भ्रमर गीत
श्रीमद्भागवत पुराण दशम स्कन्ध के
४७ वें अध्याय में श्लोक ११ से २१ तक में भ्रमरगीत प्रसंग है। श्रीकृष्ण गोपियों
को छोङकर मथुरा चले गए और गोपियाँ विरह विकल हो गई। कृष्ण मथुरा में लोकहितकारी
कार्यों में व्यस्त थे किन्तु उन्हें ब्रज की गोपियों की याद सताती रहती थी।
उन्होंने अपने अभिन्न मित्र उद्धव को संदेशवाहक बनाकर गोकुल भेजा। वहां गोपियों के
साथ उनका वार्तालाप हुआ तभी एक भ्रमर वहां उड़ता हुआ आ गया। गोपियों ने उस भ्रमर
को प्रतीक बनाकर अन्योक्ति के माध्यम से उद्धव और कृष्ण पर जो व्यंग्य किए एवं
उपालम्भ दिए उसी को ’भ्रमरगीत’ के नाम से जाना गया। भ्रमरगीत प्रसंग में निर्गुण का खण्डन, सगुण का मण्डन तथा ज्ञान एवं योग की तुलना में प्रेम और भक्ति को श्रेष्ठ
ठहराया गया है। श्रीमद भागवत के अन्तर्गत आने वाले गोपियों के पञ्च प्रेम गीत
(वेणुगीत, युगल गीत, प्रणय गीत,
गोपी गीत और भ्रमर गीत) इनमें से भ्रमर गीत का वर्णन इस प्रकार है-
भ्रमर गीत
काचिन्मधुकरं दृष्ट्वा ध्यायन्ती
कृष्णसङ्गमम्
प्रियप्रस्थापितं दूतं
कल्पयित्वेदमब्रवीत् ॥ ११ ॥
गोप्युवाच
मधुप कितवबन्धो मा स्पृशङ्घ्रिं
सपत्न्याः
कुचविलुलितमालाकुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः
वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं
यदुसदसि विडम्ब्यं यस्य
दूतस्त्वमीदृक् ॥ १२ ॥
सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं
पाययित्वा
सुमनस इव
सद्यस्तत्यजेऽस्मान्भवादृक्
परिचरति कथं तत्पादपद्मं नु पद्मा
ह्यपि बत हृतचेता
ह्युत्तमःश्लोकजल्पैः ॥ १३ ॥
किमिह बहु षडङ्घ्रे गायसि त्वं
यदूनाम्
अधिपतिमगृहाणामग्रतो नः पुराणम्
विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसङ्गः
क्षपितकुचरुजस्ते
कल्पयन्तीष्टमिष्टाः ॥ १४ ॥
दिवि भुवि च रसायां काः
स्त्रियस्तद्दुरापाः
कपटरुचिरहासभ्रूविजृम्भस्य याः
स्युः
चरणरज उपास्ते यस्य भूतिर्वयं का
अपि च कृपणपक्षे ह्युत्तमश्लोकशब्दः
॥ १५ ॥
विसृज शिरसि पादं वेद्म्यहं
चाटुकारैर्
अनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य
दौत्यैर्मुकुन्दात्
स्वकृत इह विसृष्टापत्यपत्यन्यलोका
व्यसृजदकृतचेताः किं नु
सन्धेयमस्मिन् ॥ १६ ॥
मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे
लुब्धधर्मा
स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः
कामयानाम्
बलिमपि बलिमत्त्वावेष्टयद्ध्वाङ्क्षवद्यस्
तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थः
॥ १७ ॥
यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट्
सकृददनविधूतद्वन्द्वधर्मा विनष्टाः
सपदि गृहकुटुम्बं दीनमुत्सृज्य दीना
बहव इह विहङ्गा भिक्षुचर्यां चरन्ति
॥ १८ ॥
वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः
कुलिकरुतमिवाज्ञाः कृष्णवध्वो हरिण्यः
ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीव्र
स्मररुज
उपमन्त्रिन्भण्यतामन्यवार्ता ॥ १९ ॥
प्रियसख पुनरागाः प्रेयसा प्रेषितः
किं
वरय किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेऽङ्ग
नयसि
कथमिहास्मान्दुस्त्यजद्वन्द्वपार्श्वं
सततमुरसि सौम्य श्रीर्वधूः
साकमास्ते ॥ २० ॥
अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनास्ते
स्मरति स पितृगेहान्सौम्य बन्धूंश्च
गोपान्
क्वचिदपि स कथा नः किङ्करीणां
गृणीते
भुजमगुरुसुगन्धं
मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु ॥ २१ ॥
भ्रमर गीत भावार्थ सहित
काचिन्मधुकरं दृष्ट्वा ध्यायन्ती
कृष्णसङ्गमम् प्रियप्रस्थापितं दूतं कल्पयित्वेदमब्रवीत् ॥ ११ ॥
एक गोपी को उस समय स्मरण हो रहा था
भगवान् श्रीकृष्ण के मिलन की लीला का । उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा
गुनगुना रहा है । उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्ण ने मनाने के
लिये दूत भेजा हो । वह गोपी भौंरें से इस प्रकार कहने लगी —
।
गोप्युवाच
मधुप कितवबन्धो मा स्पृशङ्घ्रिं
सपत्न्याः कुचविलुलितमालाकुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः
वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं यदुसदसि
विडम्ब्यं यस्य दूतस्त्वमीदृक् ॥ १२ ॥
गोपी ने कहा —
मधुप ! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी
है । तू हमारे पैरों को मत छू । झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर । हम देख
रहीं हैं कि श्रीकृष्ण की जो वनमाला हमारी सौतों के वक्षःस्थल के स्पर्श से मसली
हुई है, उसका पीला-पीला कुङ्कम तेरी पूँछों पर भी लगा हुआ है
। तू स्वयं भी तो किसी कुसुम से प्रेम नहीं करता, यहाँ-से-वहाँ
उड़ा करता हैं । जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू ! मधुपति
श्रीकृष्ण मथुरा की मानिनी नायिकाओं को मनाया करें, उनका वह
कुङ्कुमरूप कृपा-प्रसाद, जो यदुवंशियों की सभा में उपहास
करने योग्य है, अपने ही पास रक्खें । उसे तेरे द्वारा यहाँ
भेजने की क्या आवश्यकता है ? ।
सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं
पाययित्वा सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान्भवादृक्
परिचरति कथं तत्पादपद्मं नु पद्मा ह्यपि
बत हृतचेता ह्युत्तमःश्लोकजल्पैः ॥ १३ ॥
जैसा तू काला हैं,
वैसे ही वे भी हैं । तू भी पुष्पों का रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले । उन्होंने हमें केवल एक बार-हाँ, ऐसा ही लगता है — केवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी
और परम मादक अधर-सुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियों को छोड़कर वे यहाँ से
चले गये । पता नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरणकमलों की सेवा
कैसे करती रहती हैं ! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्ण की चिकनी-चुपड़ी बातों में
आ गयी होंगी । चितचोर ने उनका भी चित चुरा लिया होगा ।
किमिह बहु षडङ्घ्रे गायसि त्वं
यदूनाम् अधिपतिमगृहाणामग्रतो नः पुराणम्
विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसङ्गः क्षपितकुचरुजस्ते
कल्पयन्तीष्टमिष्टाः ॥ १४ ॥
अरे भ्रमर ! हम वनवासिनी हैं ।
हमारे तो घर-द्वार भी नहीं है । तू हमलोगों के सामने यदुवंश-शिरोमणि श्रीकृष्ण का
बहुत-सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब भला
हमलोगों को मनाने के लिये ही तो ? परन्तु नहीं-नहीं, वे हमारे लिये कोई नये नहीं हैं । हमारे लिये तो जाने-पहचाने, बिल्कुल पुराने हैं । तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी । तू जा, यहाँ से चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन
श्रीकृष्ण को मधुपुरवासिनी सखियों के सामने जाकर उनका गुणगान कर । वे नयी हैं,
उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं । उनके हृदय
की पीड़ा उन्होंने मिटा दी हैं । वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी, तेरी चापलूसी से प्रसन्न होकर तुझे मुँह-माँगी वस्तु देंगी ।
दिवि भुवि च रसायां काः
स्त्रियस्तद्दुरापाः कपटरुचिरहासभ्रूविजृम्भस्य याः स्युः
चरणरज उपास्ते यस्य भूतिर्वयं का अपि
च कृपणपक्षे ह्युत्तमश्लोकशब्दः ॥ १५ ॥
भौरे ! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं,
ऐसा तू क्यों कहता है ? उनकी कपटभरी मनोहर
मुसकान और भौहों के इशारे से जो वश में न हो जायें, उनके पास
दौड़ी न आवे — ऐसी कौन-सी स्त्रियाँ हैं ? अरे अनजान ! स्वर्ग में, पाताल में और पृथ्वी में
ऐसी एक भी स्त्री नहीं है । औरों की तो बात ही क्या, स्वयं
लक्ष्मीजी भी उनके चरणरज की सेवा किया करती हैं । फिर हम श्रीकृष्ण के लिये किस
गिनती में है ? परन्तु तू उनके पास जाकर कहना कि तुम्हारा
नाम तो । ‘उत्तमश्लोक’ है, अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गान करते हैं, परन्तु
इसकी सार्थकता तो इसमें है कि तुम दीनों पर दया करो । नहीं तो श्रीकृष्ण !
तुम्हारा ‘उत्तमश्लोक’ नाम झूठा पड़
जाता है ।
विसृज शिरसि पादं वेद्म्यहं
चाटुकारैर् अनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात्
स्वकृत इह विसृष्टापत्यपत्यन्यलोका व्यसृजदकृतचेताः
किं नु सन्धेयमस्मिन् ॥ १६ ॥
अरे मधुकर ! देख, तू मेरे पैर पर सिर मत टेक । मैं जानती हूँ कि तू अनुनय-विनय करने में,
क्षमा-याचना करने में बड़ा निपुण है । मालूम होता है तू श्रीकृष्ण
से ही यही सीखकर आया है कि रूठे हुए को मनाने के लिये दूत को सन्देश-वाहक को कितनी
चाटुकारिता करनी चाहिये । परन्तु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलने की । देख,
हमने श्रीकृष्ण के लिये ही अपने पति, पुत्र और
दूसरे लोगों को छोड़ दिया । परन्तु उनमें तनिक भी कृतज्ञता नहीं । वे ऐसे निर्मोही
निकले कि हमें छोड़कर चलते बने ! अब तू ही बता, ऐसे अकृतज्ञ
के साथ हम क्या सन्धि करे ? क्या तू अब भी कहता है कि उन पर
विश्वास करना चाहिये ? ।
मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे
लुब्धधर्मा स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम्
बलिमपि
बलिमत्त्वावेष्टयद्ध्वाङ्क्षवद्यस् तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थः ॥ १७ ॥
ऐ रे मधुप ! जब वे राम बने थे,
तब उन्होंने कपिराज बालि को व्याध के समान छिपकर बड़ी निर्दयता से
मारा था । बेचारी शूर्पणखा कामवश उनके पास आयी थी, परन्तु
उन्होंने अपनी स्त्री के वश होकर उस बेचारी के नाक-कान काट लिये और इस प्रकार उसे
कुरूप कर दिया । ब्राह्मण के घर वामन के रूप में जन्म लेकर उन्होंने क्या किया ?
बलि ने तो उनकी पूजा की, उनकी मुँह-माँगी
वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण करके भी उसे वरुणपाश से बाँधकर पाताल में
डाल दिया । ठीक वैसे ही, जैसे कौआ बलि खाकर भी बलि देनेवाले
को अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर घेर लेता है और परेशान करता है । अच्छा,
तो अब जाने दे; हमें श्रीकृष्ण से क्या,
किसी भी काली वस्तु के साथ मित्रता से कोई प्रयोजन नहीं है । परन्तु
यदि तू यह कहे कि ‘जब ऐसा है तब तुमलोग उनकी चर्चा क्यों
करती हो ?” तो भ्रमर ! हम सच कहती हैं, एक बार जिसे उसका चसका लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं
सकता । ऐसी दशा में हम चाहने पर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकती ।
यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट् सकृददनविधूतद्वन्द्वधर्मा
विनष्टाः
सपदि गृहकुटुम्बं दीनमुत्सृज्य दीना
बहव इह विहङ्गा भिक्षुचर्यां चरन्ति ॥ १८ ॥
श्रीकृष्ण की लीलारूप कर्णामृत के
एक कण का भी जो रसास्वादन कर लेता है, उसके
राग-द्वेष, सुख-दुःख आदि सारे द्वन्द्व छूट जाते हैं । यहाँ
तक कि बहुत-से लोग तो अपनी दुःखमय—दुःख से सनी हुई
घर-गृहस्थी छोड़कर अकिञ्चन हो जाते हैं, अपने पास कुछ भी
संग्रह-परिग्रह नहीं रखते और पक्षियों की तरह चुन-चुनकर-भीख माँगकर अपना पेट भरते
हैं, दीन-दुनिया से जाते रहते हैं । फिर भी श्रीकृष्ण की
लीला-कथा छोड़ नहीं पाते । वास्तव में उसका रस, उसका चसका
ऐसा ही है । यही दशा हमारी हो रही है ।
वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः
कुलिकरुतमिवाज्ञाः कृष्णवध्वो हरिण्यः
ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीव्र स्मररुज
उपमन्त्रिन्भण्यतामन्यवार्ता ॥ १९ ॥
जैसे कृष्णसार मृग की पत्नी
भोली-भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का विश्वास कर लेती हैं और उसके जाल में फँसकर
मारी जाती हैं, वैसे ही हम भोली-भाली गोपियाँ
भी उस छलिया कृष्ण की कपटभरी मीठी-मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य के समान मान
बैठीं और उनके नखस्पर्श से होनेवाली काम-व्याधि का बार-बार अनुभव करती रहीं ।
इसलिये श्रीकृष्ण के दूत भौरे ! अब इस विषय में तू और कुछ मत कह । तुझे कहना ही हो
तो कोई दूसरी बात कह ।
प्रियसख पुनरागाः प्रेयसा प्रेषितः
किं वरय किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेऽङ्ग
नयसि
कथमिहास्मान्दुस्त्यजद्वन्द्वपार्श्वं सततमुरसि सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते ॥ २० ॥
हमारे प्रियतम के प्यारे सखा ! जान
पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो । अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मनाने
के लिये तुम्हें भेजा होगा । प्रिय भ्रमर ! तुम सब प्रकार से हमारे माननीय हो ।
कहो,
तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो
माँग लो । अच्छा, तुम सच बताओ, क्या
हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी, उनके
पास जाकर लौटना बड़ा कठिन हैं । हम तो उनके पास जा चुकी हैं । परन्तु तुम हमें
वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर ! उनके साथ-उनके
वक्षःस्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा ।
अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनास्ते
स्मरति स पितृगेहान्सौम्य बन्धूंश्च गोपान्
क्वचिदपि स कथा नः किङ्करीणां
गृणीते भुजमगुरुसुगन्धं मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु ॥ २१ ॥
अच्छा, हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर ! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान् श्रीकृष्ण गुरुकुल से लौटकर मधुपुरी में अब सुख से तो हैं न ? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँ के घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालों को भी याद करते हैं ? और क्या हम दासियों की भी कोई बात कभी चलाते हैं ? प्यारे भ्रमर ! हमें यह भी बतलाओं कि कभी वे अपनी अगर के समान दिव्य सुगन्ध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रक्खेंगे ? क्या हमारे जीवन में कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ? ।
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