सूर्य सूक्त

सूर्य सूक्त

शुक्ल यजुर्वेदोक्त यह सूर्य सूक्तके ऋषि विभ्राड्हैं, देवता सूर्यऔर छन्द जगती है । ये सूर्यमण्डल के प्रत्यक्ष देवता हैं, जिनका दर्शन सबको निरन्तर प्रतिदिन होता है । पञ्चदेवों में भी सूर्यनारायण को पूर्णब्रह्म के रूप में उपासना होती है । भगवान् सूर्यनारायण को प्रसन्न करने के लिये प्रतिदिन उपस्थानएवं प्रार्थनामें सूर्यसूक्तके पाठ करने की परम्परा है । शरीर के असाध्य रोगों से मुक्ति पाने में सूर्यसूक्तअपूर्व शक्ति रखता है।

सूर्य सूक्त

सूर्य सूक्त अथवा मैत्रसूक्त

Surya sukta or Maitra sukta

रुद्राष्टाध्यायी (रुद्री) के अध्याय ४ में कुल १७ श्लोक है। चतुर्थाध्याय 'बिभ्राड् बृहत्०' मन्त्र से लेकर पूरा चतुर्थ अध्याय मैत्रसूक्त कहलाता है। यह रुद्र का नेत्ररूप पञ्चम अङ्ग है ।

चतुर्थाध्याय में सप्तदश मन्त्र हैं। जो मैत्रसूक्त के रूप में ज्ञात हैं। इन मन्त्रों में भगवान् मित्र – सूर्य की स्तुति है । मैत्रसूक्त में भगवान् भुवन भास्कर का मनोरम वर्णन प्राप्त होता है-

ॐ आ कृष्णेन.............. भुवनानि पश्यन् ॥ अर्थात् रात्रि के समय में अन्धकारमय तथा अन्तरिक्ष लोक में से पुनः पुनः उदीयमान, देवों को तथा मनुष्यों को स्व-स्व कार्यों में नियोजित करनेवाले, सबके प्रेरक, प्रकाशमान भगवान् सूर्य सुवर्णरंगी रथ में बैठ करके सर्वभुवनों के लोगों की पाप-पुण्यमयी प्रवृत्तियों का निरीक्षण करते हैं।

रुद्राष्टाध्यायी चौथा अध्याय सूर्य सूक्त अथवा मैत्रसूक्त

Rudrashtadhyayi chapter- 4

रुद्राष्टाध्यायी अध्याय ४- सूर्य सूक्त अथवा मैत्र सूक्त

॥ श्रीहरिः ॥

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थोऽध्यायः सूर्यसूक्तम् मैत्रसूक्तम्

अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भावार्थ सहित

अथ रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थोऽध्यायः

विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपताव विहृतम् ॥

वात जूतो योऽभिरक्ष तित्मनाप्रजाः पुपोष पुरुधा विराजति ॥ १॥

हे सूर्यदेव ! यजमान में अखण्डित आयु स्थापित करते हुए आप इस अत्यन्त स्वादु सोमरुप हवि का पान कीजिए। जो सूर्यदेव वायु से प्रेरित आत्मा द्वारा प्रजा का पालन और पोषण करते हैं, वे अनेक रूपों में आलोकित होते हैं।

उदुत्त्यं जात वेदसं देवं वहन्ति केतव: ॥ 

दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ २॥

सूर्य रश्मियाँ सम्पूर्ण जगत को आलोक प्रदान करने के लिए जातवेदस् (अग्नितेजोमय) सूर्यदेव को ऊपर की ओर ले जाती रहती हैं।

येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु ॥ 

त्वं वरुण पश्यसि ॥ ३॥

सबको शुद्ध करने वाले हे वरुणदेव ! आप जिस अनुग्रह दृष्टि से उस सुपर्ण स्वरूप को देखते हैं, उसी चक्षु से आप हम ऋत्विजों को भी देखिए।

दैव्यावद्ध्वर्यू आ गत रथेन सूर्यत्वचा ॥

मध्वा यज्ञ समञ्जाथे तं प्रत्नथाऽयं वेनश्चित्रं देवानाम् ॥ ४॥

हे दिव्य अश्विनी कुमारो ! आप दोनों सूर्य के समान कान्तिमान रथ से हमारे यहाँ आइए और पुरोडाश, दधि आदि से यज्ञ को सींचकर उसे बहुत हवि वाला बनाइए।

तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथे मथा ज्येष्ठता तिम् बर्हिषद स्वर्विदम् ॥

प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्त मनु यासु वर्ध से ॥ ५॥

हे इन्द्र ! आप जिन यज्ञ क्रियाओं में पुन:-पुन: सोमरस का पान कर वृद्धि को प्राप्त होते हैं उन उत्कृष्ट विस्तारवान सर्वश्रेष्ठ यज्ञों में कुश आसन के सेवी, स्वर्गवेत्ता, शत्रुओं को कम्पित करने वाले तथा जेतव्य वस्तुओं को शीघ्र जीतने वाले आप बलपूर्वक यजमान को यज्ञफल प्रदान करते हैं, जैसे पुरातन भृगु आदि ऋषियों, पूर्व पितर आदि, विश्व के सभी प्राणियों तथा वर्तमान यजमानों ने आपकी स्तुति की है, उसी प्रकार हम आपकी स्तुति करते हैं।

अयं वेनश्चोदयत्पृश्नि गर्भाज्ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने ।

इमम पा सङ्गमे सूर्यस्य शिशुं न विप्राः मति भी रिहन्ति ॥ ६॥

विद्युत के लक्षणों वाली ज्योति से परिवृत यह कान्तिमान चन्द्र ग्रीष्मान्त के समय जल निर्माण के निमित्त सूर्य अथवा द्युलोक के गर्भ में स्थित रहने वाले जल को प्रेरित करता है। बुद्धिमान विप्रगण सूर्य से जल की संगति के समय मधुर वाणियों से इस सोम की उसी प्रकार स्तुति करते हैं, जैसे लोग मधुर वचनों से अपने शिशु को प्रसन्न करते हैं।

चित्रं देवा ना मुद गादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ॥

आ प्रा द्यावा पृथिवी अन्तरिक्ष सूर्य॑ आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ ७॥

यह कैसा आश्चर्य है कि देवताओं के जीवनाधार, तेजसमूह तथा मित्र, वरुण और अग्नि के नेत्र स्वरूप सूर्य उदय को प्राप्त हुए हैं ! स्थावर-जंगममय जगत के आत्मास्वरूप इन सूर्यदेव ने पृथिवी, द्युलोक और अन्तरिक्ष को अपने तेज से पूर्णत: व्याप्त कर रखा है।

आन इडाभिर् विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु ॥

अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगद भि पित्वे मनीषा ॥ ८॥

सब जीवों के हितकारी, अन्तर्यामी सूर्यदेव हमारी सुन्दर आहुतियों के कारण प्रशंसा योग्य यज्ञशाला में प्रकट हों। हे जरा रहित देवताओं ! आगमन-काल पर जिस प्रकार आप सब तृप्त होते हैं, उसी प्रकार इस सारे जगत को भी प्रज्ञा से तृप्त करें।

यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभिसूर्य ॥ 

सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥ ९॥

हे अन्धकार के नाशक ऎश्वर्ययुक्त सूर्यदेव ! आज जहाँ कहीं भी आप उदित होते हैं, वह सब स्थान आपके ही वश में हो जाता है।

तरणिर्विश्व दर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य । 

विश्वमाभासि रोचनम् ॥ १०॥

हे सूर्यदेव ! आप संसार सागर में नौका के समान हैं, सबके दर्शनयोग्य हैं तथा सबको तेज प्रदान करने वाले हैं। प्रकाशित होने वाले सारे संसार को आप ही प्रकाशित करते हैं अर्थात अग्नि, विद्युत, नक्षत्र, चन्द्रमा, ग्रह, तारों आदि में आपकी ही ज्योति प्रकाशित हो रही है।

तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर् वितत सञ्जभार ॥

यदेद युक्त हरितः सधस्था दा द्रात्रीवासस्तनुते सि मस्मै ॥ ११॥

सूर्य का यह जो देवत्व है और यह जो ऎश्वर्य है वह विराट स्वरूप देह के मध्य में सब ओर से विस्तारित ग्रहमण्डल को अपनी आकर्षण शक्ति से नियमित रखता है। जब ये अपनी हरित वर्ण की किरणों को आकाशमण्डल में अपनी आत्मा से युक्त करते हैं, तदनन्तर ही रात्रि अपने अन्धकाररूपी वस्त्र से सबको आच्छादित कर देती है।

तन्मित्रस्य वरुणस्या भिचक्षे सूर्योरूपं कृणुते द्यो रुपस्थे ।

अनन्त मन्य द्रुशदस्य पाजः कृष्ण मन्यद्धरितः सम्भरन्ति ॥ १२॥

सूर्य स्वर्गलोक के उत्संग में मित्रदेव और वरुणदेव का रूप धारण करते हैं तथा उससे मनुष्यों को भली-भाँति देखते हैं अर्थात मित्रदेव के रूप में पुण्यात्माओं को देखकर उन पर अनुग्रह करते हैं और वरुणरूप में दुष्टजनों को देखकर उनका निग्रह करते हैं। इन सूर्य का अन्य स्वरुप अनन्त अर्थात् देश-काल के परिच्छेद से रहित, मायोपाधि का नाशक ब्रह्म ही है। इनके साकार रूप को इन्द्रियों की वृत्तियां अथवा किरणें धारण करती है अर्थात सूर्य ही सगुण और नीर्गुण ब्रह्म हैं ।

ण्महाँ असि सूर्य वडादित्य महाँ असि ।

महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ असि ॥ १३ ॥

हे जगत के प्रेरक सत्यस्वरूप सूर्यदेव ! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। हे आदित्य ! आप ही महान हैं, स्तोतागण आपकी महान और अविनश्वर महिमा का गान करते हैं। हे दीप्यमान सत्यस्वरूप ! आप महान हैं। हे सत्यस्वरूप सूर्य ! आप धन (अथवा यश) से महान हैं, हे सत्यस्वरुप देव ! आप महान हैं।

वट सूर्य्य श्रवसा महाँ असि सत्रा देव महाँ असि ।

मह्ना देवानाम सुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥ १४॥

आप अपनी महिमा के कारण देवताओं के मध्य असुरविनाशक (अथवा समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाले) हैं। आप सभी कार्यों में अर्घ्य दानादि के रूप में प्रथम पूज्य हैं। आपकी ज्योति सर्वव्यापी तथा अनुल्लंघनीय है।

श्रायन्त इव सूर्यम् विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ॥

वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न दीधिम ॥ १५॥

सूर्य की उपासना करने वाले इन्द्र आदि की उपासना से प्राप्त होने वाले धन-धान्य, ऎश्वर्य आदि भोगों को स्वत: प्राप्त कर लेते हैं, अत: हमको चाहिए कि प्रकाश की किरणों के साथ जब सूर्य भगवान उदित होते हैं, तब हम उनके निमित्त यज्ञ में देवभाग अर्पित करें।

अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निर हसः पिपृता निरवद्यात् ॥

तन्नो मित्रो वरुणो मां महन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ १६॥

हे सूर्य रश्मिरूप देवताओं ! अब आज सूर्य का उदय होने पर आप लोग हमें पाप और अपयश से मुक्त करें। मित्र, वरुण, अदिति, समुद्र, पृथ्वी और स्वर्ग ये सब हमारे वचन को अंगीकार करें।

आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च ॥

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ १७॥

सबको प्रेरणा प्रदान करने वाले सूर्यदेव सुवर्णमय रथ में आरुढ़ होकर कृष्णवर्ण रात्रि लक्षण वाले अन्तरिक्ष मार्ग में पुनरावर्तन-क्रम से भ्रमण करते हुए देवता-मनुष्यादि को अपने-अपने व्यापारों में व्यवस्थित करते हुए तथा सम्पूर्ण भुवनों को देखते हुए विचरण करते हैं।

।। इति रुद्राष्टाध्यायी सूर्य सूक्तम् मैत्रसूक्तम् चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ।।

॥ इस प्रकार रुद्रपाठ (रुद्राष्टाध्यायी) का चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ 

आगे जारी.......... रुद्राष्टाध्यायी अध्याय 5 रुद्रसूक्त

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