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मनुस्मृति अध्याय ११
मनुस्मृति अध्याय ११ में धर्म-
भिक्षुक, विविध प्रायश्चित्त, ब्रह्महत्या प्रायश्चित्त
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Manu smriti chapter 11
मनुस्मृति एकादशोऽध्यायः
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मनुस्मृति अध्याय ११
॥अथ एकादशोऽध्यायः ग्यारहवां अध्याय
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मनुस्मृति अध्याय ११-
धर्म-भिक्षुक
सान्तानिकं यक्ष्यमाणमध्वगं
सार्ववेदसम् ।
गुर्वर्थं पितृमात्र्यर्थं
स्वाध्यायार्य्युपतापिनः ॥ ॥१॥
वैतान् स्नातकान् विद्याद्
ब्राह्मणान् धर्मभिक्षुकान् ।
निःस्वेभ्यो देयमेतेभ्यो दानं
विद्याविशेषतः ॥ ॥ २ ॥
एतेभ्यो हि द्विजाग्र्येभ्यो
देयमन्नं सदक्षिणम् ।
इतरेभ्यो बहिर्वेदि कृतान्नं
देयमुच्यते ॥ ॥३॥
सर्वरत्नानि राजा तु यथार्हं
प्रतिपादयेत् ।
ब्राह्मणान् वेदविदुषो यज्ञार्थं
चैव दक्षिणाम् ॥ ॥४॥
कृतदारोऽपरान् दारान् भिक्षित्वा
योऽधिगच्छति ।
रतिमात्रं फलं तस्य द्रव्यदातुस्तु
संततिः ॥ ॥५॥
धनानि तु यथाशक्ति विप्रेषु
प्रतिपादयेत् ।
वेदवित्सु विविक्तेषु प्रेत्य
स्वर्गं समश्नुते ॥ ॥६॥
यस्य त्रैवार्षिकं भक्तं पर्याप्तं
भृत्यवृत्तये ।
अधिकं वाऽपि विद्येत स सोमं
पातुमर्हति ॥ ॥७॥
सन्तानार्थ विवाह करनेवाला,
यज्ञ करने की इच्छावाला, मार्ग चलनेवाला,
यज्ञ में सर्वस्व दक्षिणा देनेवाला, गुरु,
माता और पिता के लिए धन का अर्थी, विद्यार्थी
और रोगी इन नौ स्नातक ब्राह्मणों को भिक्षुक जानना चाहिए। ये सब निर्धन हो तो
विद्या के अनुसार इनको दान देना चाहिए। इन ब्राह्मणों को दक्षिणा के साथ अन्न देना
और दूसरों को यज्ञ वेदी के बाहर पकाया अन्न देना चाहिए। राजा को यज्ञ - दक्षिणा
में उत्तम वस्तुओं को योग्यता के अनुसार देना चाहिए। जो विवाहित पुरुष भीख मांगकर
दूसरा विवाह करता है उसको रतिमात्र फल है और उसकी सन्तान द्रव्य देने वाले की होती
है। जो लोग विरक्त- वेदज्ञ ब्राह्मणों को यथाशक्ति दक्षिणा देते हैं, वह स्वर्गगामी होते हैं। जिस के पास कुटुम्बियों के निर्वाहार्थ तीन साल
तक का अथवा अधिक अन्न हो, वह सोमयाग करने योग्य होता है ॥१-७॥
अतः स्वल्पीयसि द्रव्ये यः सोमं
पिबति द्विजः ।
स पीतसोमपूर्वोऽपि न तस्याप्नोति
तत्फलम् ॥ ॥८॥
शक्तः परजने दाता स्वजने दुःखजीविनि
।
मध्वापातो विषास्वादः स
धर्मप्रतिरूपकः ॥ ॥९॥
भृत्यानामुपरोधेन यत्
करोत्यौर्ध्वदेहिकम् ।
तद् भवत्यसुखोदर्कं जीवतश्च मृतस्य
च ॥ ॥१०॥
यज्ञश्चेत् प्रतिरुद्धः
स्यादेकेनाङ्गेन यज्वनः ।
ब्राह्मणस्य विशेषेन धार्मिके सति
राजनि ॥ ॥ ११ ॥
यो वैश्यः स्याद् बहुपशुर्हीनक्रतुरसोमपः
।
कुटुम्बात् तस्य तद् द्रव्यमाहरेद्
यज्ञसिद्धये ॥ ॥१२॥
हरेत् त्रीणि वा द्वे वा कामं
शूद्रस्य वेश्मनः ।
न हि शूद्रस्य यज्ञेषु कश्चिदस्ति
परिग्रहः ॥ ॥१३॥
इससे कम द्रव्य होने पर जो द्विज
सोमयाग करता है उसका पहला सोमयज्ञ भी नहीं पूरा पड़ता । इसलिए दूसरा सोमयज्ञ कभी
नहीं करना चाहिए। जो कुटुम्ब को दुःखी होते दूसरों को धन देता है,
वह पहले तो अच्छा लगता है, परन्तु परिणाम में
विष के स्वाद सा भयानक मालूम होता है। वह केवल धर्म का झूठारूप है। कुटुम्बियों को
दुःख देकर, जो पुरुष परलोक के लिए दानादि करता है, वह लोक-परलोक में उत्तरोतर दुःख देने वाला है। धार्मिक राजा के होते हुए
क्षत्रिया आदि यजमानों का विशेष करके ब्राह्मण का यज्ञ किसी प्रसंग से रुका हो तो
धनी वैश्य से जो सोमयज्ञ से रहित हो, उसके धन से मदद ले लेनी
चाहिए। यज्ञ में दो अथवा तीन अंग अधूरे हो और वैश्य से उतना धन न मिले तो शुद्र के
घर से यथेच्छ धन ले लेना चाहिए, क्योकि शूद्र का यज्ञ से कोई
सम्बन्ध नहीं होता ॥८-१३॥
योऽनाहिताग्निः शतगुरयज्वा च
सहस्रगुः ।
तयोरपि कुटुम्बाभ्यामाहरेदविचारयन्
॥ ॥१४॥
आदाननित्याच्चादातुराहरेदप्रयच्छतः
।
तथा यशोऽस्य प्रथते धर्मश्चैव
प्रवर्धते ॥ ॥१५॥
तथैव सप्तमे भक्ते भक्तानि षडनश्नता
।
अश्वस्तनविधानेन हर्तव्यं हीनकर्मणः
॥ ॥ १६ ॥
अग्निहोत्री नहीं है और सौ गौ का धन
रखता है और जिसने यज्ञ न किया हो, पर हज़ार गौ
का धन हो, उन दोनों के घर से भी बिना विचार धन ले लेना
चाहिए। जो ब्राह्मण नित्य दान लेता हो पर दान देता न हो, वह
भी यज्ञार्थ धन दे तो ले लेना चाहिए। इस कर्म से उसका यश और धर्म बढ़ता है। जिसने
तीन दिन तक भोजन न किया हो वह सातवीं खुराक धर्महीन पुरुष से भी अन्न ले लेने में
कोई दोष नहीं है ॥ १४-१६ ॥
खलात् क्षेत्रादगाराद् वा यतो
वाऽप्युपलभ्यते ।
आख्यातव्यं तु तत् तस्मै पृच्छते
यदि पृच्छति ॥ ॥१७॥
ब्राह्मणस्वं न हर्तव्यं क्षत्रियेण
कदा चन ।
दस्युनिष्क्रिययोस्तु स्वमजीवन्
हर्तुमर्हति ॥ ॥१८॥
योऽसाधुभ्योऽर्थमादाय साधुभ्यः
सम्प्रयच्छति ।
स कृत्वा प्लवमात्मानं संतारयति
तावुभौ ॥ ॥१९॥
यद् धनं यज्ञशीलानां देवस्वं तद्
विदुर्बुधाः ।
अयज्वनां तु यद् वित्तमासुरस्वं
तदुच्यते ॥ ॥२०॥
तस्मिन् धारयेद् दण्डं धार्मिकः
पृथिवीपतिः ।
क्षत्रियस्य हि बालिश्याद्
ब्राह्मणः सीदति क्षुधा ॥ ॥ २१ ॥
तस्य भृत्यजनं ज्ञात्वा
स्वकुटुम्बान् महीपतिः ।
श्रुतशीले च विज्ञाय वृत्तिं
धर्म्यं प्रकल्पयेत् ॥ ॥२२॥
कल्पयित्वाऽस्य वृत्तिं च रक्षेदेनं
समन्ततः ।
राजा हि धर्मषड्भागं तस्मात्
प्राप्नोति रक्षितात् ॥ ॥२३॥
न यज्ञार्थं धनं शूद्राद् विप्रो
भिक्षेत कर्हि चित् ।
यजमानो हि भिक्षित्वा चण्डालः
प्रेत्य जायते ॥ ॥ २४ ॥
सल (खलिहान) खेत या घर से अथवा कहीं
से भी अन्न ले लेना चाहिए और उसका स्वामी पूछे तो उससे सत्य बात कह देनी चाहिए।
क्षत्रिय को ब्राह्मण का धन कभी न छीनना चाहिए। यदि निर्वाह न हो सके तो क्षुधित
क्षत्रिय को निष्क्रिय और दस्यु का लेना योग्य है। जो पुरुष असाधुओं से धन लेकर
धर्माचारी सत्पुरुषों को देता है वह अपने को नौका बनाकर उन दोनों को तार देता है ।
यज्ञादि करनेवालों के धन को देवधन कहते हैं और यज्ञादि धर्म-कर्म न करनेवालों का
धन आसुरी धन कहलाता है । ब्राह्मण निर्वाह के लिए कोई दोष भी करे तो भी उसको राजा
को दण्ड नहीं देना चाहिए क्योंकि राजा के ही दोषों से ब्राह्मण भूख से दुःख उठाते
हैं। ब्राह्मण के परिवार, विद्या, शील आदि को जानकर राजा धर्मार्थ जीविका का प्रबंध कर देना चाहिए और चोर
इत्यादि दुष्टों से रक्षा करनी चाहिए क्योंकि उसके छठा भाग राजा पाता है ।
ब्राह्मण यज्ञ के लिए शुद्र से धन कभी नहीं माँगना चाहिए क्योंकि शुद्र भिक्षा से
यज्ञ करनेवाला मरकर चण्डाल होता है ॥१७- २४ ॥
यज्ञार्थमर्थं भक्षित्वा यो न सर्वं
प्रयच्छति ।
स याति भासतां विप्रः काकतां वा शतं
समाः ॥ ॥ २५ ॥
देवस्वं ब्राह्मणस्वं वा
लोभेनोपहिनस्ति यः ।
स पापात्मा परे लोके गृधौच्छिष्टेन
जीवति ॥ ॥२६॥
इष्टिं वैश्वानरीं नित्यं
निर्वपेदब्दपर्यये ।
कप्तानां पशुसोमानां
निष्कृत्यर्थमसंभवे ॥ ॥२७॥
आपत्कल्पेन यो धर्मं कुरुतेऽनापदि
द्विजः ।
स नाप्नोति फलं तस्य परत्रेति
विचारितम् ॥ ॥२८॥
विश्वैश्व देवैः साध्यैश्च ब्राह्मणैश्च
महर्षिभिः।
आपत्सु मरणाद् भीतैर्विधेः
प्रतिनिधिः कृतः ॥ ॥ २९ ॥
जो ब्राह्मण यज्ञ के लिए धन मांगकर
यज्ञ में नहीं लगाता वह मरकर सौ वर्ष भास अथवा कौवा की योनि में जन्म लेता है। जो
देवार्पण या ब्रह्मार्पण किये धन को लोभ से खा जाता है वह पापात्मा परलोक में गीध
की जूठन से जीता है। पशुयाग या सोमयाग न हो सके तो उस दोष को शान्ति के लिए
ब्राह्मण को शूद्र से भी धन लेकर प्रायश्चित 'वैश्वानरी
इष्टि करनी चाहिए। जो द्विज आपत्काल के न होते आपत्काल के धर्म से बर्ताव करता है
उसे परलोक में उसका फल प्राप्त नहीं होता। विश्वेदेव, साध्यदेव,
महर्षि और ब्राह्मणों ने मृत्यु से डरकर, आपातकाल
मे मुख्य विधि के स्थान में प्रतिनिधि आपद्धर्म की कल्पना की है ॥२५-२६ ॥
प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकल्पेन
वर्तते ।
न सांपरायिकं तस्य दुर्मतेर्विद्यते
फलम् ॥ ॥३०॥
न ब्राह्मणो वेदयेत किंचिद् राजनि
धर्मवित् ।
स्ववीर्येणैव तांशिष्यान्
मानवानपकारिणः ॥ ॥३१॥
स्ववीर्याद् राजवीर्याच्च स्ववीर्यं
बलवत्तरम् ।
तस्मात् स्वेनैव वीर्येण
निगृह्णीयादरीन् द्विजः ॥ ॥३२॥
मुख्य विधि की शक्ति होने पर भी जो
पुरुष प्रतिनिधि से कर्म करता है उस दुर्बुद्धि को उस धर्म का फल परलोक में नहीं
मिलता। धर्मज्ञ ब्राह्मण को अपने थोड़े नुकसान को राजा से नहीं कहना चाहिए। उन
अपकारियों को अपने सामर्थ्य से ही दण्ड देना चाहिए। तपशक्ति और राजशक्ति में अपनी
तपशक्ति अधिक प्रभावशाली है। इसलिए द्विजों को अपनी ही शक्ति से शत्रु दमन करना चाहिए
॥३०-३२ ॥
श्रुतीरथर्वाङ्गिरसीः
कुर्यादित्यविचारयन् ।
वास्तं वै ब्राह्मणस्य तेन
हन्यादरीन् द्विजः ॥ ॥३३॥
क्षत्रियो बाहुवीर्येण
तरेदापदमात्मनः ।
धनेन वैश्यशूद्रौ तु
जपहोमैर्द्विजोत्तमः ॥ ॥३४॥
विधाता शासिता वक्ता मैत्रो
ब्राह्मण उच्यते ।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां
गिरमीरयेत् ॥ ॥३५॥
न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविद्यो न
बालिशः ।
होता स्यादग्निहोत्रस्य नार्तो
नासंस्कृतस्तथा ॥ ॥३६॥
नरके हि पतन्त्येते जुह्वन्तः स च
यस्य तत् ।
तस्माद् वैतानकुशलो होता स्याद्
वेदपारगः ॥ ॥३७॥
ब्राह्मण अथर्ववेद के अंगिरस
मन्त्रों को पढ़कर अभिचार करे । मन्त्रोचारण ही ब्राह्मण का शस्त्र है। उसी से
द्विज को शत्रुओं का नाश करना चाहिए। क्षत्रिय अपने भुजबल से,
वैश्य और शूद्र धन से और ब्राह्मण मन्त्र जप, हवन
से आपत्ति को दूर करना चाहिए। ब्राह्मण विहित कर्मों का अनुष्ठान करनेवाला,
पुत्र- शिष्यों का शासन करनेवाला, प्रायश्चित्तादि
को बतानेवाला और सब का मित्र कहा गया है । उसको कोई बुरी बात या रूखी बात नहीं
कहनी चाहिए। कन्या, युवती, थोड़ा पढ़ा,
मूर्ख, रोगी और यज्ञोपवीत संस्काररहित पुरुष
को अग्निहोत्र का होता नहीं होना चाहिए। यदि यह सब होता किये जायें तो खुद और
जिसका अग्निहोत्र हो वह दोनों नरकगामी होते हैं। इस कारण श्रोतकर्म में प्रवीण,
वेदविशारद को ही अग्निहोत्र का होता बन सकता है ॥३३-३७ ॥
प्राजापत्यमदत्त्वाऽश्वमग्न्याधेयस्य
दक्षिणाम् ।
अनाहिताग्निर्भवति ब्राह्मणो विभवे
सति ॥ ॥३८॥
पुण्यान्यन्यानि कुर्वीत श्रद्दधानो
जितेन्द्रियः ।
न त्वल्पदक्षिणैर्यज्ञैर्यजेतेह कथं
चन ॥ ॥ ३९ ॥
इन्द्रियाणि यशः स्वर्गमायुः
कीर्तिं प्रजाः पशून् ।
हन्त्यल्पदक्षिणो
यज्ञस्तस्मान्नाल्पधनो यजेत् ॥ ॥४०॥
जो ब्राह्मण वैभव होने पर
अग्न्याधान स्वीकार करके प्रजापति देवतावाले अश्व और अग्न्याधान का दान नहीं करता
वह ब्राह्मण अनाहिताग्नि हो जाता है अर्थात उसको आधान का फल प्राप्त नहीं होता।
श्रद्धावान्, जितेन्द्रिय पुरुष को पुण्य
कर्मों को तो करना चाहिए, परन्तु न्यून दक्षिणा देकर कोई
यज्ञ नहीं करना चाहिए अर्थात् 'बिना पूरी दक्षिणा दिए यज्ञ
नहीं करना चाहिए। कम दक्षिणा देकर यज्ञ कराने से यज्ञ इन्द्रियाँ, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्ति, प्रजा और पशुओं का नाश करती है। इस कारण
थोड़े धनवाला यज्ञ नहीं करना चाहिए ॥३८-४० ॥
अग्निहोत्र्यपविद्याग्नीन्
ब्राह्मणः कामकारतः ।
चान्द्रायणं चरेन मासं वीरहत्यासमं
हि तत् ॥ ॥४१॥
ये
शूद्रादधिगम्यार्थमग्निहोत्रमुपासते ।
ऋत्विजस्ते हि शूद्राणां
ब्रह्मवादिषु गर्हिताः ॥ ॥४२॥
तेषां सततमज्ञानां
वृषलाग्न्युपसेविनाम् ।
पदा मस्तकमाक्रम्य दाता दुर्गाणि
संतरेत् ॥ ॥४३॥
अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितं च
समाचरन् ।
प्रसक्तश्चैन्द्रियार्थेषु
प्रायश्चित्तीयते नरः ॥ ॥४४॥
अकामतः कृते पापे प्रायश्चित्तं
विदुर्बुधाः ।
कामकारकृतेऽप्याहुरेके
श्रुतिनिदर्शनात् ॥ ॥४५॥
अकामतः कृतं पापं वेदाभ्यासेन
शुध्यति ।
कामतस्तु कृतं मोहात् प्रायश्चित्तैः
पृथग्विधैः ॥ ॥४६॥
अग्निहोत्री ब्राह्मण यदि जान-बूझकर
दोनों काल हवन न करे तो एक मास चान्द्रायण व्रत करना चाहिए। क्योंकि अग्निहोत्र का
होम लोप करना पुत्रहत्या के समान पाप है । जो ब्राह्मण शूद्र से धन लेकर
अग्निहोत्र की उपासना करते हैं वे शूद्र ऋत्विज हैं और वेदपाठियों में निंदित होते
हैं। शूद्र धन से अग्नि उपासना करने वाले मूर्ख वालों के मस्तक पर धनदाता -शूद्र
पैर रखकर परलोक में संकटों को तर जाता है। शास्त्रोक्त कर्मों को न करने और दूषित
कर्मों को करने से और विषयों में आसक्ति से मनुष्य प्रायश्चित्त लायक होता है।
अनजान में पाप करने पर विद्वानों ने प्रायश्चित्त कहा है। कोई अतिप्रमाण से जानकर
पाप करने पर प्रायश्चित्त का विधान कहते हैं। अज्ञान से किया पाप वेदाभ्यास से
शुद्ध होता है और ज्ञान से किया पाप विविध प्रायश्चित्तों से शुद्ध होता है ॥
४१-४६ ॥
मनुस्मृति अध्याय ११-
विविध प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्तीयतां प्राप्य दैवात्
पूर्वकृतेन वा ।
न संसर्गं व्रजेत् सद्भिः
प्रायश्चित्तेऽकृते द्विजः ॥ ॥४७॥
इह दुश्चरितैः के चित् केचित्
पूर्वकृतैस्तथा ।
प्राप्नुवन्ति दुरात्मानो नरा
रूपविपर्ययम् ॥ ॥ ४८ ॥
दैववश अथवा पूर्वजन्म के पाप से
द्विज प्रायश्चित्त योग्य होकर बिना प्रायश्चित्त किये सज्जनों के साथ संसर्ग नहीं
करना चाहिए। कोई यहां कोई पूर्वजन्म के दुराचार से दुष्टात्मा मनुष्य,
विविधरूप विकारों को पाते हैं॥४७-४८॥
सुवर्णचौरः कौनख्यं सुरापः
श्यावदन्तताम् ।
ब्रह्महा क्षयरोगित्वं दौश्चर्म्यं
गुरुतल्पगः ॥ ॥ ४९ ॥
पिशुनः पौतिनासिक्यं सूचकः
पूतिवक्त्रताम् ।
धान्यचौरोऽङ्गहीनत्वमातिरैक्यं तु
मिश्रकः ॥ ॥५०॥
अन्नहर्ताऽमयावित्वं मौक्यं
वागपहारकः ।
वस्त्रापहारकः श्वैत्र्यं
पङ्गुतामश्वहारकः ॥ ॥ ५१ ॥
दीपहर्ता भवेदन्धः काणो निर्वापको
भवेत् ।
हिंसया व्याधिभूयस्त्वमरोगित्वमसिया
॥ ॥ ५२ ॥
एवं कर्मविशेषेण जायन्ते
सद्विगर्हिताः ।
मूकान्धबधिरा विकृताकृतयस्तथा ॥ ५३
॥
सोने का चोर,
बुरे नखों वाला, शराबी, काले
दातों वाला, ब्रह्म हत्यारा, क्षयरोगी
और गुरु स्त्री- गामी चर्मरोगी होता है । चुगल की नाक सड़ती है, झूठे निंदक का मुख दुर्गन्धयुक्त होता है। अन्नचोर अंगहीन और अन्न में
मिलावट करनेवाला अधिकांग होता है । पक्वान्न चोर को मन्दाग्नि, विद्याचोर गूंगा, वस्त्रचोर श्वेतकुष्ठी और घोड़े का
चोर लूला होता है । दीप चुरानेवाला अंधा, दीप बुझानेवाला
काना, हिंसा अधिक रोगी और अहिंसा से नीरोग होता है। इस
प्रकार अनेक पापकर्मों से मनुष्य जड़बुद्धि, गूंगे, अंधे,बहिरे और कुरूप हो जाते हैं॥४९-५३॥
चरितव्यमतो नित्यं प्रायश्चित्तं
विशुद्धये ।
निन्द्यैर्हि लक्षणैर्युक्ता
जायन्तेऽनिष्कृतेनसः ॥ ॥ ५४ ॥
ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं
गुर्वङ्गनागमः ।
महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि
तैः सह ॥ ॥५५॥
अनृतं च समुत्कर्षे राजगामि च
पैशुनम् ।
गुरोश्चालीकनिर्बन्धः समानि
ब्रह्महत्यया ॥ ॥ ५६ ॥
इसलिए पापशुद्धि के लिये नित्य
प्रायश्चित्त करना चाहिए। जो लोग नहीं करते वे दूषित लक्षणयुक्त हो जाते हैं।
ब्रह्महत्या, मद्यपान, सुवर्ण
की चोरी, गुरुस्त्री से व्यभिचार और इन महापापों के करनेवाले
का संसर्ग, यह सभी महापातक कहते हैं। अपनी बड़ाई में झूठ
कहना, राजा से किसी की चुगली करना और गुरु को झूठा दोष लगाना
-यह पाप ब्रह्महत्या के समान हैं । ॥५४-५६ ॥
ब्रह्मोज्झता वेदनिन्दा कौटसाक्ष्यं
सुहृद्वधः ।
गर्हितानाद्ययोर्जग्धिः
सुरापानसमानि षट् ॥ ॥ ५७ ॥
निक्षेपस्यापहरणं नराश्वरजतस्य च ।
भूमिवज्रमणीनां च रुक्मस्तेयसमं
स्मृतम् ॥ ॥५८॥
रेतःसेकः स्वयोनीषु
कुमारीष्वन्त्यजासु च ।
सख्युः पुत्रस्य च स्त्रीषु
गुरुतल्पसमं विदुः ॥ ॥५९॥
गोवधोऽयाज्यसंयाज्यं
पारदार्यात्मविक्रयः ।
गुरुमातृपितृत्यागः स्वाध्यायाग्योः
सुतस्य च ॥ ॥६०॥
परिवित्तिताऽनुजेऽनूढे परिवेदनमेव च
।
तयोर्दानं च कन्यायास्तयोरेव च
याजनम् ॥ ॥ ६१ ॥
कन्याया दूषणं चैव वार्धुष्यं
व्रतलोपनम् ।
तडागाराम दाराणामपत्यस्य च विक्रयः
॥ ॥ ६२ ॥
व्रात्यता बान्धवत्यागो
भृत्याध्यापनमेव च ।
भृत्या चाध्ययनादानमपण्यानां च
विक्रयः ॥६३ ॥
सर्वाकारेष्वधीकारो
महायन्त्रप्रवर्तनम् ।
हिंसौषधीनां स्त्र्याजीवोऽभिचारो
मूलकर्म च ॥ ॥६४॥
वेद को भूल जाना,
वेद की निंदा करना, झूठी गवाही देना, मित्र का वध करना और अभक्ष्य को खाना, ये छः मद्यपान
के समान हैं। धरोहर का मारना, मनुष्य, घोड़ा,
चांदी, भूमि, हीरा और
मणि चुराना सुवर्णचोरी के समान हैं। सहोदर बहन, कुमारी कन्या,
चाण्डालिनी, मित्र और पुत्र की स्त्री से
समागम करना गुरुपत्नी के साथ समागम के समान हैं। गौहत्या करना, व्रात्य, शूद्रों को यज्ञ कराना, परस्त्री से व्यभिचार, अपने को दास रूप से बेचना,
योग्य गुरु को त्यागना, निर्दोष माता-पिता को
त्यागना, स्वाध्याय न करना, स्मार्त्ताग्नि
को छोड़ना यह सभी उप पातक हैं। छोटा भाई पहले विवाह करके अग्निहोत्र धारण करे तो
बड़ा भाई 'परिवित्ति' कहाता है,
उस बड़े और छोटे भाई को कन्या देना, उनको
ऋत्विज बनाना, कन्या को दूषण लगाना, शास्त्रमर्यादा
से ब्याज अधिक लेना, व्रत को तोड़ना, तालाब,
बगीचा, स्त्री और सन्तान को बेचना, समय पर संस्कार न करना, बांधवों का पालन न करना,
शिष्यों से मासिक लेकर पढ़ाना, नौकरी देकर
पढ़ना, न बेचने योग्य घी-दूध आदि को बेचना, सोने की खानों पर राजाज्ञा से अधिकारी होना, बड़े
यन्त्रकलों का चलाना, हरी जड़ी बूटियों को काटना, स्त्री से जीविका करना, अभिचार करना और वशीकरण करना
यह सभी उपपातक हैं। ॥ ५७-६४ ॥
इन्धनार्थमशुष्काणां
द्रुमाणामवपातनम् ।
आत्मार्थं च क्रियारम्भो
निन्दितान्नादनं तथा ॥ ॥६५॥
अनाहिताग्निता स्तेयं
ऋणानामनपक्रिया ।
असत्शास्त्राधिगमनं कौशीलव्यस्य च
क्रिया ॥ ६६ ॥
धान्यकुप्यपशुस्तेयं
मद्यपस्त्रीनिषेवणम् ।
स्त्री शूद्रविट्क्षत्रवधो
नास्तिक्यं चोपपातकम् ॥ ॥६७॥
ब्राह्मणस्य रुजः कृत्वा
घ्रातिरध्रेयमद्ययोः ।
जैयं च मैथुनं पुंसि जातिभ्रंशकरं
स्मृतम् ॥ ॥६८॥
खराश्वोष्ट्रमृगेभानामजाविकवधस्तथा
।
सङ्करीकरणं ज्ञेयं मीनाहिमहिषस्य च
॥ ॥६९॥
निन्दितेभ्यो धनादानं वाणिज्यं
शूद्रसेवनम् ।
अपात्रीकरणं ज्ञेयमसत्यस्य च भाषणम्
॥ ॥ ७० ॥
कृमिकीटवयोहत्या मद्यानुगतभोजनम् ।
फलेधः ।
कुसुमस्तेयमधैर्यं च मलावहम् ॥ ॥ ७१
॥
एतान्येनांसि सर्वाणि यथोक्तानि
पृथक् पृथक् ।
यैर्यैर्व्रतैरपोह्यन्ते तानि
सम्यग् निबोधत ॥ ॥ ७२ ॥
ईंधन के लिए हरे वृक्षों को काटना,
अपने लिए ही भोजन बनाना, दूषित अन्न को खाना,
समर्थ होकर भी अग्निहोत्र न लेना, चोरी करना,
ऋणों को न चुकाना, असत् शास्त्रों का पढ़ना,
नाच गान में लगना, धान्य, कुप्य और पशुओं की चोरी, मद्यप स्त्री का संग,
स्त्री, शुद्र, वैश्य और
क्षत्रिय का वध और नास्तिकता, यह सभी उप- पातक हैं। ब्राह्मण
को पीड़ा देना, न सूंघने योग्य वस्तु को और मद्य को सूंघना,
कुटिलता और पुरुष से मैथुन, यह सभी जाति से
भ्रष्ट करने वाले पाप हैं। गधा, घोड़ा, ऊंट, मृग, हाथी, बकरा, मेढ़ा, मछली, सांप और भैंस का वध करना, इन कर्मों को संकरी करण'
पाप कहते हैं । निन्दितों से धन लेना, व्यापार,
शूद्रसेवा और असत्य बोलना ये 'अपात्रीकरण'
पाप हैं। कृमि, कीट और पक्षियों का वध,
मद्य के लाथ भोजन, फल, काठ
और फूल चुराना और अधीरता ये 'मलिनीकरण' पाप कहते हैं। ये सब ब्रह्महत्यादि पाप जो अलग अलग कहे गये हैं वे जिन जिन
व्रतों से नष्ट होते हैं- उनको सावधान होकर सुनो ॥६५-७२ ॥
मनुस्मृति अध्याय ११-
ब्रह्महत्या प्रायश्चित्त
ब्रह्महा द्वादश समाः कुटीं कृत्वा
वने वसेत् ।
भैक्षाश्यात्मविशुद्ध्यर्थं कृत्वा
शवशिरो ध्वजम् ॥ ॥७३॥
लक्ष्यं शस्त्रभृतां वा स्याद्
विदुषामिच्छयाऽत्मनः ।
प्रास्येदात्मानमग्नौ वा समिद्धे
त्रिरवाक्षिराः ॥ ॥७४॥
यजेत वाश्वमेधेन स्वर्जिता गोसवेन
वा ।
अभिजिद्विश्वद्भ्यिां वा
त्रिवृताऽग्निष्टुताऽपि वा ॥ ॥ ७५ ॥
जपन् वाऽन्यतमं वेदं योजनानां शतं
व्रजेत् ।
ब्रह्महत्यापनोदाय
मितभुज्ञियतेन्द्रियः ॥ ॥७६॥
सर्वस्वं वेदविदुषे
ब्राह्मणायोपपादयेत् ।
धनं हि जीवनायालं गृहं वा
सपरिच्छदम् ॥ ॥७७॥
हविष्यभुग् वाऽनुसरेत् प्रतिस्रोतः
सरस्वतीम् ।
जपेद् वा नियताहारस्त्रिर्वै वेदस्य
संहिताम् ॥ ॥७८॥
कृतवापनो निवसेद् ग्रामान्ते
गोव्रजेऽपि वा ।
आश्रमे वृक्षमूले वा गोब्राह्मणहिते
रतः ॥ ॥ ७९ ॥
ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा सद्यः
प्राणान् परित्यजेत् ।
मुच्यते ब्रह्महत्याया गोप्ता
गोर्ब्राह्मणस्य च ॥ ॥८०॥
ब्रह्महत्या-पातक से निवृत्ति के
लिए बारह वर्ष तक वन में कुटी बनाकर रहना चाहिए, भिक्षा मांगकर खाना चाहिए और झोपड़ी में मुरदे की खोपड़ी टांगना चाहिए।
अथवा शस्त्रधारियों की इच्छानुसार पातक ज़ाहिर होने का निशान करना चाहिए अथवा जलती
आग में नीचा सिर करके तीन बार डालना चाहिए। अथवा अश्वमेध, स्वर्गजित,
अभिजित गोसव, विश्वजित् त्रिवृत और
अग्निष्टुत् इन यज्ञों में से किसी को करना चाहिए। अथवा मिताहारी जितेन्द्रिय होकर,
किसी वेद का पाठ करता हुआ सौ योजन तक चले जाना चाहिए अथवा वेदज्ञ
ब्राह्मण को अपना सर्वस्व अथवा जीविका योग्य धन, अथवा सब
सामग्री सहित घर देना चाहिए। अथवा हविष्य भोजन करता हुआ सरस्वती नदी के सोते की
तरफ गमन करना चाहिए अथवा नियमित भोजन करके तीनों वेद संहिताओं का पाठ करना चाहिए
अथवा दाढ़ी, मूंछ मुड़ाकर गांव के बाहर गौ गोष्ठ में,
आश्रम में, या वृक्ष की जड़ में रहकर, गो-ब्राह्मण के हितसाधन में लगे रहना चाहिए। अथवा ब्राह्मण और गौ के
निमित्त तुरंत प्राण त्याग देने से ब्रह्म हत्या से मुक्त हो जाता है। ॥७३-८० ॥
त्रिवारं प्रतिरोद्धा वा
सर्वस्वमवजित्य वा ।
विप्रस्य तन्निमित्ते वा प्राणालाभे
विमुच्यते ॥ ॥ ८१ ॥
एवं दृढव्रतो नित्यं ब्रह्मचारी
समाहितः ।
समाप्ते द्वादशे वर्षे ब्रह्महत्यां
व्यपोहति ॥ ॥८२॥
शिष्टा वा भूमिदेवानां नरदेवसमागमे
।
स्वमेनोऽवभृथस्नातो हयमेधे
विमुच्यते ॥ ॥८३॥
धर्मस्य ब्राह्मणो मूलमग्रं राजन्य
उच्यते ।
तस्मात् समागमे तेषामेनो विख्याप्य
शुध्यति ॥ ॥८४॥
कोई चोर ब्राह्मण का धन चुराकर लिये
जाता हो तो उस पर तीन बार चढ़ाई करके धन को लौटा देना चाहिए अथवा ऐसा ही यत्न करके
चाहे धन लौटा नहीं पाए तो भी ब्रह्म हत्या से छूट जाता है । अथवा जब धन के लिए यह
ब्राह्मण युद्ध करके मरने को तैयार हो, तब
उतना धन देकर उसका प्राण बचाने से भी ब्रह्महत्या से छूट जाता है। इस प्रकार
ब्रह्मचर्य से दृढ़तापूर्वक व्रत करने वाला बारह वर्ष में ब्रह्महत्या से छूट जाता
है अथवा अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मण और राजा के सामने अपना पाप कहकर अवभृथ स्नान
करने पर ब्रह्महत्या से मुक्त हो जाता है। ब्राह्मण धर्म का मूल और क्षत्रिय अग्र
भाग कहलाता है,इसलिए उनके सामने पाप कहकर शुद्ध हो जाता है ॥
८१-८४ ॥
ब्रह्मणः संभवेनैव देवानामपि दैवतम्
।
प्रमाणं चैव लोकस्य ब्रह्मात्रैव हि
कारणम् ॥ ॥८५॥
तेषां वेदविदो ब्रूयुस्त्रयोऽप्येनः
सुनिष्कृतिम् ।
सा तेषां पावनाय स्यात् पवित्रा
विदुषां हि वाक् ॥ ॥८६॥
अतोऽन्यतममास्थाय विधिं विप्रः
समाहितः ।
ब्रह्महत्याकृतं पापं
व्यपोहत्यात्मवत्तया ॥ ॥८७॥
हत्वा गर्भमविज्ञातमेतदेव व्रतं
चरेत् ।
राजन्यवैश्यौ चैजानावात्रेयीमेव च
स्त्रियम् ॥ ८८ ॥
ब्राह्मण जन्म से ही देवों का भी
देव है,
और उसका उपदेश वेदमूलक होने से लोक में प्रमाण माना जाता है। वेदों
में तीन ब्राह्मण जो प्रायश्चित्त पाप का बताते हैं, वह
पापियों को पवित्र करता है। क्योंकि ब्राह्मणों की वाणी ही पावन है। इसलिए सावधान
होकर कहे प्रायश्चित्तों में कोई भी करने से ब्राह्मण पाप मुक्त होजाता है। अजान
गर्भहत्या, यज्ञ करते क्षत्रिय, वैश्य
और गर्भवती स्त्री का वध करके भी इसी ब्रह्महत्या का प्रायश्चित करना चाहिए ॥
८५-८८ ॥
उक्त्वा चैवानृतं साक्ष्ये
प्रतिरुध्य गुरुं तथा ।
अपहृत्य च निःक्षेपं कृत्वा च
स्त्रीसुहृत्वधम् ॥ ॥८९॥
इयं विशुद्धिरुदिता प्रमाप्याकामतो
द्विजम् ।
कामतो ब्राह्मणवधे निष्कृतिर्न
विधीयते ॥ ॥ ९० ॥
साक्षी में झूठ बोलकर,
गुरु को भूठा दोष लगाकर, धरोहर मार कर और
स्त्री या मित्र का वध करके ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त करना चाहिए। अनजाने में
द्विज का वध किया हो तो ये प्रायश्चित्त करे परन्तु जानकर हत्या करने पर कोई
प्रायश्चित्त नहीं है ॥८९-९० ॥
मनुस्मृति अध्याय ११-
मद्यपान-प्रायश्चित्त
सुरां पीत्वा द्विजो
मोहादग्निवर्णां सुरां पिबेत् ।
तया स काये निर्दग्धे मुच्यते
किल्बिषात् ततः ॥ ॥ ९१ ॥
गोमूत्रमग्निवर्णं वा पिबेदुदकमेव
वा ।
यो घृतं वा मरणाद् गोशकृद्रसमेव वा
॥ ॥ ९२ ॥
कणान् वा भक्षयेदब्दं पिण्याकं वा
सकृनिशि ।
सुरापानापनुत्त्यर्थं वालवासा जटी
ध्वजी ॥ ॥ ९३ ॥
सुरा वै मलमन्नानां पाप्मा च मलमुच्यते
।
तस्माद् ब्राह्मणराजन्यौ वैश्यश्च न
सुरां पिबेत् ॥ ॥९४॥
गौडी पैष्टीच माध्वी च विज्ञेया
त्रिविधा सुरा ।
यथैवैका तथा सर्वा न पातव्या
द्विजोत्तमैः ॥ ॥९५॥
यक्षरक्षः । पिशाचान्नं मद्यं मांसं
सुरासवम् ।
तद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं
देवानामश्नता हविः ॥ ॥ ९६ ॥
यदि द्विज अज्ञानतावश मद्य पी ले तो
प्रायश्चित स्वरुप मद्य को आग की तरह तपाकर पुन: पीना चाहिए,
उस मद्य से शरीर जल जाने पर वह द्विज पाप से छूटता है अथवा गोमूत्र,
जल, गौ का दूध, घी,
गोबर का रस इनमें किसी पदार्थ को आग के तरह लाल करके मरणान्त पीना
चाहिए। अथवा अन्नकण या तिल की खली एक साल तक रात में एक बार खाना चाहिए। कम्बल
ओढ़कर, बाल रखकर और मद्यपान का चिह्न धारण करके रहना चाहिए।
सुरा अन्न का मल है और मल को पाप कहते हैं। इस कारण ब्राह्मण-क्षत्रिय और वैश्यों
को मद्य नहीं पीनी चाहिए। गुड़ की पीठे की, और महुवे की ये
तीन प्रकार की मद्य होती हैं । जैसी गुड़ की है, वैसी ही
दूसरी भी है इसलिए द्विजों को मद्य नहीं पीनी चाहिए। मद्य यक्षों का मांस राक्षसों
का और सुरा - आसव पिशाचों का भोजन है। देव हवि खानवाले द्विजों को इनका सेवन कभी
नहीं करना चाहिए ॥९१-९६ ॥
अमेध्ये वा पतेन मत्तो वैदिकं
वाऽप्युदाहरेत् ।
अकार्यमन्यत् कुर्याद् वा ब्राह्मणो
मदमोहितः ॥ ॥९७॥
यस्य कायगतं ब्रह्म
मद्येनाप्लाव्यते सकृत् ।
तस्य व्यपैति ब्राह्मण्यं शूद्रत्वं
च स गच्छति ॥ ॥९८॥
एषा विचित्राभिहिता सुरापानस्य
निष्कृतिः ।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि सुवर्णस्तेयनिष्कृतिम्
॥ ॥९९॥
ब्राह्मण मद्यपान करके उसके नशे में
अपवित्र स्थान में गिरता है, गोप्य
वेदमन्त्र पढ़ता है और अकार्य करता है। जिस ब्राह्मण के शरीर में रहनेवाला
वेदज्ञान एक बार भी मद्य से मिल जाता है उसका ब्राह्मणत्व नष्ट हो जाता है और वह
शूद्रता को प्राप्त हो जाता है। यह सुरापान का विभिन्न प्रकार का प्रायश्चित्त कहा
है। अब सोना चुराने का प्रायश्चित्त कहा जायगा ॥ ९७ ९९ ॥
मनुस्मृति अध्याय ११-
स्वर्ण चोरी का प्रायश्चित्त
सुवर्णस्तेयकृद् विप्रो
राजानमभिगम्य तु ।
स्वकर्म ख्यापयन् ब्रूयात्मां
भवाननुशास्त्विति ॥ ॥ १०० ॥
गृहीत्वा मुसलं राजा सकृद्द्
हन्यात् तु तं स्वयम् ।
वधेन शुध्यति स्तेन ब्राह्मणस्तपसैव
तु ॥ ॥ १०१ ॥
तपसापनुनुत्सुस्तु सुवर्णस्तेयजं
मलम् ।
चीरवासा द्विजोऽरण्ये चरेद्
ब्रह्महनो व्रतम् ॥ ॥ १०२ ॥
एतैर्व्रतैरपोहेत पापं स्तेयकृतं
द्विजः ।
गुरुस्त्रीगमनीयं तु
व्रतैरेभिरपानुदेत् ॥ ॥१०३॥
सुवर्ण चोरी करनेवाला ब्राह्मण राजा
के पास जाकर अपने कर्म को प्रकट करना चाहिए और 'मुझे आप शिक्षा दें' ऐसा कहना छी-तब राजा उसके कंधे
पर से मूसल लेकर उसको एकबार मारे । चोट मारने से सोना शुद्ध होता है और ब्राह्मण
तप से और चोट खाने से शुद्ध हो जाता है। जो तप से शुद्ध होना चाहे उसे चीर पहन कर
वन में ब्रह्महत्या का व्रत करना चाहिए। इन मतों से चोरी के पाप को दूर करना चाहिए
और गुरुपत्नीगमन के पाप को आगे लिखे व्रतों से दूर करना चाहिए। ॥ १००-१०३ ॥
मनुस्मृति अध्याय ११-
गुरुपत्नीगमन-प्रायश्चित्त
गुरुतल्यभिभाष्यैनस्तप्ते
स्वप्यादयोमये ।
सूर्मी ज्वलन्तीं स्वाश्लिष्येन्
मृत्युना स विशुध्यति ॥ ॥ १०४ ॥
स्वयं वा शिष्णवृषणात्कृत्याधाय
चाञ्जलौ ।
नैऋतीं दिशमातिष्ठेदा
निपातादजिह्मगः ॥ ॥ १०५ ॥
खद्वाङ्गी चीरवासा वा श्मश्रुलो
विजने वने ।
प्राजापत्यं चरेत् कृच्छ्रमब्दमेकं
समाहितः ॥ ॥ १०६ ॥
चान्द्रायणं वा त्रीन्
मासानभ्यस्येन्नियतेन्द्रियः ।
हविष्येण यवाग्वा वा
गुरुतल्पापनुत्तये ॥ ॥ १०७ ॥
एतैर्व्रतैरपोहेयुर्महापातकिनो मलम्
।
उपपातकिनस्त्वेवमेभिर्नानाविधैर्व्रतैः
॥ ॥ १०८ ॥
गुरुपत्नी गामी अपने पाप को कहकर
लोहे की जलती हुई शय्या पर सोये अथवा जलती हुई लोहे की बनी स्त्री मूर्ति को लिपट
कर मरने से पाप शुद्ध होता है। अथवा खुद ही अपने लिंग और अण्डकोशों को काटकर अंजलि
में रखकर मरण' तक नैऋत्य दिशा में चला जाय ।
या हाथ में खाट का पाया रक्खे, चीथड़े पहने, दाढ़ी मूंछों को बढ़ाकर निर्जन वन में एक वर्ष तक सावधानी से निवास करे और
प्राजापत्य व्रत करना चाहिए। अथवा जितेन्द्रिय होकर, हविष्यान्न,
जौ की लपसी खाकर तीन मास तक चान्द्रायण व्रत करना चाहिए। इन व्रतों
से महापातकी पुरुष को अपने पापों को दूर करना चाहिए और उपपातकी लोग आगे लिखें
विविध व्रतों से अपने पापों का नाश करना चाहिए ॥१०४-१०८ ॥
मनुस्मृति अध्याय ११-
उपपातकों का प्रायश्चित्त
उपपातकसंयुक्तो गोघ्नो मासं यवान्
पिबेत् ।
कृतवापो वसेद् गोष्ठे चर्मणा तेन
संवृतः ॥ ॥ १०९ ॥
चतुर्थकालमश्नीयादक्षारलवणं मितम् ।
गोमूत्रेणाचरेत् स्नानं द्वौ मासौ
नियतेन्द्रियः ॥ ॥११०॥
दिवाऽनुगच्छेद् गास्तास्तु
तिष्ठन्नूर्ध्वं रजः पिबेत् ।
शुश्रूषित्वा नमस्कृत्य रात्रौ
वीरासनं वसेत् ॥ ॥ १११ ॥
तिष्ठन्तीष्वनुतिष्ठेत् तु
व्रजन्तीष्वप्यनुव्रजेत् ।
आसीनासु तथाऽसीनो नियतो वीतमत्सरः ॥
॥ ११२ ॥
गोवध करनेवाले को मुण्डन कराकर,
गोचर्म ओढ़कर एक साल गौगोष्ठ में रहना चाहिए और जौ की लपसी को चाटना
चाहिए। दो मास तक गोमूत्र से स्नान करना चाहिए, जितेन्द्रिय
रह कर चौथे काल (दूसरे दिन सायंकाल) बिना नमक का थोड़ा सा भोजन करना चाहिए। दिन
में गौओं के पीछे घूमना चाहिए और खड़ा होकर उनके खुर से उड़ी धूल को सहन करना
चाहिए। गो-सेवा करनी चाहिए, उनको प्रणाम करना चाहिए, रात में वीरासन से बैठना चाहिए। सदा गौत्रों के बैठने बैठना चाहिए और खड़ी
होने पर खड़ा होना चाहिए, चलने पर चलना चाहिए और फिर बैठने
पर बैठ जाना चाहिए। यह सब प्रेमभाव से करना चाहिए ॥१०६- ११२ ॥
आतुरामभिशस्तां वा
चौरव्याघ्रादिभिर्भयैः ।
पतितां पङ्कलग्नां वा सर्वोपायैर्
विमोचयेत् ॥ ॥ ११३ ॥
उष्ण वर्षति शीते वा मारुते वाति वा
भृशम् ।
न कुर्वीतात्मनस्त्राणं गोरकृत्वा
तु शक्तितः ॥ ॥ ११४ ॥
आत्मनो यदि वाऽन्येषां गृहे
क्षेत्रेऽथ वा खले ।
भक्षयन्तीं न कथयेत् पिबन्तं चैव
वत्सकम् ॥ ॥ ११५ ॥
अनेन विधिना यस्तु गोघ्नो
गामनुगच्छति ।
स गोहत्याकृतं पापं त्रिभिर्मासैर्व्यपोहति
॥ ॥ ११६ ॥
वृषभैकादशा गाश्च दद्यात्
सुचरितव्रतः ।
अविद्यमाने सर्वस्वं वेदविद्भ्यो
निवेदयेत् ॥ ॥ ११७ ॥
रोगी, चोर, बाघ के भय से व्याकुल, गिरी
हुई, कीचड़ में फंसी हुई गौ को सब उपायों से मुक्त करना
चाहिए। धूप में, वर्षा में, शीत में और
आंधी चलने पर भी यथाशक्ति गौ की रक्षा करनी चाहिए और उसके बाद अपनी रक्षा का उपाय
करना चाहिए। अपने अथवा दूसरे के घर में, खेत में, खलिहान में चरती गौ को और दूध पीटे बछड़े को किसी से नहीं कहना चाहिए। जो
गौवध करने चाला पुरुष इस विधि से गोसेवा करता है वह तीन मास में गौ हत्या के पाप
से मुक्त हो जाता है । इस भांति व्रत करनेवाले को एक बैल और दस गौ दान करना चाहिए।
यह पास न हो तो वेदज्ञ ब्राह्मण को अपना सर्वस्व अर्पण कर देना चाहिए ॥ ११३-११७ ॥
एतदेव व्रतं कुर्युरुपपातकिनो
द्विजाः ।
अवकीर्णिवर्ज्यं शुद्ध्यर्थं
चान्द्रायणमथापि वा ॥ ॥११८॥
अवकीर्णी तु काणेन गर्दभेन चतुष्पथे
।
पाकयज्ञविधानेन यजेत निर्ऋतिं निशि
॥ ॥ ११९ ॥
हुत्वाऽग्नौ विधिवद् होमानन्ततश्च
समित्यृचा ।
वातेन्द्रगुरुवह्नीनां जुहुयात्
सर्पिषाऽहुतीः ॥ ॥१२०॥
अवकीर्णी को छोड़कर दूसरे उपपातकी
द्विज अपनी शुद्धि के लिए इसी व्रत को अथवा चान्द्रायण व्रत को करना चाहिए।
परस्त्री से ब्रह्मचर्य खण्डित करनेवाला अवकीर्णी होता है । उसको रात को काने गधे
पर चढ़कर चौराहे में जाकर पाकयज्ञ के विधान से निऋति देवता का यज्ञ करना चाहिए।
अग्नि में विधि से होम करके "सं मा सिञ्चन्तु मरुतः संपूषा सं बृहस्पतिः ।
सं मायमग्निः सिञ्चतु प्रजया व धनेन च दीर्घमायुः कृणोतु मे इत्यादि ऋचा से,
मरुत, इन्द्र, गुरु और
अग्नि को घृत की आहुति देनी चाहिए ॥ ११८-१२० ॥
कामतो रेतसः सेकं व्रतस्थस्य
द्विजन्मनः ।
अतिक्रमं व्रतस्याहुर्धर्मज्ञा
ब्रह्मवादिनः ॥ ॥ १२१ ॥
मारुतं पुरुहूतं च गुरुं पावकमेव च
।
चतुरो व्रतिनोऽभ्येति ब्राह्मं
तेजोऽवकीर्णिनः ॥ ॥ १२२ ॥
एतस्मिन्नेनसि प्राप्ते वसित्वा
गर्दभाजिनम्।
सप्तागारांश्चरेद् भैक्षं स्वकर्म
परिकीर्तयन् ॥ ॥ १२३॥
तेभ्यो लब्धेन भैक्षेण
वर्तयन्नेककालिकम् ।
उपस्पृशंस्त्रिषवणं त्वब्देन स
विशुध्यति ॥ ॥ १२४ ॥
जातिभ्रंशकरं कर्म
कृत्वाऽन्यतममिच्छया ।
चरेत् सांतपनं कृच्छ्रं
प्राजापत्यमनिच्छ्या ॥ ॥१२५॥
सङ्करापात्र कृत्यासु मासं
शोधनमैन्दवम् ।
मलिनीकरणीयेषु तप्तः स्याद्
यावकैस्त्र्यहम् ॥ ॥ १२६ ॥
तुरीयो ब्रह्महत्यायाः क्षत्रियस्य
वधे स्मृतः ।
वृत्तस्थे शूद्रे ज्ञेयस्तु षोडशः ॥
॥ १२७ ॥
अकामतस्तु राजन्यं विनिपात्य
द्विजोत्तमः ।
वृषभैकसहस्रा गा दद्यात्
सुचरितव्रतः ॥ ॥१२८॥
व्रत धारी इच्छा से वीर्यपात करे तो
उसका व्रत भंग हो जाता है, यह धर्मज्ञ
ब्रह्मवादियों का मत है। व्रत भंग से उसका तेज वायु, इंद्र,
ब्रहस्पति और अग्नि इन चार व्रतधारियों को प्राप्त होता है। इस
प्रकार व्रत भंग का पाप लगे तो गधे का चमड़ा ओढ़कर अपने कर्म को प्रसिद्ध करते हुए
सात घरों से भीख मांगनी चाहिए और उस भिक्षा से एक बार भोजन निर्वाह कर दिन में तीन
बार स्नान करना चाहिए। इस प्रकार प्रायश्चित करने से पातकी एक वर्ष में शुद्ध होता
है। जानकर कोई जातिभ्रंश पाप करे तो 'सान्तपन व्रत' और अनजान में करे तो 'प्राजापत्य व्रत' करना चाहिए। संकर और अपात्र करनेवाले कर्मों में एक मास चान्द्रायण मन
शुद्ध करता है। और मलिनीकरण कर्मों में तीन दिन जो की अपनी जौ की लपसी खाने से
शुद्ध होता है । सदाचारी क्षत्रिय के वध में ब्रह्महत्या का चौथाई, वैश्य वध में आठवां हिस्सा और शूद्रवध में सोलहवां हिस्सा-प्रायश्चित्त
जानना चाहिए। यदि श्रेष्ठ द्विज अज्ञानवश क्षत्रिय का वध करे तो विधिपूर्वक
प्रायश्चित्त करने के पश्च्यात एक हजार गौ और एक बल का दान करना चाहिए ॥१२१-१२८ ॥
त्र्यब्दं चरेद् वा नियतो जटी
ब्रह्महनो व्रतम् ।
वसन् दूरतरे ग्रामाद्
वृक्षमूलनिकेतनः ॥ ॥ १२९ ॥
एतदेव चरेदब्दं प्रायश्चित्तं
द्विजोत्तमः ।
प्रमाप्य वैश्यं वृत्तस्थं
दद्याच्चैकशतं गवाम् ॥ ॥ १३० ॥
एतदेव व्रतं कृत्स्नं
षण्मासांशूद्रहा चरेत् ।
वृषभेकादशा वाऽपि दद्याद् विप्राय
गाः सिताः ॥ ॥ १३१ ॥
मार्जारनकुलौ हत्वा चाषं मण्डूकमेव
च ।
श्वगोधौलूककाकांश्च शूद्रहत्याव्रतं
चरेत् ॥ ॥ १३२ ॥
पयः पिबेत् त्रिरात्रं वा योजनं
वाऽध्वनो व्रजेत् ।
उपस्पृशेत् स्रवन्त्यां वा सूक्तं
वाऽब् दैवतं जपेत् ॥ ॥ १३३ ॥
अभ्रं कार्ष्णायसीं दद्यात् सर्पं
हत्वा द्विजोत्तमः ।
पलालभारकं षण्ढे सैसकं चैकमाषकम् ॥
॥१३४॥
घृतकुम्भं वराहे तु तिलद्रोणं तु
तित्तिरौ ।
शुके द्विहायनं वत्सं क्रौञ्चं
हत्वा त्रिहायनम् ॥ ॥ १३५ ॥
हत्वा हंसं बलाकां च बकं बर्हिणमेव
च ।
वानरं श्येनभासौ च स्पर्शयेद्
ब्राह्मणाय गाम् ॥ ॥ १३६ ॥
अथवा उस पुरुष को ग्राम से दूर
वृक्ष के नीचे जटा रखकर एक वर्ष तक ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त करना चाहिए। और
यहीं प्रायश्चित्त - अंजान में सदाचारी वैश्य के वध में भी करना चाहिए और एक सौ गौ
का दान करना चाहिए । शूद्रवध में भी यही सब प्रायश्चित्त छः मास तक करना दस श्वेत
गौ और एक बैल दान करना चाहिए। बिलाव,नेवला,
पपीहा, मेंढक, कुत्ता
छिपकली, उल्लू और कौआ को अनजान में मारकर शुद्रहत्या का व्रत
करना चाहिए। अथवा तीन रात तक दूध पीकर करना चाहिए अथवा एक योजन तक मार्ग चलना अथवा
तीन बार नदी में स्नान करना चाहिए अथवा 'आपोहिष्टा'
इत्यादि वरुणसूक्त का पाठ करना चाहिए। द्विज सर्प का वध करे
तो उसे तीखे नोक का लोहे का दण्डा दान करना चाहिए। नपुंसक का वध करने पर एक भार
धान के सूखे डंठल अथवा एक माषा सीसा देना चाहिए। सूअर के वध में घी भरा घड़ा,
तीतर मारने पर एक द्रोण तेल, तोता की हत्या
में दो वर्ष का बछड़ा, क्रौञ्च वध में तीन वर्ष का बछड़ा दान
करना चाहिए। हंस, बगली, बगला, मोर, वानर, बाज और भास इन
पक्षियों को मारकर ब्राह्मण को गो 'दान करना चाहिए तभी पाप
से शुद्ध होता है ॥ १२६ - १३६ ॥
वासो दद्याद् हयं हत्वा पञ्च नीलान्
वृषान् गजम् ।
अजमेषावनड्वाहं खरं हत्वैकहायनम् ॥
॥१३७॥
क्रव्यादांस्तु मृगान् हत्वा धेनुं
दद्यात् पयस्विनीम् ।
अक्रव्यादान् वत्सतरीमुष्ट्रं हत्वा
तु कृष्णलम् ॥ ॥१३८॥
घोड़े की हत्या में वस्त्र,
हाथी की हत्या में पांच नीले बैल, बकरा और मेढ़ा
के लिए सांड़ और गर्दभ के वध में एक वर्ष का बछड़ा दान करना चाहिए। मांसाहारी
पशुओं की हत्या में दूध देनेवाली गौ, मांस न खानेवाले पशुओं
की हिंसा में बछड़ी और ऊंट की हिंसा में रत्तीभर सोने का दान करना चाहिए ॥१३७ -
१३८ ॥
कार्मुकबस्तावीन् पृथग् दद्याद्
विशुद्धये ।
चतुर्णामपि वर्णानां
नारीर्हत्वाऽनवस्थिताः ॥ ॥ १३९ ॥
दानेन वधनिर्णेकं
सर्पादीनामशक्नुवन् ।
एकैकशश्चरेत् कृच्छ्रं द्विजः पापापनुत्तये ॥ ॥ १४० ॥
स्थितां तु सत्त्वानां सहस्रस्य
प्रमापणे ।
पूर्णे चानस्यनस्थ्नां तु
शूद्रहत्याव्रतं चरेत् ॥ ॥१४१॥
किं चिदेव तु विप्राय
दद्यादस्थिमतां वधे ।
अनस्थनां चैव हिंसायां प्राणायामेन
शुध्यति ॥ ॥ १४२ ॥
फलदानां तु वृक्षाणां छेदने
जप्यमृच्शतम् ।
गुल्मवल्लीलतानां च पुष्पितानां च
वीरुधाम् ॥ ॥ १४३॥
अन्नाद्यजानां सत्त्वानां रसजानां च
सर्वशः ।
फलपुष्पोद्भवानां च घृतप्राशो
विशोधनम् ॥ ॥१४४॥
चारों वर्ण की व्यभिचारिणो
स्त्रियों की हत्या होने पर क्रम से मृगचर्म,धनुष,
चकरा और मेढ़े का दान करना चाहिए। पूर्व कहे हुए सर्प आदि के
प्रायश्चित्तों को न कर सके तो एक एक कृच्छ व्रत करना चाहिए। हजार हड्डीवाले जीवों
की हत्या और विना हड्डीवाले गाड़ी भर जीवों की हत्या में शुद्रहत्या का
प्रायश्चित्त करना चाहिए। अस्थि- हड्डी वाले प्राणियों की हत्या में ब्राह्मण को
कुछ दक्षिणा देनी चाहिए और अस्थि रहितों की हत्या में प्राणी प्राणायाम से शुद्ध
होता है। फल देनेवाले वृक्ष, गुल्म, बेल,
लता और फूलवाले पौधों को व्यर्थ काटने पर सौ ऋचाओं का पाठ करना
चाहिए। सब प्रकार के अन्न, रस,फल-पुष्पादि
में पैदा हुए जीवों के वध में 'घृत-प्राशन' शुद्ध करता है ॥ १३६-१४४ ॥
कृष्तजानामोषधीनां जातानां च स्वयं
वने ।
वृथालम्भेऽनुगच्छेद् गां दिनमेकं
पयोव्रतः ॥ ॥१४५॥
एतैर्व्रतैरपोह्यं स्यादेनो
हिंसासमुद्भवम् ।
ज्ञानाज्ञानकृतं कृत्स्नं
शृणुतानाद्यभक्षणे ॥ ॥ १४६ ॥
खेत में या वन में स्वयं उत्पन्न
औषधियों को व्यर्थ काटने पर एक दिन दूध पीकर गौ के पीछे घूमना चाहिए। जानकर अथवा अंजाने
में हिंसा से हुए सभी पाप इन व्रतो से नष्ट हो जाते हैं । अब अभक्ष्य भक्षण का प्रायश्चित्त
सुनो ॥१४५-३४६ ॥
आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 11 भाग 2
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