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विश्वजित यज्ञ को सम्पन्न किया,यहाँ तक की कथा
पढ़ा । अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् पञ्चम (पांचवां) सर्ग में पढ़ेंगे-
रघुवंशमहाकाव्यम् पञ्चमः सर्गः
॥ रघुवंशं सर्ग ५ कालिदासकृतम् ॥
तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं
निःशेषविश्राणितकोशजातम् ।
उत्पातविद्यो गुरुदक्षिणार्थी
कौत्सः प्रपेदे वरतन्तुशिष्यः ॥ ५-१॥
विश्वजित् नामक यज्ञ में सारे अर्थ
राशियों के समूह (खजानों) का दान किये हुये उन महाराज रघु के पास १४ विधा
(छन्द-कल्प-ज्योतिष-निरुक्त-शिक्षा-व्याकरण-इन छ: अंगों के सहित
ऋग्वेद-यजुर्वेद-सामवेद-अथर्ववेद-ये ४ वेद और मीमांसा-न्याय-धर्मशास्त्र-पुराण) को
प्राप्त किये हुए वरतन्तु नामक महर्षि के शिष्य कौत्स ऋषि गुरु की दक्षिणा स्वरूप
१४ करोड़ धन को चाहने वाले होते हुये पहुंचे ॥१॥
स मृण्मये वीतहिरण्मयत्वात्पात्रे
निधायार्घ्यमनर्घशीलः ।
श्रुतप्रकाशं यशसा प्रकाशः
प्रत्युज्जगामातिथिमातिथेयः ॥ ५-२॥
असाधारण शीलवान्,
कीर्ति से परम प्रसिद्ध, अतिथियों का सत्कार
करनेवाले, वे रघु महाराज, सोने के बने
हुये पात्रों के न रहने से मिट्टी के बने हुये पात्र में अर्घनिमित्तक द्रब्य रख
कर शास्त्र से परम प्रसिद्ध अतिथि कौत्स के पास उठ कर गये ॥२॥
तमर्चयित्वा विधिवद्विधिज्ञस्तपोधनं
मानधनाग्रयायी ।
विशांपतिर्विष्टरभाजमारात्कृताञ्जलिः
कृत्यविदित्युवाच ॥ ५-३॥
शास्त्र के जानने वाले,
मान को ही धन मानने वालों में सर्वप्रथम, एवं 'आगमन का प्रयोजन अवश्य पूछना चाहिये’ इस कार्य को जानने वाले राजा रघु आसन
पर बैठे हुए उन तपोधन कौत्स ऋषि का विधिवत् पूजन करके समीप में हाथ जोड़े हुये इस
प्रकार उनसे बोले ॥३॥
अप्यग्रणीर्मन्त्रकृतामृषीणां
कुशाग्रबुद्धे कुशली गुरुस्ते ।
यतस्त्वया ज्ञानमशेषमाप्तं लोकेन
चैतन्यमिवोष्णरश्मेः ॥ ५-४॥
हे तीक्ष्णबुद्धि वाले ! ऋषे कौत्स
! मन्त्रों के स्मरण करने वाले ऋषियों में श्रेष्ठ वे आप के गुरुजी महाराज कुशल से
तो हैं?
जिनसे आपने सम्पूर्ण ज्ञान उस भांति प्राप्त किया जिस भांति लोग
सूर्य से प्रबोध प्राप्त करते हैं ।। ४ ।।
कायेन वाचा
मनसाओइ शश्वद्यत्संभृतं वासवधैर्यलोपि ।
आपाद्यते न व्ययमन्तरायैः
कच्चिन्महर्षेस्त्रिविधं तपस्तत् ॥ ५-५॥
शरीर से (कृच्छ्रचान्द्रायणादि
द्वारा) वाणी से ( वेदपाठ द्वारा) और मन से (गायत्रीत्रीजपादि द्वारा) इन्द्र के
धैर्य का नाश करने वाला (इन्द्र के पद के अपहरण की शङ्का को उत्पन्न करने वाला)जो
(तप) बारबार सञ्चय किया हुआ महर्षि वरतन्तु का तीन प्रकार का (शरीर-वाणी-और मन से
सम्पादित) तप है वह विघ्नों से (इन्द्र की भेजी हुई अप्सराओं से या शापों से ) कभी
नष्ट तो नहीं कराया जाता है ?॥५॥
आधारबन्धप्रमुखैः प्रयत्नैः
संवर्धितानां सुतनिर्विशेषम् ।
कच्चिन्न वाय्वादिरुपप्लवो वः
श्रमच्छिदामाश्रमपादपानाम् ॥ ५-६॥
क्यारी बांधना,
जल देना आदि उपायों से पुत्र के समान बढ़ाये गये जो ( पथिकों की)
थकावट को दूर करने वाले आप लोगों के तपोवन के वृक्ष हैं, उन
सबों को झज्झा, वात-दावानल आदि उपद्रवों से कोई बाधा तो नहीं पहुँचती है ? ॥६॥
क्रियानिमित्तेश्वपि
वत्सलत्वादभग्नकामा मुनिभिः कुशेषु ।
तदङ्कशय्याच्युतनाभिनाला कच्चिन्मृगीणामनघा
प्रसूतिः ॥ ५-७॥
और अनुष्ठान के निमित्त रक्खे हुए
भी कुशों में जो मुनि स्नेह वश हो जिन के खाने की इच्छा को नहीं रोक सके है (खाने
दिया है) ऐसे उन मुनियों की गोदी रूप बिछौने पर जिन के नाभिनाल गिर पड़े हैं,
ऐसे हरिणियों के नवजात बच्चे विपत्ति से रहित (कुशल से) तो है ?॥७॥
निर्वत्यते यैर्नियमाभिषेको येभ्यो
निवापाञ्जलयः पितॄणाम् ।
तान्युञ्छषष्ठाङ्कितसैकतानि शिवानि
वस्तीर्थजलानि कच्चित् ॥ ५-८॥
जिन तीर्थों (जिनके जलों से ऋषि लोग
नित्य स्नान तर्पणादि क्रिया करते हैं, उन्हें
तीर्थ कहते है ) के जलों से व्रतसम्बन्धी स्नानादि क्रिया निष्पन्न होती है,
और जिन तीर्थजलों से पितृगण का तर्पण किया जाता है, और जिनके बालुकामय किनारे (बचे हुए कृषकों द्वारा धान्य की राशि उठा ले
जाने पर एक एक कणों को उठाकर इकट्ठा किये गये राजा के लिये दिये ) उञ्छ संज्ञक
धान्यों के छठे भागों से सुशोभित हो रहे हैं ऐसे आप लोगों के तीर्थों के जल उपद्रव
से रहित तो हैं॥८॥
नीवारपाकादि कडंगरीयैरामृश्यते
जानपदैर्न कच्चित् ।
कालोपपन्नातिथिकल्प्यभागं वन्यं
शरीरस्थितिसाधनं वः ॥ ५-९॥
उचित समय पर (बलि वैश्वदेव कर चुकने
पर ) आये हुये अतिथियों के भागों की भी जिनमें कल्पना की जाती है,
ऐसे जङ्गलों में उत्पन्न हुये, शरीर की स्थिति
बनाये रखने के कारण रूप (भक्ष्य पदार्थ) जो आप लोगों के नीवार-सांबा आदि धान्य हैं
उन्हें ग्राम से आये हुये भूसा खाने बाले गाय-भैंस तो नहीं खा जाते हैं ॥९॥
अपि
प्रसन्नेन महर्षिणा त्वं सम्यग्विनीयानुमतो गृहाय ।
कालो ह्ययं
संक्रमितुं द्वितीयं सर्वोपकारक्षममाश्रमं ते ॥ ५-१०॥
और आपसे प्रसन्न होते हुये महर्षि
वरतन्तु जी ने भली भांति शिक्षा देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिये क्या
आपको आज्ञा दी है? क्योंकि सभी
(ब्रह्मचर्य-वानप्रस्थसंन्यास ) आश्रमों के उपकार करने में समर्थ जो दूसरा
गार्हस्थ्य आश्रम है उसमें प्रविष्ट होने का यह समय है ॥१०॥
तवार्हतो नाभिगमेन तृप्तं मनो
नियोगक्रिययोत्सुकं मे ।
अप्याज्ञया शासितुरात्मना वा
प्राप्तोऽसि संभावयितुं वनान्माम् ॥ ५-११॥
पूजनीय जो आप है,
सो आपके (आप सदृश पूजनीय के) आने मात्र से ही मेरा मन सन्तुष्ट नहीं
हुआ, किन्तु आप आज्ञा कर इस विषय में अत्यन्त उत्कण्ठित है
अस्तु-आप क्या गुरु की आज्ञा से अथवा अपनी इच्छा से मुझे कृतार्थ करने के लिये
जंगल से आये हैं ? अर्थात् आप जिस लिये आये ! उसे कहें ॥ ११
॥
इत्यर्घ्यपात्रानुमितव्ययस्य
रघोरुदारामपि गां निशम्य ।
स्वार्थोपपत्तिं प्रति दुर्बलाशस्तमित्यवोचद्वरतन्तुशिष्यः
॥ ५-१२॥
अर्घ्य सम्बन्धी (मृण्मय ) पात्र से
ही जिसके सम्पूर्ण धन के खर्च हो जाने का पता लग गया है ऐसे उन रघु महाराज को 'हमारा मन आपकी आज्ञा पालन करने के लिये उत्कण्ठित है। इस तरह की उदारता से
भरी हुई वाणी सुनकर भी वरतन्तु महर्षि के शिष्य कौत्स ऋषि अपने कार्य की सिद्धि की
ओर से निराश होते हुये, उनसे आगे कहे जाने वाले प्रकार से
बोले ॥१२॥
सर्वत्र नो वार्तमवेहि राजन्नाथे
कुतस्त्वय्यशुभं प्रजानाम् ।
सूर्ये तपत्यावरणाय दृष्टेः कल्पेत
लोकस्य कथं तमिस्रा ॥ ५-१३॥
हे राजन् ! सब विषयों में हम लोगों
का कुशल है यह जानो, तुम्हारे ऐसे राजा
के रहने पर प्रजाओं को दुःख कहां से है, अर्थात् कहीं से भी
नहीं है, क्योंकि सूर्य के प्रकाशमान होने पर अन्धकार-समूह
लोगों की दृष्टि को ढंकने के लिये किसी प्रकार से भी नहीं समर्थ होता है ॥ १३ ॥
भक्तिः
प्रतीक्ष्येषु कुलोचिता ते पूर्वान्महाभाग तयातिशेषे ।
व्यतीतकालस्त्वहमभ्युपेतस्त्वामर्थिभावादिति
मे विषादः ॥ ५-१४॥
'पूज्यजनों में भक्ति रखना'
यह आपके कुल में परम्परा से चला आया है, अतः
परमभाग्यशाली रघु महाराज ! आप (पूज्य-विषयक भक्ति) से अपने पूर्वजों को भी लांघ
गये हैं,-अर्थात् पूज्यजनों में भक्ति रखने में आप अपने
पूर्वजों से भी बढ़ कर है, किन्तु (सब जगह कुशल यदि है,
तो आप उदास क्यों हैं ऐसा यदि आप कहें तो) मैं समय बीत जाने पर
याचकरूप से आपके पास आया हूं, इसी से मुझे उदासी है ॥ १४ ॥
शरीरमात्रेण नरेन्द्र तिष्ठन्नाभासि
तीर्थप्रतिपादितर्द्धिः ।
आरण्यकोपात्तफलप्रसूतिः स्तम्बेन
नीवार इवावशिष्टः ॥ ५-१५॥
हे राजन् ! सत्पात्रों को अपनी सारी
सम्पति दे देने से केवल बचे हुये शरीर से स्थित आप वन के रहने वाले मुनि जन आदि कों
से फल तोड़ लिये जाने पर डांट मात्र से बचे हुए नीवार नामक मुनिधान्य के समान
सुशोभित हो रहे हैं ॥१५॥
स्थाने भवानेकनराधिपः सन्नकिंचनत्वं
मखजं व्यनक्ति ।
पर्यायपीतस्य सुरैर्हिमांशोः
कलाक्षयः श्लाघ्यतरो हि वृद्धेः ॥ ५-१६॥
आप अद्वितीय महाराज ( चक्रवर्ती)
होते हुये भी जो विश्वजित् यज्ञ में सर्वस्व दान करने से उत्पन्न निर्धनता को
प्रकट कर रहे हैं, वह उचित है,
(बहुत भला मालूम पड़ा है), क्योंकि-देवताओं
द्वारा क्रम से पीये गये चन्द्रमा की कलाओं का क्षय होना बढ़ने की अपेक्षा निश्चय करके
अधिकतर प्रशंसनीय होता है ॥१६॥
तदन्यतस्तावदनन्यकार्यो
गुर्वर्थमाहर्तुमहं यतिष्ये ।
स्वस्त्यस्तु ते निर्गलिताम्बुगर्भं
शरद्घनं नार्दति चातकोऽपि ॥ ५-१७॥
इस (आपकी निर्धनता के) कारण (जब तक
अभीष्ट द्रव्य की प्राप्ति न होवे) तब तक गुरु दक्षिणा देने के अलावा दूसरा कोई
प्रयोजन नहीं रखने वाला मैं (कौत्स ऋषि) दूसरे किसी दाता के पास से गुरु वरतन्तु
महर्षि के लिये धन उपार्जन करने के लिये कोशिश करूंगा,
आपका कल्याण होवे और (पृथ्वी पर गिरा हुआ जल रोगकारक होने से केवल
मेघ का ही जल पीनेवाला) चातक (पपीहा) पक्षी भी जब जलरहित (जिसके मध्यभाग से जल
निकल गया है ऐसे शरत् काल के) मेघ से जल की याचना नहीं करता है तब मनुष्य होकर
मेरा मांगना आपसे उचित नहीं है ॥१७॥
एतावदुक्त्वा प्रतियातुकामं शिष्यं
महर्षेर्नृपतिर्निषिध्य ।
किं वस्तु विद्वन्गुरवे प्रदेयं
त्वया कियद्वेति तमन्वयुङ्क्त ॥ ५-१८॥
इतनी बात कह कर जाने की इच्छा करने
वाले महर्षि वरतन्तु के शिष्य कौत्स ऋषि को महाराज रघु ने रोक कर विद्वन् ! आपको
जो गुरुजी के लिये देना है, वह वस्तु कौन सी और
कितनी है, यह उनसे पूछा ॥ १८॥
ततो यथावद्विहिताध्वराय तस्मै
स्मयावेशविवर्जिताय ।
वर्णाश्रमाणां गुरवे स वर्णी
विचक्षणः प्रस्तुतमाचचक्षे ॥ ५-१९॥
उसके बाद शास्त्रानुकूल यज्ञ को
जिसने किया है और जो गर्व के आवेश से शून्य हैं अर्थात् अहंकार शून्य हैं ऐसे
चारों (ब्राक्षण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद) वर्णों और चारों (ब्रह्मचर्य-गार्हस्थ्य-वानप्रस्थ-संन्यास)
आश्रमों को अपने २ मार्ग पर चलाने वाले उन रघु महाराज से पण्डित और ब्रह्मचारी वे
कौत्स ऋषि प्रकृत विषय को कहने लगे ॥१९॥
समाप्तविद्येन मया
महर्षिर्विज्ञापितोऽभूद्गुरुदक्षिणायै ।
स मे चिरायास्खलितोपचारां तां भक्तिमेवागणयत्पुरस्तात्
॥ ५-२०॥
१४ विद्याओं को प्राप्त किये हुए
हमने गुरु दक्षिणा के लिये महर्षि वरतन्तु जी से जब प्रार्थना की,
तब उन्होंने बहुत दिन तक नियम-पूर्वक मुझसे की हुई पैर दबाना आदि
सेवा ही को मुख्य दक्षिणा समझा अर्थात् यह कहा कि-मैं तेरी सेवा से ही प्रसन्न हूँ
मुझे दक्षिणा से क्या काम है ? ॥२०॥
निर्बन्धसंजातरुषार्थकार्श्यमचिन्तयित्वा
गुरुणाहमुक्तः ।
वित्तस्य विद्यापरिसंख्यया मे
कोटीश्चतस्रो दश चाहरेति ॥ ५-२१॥
बारंबार दक्षिणा ग्रहण करने के लिये
मेरे द्वारा प्रार्थना करने से क्रोधित होकर गुरुजी ने मेरी दरिद्रता की तरफ ख्याल
न करके '१४ करोड़ द्रव्य मेरे लिये लाओ ऐसा कहा अर्थात् जितनी विद्या पढ़ी थी उतनी
विद्या की संख्या के अनुसार हो मुझसे धन लाने के लिये कहा ॥ २१॥
सोऽहं सपर्याविधिभाजनेन मत्वा
भवन्तं प्रभुशब्दशेषम् ।
अभ्युत्सहे संप्रति नोपरोद्धुमल्पेतरत्वाच्छ्रुतनिष्क्रयस्य
॥ ५-२२॥
'गुरु की आज्ञा से मांगने के लिये
मैं आया हुआ था' किन्तु पूजन करने का पात्र अर्थात् मृण्मय अर्ध्यपात्र
द्वारा आपको केवल 'प्रभु' यह शब्द
जिसके पास बच गया है, ऐसा समझकर अर्थात्-बिलकुल धन से रहित
जान कर विद्या का मूल्य (गुरुदक्षिणा) बहुत अधिक (१४ करोड़) होने से इस समय आप
देखें इसके लिए बाध्य करने में मुझे उत्साह नहीं होता है। अर्थात् आपकी हालत देखकर
मुझे कुछ कहने का साहस नहीं होता, अतः मेरा जाना ही उचित है
।। २२॥
इत्थं द्विजेन
द्विजराजकान्तिरावेदितो वेदविदां वरेण ।
एनोनिवृत्तेन्द्रियवृत्तिरेनं जगाद
भूयो जगदेकनाथः ॥ ५-२३॥
चन्द्रमा की तरह कान्ति वाले,
पापों से निवृत्त इन्द्रिय वृत्ति वाले (जितेन्द्रिय) ये जगत् के
एकमात्र प्रभु चक्रवती रघु महाराज, वेद के जानने वालों में
श्रेष्ठ ब्राह्मण (कौत्स ऋषि ) के द्वारा पूर्वोक्त प्रकार से निवेदन किये जाने पर
उन कौत्स ऋषि से फिर बोले ।।२३॥
गुर्वर्थमर्थी श्रुतपारदृश्वा रघोः
सकाशादनवाप्य कामम् ।
गतो वदान्यान्तरमित्ययं मे मा
भूत्परीवादनवावतारः ॥ ५-२४॥
'शास्त्र के पारगामी, गुरु के लिये याचना करने वाले कौत्स जी रघु के पास से मनोरथ पूर्ण न होने
से दूसरे दाता के यहाँ गये', इस तरह का यह निन्दा का पहले
पहल नया (अवतार ) सोहरा मेरा न होवे ॥ २४ ॥
स त्वं प्रशस्ते महिते मदीये
वसंश्चतुर्थोऽग्निरिवाग्निगारे ।
द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढुमर्हन्
यावद्यते साधयितुं त्वदर्थम् ॥ ५-२५॥
अन्यत्र कहीं न जाकर मेरे कहने से
रुके हुवे जो आप है सो सबों से पूजित एत एव प्रसिद्ध मेरी अग्निशाला में
(दक्षिणाग्नि-गार्हपत्य-आवाहनीय-इन तीन अग्नि के साथ) चौथे अग्नि की भाँति रहते
हुये तब तक २-३ दिन तक (और ठहरने से विलम्ब होने को) क्षमा करने में समर्थ हों। जब
तक कि हे माननीय ! आप का प्रयोजन पूरा करने के लिये मैं यत्न करूँ॥२५॥
तथेति तस्यावितथं प्रतीतः
प्रत्यग्रहीत्संगरमग्रजन्मा ।
गामात्तसारां रघुरप्यवेक्ष्य
निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुबेरात् ॥ ५-२६॥
द्विजों में श्रेष्ठ कौत्स ऋषि
प्रसन्न होते हुये उन रघु महाराज की सत्य प्रतिज्ञा को जैसा आप कहते है वैसा ही
होगा अर्थात् मैं २-३ दिन तक ठहरूँगा। ऐसा कह कर स्वीकार किया अर्थात् प्रतिज्ञा
सच मानकर ठहर गये और रघु महाराज ने पृथ्वी को "जिसका धन कर रूप से ले लिया
है। ऐसा समझ कर कुबेर से धन लेने की इच्छा की ।। २६ ॥
वसिष्ठमन्त्रोक्षणजात्प्रभावादुदन्वदाकाशमहीधरेषु
।
मरुत्सखस्येव बलाहकस्य गतिर्विजघ्ने
न हि तद्रथस्य ॥ ५-२७॥
वसिष्ठ महर्षि के मन्त्र से
अमिमन्त्रित जल छिड़कने से उत्पन्न सामर्थ्य से समुद्र,
आकाश और पर्वतों में वायु की सहायता से जैसे मैघ की गति नहीं रुकती
है उसी भाँति उन रघु महाराज के रथ की गति कहीं नहीं रुकती थी, अर्थात् सब जगह ये जा आ सकते थे, अतः कुबेर के पास
जाकर धन ले आने की इच्छा करना ठीक ही है।॥ २७ ॥
अथाधिशिश्ये प्रयतः प्रदोषे रथं
रघुः कल्पितशस्त्रगर्भम् ।
सामन्तसंभावनयैव धीरः कैलासनाथं
तरसा जिगीषुः ॥ ५-२८॥
इसके ( कुवेर से धन प्राप्त करने की
इच्छा होने के बाद सायकाल में ( उस समय रथ पर चढने का मुहूर्त होने से) धैर्यशाली
(किसी से नहीं डरने वाले) रघु महाराज ने केवल यक्षों के राजा है न कि लोकपाल,
इस सम्भावना से ही कैलास पर्वत के स्वामी कुबेर को बल से जीतने की
इच्छा करते हुये जिसके मध्यभाग में सब शस्त्र रक्खे हुये हैं ऐसे रथ में शयन किया
।। २८ ।।
प्रातः प्रयाणाभिमुखाय तस्मै
सविस्मयाः कोषगृहे नियुक्ताः ।
हिरण्मयीं कोषगृहस्य मध्ये वृष्टिं
शशंसुः पतितां नभस्तः ॥ ५-२९॥
प्रातःकाल यात्रा करने के लिये उद्धत
उन रघु महाराज से खजाने पर नियुक्त किये हुये लोगों ने आश्चर्ययुक्त होते हुये
खजाने के गृह के अन्दर आकाश से गिरी हुई सुवर्ण की वृष्टि को कहा ॥ २९ ॥
स भूपतिर्भासुरहेमराशिं लब्धं
कुबेरादभियास्यमानात् ।
दिदेश कौत्साय समस्तमेव पादं
सुमेरोरिव वज्रभिन्नम् ॥ ५-३०॥
महाराज रघु ने युद्ध के लिये चढ़ाई
किये जाने वाले कुबेर से पाये हुये वन से कटकर, अलग
हुये सुमेरु पर्वत के बिलकुल पास की छोटी पहाड़ी की भाँति स्थित, उस चमकते हुए, सम्पूर्ण स्वर्ण-राशि को कौत्स के
लिये दे दिया ॥३०॥
जनस्य साकेतनिवासिनस्तौ
द्वावप्यभूतानभिनन्द्यसत्त्वौ ।
गुरुप्रदेयाधिकनिःस्पृहोऽर्थी
नृपोऽर्थिकामादधिकप्रदश्च ॥ ५-३१॥
वे (कौत्स और रघु) दोनों,
अयोध्या के निवासी लोगों के निकट प्रशंसनीय व्यवसाय (व्यवहार ) वाले
हुये, एक तो गुरु के देने (१४ करोड़) से अधिक लेने में
निःस्पृह याचक कौत्स ऋषि और दूसरे-याचक की कामना से अधिक देने वाले महाराज रघु
॥३१॥
अथोष्ट्रवामीशतवाहितार्थं
प्रजेश्वरं प्रीतमना महर्षिः ।
स्पृशन्करेणानतपूर्वकायं
संप्रस्थितो वाचमुवाच कौत्सः ॥ ५-३२॥
इसके बाद प्रसन्न मन हो महर्षि
कौत्स जी प्रस्थान करते हुये, सैकड़ों ऊँटों
और घोड़ियों से धन को पहुंचा देने का प्रबन्ध कर देने वाले, ( पहुंचवा देने वाले ) शरीर के आगे के भाग को झुकाये हुए अर्थात् विनय से
नम्र प्रजाओं के प्रभु रघु महाराज को हाथ से स्पर्श करते हुये अर्थात् उनके ऊपर
हाथ फेरते हुये बोले ।। ३२ ।।
किमत्र चित्रं यदि
कामसूर्भूर्वृत्ते स्थितस्याधिपतेः प्रजानाम् ।
अचिन्तनीयस्तु तव प्रभावो मनीषितं
द्यौरपि येन दुग्धा ॥ ५-३३॥
न्याय से धन का उपार्जन करना,
बढ़ाना, रक्षा करना, सत्पात्र
को देना इस तरह के चार प्रकार के राजाओं के व्यवहार में स्थित रहने वाले राजा की
भूमि अभिलषित वस्तुओं को पैदा करने वाली यदि होवे तो इस विषय में कोई आश्चर्य नहीं
है, किन्तु आप का प्रभाव वस्तुतः निश्चय करके अचिन्तनीय
(आश्चर्यजनक) है, कि जिस प्रभाव से अपने अभिलषित वस्तु को
आकाश से मी दुहा अर्थात् प्राप्त किया ॥ ३३ ॥
आशास्यमन्यत्पुनरुक्तभूतं श्रेयांसि
सर्वाण्यधिजग्मुषस्ते ।
पुत्रं लभस्वात्मगुणानुरूपं
भवन्तमीड्यं भवतः पितेव ॥ ५-३४॥
सभी कल्याणों को प्राप्त किये हुए,
आप के लिये पुत्र के अलावा आशीर्वाद देना व्यर्थ है, अर्थात्-सभी मौजूद है, किन्तु फिर भी (पुत्र सुख न
होने से मेरे आशीर्वाद से) प्रशंसा के योग्य आप सरीखे पुत्र को आप के पिता दिलीप
महाराज ने जैसे पाया, वैसे ही आप भी अपने समान गुण से युक्त
अर्थात् अपने तुल्य ही पुत्र को प्राप्त करें॥ ३४॥
इत्थं प्रयुज्याशिषमग्रजन्मा राज्ञे
प्रतीयाय गुरोः सकाशम् ।
राजापि लेभे सुतमाशु
तस्मादालोकमर्कादिव जीवलोकः ॥ ५-३५॥
ब्राह्मण कौत्स महर्षि इस प्रकार से
राजा को आशीर्वाद देकर अपने गुरु वरतन्तु महर्षि के पास चले गये और राजा ने भी जैसे
जीव-समूह सर्य से प्रकाश को शीघ्र प्राप्त करता है, उसी तरह से उन पूर्वोक्त महर्षि कौत्स से अर्थात् उनके आशीर्वाद से शीघ्र ही
पुत्र को प्राप्त किया, अर्थात उनकी महिषी ने गर्भ धारण किया
॥ ३५॥
ब्राह्मे मुहूर्ते किल तस्य देवी
कुमारकल्पं सुषुवे कुमारम् ।
अतः पिता ब्रह्मण एव नाम्ना
तमात्मजन्मानमजं चकार ॥ ५-३६॥
उन रघु महाराज की पटरानी ने ब्रह्मा
जिसके अधिष्ठातृ देवता है ऐसे अभिजिन्नामक मुहूर्त में कात्तिकेय के समान बालक
पैदा किया, इससे अर्थात् ब्राह्ममुहूर्त
में उत्पन्न होने से पिता रघु महाराज ने ब्रह्मा के ही 'अज'
इस नाम से उस पुत्र का 'अज' नाम रक्खा ॥३६।।
रूपं तदोजस्वि तदेव वीर्यं तदेव
नैसर्गिकमुन्नतत्वम् ।
न कारणात्स्वाद्बिभिदे कुमारः
प्रवर्तितो दीप इव प्रदीपात् ॥ ५-३७॥
पिता के तुल्य तेज से युक्त शरीर
वही,
पराक्रम वही, स्वाभाविक चित्त का उन्नत होना
भी वही, अर्थात्-पिता ही के तुल्य होने से बालक अज, जैसे-जलाया गया दीपक (जिस दीपक से जलाया गया है) उस (दीपक) से मिन्न नहीं
होता, अर्थात्-उसी तरह से प्रकाशक होता है, उसी भांति अपने उत्पन्न करने वाले पिता रघु से भिन्न नहीं हुए, अर्थात-पराक्रम आदि में पिता के समान ही हुए ।। ३७ ॥
उत्पातविद्यं विधिवद्गुरुभ्यस्तं
यौवनोद्भेदविशेषकान्तम् ।
श्रीः साभिलाषापि गुरोरनुज्ञां
धीरेव कन्या पितुराचकाङ्क्ष ॥ ५-३८॥
गुरुओं से विधिवत् (
शास्त्रोक्त-रीति से ब्रह्मचर्यादि में रहकर तथा गुरुओं की सेवा करके ) सम्पूर्ण
१४ विधाओं को प्राप्त किये हुए, जवानी आने से
अत्यन्त सुन्दर उन राजकुमार अज के प्रति अनुरागिणी होती हुई भी राजलक्ष्मी धीरा
(स्थिर उन्नत चित्त वाली) कन्या जैसे पिता की आज्ञा (मनोवान्छित पति वरण करने के
लिये) चाहती है, वैसे-ही श्रेष्ठ रघु महाराज की अनुमति चाहने
लगी, अर्थात-राजकुमार अज युवराज बनाने के योग्य हो गये ।। ३८
॥
अथेश्वरेण क्रथकैशिकानां
स्वयंवरार्थं स्वसुरिन्दुमत्याः ।
आप्तः कुमारानयनोत्सुकेन भोजेन दूतो
रघवे विसृष्टः ॥ ५-३९॥
इसके बाद अपनी बहिन इन्दुमती के
स्वयंवर के लिये युवराज 'अज' के बुलवाने में उत्कण्ठित विदर्भदेश के महाराज भोज ने अपने विश्वासपात्र
दूत को रघु महाराज के पास भेजा ॥ ३९॥
तं श्लाघ्यसंबन्धमसौ विचिन्त्य
दारक्रियायोग्यदशश्च पुत्रम् ।
प्रस्थापयामास ससैन्यमेनमृद्धां
विदर्भाधिपराजधानीम् ॥ ५-४०॥
इन रघु महाराज ने उन भोज महाराज के
साथ सम्बन्ध प्रशंसनीय होगा, यह सोच कर तथा
पुत्र की विवाह के योग्य अवस्था विचार कर सेना के सहित इन युवराज अज को
समृद्धि-युक्त विदर्भ देश के महाराज की राजधानी को भेजा ॥ ४०॥
तस्योपकार्यारचितोपचारा वन्येतरा
जानपदोपदाभिः ।
मार्गे निवासा
मनुजेन्द्रसूनोर्बभूवुरुद्यानविहारकल्पाः ॥ ५-४१॥
राजाओं के योग्य तम्बुओं मे शय्या
आदिक जहां पर बिछी हुई हैं तथा नगरों से आये हुए उपहार स्वरूप सुख साधन सामग्रियों
से जो जंगल में बने हुए की भाँति नहीं मालूम पड़ रहा है ऐसे उन महाराज रघु के
युवराज अज के मार्ग के निवास स्थान अपनी राजधानी के बगीचों में बने हुए विहार
स्थानों के समान ही हुए ।। ४१ ।।
स नर्मदारोधसि
सीकरार्द्रैर्मरुद्भिरानर्तितनक्तमाले ।
निवेशयामास विलङ्घिताध्वा क्लान्तं
रजोधूसरकेतु सैन्यम् ॥ ५-४२॥
मार्ग (मंजिल ) को चल करके पूरा
किये हुए उन युवराज अज ने जल के कणों से आर्द्र अर्थात् शीतल वायु से जहां पर
चिरबिल्वनामक वृक्ष हिल रहे हैं, ऐसे नर्मदा
नदी के किनारे पर थकी हुई, धूलि से धूसर जिनकी पताकाएं हो
रही है, ऐसी अपनी सेना को ठहराया ॥ ४२ ॥
अथोपरिष्टाद्भ्रमरैर्भ्रमद्भिः
प्राक्सूचितान्तःसलिलप्रवेशः ।
निर्धौतदानामलगण्डभित्तिर्वन्यः
सरित्तो गज उन्ममज्ज ॥ ५-४३॥
सेना ठहरा चुकने के बाद मद के लोभ से
ऊपर उड़ते हुए भौंरों से पहले जल में डूब कर जिसका नहाना सूचित हो रहा था,
अतएव (जल में डूब कर नहाने से ) जिसके मद धुल गये हैं, ऐसे दोनों गण्डस्थल जिसके निर्मल हो रहे हैं ऐसा कोई जङ्गली हाथी नर्मदा
नदी से निकला ।। ४३॥
निःशेषविक्षालितधातुनापि
वप्रक्रियामृक्षवतस्तटेषु ।
नीलोर्ध्वरेखाशबलेन
शंसन्दन्तद्वयेनाश्मविकुण्ठितेन ॥ ५-४४॥
जल में डूबकर स्नान करने से जिसमें
लगे हुए गैरिकादि धातु अच्छी तरह से धुलकर साफ हो गये हैं और पर्वत के तट प्रान्त
पर प्रहार करने से ऊपर की तरफ काली रेखायें पड़ने से जो चितकावर रंग के हो रहे हैं,
तथा पत्थरों से जिनके नोक पिस गये हैं ऐसे अपने दांतों से 'ऋक्षवान्' नामक नर्मदा के पास के पर्वत के तट
प्रान्तों में किये हुए उत्खात-केलि अर्थात् पत्थरों को दाँतों से उखाड़ने के खेल
को सूचित करता हुआ वह नर्मदा से निकला हुआ हाथी सशोभित होने लगा ।। ४४ ॥
संहारविक्षेपलघुक्रियेण हस्तेन
तीराभिमुखः सशब्दम् ।
बभौ स
भिन्दन्बृहतस्तरंगान्वार्यर्गलाभङ्ग इव प्रवृत्तः ॥ ५-४५॥
बटोरने और फैलाने में जिसके व्यापार
जल्दी २ हो रहे हैं, ऐसे अपने सूंड से
शब्द के साथ जैसे हो वैसे बड़े २ तरङ्गों को चीरता हुआ नर्मदा के तीर की तरफ मुख
किये हुए उस हाथी ने जैसे हाथी बांधने के स्थान की अर्गला के तोड़ने में प्रवृत्त
होने से शोभा होती है, वैसी शोभा पाई॥४५॥
शैलोपमः शैवलमञ्जरीणां जालानि
कर्षन्नुरसा स पश्चात् ।
पूर्वं तदुत्पीडितवारिराशिः
सरित्प्रवाहस्तटमुत्ससर्प ॥ ५-४६॥
पर्वत के समान आकार वाला वह हाथी
शेवार के मञ्जरियों के समूहों को छाती से खींचता हुआ पीछे से तीर पर पहुंचा,
और उसके पहिले उस गज से हिलाया गया है जल की राशि जिसकी ऐसा नदी का
प्रवाह तट पर पहुँच गया ॥ ४६ ॥
तस्यैकनागस्य
कपोलभित्त्योर्जलावगाहक्षणमेकशान्ता ।
वन्येतरानेकपदर्शनेन पुनर्दिदीपे
मददुर्दिनश्रीः ॥ ५-४७॥
हाथियों में मुख्य,
उस गज के दोनों गण्डस्थलों में जल में डूब कर नहाने से जो क्षणमात्र
के लिये शान्त हो गई थी, वही मद झरने की शोभा जंगली हाथियों
से भिन्न अर्थात् सेना के हाथियों के देखने से पुनः बढ़ गई, अर्थात्
पहले की अपेक्षा अधिक मद झरने लगा ॥४७॥
सप्तच्छदक्षीरकटुप्रवाहमसह्यमाघ्राय
मदं तदीयम् ।
विलङ्घिताधोरणतीव्रयत्नाः सेनागजेन्द्रा
विमुखा बभूवुः ॥ ५-४८॥
सप्तपर्ण नामक वृक्ष के दुग्ध की भांति
जिसकी सुगन्धि फैल रही थी, इसी से असह्य उस
जङ्गली हाथी के मद को सूंघ कर सेना के सभी गजेन्द्र अपने २ महावतों के किये हुए
अत्यन्त अङ्कुश से मारने आदि उपायों को विफल करते हुए मुँह फेर कर भागने लगे॥४८॥
स च्छिन्नबन्धद्रुतयुग्यशून्यं
भग्नक्षपर्यस्तरथं क्षणेन ।
रामापरित्राणविहस्तयोधं सेननिवेशं
तुमुलं चकार ॥ ५-४९॥
उस जङ्गली हाथी ने अपने २ बन्धनों
को तोड़कर भागे हुए वाहनों (हाथी घोड़े वगैरह ) से जो शून्य हो रहा है,
धुरा के टूट जाने से गिरे हुए रथ जिसमें पड़े हुए है, स्त्रियों की रक्षा करने में योद्धा लोग जिस में व्याकुल हो रहे हैं,
ऐसे सेना के निवास स्थान को क्षण मात्र में व्याकुल कर दिया ॥ ४९ ॥
तमापतन्तं नृपतेरवध्यो वन्यः करीति
श्रुतवान्कुमारः ।
निर्वर्तयिष्यन्विशिखेन कुम्भे जघान
नात्यायतकृष्टशार्ङ्गः ॥ ५-५०॥
'राजा के लिये जङ्गली हाथी का
मारना उचित नहीं है। इस बात को जानने वाले युवराज अज ने सामने दौड़कर आते हुए उस
हाथी के भगाने की इच्छा से न कि मार डालने की इच्छा से, थोड़ा
सा धनुष को खींचकर छोडे हुए बाण से कुम्भ स्थल में मारा ॥ ५०॥
स विद्धमात्रः किल नागरूपमुत्सृज्य
तद्विस्मितसैन्यदृष्टः ।
स्फुरत्प्रभामण्डलमध्यवर्ति कान्तं
वपुर्व्योमचरः प्रपेदे ॥ ५-५१॥
उस जङ्गली हाथी ने बाण से विध जाते
ही अपने हाथी के रूप को छोड़ कर (इस घटना के होने से ) आश्चर्य के साथ सैनिकों से
देखा जाता हुआ, चमकते हुए प्रभा मण्डल के मध्य
में स्थित, सुन्दर, आकाश में चलनेवाला
गन्धर्व का शरीर धारण कर लिया ॥५१॥
अथ प्रभावोपनतैः कुमारं
कल्पद्रुमोत्थैरवकीर्य पुष्पैः ।
उवाच वाग्मी दशनप्रभाभिः
संवर्धितोरःस्थलतारहारः ॥ ५-५२॥
उसके (दिव्यशरीर प्राप्त होने के
बाद अपने प्रभाव से प्राप्त कल्पवृक्ष के पुष्पों की युवराज अज के ऊपर वर्षा करके
दांतों की कान्ति से छाती पर लटकती हुई शुद्ध बड़े २ मोतियों की मालाओं की कान्ति
को बढ़ाता हुआ अच्छे वचनों को बोलने वाला वह दिव्य पुरुष बोला ।। ५२॥
मतङ्गशापादवलेपमूलादवाप्तवानस्मि
मतङ्गजत्वम् ।
अवेहि गन्धर्वपतेस्तनूजं प्रियंवदं
मां प्रियदर्शनस्य ॥ ५-५३॥
मेरा गर्व करना ही जिसका कारण था,
ऐसे मतङ्ग ऋषि के शाप से हाथी के शरीर को जो मैंने प्राप्त किया था,
उसी मुझको प्रियदर्शन नामक गन्धर्वराज का पुत्र प्रियंवद नामक
गंधर्व राजकुमार आप जानें ॥ ५३॥
स चानुनीतः प्रणतेन पश्चान्मया
महर्षिर्मृदुतामगच्छत् ।
उष्णत्वमग्न्यातपसंप्रयोगाच्छैत्यं
हि यत्सा प्रकृतिर्जलस्य ॥ ५-५४॥
और उन महर्षि मतङ्ग के पैरों पर
गिरे हुए मैने उन से क्रोध शान्त करने की प्रार्थना की,
बाद में उन्होंने क्रोध को शान्त किया, क्योंकि-जल
का गरम होना जो है वह अग्नि और सूर्य के किरणों के सम्बन्ध से है और जो शीतलता है
वह उसकी प्रकृति है, अर्थात् जैसे जल स्वाभाविक शीतल ही है,
कारणवश गरम हो जाता है, उसी भाँति महात्मा लोग
स्वामाविक शान्त होते हैं, कारणवश क्रुद्ध हो जाते हैं ।। ५४
॥
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो यदा ते
भेत्स्यत्यजः कुम्भमयोमुखेन ।
संयोक्ष्यसे स्वेन वपुर्महिम्ना
तदेत्यवोचत्स तपोनिधिर्माम् ॥ ५-५५॥
इक्ष्वाकु-वंश में उत्पन्न,
अज नामक राजकुमार जब तुम्हारे कुम्भ-स्थल को लोह का बना हुआ है अग्र
भाग जिसका ऐसे वाण से वेधंगे, तब अपने शरीर सम्बन्धी गौरव से
फिर तुम युक्त हो जाओगे ऐसा उन तपोनिधि महर्षि, मतङ्ग ने
मुझसे कहा था ॥ ५५ ॥
संमोचितः सत्त्ववता त्वयाहं
शापाच्चिरप्रार्थितदर्शनेन ।
प्रतिप्रियं चेद्भवतो न कुर्यां
वृथा हि मे स्यात्स्वपदोपलब्धिः ॥ ५-५६॥
बहुत दिनों से जिस का दर्शन अभीष्ट
हो रहा था ऐसे बलवान् आपने मुझे शाप से छुड़ाया, अर्थात् गजयोनि छुड़ा कर गन्धर्व शरीर प्राप्त कराया, अतः आप का प्रत्युपकार यदि मैं न करूँ तो मेरा स्थान (गन्धर्व लोक) को
प्राप्त करना ही वृथा होगा इसमें कोई सन्देह नहीं है। ५६ ॥
संमोहनं नाम सखे ममास्त्रं
प्रयोगसंहारविभक्तमन्त्रम् ।
गान्धर्वमादत्स्व यतः प्रयोक्तुर्न
चारिहिंसा विजयश्च हस्ते ॥ ५-५७॥
हे प्राण के समान प्रिय अज! आप,
चलाने और लौटा लेने में जिसके पृथक् २ मन्त्र है, तथा गन्धर्व जिसके देवता हैं, और जो सबको मोहित करने
वाला होने से सम्मोहन नाम से प्रसिद्ध है ऐसे मेरे इस अस्त्र को स्वीकार करें,
जिस अस्त्र से कि-चलाने वाले के शत्रुओं का वध भी नहीं हो पाता और
विजय हस्तगत हो जाता है ।। ५७॥
अलं ह्रिया मां प्रति यन्मुहूर्तं
दयापरोऽभूः प्रहरन्नपि त्वम् ।
तस्मादुपच्छन्दयति प्रयोज्यं मयि
त्वया न प्रतिषेधरौक्ष्यम् ॥ ५-५८॥
मेरे प्रति वाण प्रहार करने के कारण
आप लज्जा मत करें, क्योंकि-आप मुझ पर
प्रहार करते हुये भी थोड़ी देर के लिये दया से युक्त ही हुए थे, अर्थात आप का बाण मारना मेरे लिये दया करना ही हुआ था, इस कारण से अस्त्र ग्रहण करने के लिये मेरे प्रार्थना करने पर आप 'हम नहीं लेंगे' ऐसी रुखाई मत करें ॥ ५८ ॥
तथेत्युपस्पृश्य पयः पवित्रं
सोमोद्भवायाः सरितो नृसोमः ।
उदङ्मुखः सोऽस्त्रविदस्त्रमन्त्रं
जग्राह तस्मान्निगृहीतशापात् ॥ ५-५९॥
पुरुष श्रेष्ठ,
अस्त्रों को जानने वाले उन युवराज अज ने 'जैसा
आप कहते हैं वैसा ही होगा' अर्थात मैं ग्रहण करूँगा, यह कहकर नर्मदा का पवित्र जल से आचमन करके उत्तर की ओर मुख किये हुए,
जिसका शाप छूट गया था ऐसे उस प्रियंवद नामक गन्धर्व राजकुमार से
संमोहन नामक अस्त्र को चलाने और लौटा लेने के मन्त्रों के सहित ग्रहण किया ॥ ५९॥
एवं तयोरध्वनि दैवयोगादासेदुषोः
सख्यमचिन्त्यहेतु ।
एको ययौ
चैत्ररथप्रदेशान्सौराज्यरम्यानपरो विदर्भान् ॥ ५-६०॥
इस प्रकार से मार्ग में दैवयोग से,
जिसका कारण नहीं समझा जा सकता ऐसे परस्पर मित्र भाव को प्राप्त किये
हुए उन दोनों के मध्य में से एक अर्थात-प्रियंवद चैत्ररथ नामक कुबेर के बगीचा की
तरफ गये और दूसरे युवराज अज भली भांति शासन करने वाले राजा के होने से सुन्दर
विदर्भ देश की तरफ गये ॥६०॥
तं
तस्थिवांसं नगरोपकण्ठे तदागमारूढगुरुप्रहर्षः ।
प्रत्युज्जगाम
क्रथकैशिकेन्द्रश्चन्द्रं प्रवृद्धोर्मिरिवोर्मिमाली ॥ ५-६१॥
नगर के समीप में स्थित उन युवराज अज
के आगमन से उत्पन्न हुए अत्यन्त इर्ष से युक्त विदर्भ देश के महाराज भोज जैसे-बढ़ी
हुई लहरों वाला समुद्र चन्द्रमा के उदय होने से अत्यन्त आनन्दित हो उससे मिलने के
लिये जाता है, वैसे ही मिलने के लिये गये ॥६१॥
प्रवेश्य चैनं पुनरग्रयायी
नीचैस्तथोपाचरदर्पितश्रीः ।
मेने यथा तत्र जनः समेतो
वैदर्भमागन्तुमजं गृहेशम् ॥ ५-६२॥
उन अज के आगे २ जाते हुए नम्र भोज
महाराज उन्हें नगर में प्रवेश कराकर प्रेम से सारी सम्पत्ति अर्पण किये हुए,
उस तरह उनकी सेवा करने लगे जिस तरह वहाँ पर इकटठे हुए लोगों ने
विदर्भदेशाधिपति को आगन्तुक (मेहमान) और अज को घर का मालिक समझा ॥ ६२ ॥
तस्याधिकारपुरुषैः प्रणतैः
प्रदिष्टां प्राग्द्वारवेदिविनिवेशितपूर्णकुम्भाम् ।
रम्यां रघुप्रतिनिधिः स नवोपकार्यां
बाल्यात्परामिव दशां मदनोऽध्युवास ॥ ५-६३॥
रघु के तुल्य उन युवराज अज ने,
नमस्कार करते हुए, उन विदर्भाधिपति भोज के
नियुक्त किए हुए पुरुषों से बतलाये हुए, जिसके प्रधान द्वार
के आगे वेदी पर जल से भरे मञ्गल कलश रक्खे हुए हैं, ऐसे
सुन्दर, नवीन कपड़े के बने हुए, राजाओं
के रहने के योग्य मण्डप में, जैसे कामदेव बाल्यावस्था के बाद
युवावस्था में निवास करता है उसी भांति निवास किया ।। ६३ ॥
तत्र स्वयंवरसमाहृतराजलोकंकन्याललाम
कमनीयमजस्य लिप्सोः।
भावावबोधकलुषा दयितेव रात्रौ निद्रा
चिरेण नयनाभिमुखी बभूव ॥ ५-६४॥
उस पटनिर्मित राजमण्डप में,
स्वयंवर में जिस के लिये राजा लोग एकत्र किये गये हैं ऐसे सबों के
चाहने योग्य कन्याओं में श्रेष्ठ उस इन्दुमती के पाने को इच्छा रखने वाले "अज
के अभिप्राय के जानने में असमर्थ मुग्ध नवोढा नायिका की भांति निद्रा रात में बहुत
देर के बाद आंखों के सम्मुख अर्थात् आंखों में आई ॥१४॥
तंकर्णभूषणनिपीडितपीवरांसंशय्योत्तरच्छदविमर्दकृशाङ्गरागम्
।
सूतात्मजाः सवयसः प्रथितप्रबोधं
प्राबोधयन्नुषसि वाग्भिरुदारवाचः ॥ ५-६५॥
दोनों कर्णों के भूषणों से जिसके मोटे २ दोनों कन्धे दब गये हैं,
और शय्या के उपर विछाने की चद्दर की रगड़ से जिसके अङ्ग में लगे हुए
कस्तूरी आदि अङ्गराग झड़ गये हैं, तथा जो उत्तम ज्ञान
सम्पन्न हैं ऐसे उन युवराज अज को समान अवस्था वाले प्रगल्भता के साथ बात करने वाले
वन्दियों के पुत्र स्तुति-वचनों को कह कर जगाने लगे॥ ६५॥
रात्रिर्गता मतिमतां वर मुञ्च शय्यां
धात्रा द्विधैव ननु धूर्जगतो विभक्ता ।
तामेकतस्तव बिभर्ति गुरुर्विनिद्र -
स्तस्या भवानपरधुर्यपदावलम्बी ॥ ५-६६॥
हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ अज! रात
बीत गई,
अतः शय्या को आप छोड़े, अर्थात् निद्रात्याग
करके उठें, क्योंकि-ब्रह्माजी ने जगत् के पालन का भार दो ही
हिस्सों में बांट कर रक्खा है, उसमें से एक हिस्से के
कार्यभार को आप के पिता रघु महाराज निद्रा त्याग कर वहन कर रहे हैं, और आप भी उस जगत्पालन रूप कार्यभार के दूसरे हिस्से के भारवहन करने वाले
के स्थान का अवलम्बन कर, अर्थात् आप भी उठकर अपने हिस्से के भार
को वहन करते हुये पृथ्वी पालन करें। क्योंकि-दो का भार एक नहीं उठा सकता है॥ ६६॥
निद्रावशेन भवताप्यनवेक्षमाणा
पर्युत्सुकत्वमबला निशि खण्डितेव ।
लक्ष्मीर्विनोदयति येन दिगन्तलम्बी
सोऽपि त्वदाननरुचिं विजहाति चन्द्रः ॥ ५-६७॥
निद्रारूपी रमणी के अधीन हुये आप के
विषय में अपनी अनुरक्ति की तरफ रात्रि में खण्डिता नायिका की भांति कुछ ध्यान नहीं
देती हुई अतः-खिन्नचित्त होती हुई लक्ष्मी जिस चन्द्रमा के साथ अपने मन को बहलाती
थी वह चन्द्रमा भी इस समय पश्चिम दिशा के अन्त में जाता हुआ अर्थात् अस्त होता हुआ
तुम्हारे मुख की कान्ति की भांति जो अपनी कान्ति दे, उसको छोड़ रहा है, अर्थात् कान्ति हीन हो रहा है।
अतः निद्रा को छोड़ कर आप जिसका कोई आश्रय नहीं है ऐसी उस लक्ष्मी को ग्रहण करें
अर्थात उठे॥ ६७॥
तद्वल्गुना युगपदुन्मिषितेन तावत् -
सद्यः परस्परतुलामधिरोहतां द्वे ।
प्रस्पन्दमानपरुषेतरतारमन्त -
श्चक्षुस्तव प्रचलितभ्रमरं च पद्मम् ॥ ५-६८॥
इस (लक्ष्मी के स्वीकार करने के )
कारण से सुन्दर जो साथ ही साथ एक ही क्षण में आँख का खुलना और कमल का खिलना ये
दोनों व्यापार हैं उनसे शीघ्र उसी क्षण में दोनों ही परस्पर एक दूसरे की बराबरी को
प्राप्त करें, वे दोनों कौन-एक तो भीतर कुछ २
चलती हुई चिकनी काली पुतलियों वाली तुम्हारी आँखें और दूसरे भीतर कुछ २ चलते हुए
भौरों से युक्त कमल, अर्थात्-साथ ही साथ खुलने और खिलने से
आखों की और कमलों की पूर्ण रूप से समानता हो जायगी, अर्थात् आप
आँखें खोलें कमल खिल रहे हैं॥ ६८॥
वृन्ताच्छ्लथं हरति पुष्पमनोकहानां
संसृज्यते सरसिजैररुणांशुभिन्नैः ।
स्वाभाविकं परगुणेन विभातवायुः
सौरभ्यमीप्सुरिव ते मुखमारुतस्य ॥ ५-६९॥
प्रातः काल की वायु स्वाभाविक
तुम्हारे मुख के निःश्वास-वायु की सुगन्धि के समान सुगन्धि को को दूसरे के गुण से
अर्थात् दूसरे से प्राप्त किये हुये गन्ध के द्वारा प्राप्त करने की इच्छा से,
मानो वृक्षों के शिथिल हुये पुष्पों की वृन्त अर्थात-फूलों के
बन्धन-स्थानों से अलग कर रहा है, और सूर्य के किरणों से
विकसित कमलों के साथ सङ्गत हो रहता है, अर्थात्-फूलों के और
कमलों के गन्ध को ग्रहण करता हुआ बह रहा है, अतः सूर्योदय का
समय हो रहा है आप उठे ॥ ६९ ॥
ताम्रोदरेषु
पतितं तरुपल्लवेषु निर्धौतहारगुलिकाविशदं हिमाम्भः
आभाति लब्धपरभागतयाधरोष्ठे
लीलास्मितं सदशनार्चिरिव त्वदीयम् ॥ ५-७०॥
ताम्र के समान लाल वर्ण से युक्त जिनका
मध्य भाग है, ऐसे वृक्षों के नवीन पल्लवों
में गिरी हुई स्वच्छ मोतियों की हार के गुच्छे की भांति विमल ओस की बूंदें उत्कर्ष
को प्राप्त किये हुये होने से जैसे नीचे के ओष्ठ में तुम्हारी दातों की कान्ति के
सहित लीला पूर्वक मन्द हास्थ सुशोभित होता है, उसी भांति
सुशोभित हो रहा है। अर्थात सूर्योदय होना चाहता है। अतः आप उठे ॥ ७० ॥
यावत्प्रतापनिधिराक्रमते न भानु -
रह्नाय तावदरुणेन तमो निरस्तम् ।
आयोधनाग्रसरतां त्वयि वीर याते किं
वा रिपूंस्तव गुरुः स्वयमुच्छिनत्ति ॥ ५-७१॥
तेज के निधि खजाना सूर्य भगवान् जब
तक उदय नहीं हो पाते तब तक उनके पहिले ही जल्दी से सूर्य के सारथि
"अरुण" ही अन्धकार को दूर कर देते हैं, अतः हे, वीर! युवराज अज! आप के सब से आगे युद्ध में
रहने वाले होते हुये आप के पिता रघु महाराज शत्रुओं को क्या स्वयम् उच्छिन्न करते
हैं, नहीं बल्कि आप करते हैं, अतः आप
अब सो कर के उठे ॥ ७१ ॥
शय्यां जहत्युभयपक्षविनीतनिद्राः
स्तम्बेरमा मुखरशृङ्खलकर्षिणस्ते ।
येषां विभाति तरुणारुणरागयोगा -
द्भिन्नाद्रिगैरिकतटा इव दन्तकोशाः ॥ ५-७२॥
दोनों पार्श्वों से करवट बदलने से
जिनकी नींद पूरी हो चुकी है, अत एव उठने के
समय अङ्गों के हिलने से झन् झन् शब्द करते हुए लोह के बने हुये सीकड़ों को खींच रहे
हैं, ऐसे आपकी सेना के सभी गजेन्द्र शय्या का त्याग कर रहे
हैं, अर्थात् अपने २ शयन करने के स्थानों से उठ रहे है,
और जिनके खिलने के नजदीक आई हुई कलियों के समान दांत हाल में उदय
होते हुये सूर्य की लाल २ किरणों के सम्पर्क होने से कटे हुये पर्वत के गेरू के
टुकड़े की भांति मालूम पड़ते हुये सुशोभित हो रहे हैं। अर्थात् हाथी भी सोकर के उठ
गये, अब आप को भी उठना चाहिये ।। ७२ ॥
दीर्घेष्वमी नियमिताः पटमण्डपेषु
निद्रां विहाय वनजाक्ष वनायुदेश्याः ।
वक्त्रोष्मणा मलिनयन्ति पुरोगतानि
लेह्यानि सैन्धवशिलाशकलानि वाहाः ॥ ५-७३॥
हे कमलनयन ! अज! कपड़ों के बने हुये
बडे २ मण्डपों में बंधे हुये पारस देश में उत्पन्न हुये (पारसी) ये आप की सेना के
घोड़े निद्रा त्याग कर उठे हुये, आगे रक्खे
हुये चाटने लायक सेन्धा नमक के चट्टानों के टुकड़ों को अपने मुख के वायु की गर्मी
से अर्थात् भाफ से मलिन कर रहे हैं ॥७३॥
भवति विरलभक्तिर्म्लानपुष्पोपहारः
स्वकिरणपरिवेषोद्भेदशून्याः प्रदीपाः ।
अयमपि च गिरं नस्त्वत्प्रबोधप्रयुक्ता
- मनुवदति शुकस्ते मञ्जुवाक्पञ्जरस्थः ॥ ५-७४॥
उपहार में आये हुये पुष्पों के
मुरझा जाने से उनकी रचना (गुथाई ) ढीली हो गई है, और दीपक अपने २ प्रभामण्डल के चमक से रहित हो रहे हैं, अर्थात्-दीपकों की प्रभा फीकी हो गई है, अतः इन सब
पूर्वोक्त लक्षणों से पूरा सवेरा हो गया है, और यह सुन्दर
बोलने वाला पिंजरे में रक्खा हुआ आपका सूआ भी आप को जगाने के लिये कहे गये हम
लोगों के पूर्वोक्त वचनों का अनुकरण करके बोल रहा है, अतः अब
आप निद्रा का त्याग करके उठे।७४ ।
इति विरचितवाग्भिर्बन्दिपुत्रैः
कुमारः सपदि विगतनिद्रस्तल्पमुज्झांचकार ।
मदपटुनिनदद्भिर्बोधितो राजहंसैः
सुरगज इव गाङ्गं सैकतं सुप्रतीकः ॥ ५-७५॥
इस प्रकार
से स्तुति-वचनों की रचना जिन्होंने की है, ऐसे
बन्दि-पुत्रों से शीघ्र ही जिनकी निद्रा दूर हो गई थी, ऐसे
युवराज अज ने शय्या को उस तरह से परित्याग किया कि-जिस तरह से हर्ष से मधुर शब्द
करते हुये राजहंसों से जगाया गया, "सुप्रतीक" नामक
ईशान दिशा का दिग्गज गङ्गा के रेतीले तट का परित्याग करता है ॥७५ ॥
अथ विधिमवसाय्य शास्त्रदृष्टं
दिवसमुखोचितमञ्चिताक्षिपक्ष्मा ।
कुशलविरचितानुकूलवेशः
क्षितिपसमाजमगात्स्वयंवरस्थम् ॥ ५-७६॥
शय्या त्याग कर उठने के बाद जिनके
नेत्रों के लोम सुन्दर है ऐसे युवराज अज शास्त्रोक्त प्रातः काल के योग्य
सन्ध्या-वन्दनादिक अनुष्ठान समाप्त कर के अलकृत करने वालों में चतुर पुरुषों के
द्वारा अपना स्वयंवर में जाने के योग्य उत्तम वेष बनाकर स्वयंवर में बैठे हुये राज
समाज में गये ॥ ७६ ॥
॥ इति श्रीकालिदासकृते रघुवंशे महाकाव्ये पञ्चमः सर्गः ॥
रघुवंशम् पञ्चम सर्ग संक्षिप्त कथासार
जिस समय महाराज रघु समस्त धनराशि को
दान कर तपस्वी के समान जीवन बिता रहे थे उसी समय वरतन्तु के शिष्य कौत्स ऋषि ने
आकर कहा राजन् ! चतुर्दश विद्या समाप्त कर गुरु को १४ कोटि धन देना अभीष्ट है
किन्तु आपकी ऐसी गरीबी देखकर तो मैं अत्यन्त निराश हो गया हूँ। यह सुनकर महाराज
रघु ने कहा-भगवन् ! कुछ काल मेरी यज्ञशाला में आप ठहरने की कृपा करें,
मैं तब तक इसके लिये भरसक चेष्टा करता हूँ। इस तरह उनको आश्वासन
देकर कुबेर से धन लेने की कामना से एक रथ पर शास्त्रों को रखकर रात में उसी पर सो
गये। सबेरे रघु के उठने से पहिले ही आकर मंत्री ने खजाने में अकस्मात् धन वर्षा की
बातें कहीं। यह सुनकर महाराज ने कौत्स को बुलाकर यथेष्ट धन दे दिया। कौत्स ने बड़ी
प्रसन्नता से कहा-राजन् ! आपके लिये कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं है इसलिये आप अपने
स्वरूप के अनुरूप पुत्र को प्राप्त कीजिये। उसी पुत्र का नाम 'अज' पड़ा। क्रमशः अज ने अपना बाल्यकाल बिताकर सारी
कला कौशल विद्याओं को पढ़कर भोज राजा की बहन के स्वयंवर वृत्तान्त को उनके
भृत्य द्वारा जानकर पिता से प्रेरित होकर
सैनिकों के साथ प्रस्थान किया। मार्ग में नर्मदा तट पर तम्बू खड़ाकर ठहरे हुए थे,
कि इतने में एक जङ्गली हाथी उनके घोड़े-हाथी को विद्रावित करता हुआ
आ पहुँचा। अज ने उसको एक बाण मारा। बाण लगते ही वह हाथी रूप बदल कर गन्धर्व रूप
धारण कर अज के सामने खड़ा होकर बोला-राजकुमार ! मैं प्रियदर्शन का पुत्र प्रियंवद
नाम का गन्धर्व हूँ। मैंने मतङ्ग मुनि को गर्व से अपमानित करने का यह फल पाया है।
प्रार्थना करने पर मुनि से आपके बाण से ही वेधित होकर उक्त हाथी के शरीर से
छुटकारा पाने का वर पाया था। उसी के वरदान का यह फल है कि आज मैं भाग्य से आप को
प्राप्त कर ऋषि शाप से मुक्त हुआ हूँ । मैं प्रसन्नता से आपको एक गान्धर्व अस्त्र
देता हूँ। आप इसे ग्रहण कीजिये, इसके प्रभाव से शत्रुओं पर
शस्त्रप्रहार के बिना ही आप विजय प्राप्त करेंगे। यह सुनकर अज उस अस्त्र को ग्रहण
कर आगे चल पड़े। थोड़े ही काल में भोज की राजधानी के पास पहुँचे। आये हुए अज का
समाचार सुनते ही भृत्यों के साथ राजाभोज उनके पास स्वागतार्थ उपस्थित हुए और बहुत
आदर के साथ उनको अपनी राजधानी में ले आये।
इति कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्यम्
पञ्चम सर्ग समाप्त ॥५॥
शेष कथा जारी........रघुवंशम् षष्ठ सर्ग।
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