श्रीराधिकातापनीयोपनिषत्
श्रीराधिकाजी की उपासना के सम्बन्ध
में ब्रह्मवेत्ताओं के पूछे जाने पर भगवान् आदित्य द्वारा श्रुतियों का बताया हुआ
यह श्रीराधिकातापनीयोपनिषत् या श्रीराधिका तापनी उपनिषत् या श्रीराधिकातापनीयोपनिषद्
है । अथर्ववेदीय श्रीराधिकातापनीयोपनिषत् बृहस्पतिजी ने अपने यजमान इन्द्र को
उपदेश किया और तभी से यह उपनिषद् ‘बार्हस्पत्य’
के नाम से प्रसिद्ध है ।
॥ अथर्ववेदीया श्रीराधिकातापनीयोपनिषत् ॥
[ श्रुतियों द्वारा श्रीराधिकाजी की
अपरिमित महिमा की प्रतिपादक स्तुति]
“ब्रह्मवादिनो वदन्ति,
कस्माद्राधिकामुपासते आदित्योऽभ्यद्रवत् ॥ १ ॥
[किसी समय उपासनाओं के स्वरूप एवं
लक्ष्य का विचार करते समय] ब्रह्मवेत्ताओं (वेदज्ञों) ने परस्पर यह विचार करना
प्रारम्भ किया कि श्रीराधिकाजी की उपासना किसलिये होती है । इस विचार में प्रवृत्त
होने पर उन पर भगवान् आदित्य (वेदों के अधिष्ठाता प्रकाशमय ज्ञान के रूप में )
अत्यन्त कृपालु हुए । अर्थात् प्रकाशस्वरूप वैदिक ज्ञान उनमें प्रकट हुआ ॥ १ ॥
श्रुतय ऊचुः—
सर्वाणि राधिकाया दैवतानि सर्वाणि
भूतानि राधिकायास्तां नमामः ॥ २ ॥
(उन्होंने श्रीराधिकाजी की उपासना
के सम्बन्ध में श्रुतियों को इस प्रकार बातचीत करते हुए पाया —)
श्रुतियाँ कहती हैं —
सम्पूर्ण देवताओं में जो देवरूपता (शक्ति) हैं, वह श्रीराधिकाजी की ही है । समस्त प्राणी श्रीराधिकाजी के द्वारा ही
अवस्थित हैं । अर्थात् देवता से लेकर क्षुद्र प्राणियों तक सभी जीव श्रीराधिकाजी
की शक्ति से स्थित एवं चेष्टायुक्त हैं और उन्हीं से अभिव्यक्त हुए हैं । इसलिये
हम सब श्रुतियाँ उन श्रीराधिकाजी को नमस्कार करती हैं ॥ २ ॥
देवतायतनानि कम्पन्ते राधाया हसन्ति
नृत्यन्ति च सर्वाणि राधादैवतानि ।
सर्वपापक्षयायेति व्याहृतिभिर्हुत्वाथ
राधिकायै नमामः ॥ ३ ॥
देवताओं के निवास पंचभूत,
इन्द्रियों आदि में श्रीराधिकाजी की प्रेरणा से ही कम्पन (चेष्टा)
होता है तथा उन्हीं की प्रेरणा से वे हँसते (उल्लास प्राप्त करते) और नाचते
(क्रियाशील होते) हैं । सबकी अधिदेवता श्रीराधिकाजी ही हैं (सब उनके वश में हैं) ।
अतएव अपने सम्पूर्ण पापों के नाश के लिये व्याहृतियों ( भू:-भुवः-स्व: या श्रीं
क्लीं ह्रीं)— द्वारा हवन करके फिर श्रीराधिकाजी को हम
प्रणाम करती हैं । (तात्पर्य यह कि विशुद्ध हृदय से ही श्रीराधिकाजी की उपासना
सम्भव है । अतः यजन से आत्मशुद्धि करके तब प्रणाम करती हैं।) ॥ ३ ॥
भासा यस्याः कृष्णदेहोऽपि गौरो
जायते देवस्येन्द्रनीलप्रभस्य ।
भृङ्गाः काकाः कोकिलाश्चापि
गौरास्तां राधिकां विश्वधात्रीं नमामः ॥ ४ ॥
जिनके दिव्य शरीर की कान्ति के
पड़ने से (जिन योगमायारूप के आश्रय से) इन्द्रनीलमणि के समान वर्णवाला
(इन्द्रियातीत नीलिमाव्यंजक) देवाधिदेव श्रीकृष्णचन्द्र का शरीर भी गौर जान पड़ने
लगता है (घनसत्त्व होकर आविर्भूत होता है) तथा जिनकी कान्ति पड़ने से भौंरे,
कौए और कोयल (विषयरस-लोलुप, कटुभाषी, पापी एवं मधुरभाषी, परन्तु स्वरूप से काले अर्थात्
योग-ज्ञानादि साधक, जिनका बाह्यरूप नीरस एवं अनाकर्षक है) भी
रासमण्डल में गौरवर्ण के (सत्त्वगुणी एवं भक्तियुक्त) हो जाते हैं, उन विश्व की पालिका श्रीराधिकाजी को हम नमस्कार करती हैं ॥ ४ ॥
यस्या अगम्यतां श्रुतयः सांख्ययोगा
वेदान्तानि ब्रह्मभावं वदन्ति ।
न यां पुराणानि विदन्ति सम्यक् तां
राधिकां देवधात्रीं नमामः ॥ ५ ॥
हम सब श्रुतियाँ,
सांख्ययोग-शास्त्र तथा उपनिषद् जिन परब्रह्म की अभिन्न शक्ति की
अगम्यता का प्रतिपादन करती हैं, जिनको स्वरूपतः भली प्रकार
पुराण भी नहीं जानते, उन देवताओं की पालिका श्रीराधिकाजी को
हम नमस्कार करती हैं ॥ ५ ॥
जगद्भर्तुर्विश्वसम्मोहनस्य
श्रीकृष्णस्य प्राणतोऽधिकामपि ।
वृन्दारण्ये स्वेष्टदेवीं च नित्यं
तां राधिकां वनधात्रीं नमामः ॥ ६ ॥
सम्पूर्ण संसार के अधीश्वर
त्रिभूवनमोहन श्रीकृष्णचन्द्र जिन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते हैं,
वृन्दावन में स्थित अपनी ( श्रुतियों की) इष्ट — आराध्यदेवी उन श्रीवृन्दावन की पालिका — अधिष्ठात्री
देवी श्रीराधिकाजी को हम नित्य नमस्कार करती हैं ॥ ६ ॥
यस्या रेणं पादयोर्विश्वभर्ता धरते
मूर्ध्नि रहसि प्रेमयुक्तः ।
स्रस्तवेणुः कबरीं न स्मरेद्यल्लीनः
कृष्णः क्रीतवत्तु तां नमामः ॥ ७ ॥
विश्वभर्ता श्रीकृष्णचन्द्र एकान्त
में अत्यन्त प्रेमार्द्र होकर जिनकी पदधूलि अपने मस्तक पर धारण करते हैं और जिनके
प्रेम में निमग्न होने पर हाथ से गिरी वंशी एवं बिखरी अलकों का भी स्मरण उन्हें
नहीं रहता तथा वे क्रीत (खरीदे हुए) — की
भाँति जिनके वश में रहते हैं, उन श्रीराधिकाजी को हम नमस्कार
करती हैं ॥ ७ ॥
यस्याः क्रीडां चन्द्रमा देवपत्न्यो
दृष्ट्वा नग्ना आत्मनो न स्मरन्ति ।
वृन्दारण्ये स्थावरा जङ्गमाश्च
भावाविष्टां राधिका तां नमामः ॥ ८ ॥
श्रीरासमण्डल में जिनकी रासक्रीडा
देखकर चन्द्रमा एवं विवसना देवपत्नियों को अपने शरीर का भी भान नहीं रह जाता और
श्रीवृन्दावन के समस्त जड़ एवं जंगम भी अपने स्वरूप को भूल जाते हैं अर्थात् जड़
पाषाण,
तरु प्रभृति स्रवित होने लगते हैं और जंगम (चर) प्राणी
विमुग्ध-स्थिर हो जाते हैं, श्रीरासमण्डल में भावावेशयुक्ता
उन श्रीराधिकाजी को हम नमन करती हैं ॥ ८ ॥
यस्या अङ्के विलुण्ठन् कृष्णदेवो
गोलोकाख्यं नैव सस्मार धामपदम् ।
सांशा कमला शैलपुत्री तां राधिका
शक्तिधात्रीं नमामः ॥ ९ ॥
जिनके अंक में लेटे हुए
श्रीकृष्णचन्द्र अपने शाश्वत विहार-स्थान गोलोक का (या अपने ब्रह्मस्वरूप परमधाम का)
स्मरण तक नहीं करते, कमलोद्भवा लक्ष्मी
और श्रीपार्वतीजी जिनकी अंशरूपा हैं, उन समस्त शक्तियों की
अधिष्ठात्री श्रीराधिकाजी को हम प्रणाम करती हैं ॥ ९ ॥
स्वरैर्ग्रामैश्च
त्रिभिर्मूर्च्छनाभिर्गीता देवी सखिभिः प्रेमबद्धा ।
ब्राह्मीं निशां यातनोदेकशक्त्या
वृन्दारण्ये राधिका तां नमामः ॥ १० ॥
[श्रीललितादि] सखियों के साथ [ऋषभ,
गान्धारादि] स्वरों से, [तार, मध्य और मन्द्र — इन] तीनों ग्रामों से तथा (अनेक)
मूर्च्छनाओं (स्वर के चढ़ाव-उतारों)—से गाते हुए, प्रेमविवश होकर जिन्होंने (रासक्रीड़ा के समय) श्रीवृन्दावन में एकमात्र
अपनी ही शक्ति से ब्राह्मीनिशा (एक मास या छ: मासपर्यन्त दीर्घरात्रि) — का विस्तार (प्रादुर्भाव) किया, उन श्रीराधिकाजी को
हम नमस्कार करती हैं ॥ १० ॥
क्वचिद् भूत्वा द्विभुजा कृष्णदेहा
वंशीरन्ध्रैर्वादयामास चक्रे ।
यस्या भूषां
कुन्दमन्दारपुष्पैर्मालां कृत्वानुनयेद्देवदेवः ॥ ११ ॥
किसी समय दो भुजाओंवाली (चतुर्भुजी
नहीं) श्रीकृष्ण की मूर्ति बनकर अर्थात् स्वयं द्विभुज श्रीकृष्णवेश धारण करके
वंशी के छिद्रों को श्रीराधिकाजी ने स्वर से भर दिया । (तात्पर्य यह कि
श्रीकृष्ण-वेश धारण करके किसी दिन श्रीराधिकाजी ने वेणुवादन का प्रयत्न किया और वे
केवल वंशी-छिद्रों से (गायनरहित) ध्वनि निकाल पायीं ।) इसी से अत्यन्त उल्लसित
होकर देव-देव श्रीकृष्णचन्द्र ने कुन्द एवं कल्पवृक्ष के पुष्पों की माला बनाकर
उनका शृंगार करके उन्हें प्रसन्न किया ॥ ११ ॥
येयं राधा यश्च कृष्णो
रसाब्धिर्देहेनैकः क्रीडनार्थं द्विधाभूत् ।
देहो यथा छायया शोभमानः शृण्वन्
पठन् याति तद्धाम शुद्धम् ॥ १२ ॥
जिनका इस उपनिषद् में वर्णन हुआ है,
वे श्रीराधिकाजी और आनन्द-सिन्धु श्रीकृष्णचन्द्र वस्तुतः एक ही
शरीर एवं परस्पर नित्य अभिन्न हैं । केवल लीला के लिये वे दो स्वरूपों में व्यक्त
हुए हैं, जैसे शरीर अपनी छाया से शोभित हो । अतएव जिस लीला
के लिये उन परम रससिन्धु का श्रीविग्रह दो रूपों में शोभित हुआ, उस लीला को जो सुनता या पढ़ता है, वह उन परम प्रभु के
विशुद्ध धाम (गोलोक)— में जाता है ॥ १२ ॥
वसिष्ठं च बृहस्पतिं
चार्वागध्यापयति यजमानस्य बार्हस्पत्यं च ॥ १३ ॥
इस उपनिषद् को पूर्वकाल में
वसिष्ठजी ने मधुरभाषी बृहस्पतिजी को पढ़ाया । बृहस्पतिजी ने अपने यजमान इन्द्र को
उपदेश किया और तभी से यह उपनिषद् ‘बार्हस्पत्य’
के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ १३ ॥
॥ इत्यथर्ववेदीया
श्रीराधिकातापनीयोपनिषत् ॥
॥ इस प्रकार अथर्ववेदीय श्रीराधिकातापनीयोपनिषत्
समाप्त हुआ ॥
अथर्ववेदीय श्रीराधिका तापनी उपनिषद् समाप्त ॥
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