रोगघ्न उपनिषद्
रोगघ्न उपनिषद् अथवा रोगघ्नोपनिषत्
या रोगघ्न उपनिषद या सौर सूक्त
ऋग्वेद-संहिता – प्रथम मंडल सूक्त ५० ऋषि-
प्रस्कण्व काण्व । देवता – सूर्य (११-१३ रोगघ्न उपनिषद)।
छन्द – गायत्री, १०-१३ अनुष्टुप् स्वरः
– गान्धारः है। इस उपनिषद् का पाठ नेत्र रोगों से मुक्ति
देता है।
रोगघ्न उपनिषद् अथवा रोगघ्नोपनिषत्
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति
केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥१॥
ये ज्योतिर्मयी रश्मियाँ सम्पूर्ण
प्राणियो के ज्ञाता सूर्यदेव को एवं समस्त विश्व को दृष्टि प्रदान करने के लिए
विशेष रूप से प्रकाशित होती हैं।
अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा
यन्त्यक्तुभिः ।
सूराय विश्वचक्षसे ॥२॥
सबको प्रकाश देने वाले सूर्यदेव के
उदित होते ही रात्रि के साथ तारा मण्डल वैसे ही छिप जाते है,
जैसे चोर छिप जाते हैं।
अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ
अनु ।
भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥३॥
प्रज्वलित हुई अग्नि की किरणों के
समान सूर्यदेव की प्रकाश रश्मियाँ सम्पूर्ण जीव-जगत को प्रकाशित करती हैं।
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि
सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम् ॥४॥
हे सूर्यदेव ! आप साधको का उद्धार
करने वाले हैं, समस्त संसार मे एक मात्र
दर्शनीय प्रकाशक है तथा आप ही विस्तृत अंतरिक्ष को सभी ओर से प्रकाशित करते हैं।
प्रत्यङ्देवानां विशः
प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान् ।
प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे ॥५॥
हे सूर्यदेव ! मरुद्गणो,
देवगणो, मनुष्यो और स्वर्गलोक वासियों के
सामने आप नियमित रूप से उदित होते हैं, ताकि तीन लोको के
निवासी आपका दर्शन कर सकें।
येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ
अनु ।
त्वं वरुण पश्यसि ॥६॥
जिस दृष्टि अर्थात् प्रकाश से आप
प्राणियों को धारण-पोषण करने वाले इस लोक को प्रकाशित करते हैं,
हम उस प्रकाश की स्तुति करतें हैं।
वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहा मिमानो
अक्तुभिः ।
पश्यञ्जन्मानि सूर्य ॥७॥
हे सूर्यदेव ! आप दिन एवं रात मे
समय को विभाजित करते हुए अन्तरिक्ष एवं द्युलोक मे भ्रमण करते है,
जिसमे सभी प्राणियों को लाभ प्राप्त होता है।
सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव
सूर्य ।
शोचिष्केशं विचक्षण ॥८॥
हे सर्वद्रष्टा सूर्यदेव! आप
तेजस्वी ज्वालाओं से युक्त दिव्यता को धारण करते हुए सप्तवर्णी किरणो रूपी अश्वो
के रथ मे सुशोभित होते हैं।
अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य
नप्त्यः ।
ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥९॥
पवित्रता प्रदान करने वाले ज्ञान
सम्पन्न उर्ध्वगामी सूर्यदेव अपने सप्तवर्णी अश्वो से(किरणो से) सुशोभित रथ मे
शोभायमान होते हैं।
उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त
उत्तरम् ।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म
ज्योतिरुत्तमम् ॥१०॥
तमिस्त्र से दूर श्रेष्ठतम ज्योति
को देखते हुए हम ज्योति स्वरूप और देवो मे उत्कृष्ठतम ज्योति(सूर्य) प्राप्त हों।
उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां
दिवम् ।
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय
॥११॥
हे मित्रो के मित्र सूर्यदेव! आप
उदित होकर आकाश मे उठते हुए हृदयरोग, शरीर
की कान्ति का हरण करने वाले रोगों को नष्ट करें।
शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि
।
अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं नि
दध्मसि ॥१२॥
हम अपने हरिमाण(शरीर को क्षीण करने
वाले रोग) को शुको(तोतों), रोपणाका(वृक्षों)
एवं हरिद्रवो (हरी वनस्पतियों) मे स्थापित करते हैं।
उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह ।
द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं
द्विषते रधम् ॥१३॥
हे सूर्यदेव अपने सम्पूर्ण तेजों से
उदित होकर हमारे सभी रोगों को वशवर्ती करें। हम उन रोगो के वश मे कभी न आयें।
इति रोगघ्नोपनिषत् ।
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