दुर्गा सप्तशती अध्याय 13

दुर्गा सप्तशती अध्याय 13

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 29 श्लोक आते हैं। इस shri durga saptashati thirteenth chapter अध्याय 13 में सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान का वर्णन दिया गया हैं।

दुर्गा सप्तशती अध्याय 13

श्रीदुर्गा सप्तशती त्रयोदशोऽध्यायः

दुर्गा सप्तशती अध्याय 13 अर्थ सहित

अथ श्रीदुर्गासप्तशती

॥ त्रयोदशोऽध्यायः॥

॥ध्यानम्॥

ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्।

पाशाङ्‌कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे॥

जो उदयकाल के सुर्यमण्डलकी - सी कान्ति धारण करनेवाली हैं , जिनके चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं तथा जो अपने हाथों में पाश, अंकुश, वर एवं अभयकी मुद्रा धारण किये रहती हैं, उन शिवादेवी का मैं ध्यान करता हूँ ।

"ॐ" ऋषिरुवाच॥१॥

एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम्।

एवंप्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत्॥२॥

ऋषि कहते हैं- ॥१॥ राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे देवी के उत्तम महात्म्य का वर्णन किया। जो इस जगत् को धारण करती हैं , उन देवीका ऐसा ही प्रभाव है ॥२॥

विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया।

तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः॥३॥

मोह्यन्ते मोहिताश्चै‍व मोहमेष्यन्ति चापरे।

तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम्॥४॥

आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥५॥

वे ही विद्या (ज्ञान ) उत्पन्न करती हैं । भगवान् विष्णु की मायास्वरूपा उन भगवती के द्वारा ही तुम , ये वैश्य तथा अन्यान्य विवेकी जन मोहित होते हैं , मोहित हुए हैं तथा आगे भी मोहित होंगे । महाराज ! तुम उन्हीं परमेश्वरी की शरणमें जाओ ॥ ३ - ४॥ आराधना करने पर वे ही मनुष्यों को भोग, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करती हैं ॥५॥

मार्कण्डेय उवाच॥६॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः॥७॥

प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं शंसितव्रतम्।

निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च॥८॥

मार्कण्डेय जी कहते हैं - ॥६॥ क्रोष्टुकिजी ! मेधामुनि के ये वचन सुनकर राजा सुरथ ने उत्तम व्रत का पालन करने वाले उन महाभाग महर्षि को प्रणाम किया । वे अत्यन्त ममता और राज्यापहरण से बहुत खिन्न हो चुके थे ॥७ - ८॥

जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने।

संदर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः॥९॥

महामुने ! इसलिये विरक्त होकर वे राजा तथा वैश्य तत्काल तपस्या को चले गये और वे जगदम्बा के दर्शन के लिये नदीके तटपर रहकर तपस्या करने लगे ॥९॥

स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन्।

तौ तस्मिन पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम्॥१०॥

अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः।

निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ॥११॥

वे वैश्य उत्तम देवीसूक्तका जप करते हुए तपस्यामें प्रवृत्त हुए । वे दोनों नदी के तट पर देवी की मिट्टी की मूर्ति बनाकर पुष्प , धूप और हवन आदि के द्वारा उनकी आराधना करने लगे । उन्होंने पहले तो आहार को धीरे - धीरे कम किया ; फिर बिल्कुल निराहर रहकर देवी में ही मन लगाये एकाग्रतापूर्वक उनका चिन्तन आरम्भ किया ॥१० - ११॥

ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्।

एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः॥१२॥

परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका॥१३॥

वे दोनों अपने शरीर के रक्त से प्रोक्षित बलि देते हुए लगातार तीन वर्ष तक संयमपूर्वक आराधना करते रहे ॥१२॥ इसपर प्रसन्न होकर जगत् को धारण करनेवाली चण्डिका देवी ने प्रत्यक्ष दर्शन देकर कहा ॥१३॥ 

देव्युवाच॥१४॥

यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन।

मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामि तत्॥१५॥

देवी बोलीं - ॥१४॥ राजन् ! तथा अपने कुल को आनन्दित करनेवाले वैश्य ! तुमलोग जिस वस्तु की अभिलाषा रखते हो , वह मुझसे माँगो । मैं संतुष्ट हूँ , अत: तुम्हें वह सब कुछ दूँगी ॥१५॥

मार्कण्डेय उवाच॥१६॥

ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि।

अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात्॥१७॥

मार्कण्डेयजी कहते हैं - ॥१६॥ तब राजा ने दूसरे जन्म में नष्ट न होनेवाला राज्य माँगा तथा इस जन्म में भी शत्रुओं की सेना को बलपूर्वक नष्ट करके पुन: अपना राज्य प्राप्त कर लेने का वरदान माँगा ॥१७॥

सोऽपि वैश्यजस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः।

ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्‌गविच्युतिकारकम्॥१८॥

वैश्य का चित्त संसार की ओर से खिन्न एवं विरक्त हो चुका था और वे बड़े बुद्धिमान थे , अत: उस समय उन्होंने तो ममता और अहंतारूप आसक्ति का नाश करनेवाला ज्ञान माँगा ॥१८॥

देव्युवाच॥१९॥

स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान्॥२०॥

हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति॥२१॥

देवी बोलीं- ॥१९॥ राजन् ! तुम थोड़े ही दिनों में शत्रुओं को मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लोगे । अब वहाँ तुम्हारा राज्य स्थिर रहेगा ॥२०- २१॥

मृतश्च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः॥२२॥

सावर्णिको नाम* मनुर्भवान् भुवि भविष्यति॥२३॥

फिर मृत्यु के पश्चात् तुम भगवान् विवस्वान ( सुर्य ) - के अंश से जन्म लेकर इस पृथ्वीपर सावर्णिक मनु के नाम से विख्यात होओगे ॥२२ - २३॥

वैश्यवर्य त्वया यश्चत वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः॥२४॥

तं प्रयच्छामि संसिद्ध्यै तव ज्ञानं भविष्यति॥२५॥

वैश्यवर्य ! तुमने भी जिस वरको मुझ से प्राप्त करने की इच्छा की है , उसे देती हूँ । तुम्हें मोक्ष के लिये ज्ञान प्राप्त होगा ॥२४- २५॥

मार्कण्डेय उवाच॥२६॥

इति दत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम्॥२७॥

बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता।

एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः॥२८॥

सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥२९॥

एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः

सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥क्लीं ॐ॥

मार्कण्डेय जी कहते हैं- ॥२६॥ इस प्रकार उन दोनों को मनोवांछित वरदान देकर तथा उनके द्वारा भक्तिपूर्वक अपनी स्तुति सुनकर देवी अम्बिका तत्काल अंतर्धान हो गयीं । इस तरह देवी से वरदान पाकर क्षत्रियों में श्रेष्ठ सुरथ सुर्य से जन्म ले सावर्णि मनु होंगे ॥२७-२९॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये

सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥

उवाच ६, अर्धश्लोकाः ११, श्लोकाः १२,

एवम् २९, एवमादितः॥७००॥

समस्ता उवाचमन्त्राः ५७, अर्धश्लोकाः ४२,

श्लोतकाः ५३५, अवदानानि॥६६॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमहात्म्यमें सुरथ और वैश्यको वरदाननामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥

श्रीदुर्गासप्तशती समाप्त॥

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