किरातार्जुनीयम् चतुर्थ सर्ग
किरातार्जुनीयम् चतुर्थ सर्ग-किरातार्जुनीयम्
भारवि की एकमात्र उपलब्ध कृति है, जिसने एक
सांगोपांग महाकाव्य का मार्ग प्रशस्त किया। माघ-जैसे कवियों ने उसी का अनुगमन करते
हुए संस्कृत साहित्य भण्डार को इस विधा से समृद्ध किया और इसे नई ऊँचाई प्रदान की।
कालिदास की लघुत्रयी और अश्वघोष के बुद्धचरितम् में महाकाव्य की जिस धारा का
दर्शन होता है, अपने विशिष्ट गुणों के होते हुए भी उसमें वह
विशदता और समग्रता नहीं है, जिसका सूत्रपात भारवि ने किया।
चौथे सर्ग में यक्ष के मार्गदर्शन
में अर्जुन की द्वैतवन से हिमालय तक की यात्रा का सजीव एवं रोचक वर्णन है,
जिसमें शरद ऋतु की थिर और संयत प्रकृति और उसके साथ घुले-मिले
जन-जीवन का उल्लास नाना रूपों में तरंगित है।
किरातार्जुनीयम् महाकाव्यम् भारविकृतम्
किरातार्जुनीयम् चतुर्थ सर्ग
किरातार्जुनीयम् सर्ग ४
किरातार्जुनीये चतुर्थः सर्गः
ततः स कूजत्कलहंसमेखलां
सपाकसस्याहितपाण्डुतागुणां ।
उपाससादोपजनं जनप्रियः प्रियां
इवासादितयौवनां भुवं ।। ४.१ ।।
अर्थ: तदनन्तर सर्वजनप्रिय अर्जुन
मधुर ध्वनि करती हुई मेखला के समान राजहंसों को धारण करनेवाली तथा पके हुए अन्नों
से पीले वर्णों वाली पृथ्वी के पास, (मधुर
ध्वनि करने वाले राजहंसों के समान मेखला धारण करने वाली) युवावस्था प्राप्त अपनी
प्रियतमा की भांति जन समीप में (सखियों के समक्ष) पहुँच गए ।
टिप्पणी: जिस प्रकार कोई नायक उसकी
सखियों के समक्ष अपनी युवती प्रियतमा के पास पहुँच जाता है,
उसी प्रकार लोकप्रिय अर्जुन उस भूमि में पहुँच गए, जहाँ कृषकों का निवास था ।
उपमा अलङ्कार
विनम्रशालिप्रसवौघशालिनीरपेतपङ्काः
ससरोरुहाम्भसः ।
ननन्द पश्यन्नुपसीम स
स्थलीरुपायनीभूतशरद्गुणश्रियः ।। ४.२ ।।
अर्थ: अर्जुन नीचे की ओर झुकी हुई
धान की बालों से सुशोभित, कमलों से युक्त
जलोंवाली ऐसी सहज मनोहर ग्राम-सीमा की भूमि को देखते हुए बहुत हर्षित हुए, जिसमें शरद ऋतु की सम्पूर्ण समृद्धियाँ उन्हें भेंट रूप में अर्पित कर दी
गयी थी ।
टिप्पणी: परिणाम अलङ्कार
निरीक्ष्यमाणा इव विस्मयाकुलैः
पयोभिरुन्मीलितपद्मलोचनैः ।
हृतप्रियादृष्टिविलासविभ्रमा
मनोऽस्य जह्रुः शफरीविवृत्तयः ।। ४.३ ।।
अर्थ: आश्चर्य रास से भरे,
खिले हुए कमल रुपी नेत्रों के द्वारा मानो जालों द्वारा देखि जाती
हुई तथा प्रियतमा रमणियों के दृष्टी विलास की चञ्चलता को हरण करने वाली शफरी(सहरी)
मछलियों की उछाल-कूद की चेष्टाओं ने अर्जुन के मन को हर लिया ।
टिप्पणी: मार्ग के सरोवरों में कमल
खिले थे और सहरी मछलियां उछल-कूद कर रही थीं, जिन्हें
देखकर अर्जुन का मन मुग्ध हो गया ।
रूपक
अलङ्कार
तुतोष पश्यन्कलमस्य स अधिकं सवारिजे
वारिणि रामणीयकं ।
सुदुर्लभे नार्हति कोऽभिनन्दितुं
प्रकर्षलक्ष्मीं अनुरूपसंगमे ।। ४.४ ।।
अर्थ: अर्जुन कमलों से सुशोभित जल
में जड़हन धान की मनोहर शोभा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए । क्यों न होते?
अत्यन्त दुर्लभ और योग्य व्यक्तियों के समागम की उत्कृष्ट शोभा का
अभिनन्दन कौन नहीं करना चाहता?
टिप्पणी: अर्थात ऐसे सुन्दर समागम
की शोभा का सभी अभिनन्दन करते हैं ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
नुनोद तस्य स्थलपद्मिनीगतं वितर्कं
आविष्कृतफेनसंतति ।
अवाप्तकिञ्जल्कविभेदं
उच्चकैर्विवृत्तपाठीनपराहतं पयः ।। ४.५ ।।
अर्थ: ऊंचाई तक उछलती हुई रोहू नामक
मछलियों से ताड़ित होने के कारण फेन समूहों को प्रकट करनेवाले तथा सटे हुए पद्मों
के केसर समूहों से सुशोभित जल ने अर्जुन के (कमलों में) गुलाब सम्बन्धी शंका को
निवृत्त कर दिया ।
टिप्पणी: रोहू मछलियां जब ऊंचाई तक
कूदती थी,
तब जल के ऊपर तैरनेवाली पद्म-केसर दूर हट जाती थी तथा निर्मल जल में
फेनों के समूह भी दिखाई पड़ते लगते थे, इससे कमलों के पुष्पों
में अर्जुन को गुलाब के पुष्प होने की जो शंका हो रही थी, वह
निवृत्त हो गयी।
निश्चयोत्तर सन्देह अलङ्कार
कृतोर्मिरेखं शिथिलत्वं आयता शनैः
शनैः शान्तरयेण वारिणा ।
निरीक्ष्य रेमे स समुद्रयोषितां तरङ्गितक्ष्ॐअविपाण्डु
सैकतं ।। ४.६ ।।
अर्थ: अर्जुन धीरे धीरे क्षीणोन्मुख
एवं शान्त-वेग जल से निर्मित लहरों के रेखाओं से सुशोभित समुद्रपत्नी नदियों के
भगियुक्त (चुन्नटदार) रेशमी साड़ी की भांति शुभ्र बालुकामय तटों को देखकर बहुत
प्रसन्न हुए ।
टिप्पणी: नदियों के जल ज्यों ज्यों
काम होने लगते हैं, त्यों त्यों उनके
बालुकामय तट पर शान्त लहरों के निशान साड़ियों की चुन्नटों की भांति सुशोभित होते
जाते हैं । कवी उसी की उपमा स्त्री की उस साड़ी से कर रहा है जो चुनियाई गयी है ।
उपमा अलङ्कार
[नीचे के तीन श्लोकों में धान की
रखवाली करनेवाली स्त्रियों का वर्णन है - ]
मनोरमं प्रापितं अन्तरं
भ्रुवोरलंकृतं केसररेणुणाणुना ।
अलक्तताम्राधरपल्लवश्रिया
समानयन्तीं इव बन्धुजीवकं ।। ४.७ ।।
नवातपालोहितं आहितं मुहुर्महानिवेशौ
परितः पयोधरौ ।
चकासयन्तीं अरविन्दजं रजः
परिश्रमाम्भःपुलकेन सर्पता ।। ४.८ ।।
कपोलसंश्लेषि विलोचनत्विषा
विभूषयन्तीं अवतंसकोत्पलं ।
सुतेन पाण्डोः कलमस्य गोपिकां
निरीक्ष्य मेने शरदः कृतार्थता ।। ४.९ ।।
अर्थ: महीन केसरों के पराग से
अलङ्कृत होने के कारण मनोहर और दोनों भौहों के मध्य में स्थापित बन्धूक पुष्प की
मानों जावक के रंग से रंगे हुए अधरपल्लवों की शोभा से तुलना करती हुयी सी,
पीन(विशाल) स्तनों के चारों ओर फिर से लगाए गए प्रातः काल की धूप के
समान लाल कमल-पराग को चूते हुए परिश्रमजनित पसीनों की बूंदों से अत्यन्त सुशोभित
करती हुई तथा कपोलतट पर लगे हुए कान के आभूषण-कमल को अपने नेत्रों की कान्ति से
विभूषित करती हुई, जड़हन धान को रखानेवाली रमणियों को देखकर,
पाण्डुपुत्र अर्जुन ने शरद ऋतु की कृतार्थता को स्वीकार किया ।
टिप्पणी: शरद ऋतु के प्राकृतिक
उपकरणों से अलङ्कृत रमणियों की सुन्दरता ही उस की सफलता थी ।
प्रथम छन्द में उत्प्रेक्षा अलङ्कार
उपारताः पश्चिमरात्रिगोचरादपारयन्तः
पतितुं जवेन गां ।
तं
उत्सुकाश्चक्रुरवेक्षणोत्सुकं गवां गणाः प्रस्नुतपीवरौधरसः ।। ४.१० ।।
अर्थ: पिछली रात्रि में चरने के
स्थान से लौटी हुई, वेग से भूमि पर
दौड़ने में असमर्थ, अत्यन्त मोटे स्तनों से
क्षेत्र-क्षरण करनेवाली एवं अपने-अपने
बच्चो के लिए उत्कण्ठित गौओं ने अर्जुन को अपने देखने के लिए समुत्सुक कर दिया ।
टिप्पणी: स्वभावोक्ति अलङ्कार
परीतं उक्षावजये जयश्रिया नदन्तं
उच्चैः क्षतसिन्धुरोधसं ।
ददर्श पुष्टिं दधतं स शारदीं
सविग्रहं दर्पं इवाधिपं गवां ।। ४.११ ।।
अर्थ: दुसरे (अपने प्रतिद्विन्द्वी)
बलवान सांड को जीतकर विजय शोभा समलंकृत, उच्च
स्वर में गरजते हुए, नदी तट को (अपने सींगों से) क्षत-विक्षत
करते हुए, एवं शरद ऋतु की पुष्टि को धारण करनेवाले (शरद ऋतु
की पौष्टिक घासों को चर कर खूब हृष्टपुष्ट) एक सांड को अर्जुन ने मानो मूर्तिमान
अभिमान की भांति देखा ।
टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार
विमुच्यमानैरपि तस्य मन्थरं गवां
हिमानीविशदैः कदम्बकैः ।
शरन्नदीनां पुलिनैः कुतूहलं
गलद्दुकूलैर्जघनैरिवादधे ।। ४.१२ ।।
अर्थ: हिमराशि के समान श्वेत गौओं
के समूहों द्वारा धीरे धीरे छोड़े जाते हुए भी शरद ऋतु की नदियों के तटों ने,
रमणी के उस जघन प्रदेश के समान अर्जुन के कुतूहल का उत्पादन किया,
जिस पर से साड़ी नीचे सरक गयी हो ।
टिप्पणी: शरद ऋतु के विशेषण का
तात्पर्य यह है कि उसी ऋतु में नदियों के तट मनोहर दिखाई पड़ते हैं ।
उपमा अलङ्कार ।
गतान्पशूनां सहजन्मबन्धुतां
गृहाश्रयं प्रेम वनेषु बिभ्रतः ।
ददर्श गोपानुपधेनु पाण्डवः
कृतानुकारानिव गोभिरार्जवे ।। ४.१३ ।।
अर्थ: अर्जुन ने पशुओं के साथ सहोदर
जैसी बन्धु भावना रखनेवाले, वनों में (भी) घर
जैसा प्रेम रखनेवाले तथा सरलता में मानों गौओं का अनुकरण करते हुए गोपों को गौओं
के समीप देखा ।
टिप्पणी: उत्प्रेक्षा से अनुप्राणित
स्वभावोक्ति
[ नीचे
के चार श्लोकों में गोपियों की तुलना नर्तकियों से की गयी है ]
परिभ्रमन्मूर्धजषट्पदाकुलैः
स्मितोदयादर्शितदन्तकेसरैः ।
मुखैश्चलत्कुण्डलरश्मिरञ्जितैर्नवातपामृष्टसरोजचारुभिः
।। ४.१४ ।।
निबद्धनिःश्वासविकम्पिताधरा लता इव
प्रस्फुरितैकपल्लवाः ।
व्यपोढपार्श्वैरपवर्तितत्रिका
विकर्षणैः पाणिविहारहारिभिः ।। ४.१५ ।।
व्रजाजिरेष्वम्बुदनादशङ्किनीः
शिखण्डिनां उन्मदयत्सु योषितः ।
मुहुः प्रणुन्नेषु मथां
विवर्तनैर्नदत्सु कुम्भेषु मृदङ्गमन्थरं ।। ४.१६ ।।
स मन्थरावल्गितपीवरस्तनीः
परिश्रमक्लान्तविलोचनोत्पलाः ।
निरीक्षितुं नोपरराम
बल्लवीरभिप्रनृत्ता इव वारयोषितः ।। ४.१७ ।।
अर्थ: चञ्चल भ्रमरों के समान
घुंघराले बालों से सुशोभित, किञ्चित मुस्कुराने
से प्रकाशित केसर के समान दांतों से विभूषित, चञ्चल कुण्डलों
की कान्तियों से रञ्जित होने के कारण प्रातः कालीन सूर्य की किरणों से स्पर्श किये
गए कमल समान सुन्दर मुखों से युक्त, परिश्रम के कारण रुकी
हुई श्वासा से कम्पित अधरों के कारण एक एक पल्लव जिनके हिल रहे हों - ऐसी लताओं के
समान मनोज्ञ, बगलों के बारम्बार परिवर्तनों तथा (दधिमन्थन के
कारण) हाथों के सञ्चालन से मनोहर तथा (मथानी की रस्सियों के खींचने से) चञ्चल
नितम्बोवाली, गोष्ठ प्रांगणों में मंथनदण्डों के घुमाने से
बारम्बार कम्पित होकर दधि अथवा दुग्ध के कलशों के मृदंगों के समान गंभीर ध्वनि
करने के कारण बादलों के गर्जन का भ्रम पैदा करके मयूरियों को उन्मत्त करती हुई,
धीरे धीरे चलने वाले पीन (विशाल) स्तनों से युक्त और परिश्रम से
मलिन नेत्र-कमलों वाली गोपियों को, नृत्य-कार्य में लगी हुई
वेश्याओं की भांति देखते हुए अर्जुन नहीं थके ।
टिप्पणी: गोपियाँ गोष्ठों में दधि या दूध का मन्थन कर
रहीं थी,
उस समय उनकी जो शोभा थी वह नर्तकी वेश्याओं के समान ही थी । नृत्य
के समय नर्तकियों के अङ्गों की जो जो क्रियाएं होती हैं, वही
उस समय गोपियों की भी थी ।
चारों श्लोकों में उपमा और
स्वाभावोक्ति अलङ्कार की ससृष्टि है । तृतीय श्लोक में भ्रांतिमान अलङ्कार ।
पपात पूर्वां जहतो विजिह्मतां
वृषोपभुक्तान्तिकसस्यसम्पदः ।
रथाङ्गसीमन्तितसान्द्रकर्दमान्प्रसक्तसम्पातपृथक्कृतान्पथः
।। ४.१८ ।।
अर्थ: पूर्वकालिक अर्थात वर्षा काल
के टेढ़पन को त्याग कर शरद ऋतु में सीधे बने हुए, बैलों द्वारा खाई गयी दोनों ओर के सस्यों(फसलों) की सम्पत्तियों वाले तथा
रथों के चक्को के आने-जाने से जिनके गीले कीचड घनीभूत हो गए थे एवं बहुतेरे लोगों
के निरन्तर आने-जाने से जो स्पष्ट दिखाई दे रहे थे, ऐसे पथों
पर से होते हुए अर्जुन(आगे) चलने लगे ।
टिप्पणी: वर्षा ऋतु में जगह पानी
होने के कारण मार्ग टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं, किन्तु
वही शरद ऋतु में पानी के सूख जाने से सीधे बन जाते हैं । मार्गों के दोनों ओर के
खेतों के अन्न अथवा घास प्राय पशुओं द्वारा चार ली जाती हैं । गाडी अथवा रथ के
चक्कर के आने-जाने से गीले कीचड घनीभूत हो जाते हैं । लोगों के निरन्तर आने-जाने
से शरद ऋतु में मार्ग स्पष्ट हो ही जाते हैं ।
स्वभावोक्ति अलङ्कार
जनैरुपग्रामं
अनिन्द्यकर्मभिर्विविक्तभावेङ्गितभूषणैर्वृताः ।
भृशं ददर्शाश्रममण्डपोपमाः
सपुष्पहासाः स निवेशवीरुधः ।। ४.१९ ।।
अर्थ: अर्जुन ने ग्रामों में
अनिन्द्य अर्थात प्रशंसनीय कार्य करने वाले विशुद्ध अभिप्राय,
चेष्टा तथा आभूषणों से अलङ्कृत ग्राम निवासियों द्वारा अधिष्ठित
होने के कारण (द्वैत-वनवासी) मुनियों के आश्रमों के लता-मण्डपों के समान शोभा देने
वाली एवं खिले हुए पुष्पों से मानो हास करनेवाली गृहलाताओं को आदरपूर्वक देखा ।
टिप्पणी: गाँवों में किसानों के
घरों के सामने लताएं लगी थी और उनके गुल्मों की छाया में बैठकर वे आनन्दपूर्वक
गोष्ठी-मुख का अनुभव करते थे । वे लताएं मुनियों के आश्रमों में बने हुए
लता-मण्डपों के समान थी, क्योंकि उनके नीचे
बैठनेवाले ग्राम्य-कृषक भी मुनियों के समान ही सीधे-सादे आचार-विचार वाले थे ।
उपमा अलङ्कार ।
ततः स सम्प्रेक्ष्य शरद्गुणश्रियं
शरद्गुणालोकनलोलचक्षुषं ।
उवाच यक्षस्तं अचोदितोऽपि गां न
हीङ्गितज्ञोऽवसरेऽवसीदति ।। ४.२० ।।
अर्थ: तदनन्तर उस यक्ष ने शरद ऋतु
की मनोहारिणी शोभा देखकर, शरद की शोभा को देखने
में उत्सुक नेत्रों वाले अर्जुन से बिना उसके कुछ पूछे ही ये बातें कहीं । गूढ़
संकेतों को समझने वाला बोलने का अवसर आने पर चूकता नहीं ।
टिप्पणी: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
इयं शिवाया नियतेरिवायतिः
कृतार्थयन्ती जगतः फलैः क्रियाः ।
जयश्रियं पार्थ पृथूकरोतु ते शरत्प्रसन्नाम्बुरनम्बुवारिदा
।। ४.२१ ।।
अर्थ: हे अर्जुन ! मङ्गलदायिनी
भाग्य के फल देनेवाले शुभ अवसर के समान संसार की समस्त क्रियाओं को फलों द्वारा
कृतार्थ करती हुई, निर्मल जालों तथा
जलहीन बादलों से सुशोभित यह सरद ऋतु तुम्हारी विजयश्री का वर्द्धन करे ।
टिप्पणी: निर्मल जल तथा जलहीन बादल
- ये दोनों विशेषण पृथ्वी और आकाश दोनों की प्रसन्नता के परिचयार्थ हंन ।
उपमा अलङ्कार
उपैति सस्यं परिणामरम्यता
नदीरनौद्धत्यं अपङ्कता महीं ।
नवैर्गुणैः सम्प्रति संस्तवस्थिरं
तिरोहितं प्रेम घनागमश्रियः ।। ४.२२ ।।
अर्थ: (इस शरद ऋतु में) अन्न पकने
के कारण मनोहर हो जाते हैं, नदियां निर्मल जल
एवं स्थिर धारा होने के कारण रमणीय हो जाती हैं, पृथ्वी कीचड
रहित हो जाती है । इस प्रकार अब अपने नूतन गुणों से इस शरद ऋतु ने अत्यंत परिचय हो
जाने के कारण वर्षाऋतु के सुदृढ़ प्रेम को निरर्थक बना दिया है ।
टिप्पणी: अर्थात कई महीनों से चलने
वाली वर्षा ऋतु के मनोहर गुणों से यद्यपि लोगों का उसके प्रति सुदृढ़ प्रेम हो गया
था किन्तु इस शरद ने थोड़े ही दिनों में अपने इन नूतन गुणों से उसे निरर्थक बना
दिया । क्योंकि प्रेम उत्कृष्ट गुणों के अधीन होते हैं,
परिचय के अधीन नहीं ।
पतन्ति नास्मिन्विशदाः पतत्त्रिणो
धृतेन्द्रचापा न पयोदपङ्क्तयः ।
तथापि पुष्णाति नभः श्रियं परां न
रम्यं आहार्यं अपेक्षते गुणं ।। ४.२३ ।।
अर्थ: इस शरद ऋतु में यद्यपि श्वेत
पक्षीगण (बगुलों की पंक्तियाँ) नहीं उड़ते और न ही इंद्रधनुष से सुशोभित मेघों की
पंक्तियाँ ही उड़ती हैं, तथापि आकाश की शोभा
ही निराली रहती है । क्यों न हो, स्वभाव से सुन्दर वस्तु
सुन्दर बनने के लिए बाहरी उपकरणों की अपेक्षा नहीं रखती ।
टिप्पणी:
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
विपाण्डुभिर्ग्लानतया
पयोधरैश्च्युताचिराभागुणहेमदामभिः ।
इयं कदम्बानिलभर्तुरत्यये न
दिग्वधूनां कृशता न राजते ।। ४.२४ ।।
अर्थ: वर्षाऋतु रुपी पति के विरह
में विद्युत्-रुपी सुवर्ण हार से रहित तथा मलिनता (निर्जलता एवं दुर्बलता) के कारण
पाण्डुवर्ण (पीले रंग) को धारण करने वाले पयोधरों (मेघों तथा स्तन-मण्डलों) से
युक्त(इन ) इन दिशा रुपी सुंदरियों की यह दुर्बलता शोभा न दे रही हो - ऐसा नहीं है
अपितु ये अत्यन्त शोभा दे रही हैं।
टिप्पणी: पति के वियोग से पत्नी का
मलिन,
कृश तथा अलङ्कार विहीन होना शास्त्रीय विधान है । उस समय उनकी शोभा
इसी में है । वर्षा ऋतु रुपी पति के वियोग व्यथा में दिगङ्गनाओं की यह दशा
प्रोषित्पतिका की भांति कवि ने चित्रित की है । वर्षा ऋतु पति है, दिशाएं स्त्रियां हैं, मेघ स्तन-मण्डल हैं, बिजली सुवर्ण-हार है ।
रूपक अलङ्कार
विहाय वाञ्छां उदिते
मदात्ययादरक्तकण्ठस्य रुते शिखण्डिनः ।
श्रुतिः श्रयत्युन्मदहंसनिःस्वनं गुणाः
प्रियत्वेऽधिकृता न संस्तवः ।। ४.२५ ।।
अर्थ: (इस शरद ऋतु में) मद के क्षय
हो जाने से सुनने में अनाकर्षक अथवा कटु स्वर वाले मयूरों के उच्च स्वर के कूजन
में अभिलाषा छोड़कर लोगों के कान अब मतवाले हंसों के कल-कूजन के इच्छुक हो गए हैं।
क्यों न हों, प्रीति में गुण ही अधिकारी है,
परिचय नहीं ।
टिप्पणी: अर्थात किसी चीज पर प्रेम
होने का कारण उसके गुण हैं, चिरकाल का परिचय
नहीं ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
अमी पृथुस्तम्बभृतः पिशङ्गतां गता
विपाकेन फलस्य शालयः ।
विकासि वप्राम्भसि गन्धसूचितं
नमन्ति निघ्रातुं इवासितोत्पलं ।। ४.२६ ।।
अर्थ: ये बालों के पक जाने से
पीतिमा धारण करने वाले तथा मोटे-मोटे पुञ्जों वाले जड़हन धान के पौधे,
जलयुक्त क्षेत्रों में विकसित होने वाले एवं मनोहर सुगंध से
परिपूर्ण नीलकमलों को मानो सूंघने के लिए नीचे की ओर झुके हुए हैं ।
टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार
मृणालिनीनां अनुरञ्जितं त्विषा
विभिन्नं अम्भोजपलाशशोभया ।
पयः स्फुरच्छालिशिखापिशङ्गितं
द्रुतं धनुष्खण्डं इवाहिविद्विषः ।। ४.२७ ।।
विपाण्डु संव्यानं इवानिलोद्धतं
निरुन्धतीः सप्तपलाशजं रजः ।
अनाविलोन्मीलितबाणचक्षुषः
सपुष्पहासा वनराजियोषितः ।। ४.२८ ।।
अदीपितं वैद्युतजातवेदसा
सिताम्बुदच्छेदतिरोहितातपं ।
ततान्तरं सान्तरवारिशीकरैः शिवं
नभोवर्त्म सरोजवायुभिः ।। ४.२९ ।।
सितच्छदानां अपदिश्य धावतां
रुतैरमीषां ग्रथिताः पतत्रिणां ।
प्रकुर्वते वारिदरोधनिर्गताः
परस्परालापं इवामला दिशः ।। ४.३० ।।
विहारभूमेरभिघोषं उत्सुकाः
शरीरजेभ्यश्च्युतयूथपङ्क्तयः ।
असक्तं ऊधांसि पयः
क्षरन्त्यमूरुपायनानीव नयन्ति धेनवः ।। ४.३१ ।।
अर्थ: अपनी विहार भूमि से
निवास-स्थल की ओर उत्कण्ठित, समूह से
बिछुड़ी हुई ये गौएं निरन्तर दुग्ध बहाती हुई अपने स्तनों को मानो अपने बछड़ों के
लिए उपहार में लिए जा रही हैं ।
टिप्पणी: जैसे माताएं किसी
मेले-ठेले से लौटते हुए अपने बच्चों के लिए उपहार लाती हैं,
उसी प्रकार गौएं भी अपने विशाल स्तनों को मानो उपहार की गठरी के रूप
में लिए जा रही हैं । उनके स्तन इतने बड़े हैं कि वे शरीर के अंग कि भांति नहीं
प्रत्युत गठरी के समान मालूम पड़ते हैं ।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार
जगत्प्रसूतिर्जगदेकपावनी
व्रजोपकण्ठं तनयैरुपेयुषी ।
द्युतिं समग्रां समितिर्गवां
असावुपैति मन्त्रैरिव संहिताहुतिः ।। ४.३२ ।।
अर्थ: अपने घृत आदि हवनीय
सामग्रियों के द्वारा संसार की स्थिति के कारण तथा संसार को पवित्र करने में एक
मुख्य हेतुभूत ये गौओं के समूह गोष्ठ्भूमि के समीप अपने बछड़ों से मिलकर,
वेद-मन्त्रों से पवित्र आहुति के समान सम्पूर्ण शोभा धारण कर रहे
हैं ।
टिप्पणी: यज्ञ की आहुतियां भी संसार
की स्थिति का कारण तथा संसार को पवित्र करने का एक मुख्य साधन हैं । क्योंकि कहा
गया है -
अग्नि प्रोस्ताहुति:
सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ।
आदित्याज्जायते वृष्टि वृष्टेरन्नं
ततः प्रजाः ।।
अर्थात अग्नि में वेदमंत्रों से
पवित्र आहुतियां आदित्य को प्राप्त होती हैं और आदित्य से वृष्टि,
वृष्टि से अन्न तथा अन्न से प्रजा की उत्पत्ति होती है ।
उपमा अलङ्कार
कृतावधानं जितबर्हिणध्वनौ
सुरक्तगोपीजनगीतनिःस्वने ।
इदं जिघत्सां अपहाय भूयसीं न सस्यं
अभ्येति मृगीकदम्बकं ।। ४.३३ ।।
अर्थ: मयूरों की षड्ज ध्वनि को
जीतने वाली मधुर-कण्ठ गोपियों के गीतों से दत्तचित्त यह हरिणियों का समूह खाने की
प्रबल इच्छा को छोड़कर घासों की ओर नहीं जा रहा है ।
टिप्पणी: मधुर स्वर में गाने वाली
गोपियों के गीतों के आकर्षण में इनकी भूख ही बन्द हो गई है ।
असावनास्थापरयावधीरितः सरोरुहिण्या
शिरसा नमन्नपि ।
उपैति शुष्यन्कलमः सहाम्भसा मनोभुवा
तप्त इवाभिपाण्डुतां ।। ४.३४ ।।
अर्थ: (नायक की भांति) सर झुकाकर
प्रणत होने पर भी अनादर करनेवाली (नायिका की भांति) कमलिनी से तिरस्कृत होकर
सहचारी जल के साथ सूखता हुआ यह जड़हन धान मानो कामदेव से सताए हुए की भांति पीले
वर्ण का हो रहा है ।
टिप्पणी: जैसे कोई नायक,
कुपिता नायिका द्वारा अपमानित होकर कामाग्नि से सूखकर काँटा हो जाता
है, वैसे ही शरदऋतु में जड़हन धान भी पक कर पीले हो गए हैं ।
अतिशयोक्ति अलङ्कार से अनुप्राणित नमासोक्ति और उपमा का आगामी भाव से सङ्कर
अमी समुद्धूतसरोजरेणुना हृता
हृतासारकणेन वायुना ।
उपागमे दुश्चरिता इवापदां गतिं न
निश्चेतुं अलं शिलीमुखाः ।। ४.३५ ।।
अर्थ: उड़ते हुए कमल परागों से भरे
हुए तथा वर्षा के जल-कणों से युक्त(शीतल, मन्द,
सुगन्ध) वायु द्वारा आकृष्ट ये भ्रमरों के समूह राजा आदि का भय
उपस्थित होने चोरों एवं लम्पटों की भांति अपने गन्तव्य का निश्चय नहीं कर पा रहे
हैं ।
टिप्पणी: अर्थात शीतल मन्द सुगन्ध
वायु बह रही है तथा भ्रमरावली उड़ती हुई गुञ्जार कर रही है । उपमा अलङ्कार
मुखैरसौ विद्रुमभङ्गलोहितैः शिखाः
पिशङ्गीः कलमस्य बिभ्रती ।
शुकावलिर्व्यक्तशिरीषक्ॐअला
धनुःश्रियं गोत्रभिदोऽनुगच्छति ।। ४.३६ ।।
अर्थ: मूंगे के टुकड़ों की भांति अपने
लाल रंग के मुखों (चोंच) में पीले रंग की जड़हन धान की बालों को धारण किये हुए एवं
विकसित शिरीष के पुष्प की भांति हरे रंगवाले इन शुकों की पत्तियां इन्द्रधनुष की
शोभा का अनुकरण कर रही है ।
टिप्पणी: तीन रंगों (लाल,
पीले और हरे) के संयोग से इन्द्रधनुष की उपमा दी गयी है । उपमा
अलङ्कार
इति कथयति तत्र नातिदूरादथ ददृशे
पिहितोष्णरश्मिबिम्बः ।
विगलितजलभारशुक्लभासां निचय
इवाम्बुमुचां नगाधिराजः ।। ४.३७ ।।
अर्थ: इस प्रकार अर्जुन से बातें
करते हुए उस यक्ष ने समीप से, भगवान् भास्कर
के मंडल को छिपानेवाले पर्वतराज हिमालय को, जलभार से युक्त
होने के कारण श्वेत कान्तिवाले मेघों के समूह की भांति देखा ।
टिप्पणी: अर्थात हिमालय समीप आ गया
। पुष्पिताग्रा छन्द । उपमा अलङ्कार
तं अतनुवनराजिश्यामितोपत्यकान्तं
नगं उपरि हिमानीगौरं आसद्य जिष्णुः ।
व्यपगतमदरागस्यानुसस्मार लक्ष्मीं
असितं अधरवासो बिभ्रतः सीरपाणेः ।। ४.३८ ।।
अर्थ: विशाल वनों की पंक्तियों से
नीले वर्ण वाली घाटियों से युक्त, बर्फ की
चट्टानों से ढके हुए शुभ्र्वर्णों वाले हिमालय पर पहुंचकर अर्जुन ने, मदिरा के नशे से रहित कटि प्रदेश में नीलाम्बरधारी बलदेव जी की शोभा का
स्मरण किया ।
टिप्पणी: यहाँ मदिरा के नशे से रहित
होने का तात्पर्य है प्रकृतिस्थ होना। मालिनी छन्द । स्मरणालङ्कार ।
इति भारविकृतौ महाकाव्ये
किरातार्जुनीये चतुर्थः सर्गः ।
किरातार्जुनीयम्
चतुर्थः सर्गः (सर्ग ४) समाप्त ।।
आगे जारी-पढ़ें................... किरातार्जुनीयम् सर्ग ५ ।।
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