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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
प्रणय गीत
प्रणय मूलतः संस्कृत का शब्द है। जिसका
अर्थ है- प्रेम या प्रीति या मिलन । अर्थात् की यह एक प्रेम गीत है। श्रीमद भागवत में
प्रणय गीत दशम स्कन्ध के २९ अध्याय के श्लोक ३१ से ४१ तक है। यह कृष्ण और गोपियों
का प्रणय आत्मिक था न कि शारीरिक। श्रीमद भागवत के अन्तर्गत आने वाले गोपियों के पञ्च
प्रेम गीत (वेणुगीत, युगल गीत, प्रणय गीत, गोपीगीत और भ्रमर गीत) इनमें से प्रणय गीत
का वर्णन इस प्रकार है-
प्रणय गीत
श्रीगोप्य ऊचुः ।
मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं
सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ।
भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्
देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून् ॥ ३१ ॥
यत्पत्यपत्यसुहृदां अनुवृत्तिरङ्ग
स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम्
।
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे
प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा ॥
३२ ॥
कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन्
नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदैः किम् ।
तन्नः प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिन्द्या
आशां धृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र ॥ ३३ ॥
चित्तं सुखेन भवतापहृतं गृहेषु
यन्निर्विशत्युत करावपि गृह्यकृत्ये ।
पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद्
यामः कथं व्रजमथो करवाम किं वा ॥ ३४ ॥
सिञ्चाङ्ग नस्त्वदधरामृतपूरकेण
हासावलोककलगीतजहृच्छयाग्निम् ।
नो चेद् वयं विरहजाग्नि उपयुक्तदेहा
ध्यानेन याम पदयोः पदवीं सखे ते ॥ ३५ ॥
यर्ह्यम्बुजाक्ष तव पादतलं रमाया
दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य ।
अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति नान्यसमक्षमङ्ग
स्थातुं त्वयाभिरमिता बत पारयामः ॥ ३६ ॥
श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्या
लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम् ।
यस्याः स्ववीक्षण कृतेऽन्यसुरप्रयासः
तद्वद् वयं च तव पादरजः प्रपन्नाः ॥ ३७ ॥
तन्नः प्रसीद वृजिनार्दन तेऽन्घ्रिमूलं
प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशाः ।
त्वत्सुन्दरस्मित निरीक्षणतीव्रकाम
तप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम् ॥ ३८ ॥
वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्री
गण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम् ।
दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य
वक्षः श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः ॥ ३९ ॥
का स्त्र्यङ्ग ते कलपदायतमूर्च्छितेन
सम्मोहितार्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम् ।
त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं
यद् गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन् ॥ ४०
॥
व्यक्तं भवान् व्रजभयार्तिहरोऽभिजातो
देवो यथाऽऽदिपुरुषः सुरलोकगोप्ता ।
तन्नो निधेहि करपङ्कजमार्तबन्धो
तप्तस्तनेषु च शिरःसु च किङ्करीणाम् ॥ ४१ ॥
प्रणय गीत भावार्थ सहित
श्रीगोप्य ऊचुः ।
मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं सन्त्यज्य
सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ।
भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान् देवो
यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून् ॥ ३१ ॥
गोपियों ने कहा —
प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम घट-घट व्यापी हो । हमारे हृदय की बात जानते
हो । तुम्हें इस प्रकार निष्ठुरता भरे वचन नहीं कहने चाहिये । हम सब कुछ छोड़कर
केवल तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं । इसमें सन्देह नहीं कि तुम स्वतन्त्र
और हठीले हो । तुम पर हमारा कोई वश नहीं हैं । फिर भी तुम अपनी ओर से, जैसे आदिपुरुष भगवान् नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तों से प्रेम
करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो । हमारा त्याग मत करो
॥ ३१ ॥
यत्पत्यपत्यसुहृदां अनुवृत्तिरङ्ग
स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम् ।
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे प्रेष्ठो
भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा ॥ ३२ ॥
प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम सब धर्मों
का रहस्य जानते हों । तुम्हारा यह कहना कि ‘अपने
पति, पुत्र और भाई-बन्धुओं की सेवा करना ही स्त्रियों का
स्वधर्म हैं’ — अक्षरशः ठीक है । परन्तु इस उपदेश के अनुसार
हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि तुम्हीं सब
उपदेशों के पद (चरम लक्ष्य) हो; साक्षात् भगवान् हो ।
तुम्हीं समस्त शरीरधारियों के सुहृद् हो, आत्मा हो और परम
प्रियतम हो ॥ ३२ ॥
कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व
आत्मन् नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदैः किम् ।
तन्नः प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिन्द्या आशां
धृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र ॥ ३३ ॥
आत्मज्ञान में निपुण महापुरुष तुम
से ही प्रेम करते हैं; क्योंकि तुम नित्य
प्रिय एवं अपने ही आत्मा हो । अनित्य एवं दुःखद पति-पुत्रादि से क्या प्रयोजन हैं ?
परमेश्वर ! इसलिये हम पर प्रसन्न होओ । कृपा करो । कमलनयन ! चिरकाल
से तुम्हारे प्रति पाली-पोसी आशा-अभिलाषा की लहलहाती लता का छेदन मत करो ॥ ३३ ॥
चित्तं सुखेन भवतापहृतं गृहेषु
यन्निर्विशत्युत करावपि गृह्यकृत्ये ।
पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद् यामः कथं व्रजमथो
करवाम किं वा ॥ ३४ ॥
मनमोहन ! अब तक हमारा चित्त घर के
काम-धंघों में लगता था । इसी से हमारे हाथ भी उनमें रमे हुए थे । परन्तु तुमने
हमारे देखते-देखते हमारा वह चित्त लूट लिया । इसमें तुम्हें कोई कठिनाई भी नहीं
उठानी पड़ी, तुम तो सुखस्वरूप हो न ! परन्तु
अब तो हमारी गति-मति निराली ही हो गयी है । हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलों को
छोड़कर एक पग भी हटने के लिये तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे
हैं । फिर हम व्रज में कैसे जायें ? और यदि वहाँ जायें भी तो
करें क्या ? ॥ ३४ ॥
सिञ्चाङ्ग नस्त्वदधरामृतपूरकेण
हासावलोककलगीतजहृच्छयाग्निम् ।
नो चेद् वयं विरहजाग्नि उपयुक्तदेहा ध्यानेन याम
पदयोः पदवीं सखे ते ॥ ३५ ॥
प्राणवल्लभ ! हमारे प्यारे सखा !
तुम्हारी मन्द-मन्द मधुर मुसकान, प्रेमभरी
चितवन और मनोहर संगीत ने हमारे हृदय में तुम्हारे प्रेम और मिलन की आग धधका दी हैं
। उसे तुम अपने अधरों की रसधारा से बुझा दो । नहीं तो प्रियतम ! हम सच कहती हैं,
तुम्हारी विरह-व्यथा की आग से हम अपने-अपने शरीर जला देगी और ध्यान
के द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी ॥ ३५ ॥
यर्ह्यम्बुजाक्ष तव पादतलं रमाया
दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य ।
अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति नान्यसमक्षमङ्ग स्थातुं
त्वयाभिरमिता बत पारयामः ॥ ३६ ॥
प्यारे कमलनयन ! तुम वनवासियों के
प्यारे हो और वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं । इससे प्रायः तुम उन्हीं के पास
रहते हो । यहाँ तक कि तुम्हारे जिन चरणकमलों की सेवा का अवसर स्वयं लक्ष्मीजी को
भी कभी-कभी ही मिलता हैं, उन्हीं चरणों का
स्पर्श हमें प्राप्त हुआ । जिस दिन यह सौभाग्य हमें मिला और तुमने हमें स्वीकार
करके आनन्दित किया, उसी दिन से हम और किसी के सामने एक क्षण
के लिये भी ठहरने में असमर्थ हो गयी हैं — पति-पुत्रादिकों
की सेवा तो दूर रही ॥ ३६ ॥
श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्या
लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम् ।
यस्याः स्ववीक्षण कृतेऽन्यसुरप्रयासः तद्वद् वयं
च तव पादरजः प्रपन्नाः ॥ ३७ ॥
हमारे स्वामी ! जिन लक्ष्मीजी को
कृपाकटाक्ष प्राप्त करने के लिये बड़े-बड़े देवता तपस्या करते रहते हैं,
वहीं लक्ष्मीजी तुम्हारे वक्षःस्थल में बिना किसी की
प्रतिद्वन्द्विता के स्थान प्राप्त कर लेने पर भी अपनी सौत तुलसी के साथ तुम्हारे
चरणों की रज पाने की अभिलाषा किया करती हैं । अब तक के सभी भक्तों ने उस चरणरज का
सेवन किया है । उन्हीं के समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरज की शरण में आयी हैं ॥ ३७
॥
तन्नः प्रसीद वृजिनार्दन
तेऽन्घ्रिमूलं प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशाः ।
त्वत्सुन्दरस्मित निरीक्षणतीव्रकाम तप्तात्मनां
पुरुषभूषण देहि दास्यम् ॥ ३८ ॥
भगवन् ! अब तक जिसने भी तुम्हारे
चरणों की शरण ली, उसके सारे कष्ट
तुमने मिटा दिये । अब तुम हम पर कृपा करो । हमें भी अपने प्रसाद का भाजन बनाओ । हम
तुम्हारी सेवा करने की आशा-अभिलाषा से घर, गाँव, कुटुम्ब-सब कुछ छोड़कर तुम्हारे युगल चरणों की शरण में आयी हैं । प्रियतम
! वहाँ तो तुम्हारी आराधना के लिये अवकाश ही नहीं है । पुरुष-भूषण ! पुरुषोत्तम !
तुम्हारी मधुर मुसकान और चारु चितवन ने हमारे हृदय में प्रेम की मिलन की आकांक्षा
की आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उससे जल रहा है । तुम हमें
अपनी दासी के रूप में स्वीकार कर लो । हमें अपनी सेवा का अवसर दो ॥ ३८ ॥
वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्री
गण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम् ।
दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य वक्षः
श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः ॥ ३९ ॥
प्रियतम ! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल,
जिसपर घुँघराली अलकें झलक रही हैं; तुम्हारे
ये कमनीय कपोल, जिन पर सुन्दर-सुन्दर कुण्डल अपना अनन्त
सौन्दर्य बिखेर रहे हैं; तुम्हारे ये मधुर अधर, जिनकी सुधा सुधा को भी लजानेवाली है; तुम्हारी यह
नयन-मनोहारी चितवन, जो मन्द-मन्द मुसकान से उल्लसित हो रही
है । तुम्हारी ये दोनों भुजाएँ, जो शरणागत को अभयदान देने
में अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह वक्षःस्थल, जो
लक्ष्मीजी का-सौन्दर्य की एकमात्र देवी का नित्य क्रीडास्थल है, देखकर हम सब तुम्हारी दासी हो गयी हैं ॥ ३९ ॥
का स्त्र्यङ्ग ते कलपदायतमूर्च्छितेन
सम्मोहितार्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम् ।
त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं यद्
गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन् ॥ ४० ॥
प्यारे श्यामसुन्दर ! तीनों लोकों
में भी और ऐसी कौन-सी स्त्री हैं, जो मधुर-मधुर
पद और आरोह-अवरोह-क्रम से विविध प्रकार की मूर्च्छनाओं से युक्त तुम्हारी वंशी की
तान सुनकर तथा इस त्रिलोकसुन्दर मोहिनी मूर्ति को–जो अपने एक
बूंद सौन्दर्य से त्रिलोकी को सौन्दर्य का दान करती है एवं जिसे देखकर गौ, पक्षी, वृक्ष और हरिन भी रोमाञ्चित, पुलकित हो जाते है — अपने नेत्रों से निहारकर
आर्य-मर्यादा से विचलित न हो जाय, कुल-कान और लोक-लज्जा को
त्यागकर तुममें अनुरक्त न हो जाय ॥ ४० ॥
व्यक्तं भवान् व्रजभयार्तिहरोऽभिजातो देवो
यथाऽऽदिपुरुषः सुरलोकगोप्ता ।
तन्नो निधेहि करपङ्कजमार्तबन्धो तप्तस्तनेषु च
शिरःसु च किङ्करीणाम् ॥ ४१ ॥
हमसे यह बात छिपी नहीं हैं कि जैसे भगवान् नारायण देवताओं की रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम व्रजमण्डल का भय और दुःख मिटाने के लिये ही प्रकट हुए हो ! और यह भी स्पष्ट ही है कि दीन-दुखियों पर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी कृपा हैं । प्रियतम ! हम भी बड़ी दुःखिनी हैं । तुम्हारे मिलन की आकांक्षा की आग से हमारा वक्षःस्थल जल रहा है । तुम अपनी इन दासियों के वक्षःस्थल और सिर पर अपने कोमल करकमल रखकर इन्हें अपना लो; हमें जीवनदान दो ॥ ४१ ॥
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