मनुस्मृति ग्यारहवाँ अध्याय

मनुस्मृति ग्यारहवाँ अध्याय

मनुस्मृति ग्यारहवाँ अध्याय के भाग-२ श्लोक १४७ से २६६ में अभक्ष्य भक्षण प्रायश्चित्त का वर्णन किया गया है।

मनुस्मृति ग्यारहवाँ अध्याय

मनुस्मृति अध्याय ११  

Manu smriti chapter 11

मनुस्मृति एकादशोऽध्यायः

॥ श्री हरि ॥

॥ मनुस्मृति ॥

मनुस्मृति ग्यारहवाँ अध्याय      

॥अथ एकादशोऽध्यायः ॥

मनुस्मृति अध्याय ११- अभक्ष्य भक्षण प्रायश्चित्त

अज्ञानाद् वारुणीं पीत्वा संस्कारेणैव शुध्यति ।

मतिपूर्वमनिर्देश्यं प्राणान्तिकमिति स्थितिः ॥ ॥ १४७ ॥

अपः सुराभाजनस्था मद्यभाण्डस्थितास्तथा ।

पञ्चरात्रं पिबेत् पीत्वा शङ्खपुष्पीशृतं पयः ॥ ॥ १४८ ॥

स्पृष्ट्वा दत्त्वा च मदिरां विधिवत् प्रतिगृह्य च ।

शूद्रोच्छिष्टाश्च पीत्वाऽपः कुशवारि पिबेत् त्र्यहम् ॥ ॥ १४९ ॥

ब्राह्मणस्तु सुरापस्य गन्धमाघ्राय सोमपः ।

प्राणानप्सु त्रिरायम्य घृतं प्राश्य विशुध्यति ॥ ॥ १५० ॥

अज्ञानात् प्राश्य विण्मूत्रं सुरासंस्पृष्टमेव च ।

पुनः संस्कारमर्हन्ति त्रयो वर्णा द्विजातयः ॥ ॥ १५१॥

वनं मेखला दण्डो भैक्षचर्या व्रतानि च ।

निवर्तन्ते द्विजातीनां पुनः संस्कारकर्मणि ॥ ॥ १५२ ॥

अज्ञान में मद्यपान करने पर संस्कार से शुद्धि होती है और इच्छा पूर्व पीने पर कोई प्रायश्चित नहीं कहा है। केवल मृत्यु उपरांत शुद्धि होती है - यही मर्यादा है। जिसने सुरा और मद्य के पात्र का जल पिया हो उसको पांच दिन शंखपुष्पि का काढ़ा पीना चाहिए। मद्य छूकर, देकर और और विधि से ग्रहण करके और शूद्र का झूठा जल पीकर तीन दिन कुश का उबला जल पीना चाहिए। सोमपान करने वाला, मद्यप के मुख गंध को सूंघकर तीन प्राणायाम जल का और घृतप्राशन करने से शुद्ध होता है। अज्ञान से विष्ठा, मूत्र और मद्य स्पर्श हुआ पदार्थ पाकर द्विजों का पुन: संस्कार होना ही उचित है। द्वितीय संस्कार में द्विजातियों को मुण्डन, मेखला, दण्ड, भिक्षा और व्रत धारण नहीं करना होता ॥१४७-२५२ ॥

अभोज्यानां तु भुक्त्वाऽन्नं स्त्रीशूद्रोच्छिष्टमेव च ।

जग्ध्वा मांसमभक्ष्यं च सप्तरात्रं यवान् पिबेत् ॥ ॥१५३॥

शुक्तानि च कषायांश्च पीत्वा मेध्यान्यपि द्विजः ।

तावद् भवत्यप्रयतो यावत् तन्न व्रजत्यधः ॥ ॥ १५४ ॥

विड्वराहखरोष्ट्राणां गोमायोः कपिकाकयोः ।

प्राश्य मूत्रपुरीषाणि द्विजश्चान्द्रायणं चरेत् ॥ ॥१५५॥

शुष्काणि भुक्त्वा मांसानि भौमानि कवकानि च ।

अज्ञातं चैव सूनास्थमेतदेव व्रतं चरेत् ॥ ॥१५६॥

क्रव्यादसूकरोष्ट्राणां कुक्कुटानां च भक्षणे ।

नरकाकखराणां च तप्तकृच्छ्रं विशोधनम् ॥ ॥ १५७ ॥

मासिकान्नं तु योऽश्नीयादसमावर्तको द्विजः ।

सत्रीण्यहान्युपवसेदेकाहं चोदके वसेत् ॥ ॥ १५८ ॥

ब्रह्मचारी तु योऽश्रीयान् मधु मांसं कथं चन ।

स सकृत्वा प्राकृतं कृच्छ्रं व्रतशेषं समापयेत् ॥ ॥ १५९ ॥

बिडालकाकाखूच्छिष्टं जग्ध्वा श्वनकुलस्य च ।

केशकीटावपन्नं च पिबेद् ब्रह्मसुवर्चलाम् ॥ ॥ १६० ॥

अभोज्यों का अन्न, स्त्री और शूद्र का जूठन खाकर और अभक्ष्य मांस खाकर सात रात जौ की लपसी खानी चाहिए। सिरका इत्यादि सड़ी भोज्य वस्तु और काढ़ा पीकर बिना वमन किये द्विज शुद्ध नहीं होता। गांव का सुअर, गधा, ऊंट, सियार, वानर और कौत्रा का मूत्र और विष्ठा खा जाने पर, चान्द्रायण व्रत करना चाहिए। सूखा मांस, ज़मीन के फूल, अज्ञात और कसाईखाने का मांस खाकर भी चान्द्रायण व्रत ही करना चाहिए। कच्चा मांस खानेवाले, सुअर, ऊंट, मुरगा, मनुष्य, कौआ और गधे का मांस खाने में आ जाय तो तप्तकृच्छ से शुद्ध होता है। बिना समावर्तन के जो ब्रह्मचारी द्विज, मासिक श्राद्ध का अन्न खाता है उसे तीन दिन उपवास करना चाहिए और एक दिन जल में बैठना चाहिए। जो ब्रह्मचारी भी किसी प्रकार मांस का सेवन कर ले, उसको प्राजापत्य व्रत करना चाहिए और बाकी बचे ब्रह्मचर्य को समाप्त कर देना चाहिए। बिल्ली, कौआ, चूहा, कुत्ता और नेवले का जूठा और दाल, कीड़ा पड़ा अन्न खाकर 'ब्रह्मसुवर्चला का काढ़ा पीना चाहिए॥१५३-१६०॥

अभोज्यमन्नं नात्तव्यमात्मनः शुद्धिमिच्छता ।

अज्ञानभुक्तं तूत्तार्यं शोध्यं वाऽप्याशु शोधनैः ॥ ॥१६१॥

एषोऽनाद्यादनस्योक्तो व्रतानां विविधो विधिः ।

स्तेयदोषापहर्तॄणां व्रतानां श्रूयतां विधिः ॥ ॥ १६२ ॥

धान्यान्नधनचौर्याणि कृत्वा कामाद् द्विजोत्तमः ।

स्वजातीयगृहादेव कृच्छ्राब्देन विशुध्यति ॥ ॥ १६३॥

मनुष्याणां तु हरणे स्त्रीणां क्षेत्रगृहस्य च ।

कूपवापीजलानां च शुद्धिश्चान्द्रायणं स्मृतम् ॥ ॥ १६४ ॥

द्रव्याणामपसाराणां स्तेयं कृत्वाऽन्यवेश्मतः ।

चरेत् सांतपनं कृच्छ्रं तन्निर्यात्यात्मशुद्धये ॥ ॥१६५॥

भक्ष्यभोज्यापहरणे यानशय्याऽऽसनस्य च ।

पुष्पमूलफलानां च पञ्चगव्यं विशोधनम् ॥ ॥१६६॥

तृणकाष्ठद्रुमाणां च शुष्कान्नस्य गुडस्य च ।

चेलचर्मामिषाणां च त्रिरात्रं स्यादभोजनम् ॥ ॥ १६७ ॥

मणिमुक्ताप्रवालानां ताम्रस्य रजतस्य च ।

अयः । कांस्यौपलानां च द्वादशाहं कणान्नता ॥ ॥ १६८ ॥

अपनी शुद्धि चाहनेवाला पुरुष को अभोज्य अन्न नहीं खाना चाहिए और अज्ञान से खाया हुआ वमन कर देना चाहिए। यह न कर सके तो शीघ्र प्रायश्चित्तों से शुद्धि करना चाहिए। यह सब अभक्ष्य भक्षण व्रतों की अनेक प्रकार की विधि कही। अब चोरी के पाप को नाश करनेवाले व्रतों को सुनो। ब्राह्मण यदि जानकर अपने सजातीय के घर से अन्न, पक्क्वान और धन चुरावे तो एक वर्ष प्राजापत्य करने से शुद्ध होता है। मनुष्य, स्त्री, खेत, घर, कूप और बावड़ी के जल की चोरी करने पर चान्द्रायण व्रत करना चाहिये। कम कीमत के पदार्थ दूसरे के घर से चुराने पर सान्तपन व्रत करना चाहिए और वह पदार्थ लौटा देना चाहिए। लड्डू श्रादि भक्ष्य, खीर वगैरह भोज्य, सवारी, शय्या, आसन, फूल, मूल और फल की चोरी में पंचगव्य से शुद्धि होती है। तृण, काठ, वृक्ष, सुखा अन्न, गुड़, वस्त्र, चर्म और मांस चुराने पर तीन दिन उपवास करना चाहिए। मणि, मोती, मूंगा, तांबा, चांदी, लोहा, कांसा और पत्थर चुराने पर बारह दिन चावल की कनकी खानी चाहिए ॥१६१-१६८॥

कार्पासकीटजोर्णानां द्विशफेकशफस्य च ।

पक्षिगन्धौषधीनां च रज्ज्वाश्चैव त्र्यहं पयः ॥ ॥ १६९ ॥

एतैर्व्रतैरपोहेत पापं स्तेयकृतं द्विजः ।

अगम्यागमनीयं तु व्रतैरेभिरपानुदेत् ॥ ॥ १७० ॥

गुरुतल्पव्रतं कुर्याद् रेतः सिक्त्वा स्वयोनिषु ।

सख्युः पुत्रस्य च स्त्रीषु कुमारीष्वन्त्यजासु च ॥ ॥ १७१ ॥

पैतृस्वसेयीं भगिनीं स्वस्रीयां मातुरेव च ।

मातुश्च भ्रातुस्तनयां गत्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥ ॥ १७२ ॥

एतास्तिस्रस्तु भार्यार्थे नोपयच्छेत् तु बुद्धिमान् ।

ज्ञातित्वेनानुपेयास्ताः पतति ह्युपयन्नधः ॥ ॥ १७३ ॥

कपास, रेशम, ऊन दो और एक खुर के पशु, पक्षी, सुगन्ध, द्रव्य, औषध, रस्सी की चोरी करने पर तीन दिन पानी पीकर बिताना चाहिए। द्विजों को इन व्रतों से चोरी के पाप को दूर करना चाहिए। अगम्या स्त्री के गमन का पाप इन व्रतों से दूर करे - संगी, बहन, मित्र और पुत्र की स्त्री, कुमारी और चाण्डाली के साथ गमन में गुरुपत्नी- गमन का प्रायश्चित्त करना चाहिए। बुआ की बेटी, मौसी की बेटी और मामा की बेटी इन तीन बहनों से गमन करके चन्द्रायण व्रत करना चाहिए। बुद्धिमान् पुरुष को इन तीनों को स्त्रीरूप से स्वीकार नहीं करना चाहिए, यह सभी समान जाति की होने से अगम्या हैं इनसे गमन करने से मनुष्य नरकगामी होता है ॥१६६-१७३॥

अमानुषीषु पुरुष उदक्यायामयोनिषु ।

रेतः सिक्त्वा जले चैव कृच्छ्रं सांतपनं चरेत् ॥ ॥ १७४॥

मैथुनं तु समासेव्य पुंसि योषिति वा द्विजः ।

गोयानेऽप्सु दिवा चैव सवासाः स्नानमाचरेत् ॥ ॥१७५॥

चण्डालान्त्यस्त्रियो गत्वा भुक्त्वा च प्रतिगृह्य च ।

पतत्यज्ञानतो विप्रो ज्ञानात् साम्यं तु गच्छति ॥ ॥ १७६ ॥

अमानुषी योनि, रजस्वला और जल में वीर्यपात करके सान्तपन व्रत करना चाहिए। द्विज पुरुष-स्त्री को बैलगाड़ी में, जल में और दिन में, मैथुन करके वस्त्र सहित स्नान करना चाहिए। ब्राह्मण अज्ञान से चाण्डाल, मेलच्छ स्त्री से गमन करके, उनका यहाँ भोजन करके, उनसे दान लेकर पतित होता है और जानकर ऐसा कर्म करने पर उनके समान हो जाता है ॥१७४-१७६ ॥

विप्रदुष्टां स्त्रियं भर्ता निरुन्ध्यादेकवेश्मनि ।

यत् पुंसः परदारेषु तच्चैनां चारयेद् व्रतम् ॥ ॥ १७७॥

सा चेत् पुनः प्रदुष्येत् तु सदृशेनोपमन्त्रिता ।

कृच्छ्रं चान्द्रायणं चैव तदस्याः पावनं स्मृतम् ॥ ॥ १७८ ॥

यत् करोत्येकरात्रेण वृषलीसेवनाद् द्विजः ।

तद् भैक्षभुज्जपन्नित्यं त्रिभिर्वर्षेर्व्यपोहति ॥ ॥ १७९ ॥

एषा पापकृतामुक्ता चतुर्णामपि निष्कृतिः ।

पतितैः सम्प्रयुक्तानामिमाः शृणुत निष्कृतीः ॥ ॥१८०॥

दुराचारी स्त्री को, उसके पति को एक घर में बन्द कर देना चाहिए और जो पुरुष को परस्त्रीगमन में प्रायश्चित्त है, वही उससे करवाना चाहिए। किसी जातीय पुरुष के बहकाने पर यदि वह फिर बिगड़ जाए तो उसको चन्द्रायण व्रत करवाना चाहिए। एक रात चांडाली के साथ समागम करने से जो पाप द्विज करता है वह तीन वर्ष तक भिक्षा अन्न खाकर गायत्री जप से दूर होता है। यह सब पाप करनेवाले चारो वर्ण की शुद्धि कही है। अब पतितों के संसर्ग का प्रायश्चित्त सुनो ॥ १७७-१८० ॥

संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन् ।

याजनाध्यापनाद् यौनान्न तु यानासनाशनात् ॥ ॥१८१ ॥

यो येन पतितेनैषां संसर्गं याति मानवः ।

स तस्यैव व्रतं कुर्यात् तत्संसर्गविशुद्धये ॥ ॥१८२॥

पतितस्योदकं कार्यं सपिण्डैर्बान्धवैर्बहिः ।

निन्दितेऽहनि सायाह्ने ज्ञातिर्त्विग्गुरुसंनिधौ ॥ ॥१८३॥

दासी घटमपां पूर्णं पर्यस्येत् प्रेतवत् पदा ।

अहोरात्रमुपासीरन्नशौचं बान्धवैः सह ॥ ॥ १८४ ॥

एक वर्ष तक पतितों के साथ एक सवारी वा आसन पर बैठने से और एक पंक्ति में भोजन करने से उनको यज्ञकर्म कराने, वेद पढ़ाने और विवाहसम्बन्ध करने से पतित हो जाता है। जो मनुष्य, इन पतितो के साथ जो संसर्ग करता है वह उस संसर्ग की शुद्धि के लिए वही व्रत करना चाहिए । पतित प्रायश्चित्त न करे तो उसके सपिण्ड और ममेरे- फुफेरे भाई आदि निदित तिथि को सायंकाल, गाँव के बाहर जाति- पुरोहित - गुरुजनों के सामने जलदान करना चाहिए। बासी जल भरे पुराने घड़े को प्रेत के समान पैर से ठोकर देकर फोड़ दे, और सपिण्ड बान्धवों के साथ एक दिन रात का प्रायश्चित्त मानना चाहिए॥ १८१-१८४ ॥

निवर्तेरंश्च तस्मात् तु संभाषणसहासने ।

दायाद्यस्य प्रदानं च यात्रा चैव हि लौकिकी ॥ ॥१८५॥

ज्येष्ठता च निवर्तेत ज्येष्ठावाप्यं च यद् धनम् ।

ज्येष्ठांशं प्राप्नुयाच्चास्य यवीयान् गुणतोऽधिकः ॥ ॥ १८६॥

प्रायश्चित्ते तु चरिते पूर्णकुम्भमपां नवम् ।

तेनैव सार्धं प्रास्येयुः स्नात्वा पुण्ये जलाशये ॥ ॥ १८७॥

सत्वप्सु तं घटं प्रास्य प्रविश्य भवनं स्वकम् ।

सर्वाणि ज्ञातिकार्याणि यथापूर्वं समाचरेत् ॥ ॥१८८ ॥

एतदेव विधिं कुर्याद् योषित्सु पतितास्वपि ।

वस्त्रान्नपानं देयं तु वसेयुश्च गृहान्तिके ॥ ॥ १८९॥

सपिण्डो को उनके साथ बोल-चाल उठना-बैठना छोड़ देना चाहिए। पिता के धन में उसको भाग नहीं देना चाहिए और लौकिक व्यवहार भी नहीं करना चाहिए। पतित की ज्येष्ठता और उसके भाग का धन जाता रहता है। इसलिये यह भाग छोटों में जो गुणी हो उनको देना चाहिये । परन्तु वह प्रायश्चित्त करे तो सपिण्ड-बान्धव साथ ही पवित्र जलाशय में स्नान करना चाहिए और जल भरा घड़ा उस जलाशय में डालना चाहिए। तथा घर में आकर जाति के सब काम पूर्ववत् करने चाहिए । पतित स्त्रियों के विषय में भी यही विधि करनी चाहिए। परन्तु उनको अन्न, वस्त्र, जल देना चाहिए और घर के पास में रहना चाहिए।। १८५ १८९ ।।

एनस्विभिरनिर्णिक्तैर्नार्थं किं चित् सहाचरेत् ।

कृतनिर्णेजनांश्चैव न जुगुप्सेत कर्हि चित् ॥ ॥ १९०॥

बालघ्नांश्च कृतघ्नांश्च विशुद्धानपि धर्मतः ।

शरणागतन्तूंश्च स्त्रीहन्तुंश्च न संवसेत् ॥ ॥१९१॥

द्विजानां सावित्री नानूच्येत यथाविधि ।

तांश्चारयित्वा त्रीन् कृच्छ्रान् यथाविध्योपनाययेत् ॥ ॥१९२॥

प्रायश्चित्त न करनेवाले पातकियों के साथ दान आदि का कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए और प्रायश्चित्त करनेवालों की पुन: निन्दा भी नहीं करनी चाहिए। बालहत्यावाले, कृतघ्न, शरणागत को मारने वाले और स्त्रियों की हत्या करनेवाले, प्रायश्चित कर भी लें, तब भी उनका संसर्ग नहीं करना चाहिए। जिन द्विजों का शास्त्रोक्त समय में यज्ञोपवीत न हुआ हो उनको तीन प्राजापत्य व्रत कराकर विधि पूर्वक यज्ञोपवीत करवाना चाहिए ॥ १९० - १९२ ॥

प्रायश्चित्तं चिकीर्षन्ति विकर्मस्थास्तु ये द्विजाः ।

ब्रह्मणा च परित्यक्तास्तेषामप्येतदादिशेत् ॥ ॥ १९३ ॥

यद् गर्हितेनार्जयन्ति कर्मणा ब्राह्मणा धनम् ।

तस्योत्सर्गेण शुध्यन्ति जप्येन तपसैव च ॥ ॥ १९४ ॥

जपित्वा त्रीणि सावित्र्याः सहस्राणि समाहितः ।

मासं गोष्ठे पयः पीत्वा मुच्यतेऽसत्प्रतिग्रहात् ॥ ॥ १९५॥

उपवासकृशं तं तु गोव्रजात् पुनरागतम् ।

प्रणतं प्रति पृच्छेयुः साम्यं सौम्यैच्छसीति किम् ॥ ॥ १९६ ॥

सत्यमुक्त्वा तु विप्रेषु विकिरेद् यवसं गवाम् ।

गोभिः प्रवर्तिते तीर्थे कुर्युस्तस्य परिग्रहम् ॥ ॥ १९७ ॥

व्रात्यानां याजनं कृत्वा परेषामन्त्यकर्म च ।

अभिचारमहीनं च त्रिभिः कृच्छ्रेर्व्यपोहति ॥ ॥ १९८ ॥

शरणागतं परित्यज्य वेदं विप्लाव्य च द्विजः ।

संवत्सरं यवाहारस्तत् पापमपसेधति ॥ ॥ १९९ ॥

श्वशृगालखरैर्दष्ट ग्राम्यैः क्रव्याद्भिरेव च ।

नराश्वोष्ट्रवराहैश्च प्राणायामेन शुध्यति ॥ ॥ २००॥

विरुद्ध कर्म करनेवाले और वेद न पढ़े हुए द्विज प्रायश्चित्त करना चाहें तो उनको भी यही तीन कृच्छ का प्रायश्चित्त बताना चाहिए। जो ब्राह्मण निंदित कर्मों से धन कमाते हैं वह उसको छोड़ने और जप-तप से शुद्ध होते हैं। एकाग्रचित्त से तीन हजार गायत्री का जप करके एक महीना गोष्ठ में दुग्धाहार करके, बुरे दान लेने के पाप से छूटता है। उस 'उपवास से कश, गौष्ठ से आए विनीत ब्राह्मण से पूछे कि "हे सौम्य ! "क्या तू हमारे समान रहने की प्रतिज्ञा करना चाहता है ?" उन ब्राह्मणों से 'अब असत् दान न लूंगा' यह सत्यवचन कहे और गौवों को चारा देवे फिर गौवों से पवित्र किए स्थान (जहां गौ जल पीती हों) में वे ब्राह्मण उसके साथ व्यवहार प्रारम्भ करें। व्रात्यों को यज्ञ कराकर माता, पिता और गुरु से अन्य का प्रेतकर्म करा कर मारणकर्म और 'अहीन' नामक यज्ञ करके तीन प्राजापत्य व्रत करने शुद्ध होता है । शरणागत को छोड़कर अनधिकारी को वेद पढ़ाकर एक वर्ष जौ खाने से पाप से छुटकारा पाता है। गांव के रहनेवाले कोई जीव कुत्ता, सियार, गदहा, मांसाहारी जीव, मनुष्य, घोड़ा, ऊंट और सूअर काट लें अथवा स्पर्श कर लें तो प्राणायाम से शुद्ध होता है।॥ १९३ - २०० ॥

षष्ठान्नकालता मासं संहिताजप एव वा ।

होमाश्च सकला नित्यमपाङ्क्त्यानां विशोधनम् ॥ ॥२०१॥

उष्ट्यानं समारुह्य खरयानं तु कामतः ।

स्नात्वा तु विप्रो दिग्वासाः प्राणायामेन शुध्यति ॥ ॥ २०२ ॥

विनाऽद्भिरप्स वाऽप्यार्तः शारीरं संनिषेव्य च ।

सचैलो बहिराप्लुत्य गामालभ्य विशुध्यति ॥ ॥ २०३॥

वेदोदितानां नित्यानां कर्मणां समतिक्रमे ।

स्नातकव्रतलोपे च प्रायश्चित्तमभोजनम् ॥ ॥ २०४ ॥

हुङ्कारं ब्राह्मणस्योक्त्वा त्वङ्कारं च गरीयसः।

स्नात्वाऽनश्नन्नहः शेषमभिवाद्य प्रसादयेत् ॥ ॥२०५॥

ताडयित्वा तृणेनापि कण्ठे वाऽबध्य वाससा ।

विवादे वा विनिर्जित्य प्रणिपत्य प्रसादयेत् ॥ ॥ २०६ ॥

अवगूर्य त्वब्दशतं सहस्रमभिहत्य च ।

जिघांसया ब्राह्मणस्य नरकं प्रतिपद्यते ॥ ॥ २०७ ॥

शोणितं यावतः पांसून् सङ्गृह्णाति महीतले ।

तावन्त्यब्दसहस्राणि तत्कर्ता नरके वसेत् ॥ ॥२०८ ॥

एक मास तक दो दिन के बाद तीसरे दिन सायंकाल को भोजन,वेदसंहिता का पाठ और साकल मन्त्रों से होम, पंक्ति बाह्य को शुद्ध करता है । ब्राह्मण जानकर ऊंट या गधे की सवारी में बैठे या नंगा होकर स्नान करे तो प्राणायाम से शुद्ध होता है। मल, मूत्र के वेग से आतुर पुरुष बिना जल के अथवा जल में मल मूत्र त्याग करें तो गाँव के बाहर सवस्त्र स्नान कर और गौ का स्पर्श करके शुद्ध होता है। वेदोक्त नित्यकर्मों का और स्नातक के व्रत का लोप होने पर उपवास करना प्रायश्चित्त है। ब्राह्मण को हुंकार (चुप रह आदि) और बड़े को (तू) इत्यादि न कहकर स्नान करके भोजन कराकर और प्रणाम करके उनको प्रसन्न करना चाहिए। ब्राह्मण को तिनके से भी नहीं मारना चाहिए, वस्त्र से नहीं बांधना चाहिए और विवाद से कभी भी नहीं जीतकर उनको प्रणाम करके, उनको प्रसन्न करना चाहिए। ब्राह्मण को मारने की इच्छा से दण्डा उठाने पर मनुष्य सौ वर्ष और मारकर हजार वर्ष नरक में गिरता है। पीटे गए ब्राह्मण के देह से गिरा रुधिर धूल के जितने कणों को भिगोता है मारनेवाला उतने हजार वर्ष नरक में व्यतीत करता है ॥२०१-२०८ ॥

अवगूर्य चरेत् कृच्छ्रमतिकृच्छ्रं निपातने ।

कृच्छ्रातिकृच्छ्रौ कुर्वीत विप्रस्योत्पाद्य शोणितम् ॥ ॥ २०९ ॥

अनुक्तनिष्कृतीनां तु पापानामपनुत्तये ।

शक्तिं चावेक्ष्य पापं च प्रायश्चित्तं प्रकल्पयेत् ॥ ॥२१०॥

यैरभ्युपायैरेनांसि मानवो व्यपकर्षति ।

तान् वोऽभ्युपायान् वक्ष्यामि देवर्षिपितृसेवितान् ॥ ॥२११॥

त्र्यहं प्रातस्त्र्यहं सायं त्र्यहमद्यादयाचितम् ।

त्र्यहं परं च नाश्नीयात् प्राजापत्यं चरन् द्विजः ॥ ॥ २१२ ॥

गोमूत्र गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् ।

एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सांतपनं स्मृतम् ॥ ॥ २१३॥

एकैकं ग्रासमश्नीयात् त्र्यहाणि त्रीणि पूर्ववत् ।

त्र्यहं चोपवसेदन्त्यमतिकृच्छ्रं चरन् द्विजः ॥ ॥ २१४॥

तप्तकृच्छ्रं चरन् विप्रो जलक्षीरघृतानिलान् ।

प्रतित्र्यहं पिबेदुष्णान् सकृत्स्नायी समाहितः ॥ ॥ २१५ ॥

यतात्मनोऽप्रमत्तस्य द्वादशाहमभोजनम् ।

पराको नाम कृच्छ्रोऽयं सर्वपापापनोदनः ॥ ॥ २१६ ॥

ब्राह्मण के ऊपर मारने के लिए लकड़ी उठाकर प्राजापत्य, मारने पर अतिकृच्छु और रुधिर निकलने पर कृच्छातिकृच्छु व्रत करना चाहिए। जिन दोषों का प्रायश्चित्त नहीं कहा है उनका शक्ति और पाप विचार कर प्रायश्चित्त नियत करना चाहिए। मनुष्य जिन उपायों से पाप नष्ट करता है उन देवर्षि और पितरों के सेवित उपायों को तुम से कहता हूं । प्राजापत्य व्रत करनेवाले द्विज को तीन दिन प्रातः काल और तीन दिन सायंकाल और तीन दिन बिना मांगा अन्न खाना चाहिए और तीन दिन व्रत करना चाहिए करे इस प्रकार बारह दिन का व्रत होता है । एक दिन गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी और कुश का जल मिलाकर खाय और एक रात्रि को उपवास करे तब 'कृच्छ सान्तपन' होता है। तीन दिन प्रातकाल एक एक ग्रास खाए, दूसरे दिन सायंकाल को एक एक ग्रास खाए, तीसरे दिन बिना मांगा एक एक ग्रास खाय और अन्त के तीन दिन उपवास करे यह 'अतिकृच्छ' कहलाता है। तप्तकृच्छ करनेवाला द्विज एक बार स्नान करे और तीन दिन गरम जल तीन दिन गरम दूध, तीन दिन गरम घी, और तीन दिन वायु का सेवन करना चाहिए। जितेन्द्रिय होकर बारह दिन भोजन न करना 'पराक' नामक कृच्छ है । यह सभी पापों को दूर कर देता है।॥२०९-२१६ ॥

एकैकं ह्रासयेत् पिण्डं कृष्णे शुक्ले च वर्धयेत् ।

उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतत्वाण्ड्रायणं स्मृतम् ॥ ॥ २१७ ॥

एतमेव विधिं कृत्स्नमाचरेद् यवमध्यमे ।

शुक्लपक्षादिनियतश्चरंश्चान्द्रायणं व्रतम् ॥ ॥२१८॥

अष्टावष्टौ समश्नीयात् पिण्डान् मध्यंदिने स्थिते ।

नियतात्मा हविष्याशी यतिचान्द्रायणं चरन् ॥ ॥ २१९ ॥

चतुरः प्रातरश्नीयात् पिण्डान् विप्रः समाहितः ।

चतुरोऽस्तमिते सूर्ये शिशुचान्द्रायणं स्मृतम् ॥ ॥ २२० ॥

यथा कथं चित् पिण्डानां तिस्रोऽशीतीः समाहितः ।

मासेनाश्नन् हविष्यस्य चन्द्रस्यैति सलोकताम् ॥ ॥ २२१ ॥

एतद् रुद्रास्तथाऽदित्या वसवश्चाचरन् व्रतम् ।

सर्वाकुशलमोक्षाय मरुतश्च महर्षिभिः ॥ ॥२२२॥

महाव्याहृतिभिर्होमः कर्तव्यः स्वयमन्वहम् ।

अहिंसा सत्यमक्रोधमार्जवं च समाचरेत् ॥ ॥ २२३ ॥

त्रिरह्नस्त्रिर्निशायां च सवासा जलमाविशेत् ।

स्त्री शूद्रपतितांश्चैव नाभिभाषेत कर्हि चित् ॥ ॥ २२४ ॥

तीन समय स्नान करे, कृष्णपक्ष में एक एक ग्रास घटावे, शुक्लपक्ष में एक एक ग्रास बढ़ावे यह चान्द्रायण व्रत कहलाता है। 'यवमध्यम' व्रत में शुक्लपक्ष से नियमपूर्वक चान्द्रायण व्रत करता हुआ इन्हीं सब विधियों को करना चाहिए। 'यतिचान्द्रायण' करनेवाले को नित्य दोपहर में हविष्यान के आठ आठ ग्रास खाने चाहिए और नियम से रहना चाहिए। चार ग्रास प्रातः काल और चार ग्रास सूर्यास्त में खाना चाहिए, यह 'शिशुचान्द्रायण व्रत है। एक मास में हविष्य अन्न के दो सौ चालीस २४० ग्रास खाने से चन्द्र लोक प्राप्त होता है । रुद्र, आदित्य, वसु, मरत और महर्षियों ने सब पापों के नाशार्थ इस व्रत को किया था। यह व्रत करनेवाले पुरुष को प्रतिदिन स्वयं महाव्याहृतियों से हवन करना चाहिए और अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोध त्याग और सरलता का व्यवहार करना चाहिए। तीन बार दिन में और तीन बार रात में वस्त्र स्नान करना चाहिए। स्त्री, शूद्र और पतितों से कभी भी वार्तालाप नहीं करनी चाहिए ॥ २१७-२२४ ॥

स्थानासनाभ्यां विहरेदशक्तोऽधः शयीत वा ।

ब्रह्मचारी व्रती च स्याद् गुरुदेवद्विजार्चकः ॥ ॥ २२५॥

सावित्रीं च जपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः ।

सर्वेष्वेव व्रतेष्वेवं प्रायश्चित्तार्थमादृतः ॥ ॥२२६॥

एतैर्द्विजातयः शोध्या व्रतैराविष्कृतेनसः ।

अनाविष्कृतपापांस्तु मन्त्रैर्होमैश्च शोधयेत् ॥ ॥ २२७ ॥

ख्यापनेनानुतापेन तपसाऽध्ययनेन च ।

पापकृत्मुच्यते पापात् तथा दाने पदि ॥ ॥ २२८ ॥

यथा यथा नरोऽधर्मं स्वयं कृत्वाऽनुभाषते ।

तथा तथा त्वचैवाहिस्तेनाधर्मेण मुच्यते ॥ ॥२२९॥

यथा यथा मनस्तस्य दुष्कृतं कर्म गर्हति ।

तथा तथा शरीरं तत् तेनाधर्मेण मुच्यते ॥ ॥ २३० ॥

कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात् पापात् प्रमुच्यते ।

नैवं कुर्यां पुनरिति निवृत्त्या पूयते तु सः ॥ ॥२३१॥

एवं सञ्चिन्त्य मनसा प्रेत्य कर्मफलोदयम् ।

मनोवाङ्मूर्तिभिर्नित्यं शुभं कर्म समाचरेत् ॥ ॥२३२॥

आसन पर उठना बैठना चाहिए, यदि अशक्त हो तो भूमि पर सोना चाहिए और ब्रह्मचारी, व्रती, गुरु, देवता और द्विजों का पूजन करना चाहिए। नित्य यथाशाक्त गायत्री और अघमर्पणादि पवित्र मन्त्रों का जप करना चाहिए। प्रायश्चित्त के सभी व्रतों में यही विधि मान्य है। पापी द्विजों को इन व्रतों से अपने आप को शुद्ध करना चाहिए और गुप्त पापियों को ब्राह्मण सभा, मन्त्र जप और होम कराकर शुद्ध करना चाहिए। पाप करनेवाला पाप प्रकट करने, पश्चात्ताप करने और तप स्वाध्याय करने से और आपत्ति में दान देने से ही पाप से मुक्त होता है। मनुष्य जैसे जैसे अपने अधर्म को प्रकट करता है वैसे वैसे ही उससे मुक्त होता जाता है जैसे सांप केंचुली से अलग हो जाता है । जैसे जैसे उसका मन दुष्कृत-कर्म की निंदा करता है वैसे वैसे उसका शरीर अधर्म से मुक्त होता है। पाप करने के बाद संताप करके उससे मुक्त होता है और फिर ऐसा न करूंगा इस संकल्प से पवित्र होता है । परलोक में कर्म फल मिलता है, ऐसा मन से विचार कर नित्य मन, वाणी और शरीर से शुभकर्म करना चाहिए। ॥ २२५-२३२ ॥

अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानात् कृत्वा कर्म विगर्हितम् ।

तस्माद् विमुक्तिमन्विच्छन् द्वितीयं न समाचरेत् ॥ ॥ २३३ ॥

यस्मिन् कर्मण्यस्य कृते मनसः स्यादलाघवम् ।

तस्मिंस्तावत् तपः कुर्याद् यावत् तुष्टिकरं भवेत् ॥ ॥ २३४ ॥

तपोमूलमिदं सर्वं दैवमानुषकं सुखम् ।

तपोमध्यं बुधैः प्रोक्तं तपोऽन्तं वेददर्शिभिः ॥ ॥ २३५॥

ब्राह्मणस्य तपो ज्ञानं तपः क्षत्रस्य रक्षणम् ।

वैश्यस्य तु तपो वार्ता तपः शूद्रस्य सेवनम् ॥ ॥ २३६ ॥

ऋषयः संयतात्मानः फलमूलानिलाशनाः ।

तपसैव प्रपश्यन्ति त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ॥ २३७ ॥

औषधान्यगदो विद्या देवी च विविधा स्थितिः ।

तपसैव प्रसिध्यन्ति तपस्तेषां हि साधनम् ॥ ॥ २३८ ॥

यद् दुस्तरं यद् दुरापं यद् दुर्गं यच्च दुष्करम् ।

सर्वं तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ ॥ २३९ ॥

महापातकिनश्चैव शेषाश्चाकार्यकारिणः ।

तपसैव सुतप्तेन मुच्यन्ते किल्बिषात् ततः ॥ ॥ २४० ॥

अज्ञानतावश अथवा न जान समझ कर निंदित कर्म करके उससे छुटकारा चाहने वाले को पुनः दूसरा पापकर्म नहीं करना चाहिए। पापी के मन में यदि प्रायश्चित्त से संतोष न हो तो जब तक सन्तोष हो तब तक तप करना चाहिए। देवलोक और मनुष्यलोक के सभी सुख तपोमूलक हैं। तप से ही मध्य में और अन्त में सुख मिलता है, ऐसा ऋषियों का मत है। ब्राह्मण का ज्ञान तप है, क्षत्रिय का तप रक्षा है, वैश्य का तप व्यापार है और शूद्र का तप सेवा है। संयमी फल, मूल, पवन का आहार करनेवाले ऋषि तप से ही चराचर विश्व को प्रत्यक्ष देखते हैं। रसायन, औषध, ब्रह्मविद्या और स्वर्गादि लोक में निवास यह सभी तप से ही सिद्ध होते हैं। उनका साधन तप ही हैं। जो दुस्तर है, दुर्लभ है, दुर्गम है, दुष्कर है, वह सब तप से सिद्ध हो जाता है। क्योंकि तप की शक्ति अलंघ्य है। महापातकी और उपपातकी सभी तप करने से ही उस पाप से मुक्त हो जाते हैं । ॥ २३३-२४०॥

कीटाश्चाहिपतङ्गाश्च पशवश्च वयांसि च ।

स्थावराणि च भूतानि दिवं यान्ति तपोबलात् ॥ ॥२४१॥

यत् किं चिदेनः कुर्वन्ति मनोवाङ्मूर्तिभिर्जनाः ।

तत् सर्वं निर्दहन्त्याशु तपसैव तपोधनाः ॥ ॥२४२॥

तपसैव विशुद्धस्य ब्राह्मणस्य दिवौकसः ।

इज्याश्च प्रतिगृह्णन्ति कामान् संवर्धयन्ति च ॥ ॥ २४३ ॥

प्रजापतिरिदं शास्त्रं तपसैवासृजत् प्रभुः ।

तथैव वेदान् ऋषयस्तपसा प्रतिपेदिरे ॥ ॥ २४४ ॥

इत्येतत् तपसो देवा महाभाग्यं प्रचक्षते ।

सर्वस्यास्य प्रपश्यन्तस्तपसः पुण्यमुत्तमम् ॥ ॥२४५॥

वेदाभ्यासोऽन्वहं शक्त्या महायज्ञक्रिया क्षमा ।

नाशयन्त्याशु पापानि महापातकजान्यपि ॥ ॥ २४६ ॥

यथैधस्तेजसा वह्निः प्राप्तं निर्दहति क्षणात् ।

तथा ज्ञानाग्निना पापं सर्वं दहति वेदवित् ॥ ॥ २४७ ॥

कीट, सर्प, पतंग, पशु, पक्षी और स्थावर प्राणी भी तपोबल से स्वर्ग को जाते हैं। मनुष्य मन, वाणी और शरीर से जो कुछ पाप करते हैं उन सभी को तपोधन ऋषि तप से शीघ्र ही भस्म कर देते हैं। तप से शुद्ध ब्राह्मण के यश बलि को देवता ग्रहण करते हैं और कामनाओं को पूर्ण करते हैं। तपोबल से ही प्रजापति ने इस शास्त्र को रचा था और ऋषियों ने वेद भी तप से ही प्राप्त किया था। सब प्राणियों का तप से उत्तम योनि में जन्म होता है यह देख कर देवगण तप का माहात्म्य करते हैं। प्रतिदिन वेदाध्ययन, पञ्चमहायज्ञों का अनुष्ठान, अपराध सहन यह महापातक के भी पापों का शीघ्र नाश कर देते हैं। जैसे अग्नि तेज से ईधन को जला देता है वैसे वेदविशारद, ज्ञानरूपी अग्नि से सभी पापों को जला देता है ॥२४१-२४७ ॥

इत्येतदेनसामुक्तं प्रायश्चित्तं यथाविधि ।

अत ऊर्ध्वं रहस्यानां प्रायश्चित्तं निबोधत ॥ ॥ २४८ ॥

सव्याहृतिप्रणवकाः प्राणायामास्तु षोडश ।

अपि भ्रूणहनं मासात् पुनन्त्यहरहः कृताः ॥ ॥ २४९ ॥

कौत्सं जप्त्वाऽप इत्येतद् वसिष्ठं च प्रतीत्य् ऋचम् ।

माहित्रं शुद्धवत्यश्च सुरापोऽपि विशुध्यति ॥ ॥२५०॥

सकृत्प्त्वाऽस्यवामीयं शिवसङ्कल्पमेव च ।

अपहृत्य सुवर्णं तु क्षणाद् भवति निर्मलः ॥ ॥ २५१ ॥

हविष्पान्तीयमभ्यस्य न तमं ह इतीति च ।

जपित्वा पौरुषं सूक्तं मुच्यते गुरुतल्पगः । ॥ २५२॥

एनसां स्थूलसूक्ष्माणां चिकीर्षन्नपनोदनम् ।

अवेत्यर्चं जपेदब्दं यत् किं चेदमितीति वा ॥ ॥ २५३ ॥

प्रतिगृह्याप्रतिग्राह्यं भुक्त्वा चान्नं विगर्हितम् ।

जपस्तरत्समन्दीयं पूयते मानवस्त्र्यहात् ॥ ॥ २५४ ॥

इस प्रकार पापों का यथाविधि प्रायश्चित्त कहा गया है। अब गुप्त पापों का प्रायश्चित्त सुनो। एक मास तक ओमकार और व्याहृति के साथ सोलह प्राणायाम करने से भ्रूणहत्या के पाप से से मनुष्य मुक्त हो जाता है। अपनःशुशोचदधम्' इत्यादि ऋग्वेद का कौत्ससूक्त और प्रतिस्तोमेतिरुषसंवशिष्ठा०' इत्यादि वाशिष्ठमंत्र, 'महित्रीणाम्' इत्यादि सूक्त और 'शुद्धवत्य० ' इत्यादि ऋचाओं का पाठ करने से सुरापान दोष से मुक्त हो जाता है । अस्य वा मस्य० ' इत्यादि ऋचा के सूक्त और 'शिवसंकल्प' इत्यादि सूक्त के पाठ से, सुवर्णचोरी के पाप से तुरंत छूट जाता है। 'हविण्याडामाजरं०' इत्यादि उन्नीस ऋचा, "नतमहोन दुरितं." इत्यादि पाठ ऋचा और पुरुषसूक्त का एक मास नित्य पाठ करने से गुरुपत्नी संभोग का पाप दूर हो जाता है। महापातक और उपपातकों को दूर करने के लिए 'अब ते हेप्ट वरुण' इत्यादि ऋचा, अथवा 'यत्किञ्चेदं वरुण दैव्ये जने' इत्यादि ऋचा का एक वर्ष तक जप करना चाहिए । प्रतिग्रह के अयोग्य का लेने और निंदित अन्न के भोजन का पाप, 'तरत्समरिधावत्तिक ' इत्यादि चार मंत्र का पाठ तीन दिन करने से दूर होता है ॥२४८-२५४ ॥

सोमारौद्रं तु बह्वेनाः मासमभ्यस्य शुध्यति ।

स्रवन्त्यामाचरन् स्नानमर्यम्णामिति च तृचम् ॥ ॥ २५५॥

अब्दार्धमिन्द्रमित्येतदेनस्वी सप्तकं जपेत् ।

अप्रशस्तं तु कृत्वाऽप्सु मासमासीत भैक्षभुक् ॥ ॥ २५६ ॥

मन्त्रैः शाकलहोमीयैरब्दं हुत्वा घृतं द्विजः ।

सुगुर्वप्यपहन्त्येनो जप्त्वा वा नम इत्यृचम् ॥ ॥ २५७ ॥

महापातकसंयुक्तोऽनुगच्छेद् गाः समाहितः।

अभ्यस्याब्दं पावमानीर्भेक्षाहारो विशुध्यति ॥ ॥ २५८॥

अरण्ये वा त्रिरभ्यस्य प्रयतो वेदसंहिताम् ।

मुच्यते पातकैः सर्वैः पराकैः शोधितस्त्रिभिः ॥ ॥ २५९ ॥

त्र्यहं तूपवसेद् युक्तस्त्रिरह्नोऽभ्युपयन्नपः ।

मुच्यते पातकैः सर्वैस्त्रिर्जपित्वाऽघमर्षणम् ॥ ॥ २६० ॥

अधिक पाप करनेवाला नदी में स्नान करके 'सोमा रुद्रा धारयेथा०' इत्यादि और अर्यमणं वरुणं मित्रं०' इत्यादि तीन ऋचाओंका एक मास तक नित्य पाठ करे तो शुद्ध होता है। पापी पुरुष को छह मास तक, 'इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निः इत्यादि सात 'ऋचा का नित्य पाठ करना चाहिए और जल में मल-मूत्र डालनेवाले को एक मास तक भीख मांगकर निर्वाह करना चाहिए। द्विज, 'देवकृतस्य.' इत्यादि शाकल होम के मन्त्रों से, एक वर्ष तक घी का होम करना चाहिए। अथवा 'नम इन्द्रश्च०' इत्यादि मन्त्र का एक वर्ष तक पाठ करे तो महापाप से भी छूट जाता है । महापातकी एक वर्षतक भीख मांगकर खाना चाहिए, सावधानी से नित्य गौओं के पीछे घूमना चाहिए और पवमान देवता के सूत्रों का पाठ करके शुद्ध होता है। पूर्वोक्त तीन पराक प्रतों शुद्ध जितेन्द्रिय होकर, वन में वेदसंहिता का तीन बार पाठ करने पर सभी पापों से मुक्त हो जाता है। तीन दिन उपवास कर, तीनों समय में स्नान कर और अघमर्षण सूक्त का पाठ करने पर सभी पापों से मुक्त हो जाता है ॥२५५-२६० ॥

यथाऽश्वमेधः क्रतुराड् सर्वपापापनोदनः ।

तथाऽघमर्षणं सूक्तं सर्वपापापनोदनम् ॥ ॥ २६१ ॥

हत्वा लोकानपीमांस्त्रीनश्नन्नपि यतस्ततः।

ऋग्वेदं धारयन् विप्रो नैनः प्राप्नोति किं चन ॥ ॥२६२॥

ऋक्संहितां त्रिरभ्यस्य यजुषां वा समाहितः ।

साम्नां वा सरहस्यानां सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ॥ २६३ ॥

यथा महाहृदं प्राप्य क्षिप्तं लोष्टं विनश्यति ।

तथा दुश्चरितं सर्वं वेदे त्रिवृति मज्जति ॥ ॥ २६४॥

ऋचो यजूंषि चान्यानि सामानि विविधानि च ।

एष ज्ञेयस्त्रिवृद्वेदो यो वेदैनं स वेदवित् ॥ ॥२६५॥

आद्यं यत् त्र्यक्षरं ब्रह्म त्रयी यस्मिन् प्रतिष्ठिता ।

गुह्येोऽन्यस्त्रिवृद्वेदो यस्तं वेद स वेदवित् ॥ ॥२६६॥

जैसे यज्ञ का राजा अश्वमेध सभी पापों का नाशक है, वैसे अघमर्षण-सूक्त सभी पापों का नाशक है। ऋग्वेद को धारण करने वाला ब्राह्मण चाहे तीनों लोकों का संहार करे अथवा मनमाने अन्न को ग्रहण करे तो भी उसको पातक नहीं लगता। जो द्विज सावधानी से ऋक्संहिता या यजुःसंहिता अथवा सामसंहिता की ब्राह्मण-उपनिषदों के सहित तीन बार आवृत्ति करे तो सभी पापों से मुक्त हो जाता है। जैसे बड़ी नदी में डाला हुआ ढेला डूब जाता है वैसे ही सभी पाप तीन आवृत्ति वेद में डूब जाते हैं। ऋक, यजु और सामः वेद और विविध मन्त्रों को त्रिवृत् वेदः जानना चाहिए। जो इनको जानता है वही वेदवेत्ता है। सब वेदों में प्रधान तीन अक्षर का जिसमें तीनों वेद अन्तर्गत हैं, वह गोपनीय प्रणव '' कार, दूसरा त्रिवृत् वेद है। जो उसके स्वरूप और अर्थ को जानता है वही वेदविशारद हैं ॥२६१ - २६६ ॥

॥ इति मानवे धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ एकादशोऽध्यायः समाप्तः ॥ ११ ॥

॥ महर्षि भृगु द्वारा प्रवचित मानव धर्म शास्त्र स्मृति का ग्यारहवां अध्याय समाप्त ॥

आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 12

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