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वेणुगीत
श्रीमद्भागवत में अनेक गीत है। वेणु
गीत दशम स्कन्ध के २१ वें अध्याय में है। श्रीशुकदेव जी महाराज ने सुन्दर ग्रीष्म
ऋतू का वर्णन किया हैं, इसके बाद वर्षा ऋतू
का वर्णन किया हैं और फिर वर्षा ऋतू की दिव्यता का अति सुंदर वर्णन किया। वर्षा
ऋतू के बाद शरद ऋतू का वर्णन शुकदेव जी महाराज ने किया हैं। और गोपियों ने सुंदर
वेणु गीत गया हैं। जिसके केवल ये ही भाव हैं की अगर संसार में कोई देखने योग्य हैं
तो वे केवल भगवान श्री कृष्ण हैं। अगर आँखे भगवान को छोड़कर और किसी को देखती हैं
तो वो आँखे जल जानी चाहिए। गोपियाँ एक क्षण के लिए भी परमात्मा श्री कृष्ण से दूर
नही होना चाहती। अपनी पलकों तक को झपकने नही देना चाहती। गोपियाँ कह रही हैं भगवान
के अवतार लेने से चेतन और जड़ सभी उनके रूप रस का माधुर्य का पान कर रहे हैं। ये गऊ,
ये वेणु(वंशी), ये नदियां और ये ग्वाल बाल,
ये गिरिराज सभी बड़भागी हैं। जिन्हे भगवान का सानिध्य प्राप्त हो रहा
हैं।
श्रीमद भागवत के अन्तर्गत आने वाले
गोपियों के पंञ्ञ प्रेम गीत (वेणुगीत, युगल
गीत, प्रणय गीत, गोपीगीत और भ्रमर गीत)
इनमें से वेणु गीत का वर्णन इस प्रकार है-
वेणु गीत
श्रीशुक उवाच
इत्थं शरत्स्वच्छजलं
पद्माकरसुगन्धिना ।
न्यविशद्वायुना वातं स
गोगोपालकोऽच्युतः ।।१।।
कुसुमितवनराजिशुष्मिभृङ्ग
द्विजकुलघुष्टसरःसरिन्महीध्रम् ।।
मधुपतिरवगाह्य चारयन्गाः
सहपशुपालबलश्चुकूज वेणुम् ।।२।।
तद्व्रजस्त्रिय आश्रुत्य वेणुगीतं
स्मरोदयम् ।
काश्चित्परोक्षं कृष्णस्य स्वसखीभ्योऽन्ववर्णयन्
।।३।।
तद्वर्णयितुमारब्धाः स्मरन्त्यः
कृष्णचेष्टितम् ।
नाशकन्स्मरवेगेन विक्षिप्तमनसो नृप
।।४।।
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः
कर्णिकारं,
बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च
मालाम् ।
रन्ध्रान्वेणोरधरसुधयापूरयन्गोपवृन्दैर्-
वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः
।।५।।
इति वेणुरवं राजन् सर्वभूतमनोहरम्
।।
श्रुत्वा व्रजस्त्रियः सर्वा
वर्णयन्त्योऽभिरेभिरे ।।६।।
श्रीगोप्य ऊचुः –
अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः ,
सख्यः पशूननविवेशयतोर्वयस्यैः ।।
वक्त्रं व्रजेशसुतयोरनवेणुजुष्टं,
यैर्वा निपीतमनुरक्तकटाक्षमोक्षम्
।।७।।
चूतप्रवालबर्हस्तबकोत्पलाब्ज,
मालानुपृक्तपरिधानविचित्रवेशौ ।।
मध्ये विरेजतुरलं पशुपालगोष्ठ्यां,
रङ्गे यथा नटवरौ क्वच गायमानौ ।।८।।
गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुर्-
दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम् ।।
भुङ्क्ते स्वयं यदवशिष्टरसं ह्रदिन्यो,
हृष्यत्त्वचोऽश्रु मुमुचुस्तरवो
यथार्यः ।।९।।
वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कीर्तिं,
यद्देवकीसुतपदाम्बुजलब्धलक्ष्मि ।।
गोविन्दवेणुमनु मत्तमयूरनृत्यं,
प्रेक्ष्याद्रिसान्ववरतान्यसमस्तसत्त्वम्
।।१०।।
धन्याः स्म मूढगतयोऽपि हरिण्य एता,
या नन्दनन्दनमुपात्तविचित्रवेशम् ।।
आकर्ण्य वेणुरणितं सहकृष्णसाराः ,
पूजां दधुर्विरचितां प्रणयावलोकैः
।।११।।
कृष्णं निरीक्ष्य वनितोत्सवरूपशीलं,
श्रुत्वा च
तत्क्वणितवेणुविचित्रगीतम् ।।
देव्यो विमानगतयः स्मरनुन्नसारा,
भ्रश्यत्प्रसूनकबरा
मुमुहुर्विनीव्यः ।।१२।।
गावश्च कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीत,
पीयूषमुत्तभितकर्णपुटैः पिबन्त्यः
।।
शावाः स्नुतस्तनपयःकवलाः स्म
तस्थुर्-
गोविन्दमात्मनि दृशाश्रुकलाः
स्पृशन्त्यः ।।१३।।
प्रायो बताम्ब विहगा मुनयो
वनेऽस्मिन् ,
कृष्णेक्षितं तदुदितं कलवेणुगीतम्
।।
आरुह्य ये
द्रुमभुजान्रुचिरप्रवालान् ,
शृण्वन्ति मीलितदृशो विगतान्यवाचः
।।१४।।
नद्यस्तदा तदुपधार्य मुकुन्दगीतम् ,
आवर्तलक्षितमनोभवभग्नवेगाः ।।
आलिङ्गनस्थगितमूर्मिभुजैर्मुरारेर्-
गृह्णन्ति पादयुगलं कमलोपहाराः
।।१५।।
दृष्ट्वातपे व्रजपशून्सह रामगोपैः ,
सञ्चारयन्तमनु वेणुमुदीरयन्तम् ।।
प्रेमप्रवृद्ध उदितः कुसुमावलीभिः ,
सख्युर्व्यधात्स्ववपुषाम्बुद
आतपत्रम् ।।१६।।
पूर्णाः पुलिन्द्य उरुगायपदाब्जराग,
श्रीकुङ्कुमेन दयितास्तनमण्डितेन ।।
तद्दर्शनस्मररुजस्तृणरूषितेन,
लिम्पन्त्य आननकुचेषु जहुस्तदाधिम्
।।१७।।
हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो,
यद्रामकृष्णचरणस्परशप्रमोदः ।।
मानं तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत् ,
पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलैः ।।१८।।
गा गोपकैरनुवनं नयतोरुदार,
वेणुस्वनैः कलपदैस्तनुभृत्सु सख्यः
।।
अस्पन्दनं गतिमतां पुलकस्तरुणां,
निर्योगपाशकृतलक्षणयोर्विचित्रम्
।।१९।।
एवंविधा भगवतो या वृन्दावनचारिणः ।।
वर्णयन्त्यो मिथो गोप्यः
क्रीडास्तन्मयतां ययुः ।।२०।।
।। इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे वेणुगीतं नामैकविंशोऽध्यायः।।२१।।
वेणुगीत भावार्थ सहित
श्रीशुक उवाच
इत्थं शरत्स्वच्छजलं
पद्माकरसुगन्धिना ।
न्यविशद्वायुना वातं स
गोगोपालकोऽच्युतः ।।१।।
अर्थ:- श्री शुकदेवजी कहते हैं –
परीक्षित ! शरद ऋतू के कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था । जल निर्मल
तह और जलाशयों में खिले हुए कमलों की सुगन्ध से सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी ।
भगवान श्री कृष्ण ने गौवों और ग्वाल बालों के साथ उस वन में प्रवेश किया ।
कुसुमितवनराजिशुष्मिभृङ्ग
द्विजकुलघुष्टसरःसरिन्महीध्रम् ।।
मधुपतिरवगाह्य चारयन्गाः
सहपशुपालबलश्चुकूज वेणुम् ।।२।।
अर्थ:- सुन्दर-सुन्दर पुष्पों से
परिपूर्ण हरी-हरी वृक्ष-पंक्तियों में मतवाले भौरें स्थान-स्थान पर गुनगुना रहे थे,
जिससे उस वन के सरोवर, नदियाँ और पर्वत सब के
सब गूंजते रहते थे । मधुपति श्री कृष्ण ने बलरामजी और ग्वाल-बालों के साथ उसके
भीतर घूंसकर गौवों को चराते हुए अपनी बाँसुरी पर बड़ी मधुर तान छेड़ी ।
तद्व्रजस्त्रिय आश्रुत्य वेणुगीतं
स्मरोदयम् ।
काश्चित्परोक्षं कृष्णस्य स्वसखीभ्योऽन्ववर्णयन्
।।३।।
अर्थ:- श्री कृष्ण की वह बंशीध्वनि
भगवान के प्रति प्रेमभाव को उनके मिलन की आकाँक्षा को जगाने वाली थी । (उसे सुनकर
गोपियों का हृदय प्रेम से परिपूर्ण हो गया) वे एकान्त में अपनी सखियों से उनके रूप,
गुण और बंशीध्वनि के प्रभाव वर्णन करने लगीं ।
तद्वर्णयितुमारब्धाः स्मरन्त्यः
कृष्णचेष्टितम् ।
नाशकन्स्मरवेगेन विक्षिप्तमनसो नृप
।।४।।
अर्थ:- व्रज की गोपियों ने
बंशीध्वनि का माधुर्य आपस में वर्णन करना चाहा तो अवश्य परन्तु वंशी का स्मरण होते
ही उन्हें श्रीकृष्ण की मधुर चेष्टाओं की, प्रेमपूर्ण
चितवन, भौहों के इशारे और मधुर मुस्कान आदि की याद हो आयी ।
उनकी भगवान से मिलने की आकाँक्षा और भी बढ़ गयी । उनका मन हाथ से निकल गया । वे मन
ही मन वहाँ पहुँच गयी, जहाँ श्रीकृष्ण थे । अब अब उनकी वाणी
बोले कैसे ? वे उसके वर्णन में असमर्थ हो गयी ।
बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः
कर्णिकारं,
बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च
मालाम् ।
रन्ध्रान्वेणोरधरसुधयापूरयन्गोपवृन्दैर्-
वृन्दारण्यं स्वपदरमणं
प्राविशद्गीतकीर्तिः ।।५।।
अर्थ:- (वे मन ही मन देखने लगीं,
कि) श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं ।
उनके सिरपर मयूरपिच्छ है और कानों पर कनेर के पीले-पीले पुष्प शरीर पर सुनहला
पीताम्बर और गले में पाँच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी बैजयन्ती माला है ।
रंगमंच पर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नट जैसा क्या सुन्दर वेश है । बाँसुरी के
छिद्रों को वे अपने अधरामृत से भर रहे हैं । उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन
कीर्ति का गान कर रहे हैं । इस प्रकार वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ वह वृन्दावन धाम उनके
उनके चरण चिन्हों से और भी रमणीय बन गया है ।
इति वेणुरवं राजन् सर्वभूतमनोहरम्
।।
श्रुत्वा व्रजस्त्रियः सर्वा
वर्णयन्त्योऽभिरेभिरे ।।६।।
अर्थ:- परीक्षित ! यह वंशीध्वनि
जड़-चेतन समस्त भूतों का मन चुरा लेती है । गोपियों ने उसे सुना और सुनकर उसका
वर्णन करने लगीं । वर्णन करते-करते वे तन्मय ही गयीं और श्रीकृष्ण को पाकर आलिंगन
करने लगीं ।
श्रीगोप्य ऊचुः –
अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः ,
सख्यः पशूननविवेशयतोर्वयस्यैः ।।
वक्त्रं व्रजेशसुतयोरनवेणुजुष्टं,
यैर्वा निपीतमनुरक्तकटाक्षमोक्षम्
।।७।।
अर्थ:- गोपियाँ आपस में बातचीत करने
लगी –
अरी सखीं ! हमने तो आँखवालों के जीवन की और उनकी आँखों की बश यही
इतनी ही सफलता समझी है, और तो हमें कुछ मालूम ही नहीं है ।
वह कौन सा लाभ है ? वह यही है, कि जब
श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम ग्वालबालों के साथ गायों को हाँककर वन
में ले जा रहे हों या लौटाकर ला रहे हों, उन्होंने अपने
अधरों पर मुरली धर रखी हो और प्रेमभरी तिरछी चितवन से हमारी ओर देख रहे हों,
उस समय हम उनकी मुख माधुरी का पान करती रहें ।
चूतप्रवालबर्हस्तबकोत्पलाब्ज,
मालानुपृक्तपरिधानविचित्रवेशौ ।।
मध्ये विरेजतुरलं पशुपालगोष्ठ्यां,
रङ्गे यथा नटवरौ क्वच गायमानौ ।।८।।
अर्थ:- अरी सखी ! जब वे आम की नयी
कोपलें,
मोरों के पंख, फूलों के गुच्छे, रंग-विरंगे कमल और कुमुद की मालाएँ धारण कर लेते हैं, श्रीकृष्ण के साँवरे शरीर पर पीताम्बर और बलराम के गोर शरीर पर नीलाम्बर
फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा ही विचित्र बन जाता है ।
ग्वालबालों की गोष्ठी में वो दोनों बीचोबीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीत की तान छेड़
देते हैं । मेरी प्यारी सखी ! उस समय ऐसा जान पड़ता है मानों दो चतुर नट रंगमंच पर
अभिनय कर रहे हों । मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है ।
गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुर्-
दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम् ।।
भुङ्क्ते स्वयं यदवशिष्टरसं
ह्रदिन्यो,
हृष्यत्त्वचोऽश्रु मुमुचुस्तरवो
यथार्यः ।।९।।
अर्थ:- अरी गोपियों ! यह वेणु पुरुष
जाती का होनेपर भी पूर्वजन्म में न जाने ऐसा कौन सा साधन-भजन कर चूका है,
कि हम गोपियों की अपनी संपत्ति दामोदर के अधरों की सुधा स्वयं ही इस
प्रकार पिये जा रहा है कि हमलोगों के लिए थोडा सा भी रस शेष नहीं रह जायेगा । इस
वेणु को अपने रस से सींचने वाली हृदिनियाँ आज कमलों के मिस रोमाँचित हो रही है और
अपने वंश में भगवत्प्रेमी संतानों को देखकर श्रेष्ठ पुरुषों के समान वृक्ष भी इसके
साथ अपना सम्बन्ध जोडकर आँखों से आनन्दाश्रु बहा रहे हैं ।
वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कीर्तिं,
यद्देवकीसुतपदाम्बुजलब्धलक्ष्मि ।।
गोविन्दवेणुमनु मत्तमयूरनृत्यं,
प्रेक्ष्याद्रिसान्ववरतान्यसमस्तसत्त्वम्
।।१०।।
धन्याः स्म मूढगतयोऽपि हरिण्य एता,
या नन्दनन्दनमुपात्तविचित्रवेशम् ।।
आकर्ण्य वेणुरणितं सहकृष्णसाराः ,
पूजां दधुर्विरचितां प्रणयावलोकैः
।।११।।
अर्थ:- अरी सखी ! यह वृन्दावन
वैकुण्ठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है । क्योंकि यशोदानन्दन
श्रीकृष्ण के चरण कमलों के चिन्हों से यह चिन्हित हो रहा है । सखी ! जब श्रीकृष्ण
अपनी मुनिजन मोहिनी मुरली बजाते हैं,
तब मोर मतवाले होकर उसकी ताल पर
नाचने लगते हैं । यह देखकर पर्वत की चोटियों पर विचरण करने वाले सभी पशु पक्षी
चुपचाप शान्त होकर खड़े रह जाते हैं । अरी सखी ! जब प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण
विचित्रवेश धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, तब
मूढ़ बुद्धिवाली ये हरिनियाँ भी वंशी की तान सुनकर अपने पति कृष्णसार मृगों के साथ
नन्दनन्दन के पास चली आती है और अपनी प्रेमभरी बड़ी-बड़ी आँखों से उन्हें निरखने
लगती है । निरखती क्या हैं, अपनी कमल के समान बड़ी-बड़ी आँखें
श्रीकृष्ण के चरणों पर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्ण की प्रेमभरी चितवन के
द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती है । वास्तव में उनका जीवन धन्य है ।
(हम वृन्दावन की गोपी होनेपर भी इस प्रकार अपने-आप को निछावर नहीं कर पातीं,
हमारे घरवाले कुढ़ने लगते हैं, कितनी विड़म्बना
है।
कृष्णं निरीक्ष्य वनितोत्सवरूपशीलं,
श्रुत्वा च
तत्क्वणितवेणुविचित्रगीतम् ।।
देव्यो विमानगतयः स्मरनुन्नसारा,
भ्रश्यत्प्रसूनकबरा
मुमुहुर्विनीव्यः ।।१२।।
अर्थ:- अरी सखी! हरिनियों की तो बात
ही क्या हैं- स्वर्ग की देवियाँ जब युवतियों को आनंदित करने वाले सौंदर्य और शील
के खजाने श्रीकृष्ण को देखती हैं, तब उनके
चित्र-विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमान पर ही सुध-बुध खो बैठती हैं—मुर्छित हो जाती हैं। यह कैसे मालूम हुआ सखी? सुनो
तो, जब उनके ह्रदय में श्रीकृष्ण से मिलने की तीव्र आकांक्षा
जग जाती है तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती
हैं। उन्हें इस बात का भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियों में गुँथे हुए फूल पृथ्वी
पर गिर रहे हैं। यहाँ तक कि उन्हें अपनी साड़ी का भी पता नहीं रहता, वह कमर से खिसककर जमीन पर गिर जाती है।
गावश्च कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीत,
पीयूषमुत्तभितकर्णपुटैः पिबन्त्यः
।।
शावाः स्नुतस्तनपयःकवलाः स्म
तस्थुर्-
गोविन्दमात्मनि दृशाश्रुकलाः स्पृशन्त्यः
।।१३।।
अर्थ:- अरी सखी! तुम देवियों की बात
क्या-क्या कह रही हो, इन गौओं को नहीं
देखती ? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुख से बाँसुरी में स्वर
भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने
दोनों कानों के दोने सम्हाल लेती हैं—खड़े कर लेती हैं और
मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीत का रस लेने
लगती हैं ? ऐसा क्यों होता है सखी ? अपने
नेत्रों के द्वार से श्यामसुन्दर को ह्रदय में जाकर वे उन्हें वहीँ विराजमान कर
देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिंगन करती हैं। देखती नहीं हो, उनके
नेत्रों से आनन्द के आँसू छलकने लगते हैं! और उनके बछड़े, बछड़ों
की तो दशा ही निराली हो जाती है। यद्यपि गायों के थनों से अपने-आप दूध झरता रहता
है, वे जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशीध्वनि सुनते हैं तब
मुँह में लिया हुआ दूध का घूँट न उगले पाते हैं और न निगल पाए हैं। उनके ह्रदय में
भी होता है भगवान का संस्पर्श और नेत्रों में छलकते होते हैं आनन्द के आँसू। वे
ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं ।
प्रायो बताम्ब विहगा मुनयो
वनेऽस्मिन् ,
कृष्णेक्षितं तदुदितं कलवेणुगीतम्
।।
आरुह्य ये
द्रुमभुजान्रुचिरप्रवालान् ,
शृण्वन्ति मीलितदृशो विगतान्यवाचः
।।१४।।
अर्थ:- अरी सखी! गौएँ और बछड़े तो
हमारी घर की वस्तु हैं। उनकी बात तो जाने ही दो। वृन्दावन के पक्षियों को तुम नहीं
हो! उन्हें पक्षी कहना ही भूल है! सच पूछो तो उनमें से अधिकांश बड़े-बड़े ऋषि-मुनि
हैं। वे वृन्दावन के सुन्दर-सुन्दर वृक्षों की नयी और मनोहर कोंपलों वाली डालियों
पर चुपचाप बैठ जाते हैं और आँखें बंद नहीं करते, निर्निमेष नयनों से श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी तथा प्यार-भरी चितवन
देख-देखकर निहाल होते रहते हैं, तथा कानों से अन्य सब प्रकार
के शब्दों को छोड़कर केवल उन्हीं की मोहनी वाणी और वंशी का त्रिभुवन मोहन संगीत
सुनते रहते हैं। मेरी प्यासी सखी! उनका जीवन कितना धन्य है!।
नद्यस्तदा तदुपधार्य मुकुन्दगीतम् ,
आवर्तलक्षितमनोभवभग्नवेगाः ।।
आलिङ्गनस्थगितमूर्मिभुजैर्मुरारेर्-
गृह्णन्ति पादयुगलं कमलोपहाराः
।।१५।।
अर्थ:- अरी सखी! देवता,
गौओं और पक्षियों की बात क्यों करती हो ? वे
तो चेतन हैं। इन जड़ नदियों को नहीं देखतीं ? इसमें जो भँवर
दीख रहे है, उनसे इनके ह्रदय से श्यामसुन्दर से मिलने की
तीव्र आकांक्षा का पता चलता है ? उसके वेग से ही तो इनका
प्रवाह रुक गया है। इन्होंने भी प्रेमस्वरूप श्रीकृष्ण की वंशीध्वनि सुन ली है।
देखो, देखो! ये अपनी तरंगों के हाथों से उनके चरण पकड़कर कमल
के फूलों का उपहार चढ़ा रही हैं, और उनका आलिंगन कर रही हैं;
मानो उसके चरणों पर अपना ह्रदय ही निछावर कर रही हैं ।
दृष्ट्वातपे व्रजपशून्सह रामगोपैः ,
सञ्चारयन्तमनु वेणुमुदीरयन्तम् ।।
प्रेमप्रवृद्ध उदितः कुसुमावलीभिः ,
सख्युर्व्यधात्स्ववपुषाम्बुद
आतपत्रम् ।।१६।।
अर्थ:- अरी सखी! ये नदियाँ ये हमारी
पृथ्वी की, हमारे वृन्दावन की वस्तुएँ हैं;
तनिक इन बादलों को भी देखो! जब वे देखते हैं कि व्रजराजकुमार
श्रीकृष्ण और बलरामजी ग्वालबालों के साथ धूप में गौएँ चरा रहे हैं और साथ-साथ
बाँसुरी भी बजाते जा रहे हैं, तब उनके ह्रदय में प्रेम उमड़
आता है। वे उनके ऊपर मँडराने लगते हैं और वे श्यामघन अपने सखा घनश्याम के ऊपर अपने
शरीर को ही छाता बनाकर तान देते हैं। इतना ही नहीं सखी! वे जब उनपर नन्हीं-नन्हीं
फुहियों की वर्षा करने लगते हैं तब ऐसा जान पड़ता है कि वे उनके ऊपर सुन्दर-सुन्दर
श्वेत कुसुम चढ़ा रहे हैं। नहीं सखी, उनके बहाने वे तो अपना
जीवन ही निछावर कर देते हैं!।
पूर्णाः पुलिन्द्य उरुगायपदाब्जराग,
श्रीकुङ्कुमेन दयितास्तनमण्डितेन ।।
तद्दर्शनस्मररुजस्तृणरूषितेन,
लिम्पन्त्य
आननकुचेषु जहुस्तदाधिम् ।।१७।।
अर्थ:- अरी भटू! हम तो वृन्दावन की
इन भीलनियों को ही धन्य और कृतकृत्य मानती हैं। ऐसा क्यों सखी ?
इसलिये कि इनके ह्रदय में बड़ा प्रेम है। जब ये हमारे कृष्ण-प्यारे
को देखती हैं, तब इनके ह्रदय में भी उनसे मिलने की तीव्र
आकांक्षा जाग उठती है। इनके ह्रदय में भी प्रेम की व्याधि लग लग जाती है। उस समय
ये क्या उपाय करती हैं, यह भी सुन लो। हमारे प्रियतम की
प्रेयसी गोपियाँ अपने वक्षःस्थलों पर जो केसर लगाती हैं, वह
श्यामसुन्दर के चरणों में लगी होती है और वे जब वृन्दावन के घास-पात पर चलते हैं,
तब उनमें भी लग जाती है। ये सौभाग्यवती भीलनियाँ उन्हें उन तनिकों
पर से छुड़ाकर अपने स्तनों और मुखों पर मल लेतीं हैं और इस प्रकार अपने ह्रदय की
प्रेम-पीड़ा शान्त करती हैं ।
हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो,
यद्रामकृष्णचरणस्परशप्रमोदः ।।
मानं तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत् ,
पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलैः ।।१८।।
अर्थ:- अरी गोपियों! यह गिरिराज
गोवर्धन तो भगवान के भक्तों में बहुत ही श्रेष्ठ है। धन्य हैं इसके भाग्य! देखती
नहीं हो,
हमारे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण और नयनाभिराम बलराम के चरणकमलों का
स्पर्श प्राप्त करके यह कितना आनन्दित रहता है। इसके भाग्य की सहारना कौन करे ?
यह तो उन दोनों का—ग्वालबालों और गौओं का बड़ा
ही सत्कार करता है। स्नान-पान के लिये झरनों का जल देता है, गौओं
के लिये सुन्दर हरी-हरी घास प्रस्तुत करता है, विश्राम करने
के लिये कन्दराएँ और खाने के लिये कन्द-मूल फल देता है। वास्तव में यह धन्य है!।
गा गोपकैरनुवनं नयतोरुदार,
वेणुस्वनैः कलपदैस्तनुभृत्सु सख्यः
।।
अस्पन्दनं गतिमतां पुलकस्तरुणां,
निर्योगपाशकृतलक्षणयोर्विचित्रम्
।।१९।।
अर्थ:- अरी सखी! इन सांवरे-गोरे
किशोरों की तो गति ही निराली हैं। जब वे सर पर नोवना(दुहते समय गाय के पैर पर
बाँधने की रस्सी) लपेटकर और कंधो पर फंदा रखकर गायों को एक वन से दूसरे वन में
हांककर ले जाते हैं, साथ में ग्वालबाल
भी होते हैं और मधुर मधुर संगीत गाते हुए बांसुरी की तान छेड़ते हैं, उस समय मनुष्यों की तो बात ही क्या, अन्य शरीरधारियों
में भी चलने वाले चेतन पशु-पक्षी और जड़ नदी आदि तो स्थिर हो जाते हैं तथा
अचल-वृक्षों को भी रोमांच आ जाता हैं। जादूभरी वंशी का और क्या चमत्कार सुनाऊँ?।
एवंविधा भगवतो या वृन्दावनचारिणः ।।
वर्णयन्त्यो मिथो गोप्यः
क्रीडास्तन्मयतां ययुः ।।२०।।
अर्थ:- परीक्षित्! वृन्दावनविहारी
श्रीकृष्ण की ऐसी-ऐसी एक नहीं, अनेक लीलाएँ
हैं। गोपियाँ प्रति-दिन आपस में उनका वर्णन करतीं और तन्मय हो जातीं। भगवान लीलाएँ
उनके ह्रदय में स्फुरित होने लगतीं ।
।। इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे वेणुगीतं नामैकविंशोऽध्यायः।।२१।।
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