो॑ ह॒विषा॑
कृ॒त्व्यभ॑वद्द्यु॒म्न्यु॑त्त॒मः ।
इ॒दं तद॑क्रि देवा असप॒त्नः
किला॑भुवम् ॥१०.१७४.४॥
भावार्थ -(येन हविषा) जिस
विषगन्धकयुक्त धूम से (कृत्वी) उस प्रयोग को करके (उत्तमः) श्रेष्ठ (द्युम्नी)
यशस्वी और अन्नवान् स्वराष्ट्र में (अभवत्) हो जाता है (देवाः) विजयेच्छुक सैनिक
(तत्-इदम्-अक्रि) उस इस हविर्मय प्रयोग को किया है (असपत्नः किल-अभुवम्) मैं
निश्चय शत्रुरहित हो गया हूँ ॥४॥
अ॒स॒प॒त्नः स॑पत्न॒हाभिरा॑ष्ट्रो
विषास॒हिः ।
यथा॒हमे॑षां भू॒तानां॑ वि॒राजा॑नि॒
जन॑स्य च ॥१०.१७४.५॥
भावार्थ -(सपत्नहा) शत्रुनाशक
(असपत्नः) शत्रुरहित (अभिराष्ट्रः) राष्ट्र को अधिकृत किये हुए राष्ट्रस्वामी
(विषासहिः) विशेष करके शत्रुओं का अभिभव करनेवाला (एषां भूतानाम्) इन शत्रुभूत
प्रणियों का (जनस्य च) और स्व जनगण का भी (विराजानि) राजा रूप से होता हूँ ॥५॥
इति: ध्रुवसूक्तम्॥
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