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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीगणेशकीलकस्तोत्रम्
श्रीगणेशकीलकस्तोत्रम्- वेदों-पुराणों
का मंत्र-तंत्र-स्तुत्ति-स्तोत्र आदि सभी कीलित है, अतः ये सभी निष्प्रभावी होते
हैं। उन्हें अपने साधना करने के लिए पहले उनका उत्कीलन करना होता है, और जब तक
इन्हें उत्किलित मृतसंजीवन, शापोद्धार आदि क्रिया न किया जाय ये प्रभावहीन बना
रहता है और साधक को अनुकूलित फल नहीं देते। फलस्वरूप कई बार इन सारे मन्त्रों आदि
को ही निरर्थक समझ लेते हैं। अतः इन्हें पहले कीलक मन्त्र या स्तोत्र के माध्यम से
खोला जाय और फिर उपयोग में लाया जाय, ताकि यह साधक को मनोवांक्षित फल दे। इसी
उद्देश्य से यहाँ दक्ष ने मुद्गल से पूछा है कि- ब्राह्मण गणेश जी की कीलक मन्त्र
बतावें जो सिद्धि व सर्वार्थ देनेवाला हो। अतः आप भी गणेश जी के किसी भी
मंत्र-तंत्र, स्तुत्ति-स्तोत्र, नाम जप, कवच आदि का पाठ करने से पूर्व श्रीमुद्गलमहापुराण
के पङ्चम खण्ड लम्बोदरचरित श्रवणमाहात्म्यवर्णन नाम अध्याय -४५ में वर्णित श्रीगणेश
कीलक स्तोत्रम् का पाठ अवश्य ही करें।
श्रीगणेश कीलक स्तोत्रम्
दक्ष उवाच ।
गणेशकीलकं ब्रह्मन् वद
सर्वार्थदायकम् ।
मन्त्रादीनां विशेषेण सिद्धिदं
पूर्णभावतः ॥ १॥
मुद्गल उवाच ।
कीलकेन विहीनाश्च मन्त्रा नैव
सुखप्रदाः ।
आदौ
कीलकमेवं वै पठित्वा जपमाचरेत् ॥ २॥
तदा वीर्ययुता मन्त्रा
नानासिद्धिप्रदायकाः ।
भवन्ति नात्र सन्देहः कथयामि
यथाश्रुतम् ॥ ३॥
समादिष्टं चाङ्गिरसा मह्यं गुह्यतमं
परम् ।
सिद्धिदं वै गणेशस्य कीलकं श्रृणु
मानद ॥ ४॥
अस्य श्रीगणेशकीलकस्य शिव ऋषिः ।
अनुष्टुप्छन्दः ।
श्रीगणपतिर्देवता । ॐ गं योगाय
स्वाहा । ॐ गं बीजम् ।
विद्याविद्याशक्तिगणपतिप्रीत्यर्थे
जपे विनियोगः ।
छन्दऋष्यादिन्यासांश्च कुर्यादादौ
तथा परान् ।
एकाक्षरस्यैव दक्ष षडङ्गानाचरेत्
सुधीः ॥ ५॥
ततो ध्यायेद्गणेशानं ज्योतिरूपधरं
परम् ।
मनोवाणीविहीनं च चतुर्भुजविराजितम्
॥ ६॥
शुण्डादण्डमुखं पूर्णं द्रष्टुं नैव
प्रशक्यते ।
विद्याऽविद्यासमायुक्तं
विभूतिभिरुपासितम् ॥ ७॥
एवं ध्यात्वा गणेशानं मानसैः पूजयेत्पृथक् ।
पञ्चोपचारकैर्दक्ष ततो जपं समाचरेत्
॥ ८॥
एकविंशतिवारं तु जपं कुर्यात्प्रजापते
।
ततः स्तोत्रं समुच्चार्य
पश्चात्सर्वं समाचरेत् ॥ ९॥
रूपं बलं श्रियं देहि यशो वीर्यं
गजानन ।
मेधां प्रज्ञां तथा कीर्तिं
विघ्नराज नमोऽस्तु ते ॥ १०॥
यदा देवादयः सर्वे कुण्ठिता
दैत्यपैः कृताः ।
तदा त्वं
तान्निहत्य स्म करोषि वीर्यसंयुतान् ॥ ११॥
तथा मन्त्रा गणेशान कुण्ठिताश्च
दुरात्मभिः ।
शापैश्च तान्सवीर्यांस्ते कुरुष्व
त्वं नमो नमः ॥ १२॥
शक्तयः कुण्ठिताः सर्वाः स्मरणेन
त्वया प्रभो ।
ज्ञानयुक्ताः
सवीर्याश्च कृता विघ्नेश ते नमः ॥ १३॥
चराचरं जगत्सर्वं सत्ताहीनं यदा
भवेत् ।
त्वया सत्तायुतं ढुण्ढे स्मरणेन
कृतं च ते ॥ १४॥
तत्त्वानि वीर्यहीनानि यदा जातानि
विघ्नप ।
स्मृत्या ते वीर्ययुक्तानि
पुनर्जातानि ते नमः ॥ १५॥
ब्रह्माणि योगहीनानि जातानि स्मरणेन
ते ।
यदा पुनर्गणेशान योगयुक्तानि ते नमः
॥ १६॥
इत्यादि विविधं सर्वं स्मरणेन च ते
प्रभो ।
सत्तायुक्तं बभूवैव विघ्नेशाय नमो
नमः ॥ १७॥
तथा मन्त्रा गणेशान वीर्यहीना
बभूविरे ।
स्मरणेन पुनर्ढुण्ढे
वीर्ययुक्तान्कुरुष्व ते ॥ १८॥
सर्वं सत्तासमायुक्तं
मन्त्रपूजादिकं प्रभो ।
मम
नाम्ना भवतु ते वक्रतुण्डाय ते नमः ॥ १९॥
उत्कीलय महामन्त्रान् जपेन
स्तोत्रपाठतः ।
सर्वसिद्धिप्रदा
मन्त्रा भवन्तु त्वत्प्रसादतः ॥ २०॥
गणेशाय
नमस्तुभ्यं हेरम्बायैकदन्तिने ।
स्वानन्दवासिने तुभ्यं
ब्रह्मणस्पतये नमः ॥ २१॥
गणेशकीलकमिदं कथितं ते प्रजापते ।
शिवप्रोक्तं तु
मन्त्राणामुत्कीलनकरं परम् ॥ २२॥
यः पठिष्यति भावेन जप्त्वा ते
मन्त्रमुत्तमम् ।
स सर्वसिद्धिमाप्नोति
नानामन्त्रसमुद्भवाम् ॥ २३॥
एनं त्यक्त्वा गणेशस्य मन्त्रं जपति
नित्यदा ।
स सर्वफलहीनश्च जायते नात्र संशयः ॥
२४॥
सर्वसिद्धिकरं प्रोक्तं कीलकं
परमाद्भुतम् ।
पुरानेन स्वयं शम्भुर्मन्त्रजां
सिद्धिमालभत् ॥ २५॥
विष्णुर्ब्रह्मादयो देवा मुनयो योगिनः
परे ।
अनेन मन्त्रसिद्धिं ते लेभिरे च
प्रजापते ॥ २६॥
ऐलः कीलकमाद्यं वै कृत्वा
मन्त्रपरायणः ।
गतः स्वानन्दपूर्यां स भक्तराजो
बभूव ह ॥ २७॥
सस्त्रीको जडदेहेन
ब्रह्माण्डमवलोक्य तु ।
गणेशदर्शनेनैव ज्योतीरूपो बभूव ह ॥
२८॥
दक्ष उवाच ।
ऐलो जडशरीरस्थः कथं देवादिकैर्युतम्
।
ब्रह्माण्डं स ददर्शैव तन्मे वद
कुतूहलम् ॥ २९॥
पुण्यराशिः स्वयं साक्षान्नरकादीन्
महामते ।
अपश्यच्च
कथं सोऽपि पापिदर्शनयोग्यकान् ॥ ३०॥
मुद्गलवाच ।
विमानस्थः स्वयं राजा कृपया तान्
ददर्श ह ।
गाणेशानां जडस्थश्च शिवविष्णुमुखान्
प्रभो ॥ ३१॥
स्वानन्दगे विमाने ये संस्थितास्ते
शुभाशुभे ।
योगरूपतया सर्वे दक्ष पश्यन्ति
चाञ्जसा ॥ ३२॥
एतत्ते कथितं सर्वमैलस्य चरितं
शुभम् ।
यः श्रृणोति स वै मर्त्यः भुक्तिं
मुक्तिं लभेद्ध्रुवम् ॥ ३३॥
इति श्रीमुद्गलमहापुराणे पङ्चमे
खण्डे लम्बोदरचरिते
श्रवणमाहात्म्यवर्णनं नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमोऽध्याये
श्रीगणेशकीलकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
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