कीलक स्तोत्र
कीलक स्तोत्र-वह मंत्र जिससे किसी अन्य मंत्र की शक्ति या उसका प्रभाव नष्ट कर दिया जाय । ज्योतिष में प्रभाव आदि ६० वर्ष में से ४२ वर्ष । विशेष— इस वर्ष अमंगलों का नाश होकर सब जगह मंगल और सुख होता है ।
कीलक स्तोत्र
दुर्गा माहात्म्य के इस कीलक
स्तोत्र में भगवान् शिव ने दुर्गा सप्तशती के पाठ का महत्व बताया है। साथ ही इसे
कीलक स्तोत्र क्यों कहा जाता है, यह भी दिया
गया है। शिवजी ने यह भी बताया की सप्तशती के पाठ से जो पुण्य मिलता है, वह कभी समाप्त नहीं होता। कीलक स्तोत्र में 14 श्लोक
आते हैं। यहाँ कीलक स्तोत्र के सभी 14 श्लोक अर्थ सहित दिए
गए हैं।
कीलक स्तोत्रम्
विनियोगः
ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिव ऋषिः,
अनुष्टुप् छन्दः,श्रीमहासरस्वती देवता,
श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।
ॐ नमश्चपण्डिकायै॥
अथवा
अस्य श्री कीलकस्तोत्रमहामन्त्रस्य,
विशुद्धज्ञान ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः, श्रीचण्डिका देवता, क्लां बीजं, क्लीं शक्तिः, क्लूं कीलकम्, श्रीचण्डिकाप्रसादसिद्ध्यर्थे
जपे विनियोगः ॥
क्लामित्यादि करहृदयन्यासः --
ध्यानम् ॥
शोणप्रभं सोमकलावतंसं पाणिस्फुरत्
पञ्चशरेक्षुचापं ।
प्राणप्रियं नौमि पिनाकपाणेः
कोणत्रयस्थं कुलदैवतं नः ।।
अथ कीलकम् ॥
ऋषिरुवाच--
विशुद्धज्ञानदेहाय
त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे ।
श्रेयः प्राप्तिनिमित्ताय नमः
सोमार्धधारिणे ॥१॥
सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम्
।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं
जाप्यतत्परः ॥२॥
सिद्धयन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि
सकलानपि ।
एतेन स्तुवतां देवि स्तोत्रमात्रेण
सिद्ध्यति ॥३॥
न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि
विद्यते ।
विना जाप्येन सिद्ध्येत
सर्वमुच्चाटनादिकम् ॥४॥
समग्राण्यपि सिध्यन्ति
लोकशङ्कामिमां हरः ।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं
शुभम् ॥५॥
स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च
गुह्यं चकार सः ।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां
यथावन्नियन्त्रणाम् ।।६॥
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेव न
संशयः ।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां
वा समाहितः ।।७॥
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा
प्रसीदति।
इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम्
॥८॥
यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति
संस्फुटं ।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गंधर्वो
जायतेऽवने ॥९॥
न चैवाप्यतस्तस्य भयं क्वापीह जायते
।
मृत्युवशं याति मृतो
मोक्षमवाप्नुयात् ॥ १०॥
ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत ह्यकुर्वाणो
विनश्यति ।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं
प्रारभ्यते बुधैः ॥११॥
सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद्दृश्यते
ललनाजने ।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं
शुभम् ॥१२॥
शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे
सम्पत्तिरुच्चकैः ।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव
तत् ॥१३॥
ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन
सौभाग्यारोग्यसम्पदः ।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न
किं जनैः ॥१४॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु
महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
सरहस्यार्चनोपेतः समस्तफलमश्रुते ॥१५॥
इति कीलकम् ॥
कीलक स्तोत्रम् श्लोक अर्थ सहित
ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिव ऋषिः,
अनुष्टुप् छन्दः,श्रीमहासरस्वती देवता,
श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।
विनियोग- ॐ इस श्रीकीलकमंत्र के शिव
ऋषि,
अनुष्टुप् छन्द,श्रीमहासरस्वती देवता हैं।
श्रीजगदम्बा की प्रीति के लिए सप्तशती के पाठ के जप में इसका विनियोग किया जाता
है।
ॐ नमश्चण्डिकायै॥
ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है।
मार्कण्डेय उवाच
ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय
त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः
सोमार्धधारिणे॥१॥
मार्कण्डेयजी कहते हैं –
विशुद्ध ज्ञान ही जिनका शरीर है,जो
कल्याण-प्राप्ति के हेतु हैं तथा अपने मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट धारण करते हैं,
उन भगवान् शिव को नमस्कार है ॥१॥
सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम्।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं
जाप्यतत्परः॥२॥
कीलक का निवारण करनेवाला मन्त्रों
का जो अभिकीलक है, अर्थात् मन्त्रों
की सिद्धि में विघ्न उपस्थित करनेवाले शापरूपी कीलक का जो निवारण करनेवाला है,
उस सप्तशती स्तोत्र को सम्पूर्णरूप से जानना चाहिये।(और जानकर उसकी
उपासना करनी चाहिये) यद्यपि सप्तशती के अतिरिक्त अन्य मन्त्रों के जप में भी जो
निरन्तर लगा रहता है,वह भी कल्याण का भागी होता है ॥२॥
सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि
सकलान्यपि।
एतेन स्तुवतां देवी स्तोत्रमात्रेण
सिद्ध्यति॥३॥
अन्य मन्त्र और सप्तशती की स्तुति
में समानता उसके भी (अन्य मन्त्रों का जप करनेवालों के) उच्चाटन आदि कर्म सिद्ध
होते हैं तथा उसे भी समस्त दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है;तथापि जो अन्य मन्त्रों का जप न करके, केवल इस
सप्तशती नामक स्तोत्र से ही देवी की स्तुति करते हैं,उन्हें
स्तुतिमात्र से ही सच्चिदानन्द स्वरूपिणी देवी सिद्ध हो जाती हैं ॥३॥
न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि
विद्यते।
विना जाप्येन सिद्ध्येत
सर्वमुच्चाटनादिकम्॥४॥
सप्तशती पाठ से सभी कार्य सिद्ध
उन्हें अपने कार्य की सिद्धि के लिये मन्त्र, ओषधि
तथा अन्य किसी साधन के उपयोग की आवश्यकता नहीं रहती। बिना जप के ही उनके उच्चाटन
आदि समस्त आभिचारिक कर्म सिद्ध हो जाते हैं ॥४॥
समग्राण्यपि सिद्ध्यन्ति
लोकशङ्कामिमां हरः।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं
शुभम्॥५॥
तो सप्तशती और अन्य मन्त्रों में
फर्क क्या?इतना ही नहीं,उनकी सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ भी सिद्ध होती हैं। लोगों के मन में यह शंका
थी कि –जब केवल सप्तशती की उपासना से अथवा सप्तशती को छोड़कर
अन्य मन्त्रों की उपासना से भी समानरूप से सब कार्य सिद्ध होते हैं,तब इनमें श्रेष्ठ कौन-सा साधन है? लोगों की इस शंका
को सामने रखकर भगवान् शंकर ने अपने पास आये हुए जिज्ञासुओं को समझाया कि यह
सप्तशती नामक सम्पूर्ण स्तोत्र ही सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणमय है ॥५॥
स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च
गुप्तं चकार सः।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां
यथावन्नियन्त्रणाम्॥६॥
सप्तशती के पाठ से मिला पुण्य कभी
समाप्त नहीं होता तदनन्तर भगवती चण्डिका के सप्तशती नामक स्तोत्र को महादेवजी ने
गुप्त कर दिया। सप्तशती के पाठ से जो पुण्य प्राप्त होता है,उसकी कभी समाप्ति नहीं होती; किंतु अन्य मन्त्रों के
जपजन्य पुण्य की समाप्ति हो जाती है। अतः भगवान् शिव ने अन्य मन्त्रों की अपेक्षा
जो सप्तशती की ही श्रेष्ठता का निर्णय किया, उसे यथार्थ ही
जानना चाहिये ॥६॥
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेवं न
संशयः।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां
वा समाहितः॥७॥
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा
प्रसीदति।
इत्थंरुपेण कीलेन महादेवेन
कीलितम्॥८॥
सप्तशती का पाठ कौन सी तिथि को?
अन्य मन्त्रों का जप करनेवाला पुरुष भी यदि सप्तशती के स्तोत्र और
जप का अनुष्ठान कर ले तो वह भी पूर्णरूप से ही कल्याण का भागी होता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो साधक कृष्णपक्ष की चतुर्दशी अथवा अष्टमी
को एकाग्रचित्त होकर भगवती की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर
उसे प्रसादरूप से ग्रहण करता है,उसी पर भगवती प्रसन्न होती
हैं; अन्यथा उनकी प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती। इस प्रकार
सिद्धि के प्रतिबन्धकरूप कील के द्वारा महादेवजी ने इस स्तोत्र को कीलित कर रखा है
॥७-८॥
यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति
संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो
जायते नरः॥९॥
सप्तशती से भक्तों पर देवी की कृपा
जो पूर्वोक्त रीति से निष्कीलन करके इस सप्तशती स्तोत्र का प्रतिदिन स्पष्ट
उच्चारणपूर्वक पाठ करता है, वह मनुष्य सिद्ध हो
जाता है, वही देवी का पार्षद होता है और वही गन्धर्व भी होता
है ॥९॥
न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह
जायते।
नापमृत्युवशं याति मृतो
मोक्षमवाप्नुयात्॥१०॥
सप्तशती स्तुति से मोक्ष और भय
मुक्ति सर्वत्र विचरते रहने पर भी इस संसार में उसे कहीं भी भय नहीं होता। वह
अपमृत्यु के वश में नहीं पड़ता तथा देह त्यागने के अनन्तर मोक्ष प्राप्त कर लेता है
॥१०॥
ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न
कुर्वाणो विनश्यति।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं
प्रारभ्यते बुधैः॥११॥
कीलक और निष्कीलन का ज्ञान कीलन को
जानकर उसका परिहार करके, अर्थात कीलक और
निष्कीलन का ज्ञानप्राप्त करने पर, सप्तशती का पाठ आरम्भ
करे॥११॥
सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते
ललनाजने।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं
शुभम्॥१२॥
इस श्लोक में ज्ञान की अनिवार्यता
यानी की महत्ता बतायी गयी है। किन्तु किसी भी प्रकार देवी का पाठ करें,
देवी की स्तुति करें और देवी के मन्त्रों का जाप करे, उससे लाभ ही होता है। कल्याणमय सप्तशती स्तोत्र का नित्य जाप स्त्रियों
में जो कुछ भी सौभाग्य आदि दृष्टिगोचर होता है, वह सब देवी
के प्रसाद का ही फल है। अतः इस कल्याणमय स्तोत्र का सदा जप करना चाहिये ॥१२॥
शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे
सम्पत्तिरुच्चकैः।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव
तत्॥१३॥
सप्तशती के अध्यायों के पाठ से
पूर्ण फल की प्राप्ति इस स्तोत्र का मन्दस्वर से पाठ करने पर स्वल्प फल की
प्राप्ति होती है और उच्चस्वर से पाठ करने पर पूर्ण फल की सिद्धि होती है। अतः
उच्चस्वर से ही इसका पाठ आरम्भ करना चाहिये ॥१३॥
ऐश्व्र्यं यत्प्रसादेन
सौभाग्यारोग्यसम्पदः।
शत्रुहानिःपरो मोक्षः स्तूयते सा न
किं जनैः॥१४॥
माँ जगदम्बा की कृपा से आरोग्य,
ऐश्वर्य, सौभाग्य और मोक्ष जिनके प्रसादसे
ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, सम्पत्ति, शत्रुनाश तथा परम मोक्षकी भी सिद्धि होती
है, उन कल्याणमयी जगदम्बाकी स्तुति मनुष्य क्यों नहीं करते?॥१४॥
इति देव्याः कीलकस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
0 Comments