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कर्मकाण्ड

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रघुवंशम् चतुर्थ सर्ग

रघुवंशम् चतुर्थ सर्ग

इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् तृतीय सर्ग में आपने... राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा ने अपने पुत्र रघु को युवराज पद पर नियुक्त कर सौवाँ अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ किया और रघु को रक्षक बनाकर दिग्विजय के लिये घोड़ा छोड़ा जिसे इन्द्र ने चुरा लिया। तब रघु ने इन्द्र के साथ युद्ध किया तथा इन्द्र से वर प्राप्त कर लौटा। बाद में राजा दिलीप ने रघु को राजगद्दी पर बैठाकर वाणप्रस्थाश्रम में चले गये,यहाँ तक की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् चतुर्थ सर्ग में पढ़ेंगे-

रघुवंशम् चतुर्थ सर्ग

रघुवंशमहाकाव्यम् ।चतुर्थः सर्गः।


रघुवंशं सर्ग ४ कालिदासकृतम् ॥


स राज्यं गुरुणा दत्तं प्रतिपद्याधिकं बभौ ।

दिनान्ते निहितं तेजः सवित्रेव हुताशनः ॥ ४-१॥

वह रघु महाराज पिता के दिये हुये राज्य (प्रजापालन रूप कर्म ) को पाकर सायङ्काल में सूर्य के द्वारा स्थापित तेज को पाकर जैसे अग्नि अधिक सुशोभित होता है उसी भांति अधिक सुशोभित होने लगे ॥१॥

दिलीपानन्तरं राज्ये तं निशम्य प्रतिष्ठितम् ।

पूर्वं प्रधूमितो राज्ञां हृदयेऽग्निरिवोत्थितः ॥ ४-२॥

दिलाप महाराज के बाद प्रतिष्ठित हुए उन महाराज रघु को सुनकर पहले (दिलीप महाराज के) समय में जो राजाओं के हृदय में धूमयुक्त सन्तापाग्नि थी सो इस समय प्रज्वलित हो उठी अर्थात् पहले की अपेक्षा अधिक सन्ताप हुआ ॥२॥

पुरुहूतध्वजस्येव तस्यून्नयनपङ्क्तयः ।

नवाभ्युत्थानदर्शिन्यो ननन्दुः सप्रजाः प्रजाः ॥ ४-३॥

इन्द्र की पताका की तरह रघु महाराज के नवीन अभ्युदय (तरक्की) को देखने वाले अत एव ऊपर को नेत्र समूहों को किये हुये सन्तान सहित प्रजा लोग प्रसन्न हुये ॥३॥

सममेव समाक्रान्तं द्वयं द्विरदगामिना ।

तेन सिंहासनं पित्र्यमखिलं चारिमण्डलम् ॥ ४-४॥

हाथी की तरह लीलापूर्वक चलने वाले अथवा हाथी पर चलने वाले रघु ने साथ ही दोनों को दबाया, एक तो पिता से प्राप्त सिंहासन को दूसरे सम्पूर्ण शत्रुमण्डल को ॥४॥

छायामण्डललक्ष्येण तमदृश्या किल स्वयम् ।

पद्मा पद्मातपत्रेण भेजे साम्राज्यदीक्षितम् ॥ ४-५॥

लक्ष्मी स्वयं अदृश्य रूप से विद्यमान हुई छाया(कान्ति या छाया)के मंडल से जिसका अनुमान किया जा सका है,ऐेसे उन रघु महाराज की सेवा करने लगी ॥५॥

परिकल्पितसांनिध्या काले काले च बन्दिषु ।

स्तुत्यं स्तुतिभिरर्थ्याभिरुपतस्थे सरस्वती ॥ ४-६॥

सरस्वती देवी ने भी समय- समय पर बन्दियों की समीपवर्त्तिनी होती हुई स्तुति करने के योग्य उन रघु महाराज को अर्थ से युक्त उचित स्तोत्रों द्वारा देवबुद्धि से या लोकपालों के अंश से उत्पन्न होने के कारण पूजन किया ॥६॥

मनुप्रभुतिर्मान्यैर्भुक्ता यद्यपि राजभिः ।

तथाप्यनन्यपूर्वेव तस्मिन्नासीद्वसुंधरा ॥ ४-७॥

पृथ्वी मनु आदि माननीय राजाओं से यद्यपि भोगी गई थी, तथापि उन महाराज रघु में अन्य से जैसे नहीं भोगी गई हो ऐसी अनुरक्त हुई।॥ ७॥

स हि सर्वस्य लोकस्य युक्तदण्डतया मनः ।

आददे नातिशीतोष्णो नभस्वानिव दक्षिणः ॥ ४-८॥

क्योंकि उस रघु ने अपराध के अनुसार दण्ड देने से सभी लोगों के मन को हरण कर लिया जैसे कि-न अत्यन्त शीत और न अत्यन्त गरम बहने वाला दक्षिण दिशा का पवन सब लोगों के मन को हरण करता है ।। ८॥

मन्दोत्कण्ठाः कृतास्तेन गुणाधिकतया गुरौ ।

फलेन सहकारस्य पुष्पोद्गम इव प्रजाः ॥ ४-९॥

उन रघु महाराज ने प्रजा वर्ग को अपने पिता महाराज दिलीप के विषय में जैसे आम का फल-फूल (बौर ) के निकलने के विषय में उस ( बौर ) की अपेक्षा अधिक गुण होने से लोगों को स्वल्प उत्कण्ठा वाला बना देता है उसी भांति बना दिया अर्थात् रघु के गुणों से लोग महाराज दिलीप को भूल गये ॥९॥

नयविद्भिर्नवे राज्ञि सदसच्चोपदर्शितम् ।

पूर्व एवाभवत्पक्षस्तस्मिन्नाभवदुत्तरः ॥ ४-१०॥

नीति जानने वाले मन्त्रियों ने नवीन महाराज रघु के विषय में अच्छा धर्मयुद्धादिक और बुरा कपट-युद्धादिक दोनों निवेदन करके दिखाया, पर उनके योग्य पहला धर्मयुद्धादि पक्ष ही निश्चय हुआ, दूसरा अधर्मयुद्धादि पक्ष निश्चय नहीं हुआ ॥१०॥

पञ्चानामपि भूतानामुत्कर्षं पुपुषुर्गुणाः ।

नवे तस्मिन्महीपाले सर्वं नवमिवाभवत् ॥ ४-११॥

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पांच महाभूतो के भी गुण गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द अत्यन्त पुष्ट हुये ( अर्थात् पहले की अपेक्षा आधिक्य को प्राप्त हुये ) उस नवीन महाराज रघु के राजा होने पर सभी वस्तुयें नवीन की तरह हो गई।॥ ११ ॥

यथा प्रह्लादनाच्चन्द्रः प्रतापात्तपनो यथा ।

तथैव सोऽभूदन्वर्थो राजा प्रकृतिरञ्जनात् ॥ ४-१२॥

जिस प्रकार से चन्द्रमा आह्लाद उत्पन्न करने से सार्थक नाम वाले हुए और जिस प्रकार से सूर्य सन्ताप उत्पन्न करने से यथार्थ नामवाले हुये, उसी प्रकार से वे रघु महाराज भी पुरवासी लोगों के अनुराग को पैदा करने से यथार्थ नाम वाले राजा हुये ॥ १२ ॥

कामं कर्णान्तविश्रान्ते विशाले तस्य लोचने ।

चक्षुष्मत्ता तु शास्त्रेण सूक्ष्मकार्यार्थदर्शिना ॥ ४-१३॥

यद्यपि बड़े बड़े उन रघु महाराज के लोचन हद से ज्यादा कान तक फैले हुए थे, परन्तु आंख का होना ( आँखों का फल ) तो गूढ कर्तव्य विषयों के दिखानेवाले शास्त्र से ही था, अर्थात् वे शास्त्र से देखकर कार्य करते थे न कि केवल आँखों से ही ॥ १३ ॥

लब्धप्रशमनस्वस्थमथैनं समुपस्थिता ।

पार्थिवश्रीर्द्वितीयेव शरत्पङ्कजलक्षणा ॥ ४-१४॥

इसके ( राजासन पर बैठने के ) बाद पाये हुये राज्य का (पौरजनों की रक्षा आदि प्रशमनात्मक कार्यों से ) प्रशमन (शान्ति स्थापन) करने से शान्त चित्त हुये इन रघु महाराज को कमल ही है चिह्न जिसका ऐसी शरद् ऋतु दूसरी कमलरूप चिह्नवाली राजलक्ष्मी की भाँति प्राप्त हुई ॥ १४ ॥

निर्वृष्टलघुभिर्मेघैर्मुक्तवर्त्मा सुदुःसहः ।

प्रतापस्तस्य भानोश्च युगपद्व्यानशे दिशः ॥ ४-१५॥

अच्छी तरह से जल बरसा चुकने से हलके हुए मेघों ने जिसके मार्ग को छोड़ दिया है, अत एव अत्यन्त दुःसह रघु का प्रताप और सूर्य का तेज दोनों एक समय ही सारी दिशाओं में व्याप्त हो गये ॥ १५ ॥

वार्षिकं संजहारेन्द्रो धनुर्जैत्रं रघुर्दधौ ।

प्रजार्थसाधने तौ हि पर्यायोद्यतकार्मुकौ ॥ ४-१६॥

इन्द्र ने वर्षा काल में उगने वाले धनुष को रख दिया और रघु ने विजय करने वाले धनुष को धारण किया, क्योंकि वे दोनों इन्द्र और रघु प्रजाओं का प्रयोजन जो वर्षा का होना तथा दिग्विजय का करना है, उन दोनों को बारी-बारी से सिद्ध करने के लिये तत्पर रहते थे ॥१६॥

पुण्डरीकातपत्रस्तं विकसत्काशचामरः ।

ऋतुर्विडम्बयामास न पुनः प्राप तच्छ्रियम् ॥ ४-१७॥

जिसका श्वेतकमल ही छत्र है तथा खिले हुये काश ही चामर है-ऐसा जो शरद ऋतु है, उसने यद्यपि श्वेतकमल के समान श्वेत छत्र तथा खिले हुए काश के समान चामर वाले उन रघु महाराज का अनुकरण किया, तथापि उनकी शोभा को नहीं प्राप्त किया ॥१७॥

प्रसादसुमुखे तस्मिंश्चन्द्रे च विशदप्रभे ।

तदा चक्षुष्मतां प्रीतिरासीत्समरसा द्वयोः ॥ ४-१८॥

लोगों के अपार अनुग्रह करने से देखने में सुन्दर मुखवाले उन रघु महाराज तथा स्वच्छ कान्ति वाले चन्द्रमा इन दोनों के विषय में उस समय जिनके आखें थीं ऐसे लोगों की प्रीति समान ही थी॥१८॥

हंसश्रेणीषु तारासु कुमुद्वत्सु च वारिषु ।

विभूतयस्तदीयानां पर्यस्ता यशसामिव ॥ ४-१९॥

हंसों को पंक्तियों में, नक्षत्रों में और कुमुद से युक्त जल में रघुसम्बन्धी यश की सफेदी रूप विभूति मानों फैली हुई थी॥१९॥

इक्षुच्छायनिषादिन्यस्तस्य गोप्तुर्गुणोदयम् ।

आकुमारकथोद्धातं शालिगोप्यो जगुर्यशः ॥ ४-२०॥

ईख की छाया में बैठी हुई साठी आदि धान की रखवाली करने वाली किसानों की स्त्रियों ने रक्षा करने वाले उन रघु महाराज के शूरता, उदारता आदि गुणों से प्रकट हुये बालकों तक से तारीफ किये गये यश का गान किया ॥२०॥

प्रससादोदयादम्भः कुम्भयोनेर्महौजसः ।

रघोरभिभवाशङ्कि चुक्षुभे द्विषतां मनः॥ ४-२१॥

इधर महाबलवान् अगस्त्य जी का नक्षत्ररूपेण उदय होने से जल निर्मल हुआ और उधर वहां बलशाली रघु महाराज का दिग्विजय के लिये सर्वत्र विजय करने वाले धनुष का धारण करना रूप, उदय होने से दुश्मनों का मन अत्यन्त व्याकुल हो उठा ॥ २१ ॥

मदोदग्राः ककुद्मन्तः सरितां कूलमुद्रुजाः ।

लीलाखेलमनुप्रापुर्महोक्षास्तस्य विक्रमम्॥ ४-२२॥

मद से मतवाले बड़े ककुद (डील) वाले, नदियों के किनारों को गिराने वाले बड़े- बड़े बैलों ने लीलापूर्वक खेल की तरह उन रघु महाराज के विक्रम का अनुकरण किया २२ ।।

प्रसवैः सप्तपर्णानां मदगन्धिभिराहताः ।

असूययेव तन्नागाः सप्तधैव प्रसुस्रुवुः॥ ४-२३॥

हाथी के मद के तुल्य गन्धवाले सप्तपर्ण के फूलों से आहत हुये उन रघु महाराज के सभी हाथी मानों स्पर्धा से सात प्रकार ( सात अगों) से मद को बरसाने लगे ॥ २३ ॥

सरितः कुर्वती गाधाः पथश्चाश्यानकर्दमान् ।

यात्रायै चोदयामास तं शक्तेः प्रथमं शरत्॥ ४-२४॥

नदियों को सुखपूर्वक पार जाने लायक करती हुई तथा मार्गों के कीचड़ों को शुष्क करती हुई शरद् ऋतु प्रभाव-शक्ति तथा मन्त्र-शक्ति से युक्त उन रघु महाराज को उत्साह शक्ति होने के पहले ही दिग्विजय के लिये प्रेरणा करने लगी ॥ २४ ॥

तस्मै सम्यग्घुतो वह्निर्वाजिनीराजनाविधौ ।

प्रदक्षिणार्चिर्व्याजेन हस्तेनेव जयं ददौ॥ ४-२५॥

घोड़ों के नीराजना नामक शान्तिकर्म में विधिपूर्वक हवन जिसमें किया गया है ऐसे होमाग्नि ने दक्षिण की तरफ घूमकर निकलती हुई ज्वाला के छळ से मानो अपने हाथ से उन रघु महाराज के लिये विजय प्रदान किया ॥२५॥

स गुप्तमूलप्रत्यन्तः शुद्धपार्ष्णिरयान्वितः ।

षड्विधं बलमादाय प्रतस्थे दिग्जिगीषया॥ ४-२६॥

महाराज रघु ने अपने निवास स्थान तथा प्रान्त के दुर्गों की रक्षा का प्रबन्ध कर तथा सेना के पृष्ठ भाग को सुरक्षित कर एवं कल्याण करने वाले यात्राकालीन मङ्गलाचरणादिकों को विधिवत् संपादन कर छः प्रकार के बल (सैन्य) के साथ दिग्विजय की इच्छा से प्रस्थान किया ॥ २६ ॥

अवाकिरन्वयोवृद्धास्तं लाजैः पौरयोषितः ।

पृषतैर्मन्दरोद्धूतैः क्षीरोर्मय इवाच्युतम्॥ ४-२७॥

अवस्था में वृद्धा नगरवासियों की स्त्रियों ने दिग्विजय के लिये जाते हुये उन रघु महाराज के ऊपर मंगलार्थक लाजों (धान के खीलों) से, मन्दराचल से फेके गये दुग्ध के बिन्दुओं से क्षीरसमुद्र की लहरों ने जैसे विष्णु भगवान् के ऊपर वर्षा की थी उसी भांति वर्षा की।॥ २७॥

स ययौ प्रथमं प्राचीं तुल्यः प्राचीनबर्हिषा ।

अहिताननिलोद्धूतैस्तर्जयन्निव केतुभिः॥ ४-२८॥

इन्द्र के तुल्य वे रघु महाराज अनुकूल वायु से फहराती हुई पताकाओं से दुश्मनों को मानों डराते हुये पहले पूर्व दिशा की तरफ चले ॥ २८॥

रजोभिः स्यन्दनोद्धूतैर्गजैश्च घनसंनिभैः ।

भुवस्तलमिव व्योम कुर्वन्व्योमेव भूतलम्॥ ४-२९॥

रथ से उड़ी हुई धूलि से और मेघ के तुल्य (गर्जन करने वाले तथा वर्ण और आकार वाले)हाथियों से क्रम से आकाश को पृथ्वीतल की भांति और पृथ्वीतल को आकाश की भांति करते हुये व रघु महाराज पूर्व दिशा को गये ।। २९ ।।

प्रतापोऽग्रे ततः शब्दः परागस्तदनन्तरम् ।

ययौ पश्चाद्रथादीति चतुःस्कन्धेव सा चमूः॥ ४-३०॥

सबसे पहले रघु का प्रताप उसके बाद सेना का कल-कल शब्द और उसके बाद धूलि तथा पीछे से रथ वगैरह, इस प्रकार से चार व्यूह किये हुये की भांति रघुसेना चली ॥३०॥

मरुपृष्ठान्युदम्भांसि नाव्याः सुप्रतरा नदीः ।

विपिनानि प्रकाशानि शक्तिमत्त्वाच्चकार सः॥ ४-३१॥

उन रघु महाराज ने प्रभाव, उत्साह और मन्त्र शक्ति सम्पन्न होने से जल से रहित प्रदेशों को जल से युक्त और नौका से पार करने लायक नदियों को सुख से पार करने के योग्य, तथा जङ्गलों को (वृक्ष कट जाने से) प्रकाश युक्त कर दिया ।। ३१॥

स सेनां महतीं कर्षन्पूर्वसागरगामिनीम् ।

बभौ हरजटाभ्रष्टां गङ्गामिव भगीरथः॥ ४-३२॥

बड़ी भारी सेना जो कि पूर्व समुद्र की तरफ जाने वाली थी उसे ले जाते हुये वे रघु महाराज उसी भांति सुशोभित हुये जैसे कि शंकर की जटा से नीची गिरी हुई पूर्व समुद्र की तरफ जाने वाली गङ्गाजी को लिये जाते हुए भगीरथ सुशोभित हुये थे ॥ ३२ ॥

त्याजितैः फलमुत्खातैर्भग्नैश्च बहुधा नृपैः ।

तस्यासीदुल्बणो मार्गः पादपैरिव दन्तिनः॥ ४-३३॥

लाभ होना जिनका छिनवा लिया गया है और जो अपने स्थान से च्युत कर दिये गये हैं तथा अनेक प्रकार से लड़ाई में जो जीत लिये गये हैं ऐसे शत्रुरूप राजाओं से उन रघु महाराज का मार्ग साफ (निष्कण्टक) हुआ, जैसे कि जिनके फल गिरा दिये गये हैं और जो जड़ से उखाड़ दिये गये हैं तथा तोड़ दिये गये हैं ऐसे वृक्षों से हाथी का मार्ग स्वच्छ (निष्कण्टक) हो जाता है ।। ३३ ।।

पौरस्त्यानेवमाक्रामंस्तांस्ताञ्जनपदाञ्जयी ।

प्राप तालीवनश्याममुपकण्ठं महोदधेः॥ ४-३४॥

विजयी वे रघु महाराज इस प्रकार से पूर्व दिशा के सब देशों पर अपना अधिकार करते हुए ताली के वनों से श्यामवर्ण जो महासमुद्र का तट प्रान्त है वहाँ पहुँचे ॥ ३४॥

अनम्राणां समुद्धर्तुस्तस्मात्सिन्धुरयादिव ।

आत्मा संरक्षितः सुह्मैर्वृत्तिमाश्रित्य वैतसीम्॥ ४-३५॥

जो कि नम्र नहीं है ऐसे लोगों को उखाड़ देने वाले नदी के वेग के समान उन रघु महाराज से सुह्मदेश के राजाओं ने वेत के तुल्य (नम्र हो जाना रूप) वृत्ति का आश्रय लेकर अपने को (नष्ट होने से) बचाया ॥ ३५॥

वङ्गानुत्खाय तरसा नेता नौसाधनोद्यतान् ।

निचखान जयस्तम्भान्गङ्गास्रोतोन्तरेषु सः॥ ४-३६॥

बड़ी भारी सेना के नायक उन रघु महाराज ने नौकारूप साधनों से युद्ध के लिये उद्यत बङ्गदेश के राजाओं को बल से उखाड़ कर (जीत कर ) गङ्गा के प्रवाह के बीच द्वीपों में अपने जय के स्मारक स्तम्भों को गाड़ दिया ॥ ३६॥

आपादपद्मप्रणताः कलमा इव ते रघुम् ।

फलैः संवर्धयामासुरुत्खातप्रतिरोपिताः॥ ४-३७॥

रघु महाराजके चरण कमल तक झुके हुये 'शालिपक्ष में अपने कमल सदृश मूल भाग तक झुके हुये, अत एव पहले राजपद से हटाये गये भी पश्चात् पुनः राजपद पर स्थापित किये गये 'शालिपक्ष में पहले उखाड़े पश्चात् अन्यत्र फिर से बैठाये गये, उन बङ्गदेशी राजाओं ने अगहन मास में तैयार होने वाले 'कलम' नामक शालि विशेष की भांति घनों से 'शालिपक्ष में फलों से उन रघु महाराज को पूर्ण कर दिया ॥ ३७॥

स तीर्त्वा कपिशां सैन्यैर्बद्धद्विरदसेतुभिः ।

उत्कलादर्शितपथः कलिङ्गाभिमुखो ययौ॥ ४-३८॥

वे रघु महाराज जिसने हाथियों से ही पुल को तैयार किया है, ऐसी अपनी सेना के साथ कपिशा नाम की नदी को पार कर उत्कल देश के राजाओं से बताये हुये मार्ग से कलिङ्गदेश की तरफ (मुख किये हुये) चले ॥ ३८॥

स प्रतापं महेन्द्रस्य मूर्ध्नि तीक्ष्णं न्यवेशयत् ।

अङ्कुशं द्विरदस्येव यन्ता गम्भीरवेदिनः॥ ४-३९॥

उन रघु महाराज ने महेन्द्र नामक पर्वत के शिखर पर दुःसह अपने प्रताप को जैसे सारथि ( महावत ) गम्भीर वेदी संज्ञक (चिरकाल होने पर जो अत्यन्त परिचित शिक्षा को समझता है उसे गम्भीर वेदी ऐसा गज शास्त्र के जानने वाले पण्डित जन कहते हैं ) हाथी के मस्तक पर चोखे अंकुश को रखता है, उसी भांति रखा ॥ ३९ ॥

प्रतिजग्राह कालिङ्गस्तमस्त्रैर्गजसाधनः ।

पक्षच्छेदोद्यतं शक्रं शिलावर्षीव पर्वतः॥ ४-४०॥

गज ही है साधन (सेना का अङ्ग) जिसका ऐसा कलिङ्गदेश का राजा आयुध से उन रघु महाराज का जैसे पक्षों के काटने में प्रवृत्त इन्द्र का शिलाओं की वर्षा करने वाले पर्वतों ने सामना किया था उसी भांति किया ॥ ४० ॥

द्विषां विषह्य काकुत्स्थस्तत्र नाराचदुर्दिनम् ।

सन्मङ्गलस्नात इव प्रतिपेदे जयश्रियम् ॥ ४-४१॥

ककुत्स्थ राजा के वंशज रघु महाराज ने उस महेन्द्र नामक पर्वत के ऊपर शत्रुओं के लोहे के बने हुये नाराच संज्ञक बाणों की घोर वर्षा को सहन करके जैसे कोई शास्त्रानुसार विजय मंगल के लिये सर्वोषधि से स्नान किया हुआ हो उस भांति जयलक्ष्मी को प्राप्त किया।

ताम्बूलीनां दलैस्तत्र रचितापानभूमयः ।

नारिकेलासवं योधाः शात्रवं च पपुर्यशः ॥ ४-४२॥

उस महेन्द्र नामक पर्वत पर महाराज रघु के योद्धा लोगों ने मद्यपान करने के योग्य प्रदेशों की रचना कर नारियल का आसव बनाकर उसे पान के पत्तों से पिया (विहार किया ) और शत्रुओं के यश का भी पान किया अर्थात् हरण किया ॥ ४२ ॥

गृहीतप्रतिमुक्तस्य स धर्मविजयी नृपः ।

श्रियं महेन्द्रनाथस्य जहार न तु मेदिनीम् ॥ ४-४३॥

धर्मार्थ विजय करने वाले शरणागतवत्सल महाराज रघु ने पहले पकड़ कर फिर छोड़ दिये गये कलिङ्ग-देशीय महेन्द्राचल के राजा की लक्ष्मी का ही केवल हरण किया न कि राज्य का ॥ ४३॥

ततो वेलातटेनैव फलवत्पूगमालिना ।

अगस्त्याचरितामाशामनाशास्यजयो ययौ ॥ ४-४४॥

पूर्व दिशा का विजय कर चुकने के बाद फल से लदे हुये सुपारी के वृक्ष कतार के कतार जिस में लगे हुए हैं ऐसे समुद्र के किनारे- किनारे से ही अगस्त्य भगवान से सेवित जो दक्षिण दिशा है उसकी तरफ अनायास ही विजय लाभ करने वाले महाराज रघु गये ।।

स सैन्यपरिभोगेण गजदानसुगन्धिना ।

कावेरीं सरितां पत्युः शङ्कनीयामिवाकरोत् ॥ ४-४५॥

उन रघु महाराज ने हाथियों के मद से कावेरी नाम की नदी को नदियों के स्वामी समुद्र के नजदीक नहीं विश्वास करने के योग्य बना दिया ॥ ४५ ॥

बलैरध्युषितास्तस्य विजिगीषोर्गतध्वनः ।

मारीचोद्भ्रान्तहारीता मलयाद्रेरुपत्यकाः ॥ ४-४६॥

विजय की इच्छा रखने वाले ( दक्षिण दिशा का) कुछ रास्ता तय किये हुये उन रघु महाराज के सैनिकों ने जिस जगह पर मरीच के वनों में हारीन नामक चिड़ियाँ उड़ रही थीं ऐसी मलयाचल के समीप की भूमि (नराई) में डेरा डाला ॥ ४६॥

ससञ्जुरश्वक्षुण्णानमेलानामुत्पतिष्णवः ।

तुल्यगन्धिषु मत्तेभकटेषु फलरेणवः ॥ ४-४७॥

घोड़ों के खुरों से खुदी हुई इलायची के लताओं की उड़ती हुई फल की धूलि अपने समान सुगन्धि वाले मतवाले हाथियों के गण्डस्थल (मद बहने के स्थानों ) में चिपक गई।

भोगिवेष्टनमार्गेषु चन्दनानां समर्पितम् ।

नास्रसत्करिणां ग्रैवं त्रिपदीच्छेदिनामपि ॥ ४-४८॥

चन्दन के वृक्षों में सर्पो के लिपटे रहने से पड़ी हुई रेखाओं के बीच में दिये हुए पैर के सीकड़ों को तोड़ डालने वाले हाथियों के गले के बन्धन (सीकड़) नहीं ढीले हुये ॥४८॥

दिशि मन्दायते तेजो दक्षिणस्यां रवेरपि ।

तस्यामेव रघोः पाण्ड्याः प्रतापं न विषेहिरे ॥ ४-४९॥

दक्षिण दिशा में सूर्य का भी तेज मन्द हो जाता है, पर उसी दिशा में पाण्डु देश के राजा लोग रघु महाराज के प्रताप को नहीं सह सके । ४९ ॥

ताम्रपर्णीसमेतस्य मुक्तासारं महोदधेः ।

ते निपत्य ददुस्तस्मै यशः स्वमिव संचितम् ॥ ४-५०॥

पाण्डुदेश के राजाओं ने ताम्रपर्णी नाम की नदी से मिले हुये दक्षिण समुद्र सम्बन्धी इकट्ठे किये हुये उत्तमोत्तम मोतियों को अपने संचित यश की भांति उन रघु महाराज के पैरों पर रख कर नजराना किया ॥५०॥

स निर्विश्य यथाकामं तटेष्वालीनचन्दनौ ।

स्तनाविव दिशस्तस्याः शैलौ मलयदर्दुरौ ॥ ४-५१॥

जिनका पराक्रम दुश्मनों के लिये असह्य है ऐसे वे रघु महाराज जिसका प्रान्तभाग चन्दनके वृक्षों से भरा हुआ है, 'स्तनपक्षʼ में जिसके प्रान्तभाग में चन्दन का लेप हुआ है, ऐसे उस दक्षिण-दिशारूपी स्त्री के स्तन की भाँति स्थित मलय और दर्दुर नामक पर्वत पर॥ ५१॥

असह्यविक्रमः सह्यं दूरान्मुक्तमुदन्वता ।

नितम्बमिव मेदिन्याः स्रस्तांशुकमलङ्घयत् ॥ ४-५२॥

इच्छा पूर्वक उपभोग (विहार) करके 'स्तनपक्ष मेंʼ मर्दन कर के, समुद्र से दूर छोड़े हुये अतः जहां से वस्त्र खिसक गया है ऐसे पृथ्वीरूप स्त्री के पीछे भाग नितम्ब की भाँति स्थित सह्य नामक पर्वतको लांघ गये, अर्थात् उस पर्वत पर भी विहार करके आगे की ओर चले ॥

तस्यानीकैर्विसर्पद्भिरपरान्तजयोद्यतैः ।

रामास्त्रोत्सारितोऽप्यासीत्सह्यलग्न इवार्णवः ॥ ४-५३॥

पश्चिम देश के राजाओं के विजय करने में उद्यत अत एव समुद्र तट से चलती हुई रघु महाराज की सेनाओं से समुद्र परशुरामजी के अत्रों से दूर किया गया भी सह्य पर्वत से मिले हुए की भाँति मालूम पड़ने लगा ।। ५३ ॥

भयोत्सृष्टविभूषाणां तेन केरलयोषिताम् ।

अलकेषु चमूरेणुश्चूर्णप्रतिनिधीकृतः ॥ ४-५४॥

उन रघु महाराज ने,डर के कारण आभूषणों को छोड़ कर भागती हुई केरल देश की स्त्रियों के घुघराले बालों में सेनाओं की धूलि को कुमकुम आदि सुगन्धित द्रव्यों के चूर्ण का प्रतिनिधि बना दिया॥ ५४ ॥

मुरलामारुतोद्धूतमगमत्कैतकं रजः ।

तद्योधवारबाणानामयत्नपटवासताम् ॥ ४-५५॥

मुरला नाम की नदी के वायु से उड़ाये हुए केतकी पुष्प के पराग ने उन रघु महाराज के योधाओं के कन्चुको ( कवचविशेषों ) का बिना प्रयत्न के ही वस्त्र को सुगन्धित करने वाले चूर्ण का कार्य किया ॥ ५५ ॥

अभ्यभूयत वाहानां चरतां गात्रशिञ्जितैः ।

वर्मभिः पवनोद्धूतराजतालीवनध्वनिः ॥ ४-५६॥

चलते हुए घोड़ों के शरीरों पर शब्द करते हुए कवचों की ध्वनि से वायु से हिलते हुए तालवृक्षों के वन की ध्वनि तिरस्कृत हुई ।। ५६ ॥

खर्जूरीस्कन्धनद्धानां मदोद्गारसुगन्धिषु ।

कटेषु करिणां पेतुः पुंनागेभ्यः शिलीमुखाः ॥ ४-५७॥

खजूर के तनों में बंधे हुए हाथियों के मद के झरने से सुगन्धयुक्त गण्डस्थलों पर पुन्नाग(नागकेसर) के पुष्पों को छोड़कर भौरे आ बैठे ॥५७ ॥

अवकाशं किलोदन्वान् रामायाभ्यर्थितो ददौ ।

अपरान्तमहीपालव्याजेन रघवे करम् ॥ ४-५८॥

जिस समुद्र ने परशुरामजी के लिये प्रार्थना करने पर रहने के लिये अवकाश (स्थान) दिया था, उसी समुद्र ने रघु महाराज के लिये पश्चिम देश के राजाओं के ब्याज से कर दिया ॥५८ ॥

मत्तेभरदनोत्कीर्णव्यक्तविक्रमलक्षणम् ।

त्रिकूटमेव तत्रोच्चैर्जयस्तम्भं चकार सः ॥ ४-५९॥

उस केरल देश में उन रघु महाराज ने मतवाले हाथियों के दांतो के प्रहारों से खुदे हुये गड्ढे ही जिसमें स्पष्ट रूप से पराक्रम के चिह्न मौजूद हैं, ऐसे त्रिकूट नामक पर्वत को ही ऊँचा विजय का स्मरण दिलाने वाला स्तम्भ कायम किया ॥ ५९॥

पारसीकांस्ततो जेतुं प्रतस्थे स्थलवर्त्मना ।

इन्द्रियाख्यानिव रिपूंस्तत्त्वज्ञानेन संयमी ॥ ४-६०॥

उसके (त्रिकूटाचल को ही विजयस्मारकस्तम्भ कायम कर चुकने के) बाद उन रघु महाराज ने योगी की भाति तत्वज्ञान से इन्द्रिय नामक शत्रु के समान पारस देश के म्लेच्छ राजाओं को जीतने के लिये स्थल मार्ग से प्रस्थान किया ॥६०॥

यवनीमुखपद्मानां सेहे मधुमदं न सः ।

बालातपमिवाब्जानामकालजलदोदयः ॥ ४-६१॥

रघु ने यवन की स्त्रियों के मद्यपान जनित कमल सदृश मुख को जैसे-वर्षा ऋतु के अलावे और ऋतुओं में मेषों का उदय होना कमल सम्बन्धी सूर्य की कोमल किरणों को नहीं सहता है उसी भाँति नहीं सहन किया ॥ ६१॥

सङ्ग्रामस्तुमुलस्तस्य पाश्चात्यैरश्वसाधनैः ।

शार्ङ्गकूजितविज्ञेयप्रतियोधे रजस्यभूत् ॥ ४-६२॥

उन रघु महाराज का घोड़ों ही की सेना जिनकी है ऐसे पश्चिम दिशा के यवन राजाओं के साथ धनुष के टङ्कारों से ही जिसमें प्रतिद्वन्दी योद्धाओं का परिशान होता था ऐसी (उड़ती हुई) धूलि में घमासान युद्ध हुआ ॥ ६२ ॥

भल्लापवर्जितैस्तेषां शिरोभिः श्मश्रुलैर्महीम् ।

तस्तार सरघाव्याप्तैः स क्षौद्रपटलैरिव ॥ ४-६३॥

उन रघु महाराज ने स्नुही के पत्ते की तरह जिसमें फल लगे हुए हैं ऐसे बाणों से कटे हुये दाढ़ी मूछों से युक्त उन पारसी राजाओं के शिरों से जैसे मधुमक्षिकाओं से ढके हुये मधु के छत्तो से ढक जावे उस भांति पृथ्वी को ढक दिया ॥ ६३ ॥

अपनीतशिरस्त्राणाः शेषास्तं शरणं ययुः ।

प्रणिपातप्रतीकारः संरम्भो हि महात्मनाम् ॥ ४-६४॥

युद्ध में मरने से बचे हुये राजा लोग अपने २ टोपो को उतारकर रघु महाराज के समीप ( शरण में ) प्राप्त हुये, क्योंकि निश्चय करके महात्माओं का कोप प्रणाम करने ही से दूर हो जाने वाला होता है ॥ ६४॥

विनयन्ते स्म तद्योधा मधुभिर्विजयश्रमम् ।

आस्तीर्णाजिनरत्नासु द्राक्षावलयभूमिषु ॥ ४-६५॥

उन रघ महाराज के योधाओं ने जिसमें उत्तम मृगचर्म आदि बिछे हुए है, ऐसी गोलाकार द्राक्षा की लताओं से वेष्टित भूभाग में द्राक्षा के फलों से बने हुये मद्य के द्वारा (अर्थात् मद्यपान करने से) विजय करने में जो परिश्रम हुआ है, उसे दूर किया ॥६५॥

ततः प्रतस्थे कौबेरीं भास्वानिव रघुर्दिशम् ।

शरैरुस्रैरिवोदीच्यानुद्धरिष्यन् रसानिव ॥ ४-६६॥

उसके ( पश्चिम दिशा के देशों की विजय कर चुकने के ) बाद रघु महाराज ने सूर्य जैसे किरणों से जलों का शोषण करने के लिए उत्तरायण होते हैं उसी भांति अपने बाणों से पश्चिम और उत्तर दिशा के देशाधिपति राजाओं को उखाड़ डालने (विजय करने ) के लिये कुबेर की जो उत्तर दिशा है उसकी ओर प्रस्थान किया ॥६६॥

विनीताध्वश्रमास्तस्य सिन्धुतीरविचेष्टनैः ।

दुधुवुर्वाजिनः स्कन्धाल्लग्नकुङ्कुमकेसरान् ॥ ४-६७॥

सिन्धु नामक नदी के किनारे उलट-पलट कर जिन्होंने अपने २ मार्ग की थकावट को दूर कर दिया है और जिनके स्कन्ध के बालों में केसर लगे हुये हैं ऐसे रघु महाराज के घोड़ों ने अपने २ शरीर या कन्धे को हिलाया ( झाड़ा)। ६७ ॥

तत्र हूणावरोधानां भर्तृषु व्यक्तविक्रमम् ।

कपोलपाटलादेशि बभूव रघुचेष्टितम् ॥ ४-६८॥

उत्तर दिशा में अपने २ स्वामियों के विषय में जो पराक्रम हुये है वे जिनसे व्यक्त हो रहे हैं ऐसे रघु महाराज के व्यापार हूण देश के राजाओं की स्त्रियों के कपोलों पर जो (पतियों के मर जाने से दुःख में पीटने पर ) रक्तवर्णता आ गई थी उसके उपदेश वाले हुये अर्थात रघु ने हूणों को जीता है इसको बतलाने वाली उनकी स्त्रियों के कपोलों की रक्तवर्णता ही हुई ॥ ६८॥

काम्बोजाः समरे सोढुं तस्य वीर्यमनीश्वराः ।

गजालानपरिक्लिष्टैरक्षोटैः सार्धमानताः ॥ ४-६९॥

कम्बोज देशवासी राजा (काबूली) लोग युद्ध में उन रघु महाराज के प्रभाव (पराक्रम) को सहन करने में नहीं समर्थ होते हुये हाथियों के बांधने के लिये स्तम्भ स्वरूप होने से नीचे जाते हुये अखरोट के वृक्षों के साथ नम्र हो गये अर्थात् शिर झुकाये ॥ ६९ ॥

तेषां सदश्वभूयिष्ठास्तुङ्गा द्रविणराशयः ।

उपदा विविशुः शश्वन्नोत्सेकाः कोसलेश्वरम् ॥ ४-७०॥

 (हारे हुये) कम्बोज देश के राजाओं के बहुत से उत्तम २ घोड़े और बहुमूल्य स्वर्ण की राशि उपहार स्वरूप में लेकर कोसल देश के स्वामी उन रघु महाराज के पास उपस्थित हुये, किन्तु फिर भी (रघु के हृदय में) अहङ्कार नहीं पैदा हुआ ॥ ७० ॥

ततो गौरीगुरुं शैलमारुरोहाश्वसाधनः ।

वर्धयन्निव तत्कूटानुद्धूतैर्धातुरेणुभिः ॥ ४-७१॥

काबुलियों को विजय कर चुकने के बाद घुड़ सवारों को साथ में लिये हुये वे रघु महाराज हिमालय पर्वत पर, घोड़ों के खुरों से उड़ी हुई मनःशिला आदि धातुओं की धूलियों से पर्वत की चोटियों को बढ़ाते हुये की भांति चढे॥७१ ॥

शशंस तुल्यसत्त्वानां सैन्यघोषेऽप्यसंभ्रमम् ।

गुहाशयानां सिंहानां परिवृत्यावलोकितम् ॥ ४-७२॥

समान बल वाले हिमालय पर्वत की गुफाओं में सोये हुये सिंहों का घूम कर (सोते २ गर्दन फेर कर ) देखना जो है उसी ने भय का कारण जो सेना का कलकल शब्द है, उसके होने पर भी निर्भीकता को प्रकट किया ॥ ७२ ॥

भूर्जेषु मर्मरीभूताः कीचकध्वनिहेतवः ।

गङ्गाशीकरिणो मार्गे मरुतस्तं सिषेविरे ॥ ४-७३॥

सूखे हुए भूर्जपत्र (भोजपत्र) के वनों में मर्मर शब्द युक्त, कीचक नामक वंशवृक्षों की ध्वनि को पैदा करने वाला गङ्गा के जल कणों से मिला हुआ (शीतल) वायु मार्ग में रघु महाराज की सेवा करने लगा, अर्थात् बहते हुए शीतल वायु ने रघु के श्रम को दूर किया।। ७३ ।।

विशश्रमुर्नमेरूणां छायास्वध्यास्य सैनिकाः ।

दृषदो वासितोत्सङ्गा निषण्णमृगनाभिभिः ॥ ४-७४॥

रघु के सैनिक लोगों ने सुरपुन्नाग ( देवताओं की सुपारी) नामक वृक्षों की छाया में बैठे हुए कस्तूरी मृगों की (नाभि स्थित ) कस्तूरी से जिनके पृष्ठ भाग सुगन्धित हो गये हैं ऐसी शिलाओं पर बैठकर विश्राम किया।। ७४ ।।

सरलासक्तमातङ्गग्रैवेयस्फुरितत्विषः ।

आसन्नोषधयो नेतुर्नक्तमस्नेहदीपिकाः ॥ ४-७५॥

सरल नामक वृक्षों में बंधे हुये हाथियों के गले में बांधने की सीकड़ों में जिनकी कान्ति पड़ रही थी ऐसी ज्योतिर्लता नामक औषधियां रात होने पर सेना के सञ्चालन करने वाले रघु महाराज के लिये तैलादि की अपेक्षा नहीं रखने वाले प्रदीप  की भांति हुई ।। ७५ ॥

तस्योत्सृष्टनिवासेषु कण्ठरज्जुक्षतत्वचः ।

गजवर्ष्म किरातेभ्यः शशंसुर्देवदारवः ॥ ४-७६॥

उन रघु महाराज के छोड़े हुये सेना के पड़ावों पर गले में बांधने के रस्सों से जिनके वल्कल उचढ़ गये हैं ऐसे देवदारु के वृक्षों ने ही किरातों से हाथियों की ऊँचाई को कहा, अर्थात जितनी ऊँचाई पर देवदारु के वल्कल उचड़ गये थे उतनी हाथियों की ऊंचाई किरातों ने समझी ।। ७६ ॥

तत्र जन्यं रघोर्घोरं पर्वतीयैर्गणैरभूत् ।

नाराचक्षेपणीयाश्मनिष्पेषोत्पतितानलम्॥ ४-७७॥

उस हिमालय पर्वत पर रघु का वहां के निवासी उत्सवसंकेताख्य सात म्लेच्छजाति के गणों के साथ केवल नाराच नामक बाण और भिन्दिपाल तथा पत्थर के टुकड़े, इन सबों के परस्पर रगड़ से अग्नि जिसमें उत्पन्न हो गयी थी ऐसा भयंकर युद्ध हुआ ॥७७॥

शरैरुत्सवसंकेतान्स कृत्वा विरतोत्सवान् ।

जयोदाहरणं बाह्वोर्गापयामास किंनरान् ॥ ४-७८॥

उन रघु महाराज ने बाणों से उत्सवसंकत नामक सात पर्वत-निवासी म्लेच्छजाति के गिरोहों को युद्ध में बाणों से पराजित कर उनके उत्सवों को बन्द कर दिया और किन्नरों द्वारा अपने भुजबल का यशोगान कराया ॥ ७८ ॥

परस्परेण विज्ञातस्तेषूपायनपाणिषु ।

राज्ञा हिमवतः सारो राज्ञः सारो हिमाद्रिणा ॥ ४-७९॥

उन पर्वतीय उत्सवसंकेत नामक म्लेच्छजाति के सात गिरोहों के हाथ में उपहार स्वरूप रत्नादिकों को लेकर रघु के शरण में उपस्थित होने पर महाराज रघु और हिमालय ने परस्पर एक दूसरे के सार को जाना अर्थात् उपहार स्वरूप उन बहुमूल्यक रत्नों को देखकर महाराज रघु ने हिमालय के धन रूप सार को और हिमालय ने पर्वतीय उन वीरों को पराजित देखकर रघु के पराक्रम रूप सार को जाना ॥ ७९ ॥

तत्राक्षोभ्यं यशोराशिं निवेश्यावरुरोह सः ।

पौलस्त्यतुलितस्याद्रेरादधान इव ह्रियम् ॥ ४-८०॥

वे रघु महाराज उस हिमालय पर्वत पर अचल यशोराशि को रखकर रावण से हिलावे गये कैलास पर्वत को लज्जित करते हुये की भांति (वहाँ से) उतरे ॥ ८०॥

चकम्पे तीर्णलौहित्ये तस्मिन्प्राग्ज्योतिषेश्वरः ।

तद्गजालानतां प्राप्तैः सह कालागुरुद्रुमैः ॥ ४-८१॥

उन रघु महाराज के लौहित्य नदी के पार करने पर प्राग्ज्योतिष देश का राजा उनके हाथियों के बांधने में स्तम्भ का काम जो दे रहे थे, ऐसे कालागुरु वृक्ष के साथ ही साथ काप गया ॥ ८१॥

न प्रसेहे स रुद्धार्कमधारावर्षदुर्दिनम् ।

रथवर्त्मरजोऽप्यस्य कुत एव पताकिनीम् ॥ ४-८२॥

प्राग्ज्योतिष देश का राजा सूर्य को ढक देने वाली निरन्तर जलवृष्टि के बिना मेघ से घिरे हुये दिन के समान मालूम पड़ने वाली इन रघु महाराज के रथमार्ग की धूलि को भी नहीं सह सका, फिर सेना को कैसे सहता ॥ ८२ ॥

तमीशः कामरूपाणामत्याखण्डलविक्रमम् ।

भेजे भिन्नकटैर्नागैरन्यानुपरुरोध यैः ॥ ४-८३॥

कामरूपदेश के राजा ने पराक्रम में इन्द्र को भी अतिक्रमण करने वाले उन रघु महाराज की जिनके गण्डस्थलों से मद झर रहा था, ऐसे हाथियों से सेवा की, अर्थात् हाथियों को भेट में देकर शरणागत हुआ, कैसे वे हाथी है, कि जिन हाथियों से रघु के अलावे और आक्रमणकारी राजाओं  को दूर कर दिया था, अत: रघु शूर के भी शूर थे॥ ८३ ॥

कामरूपेश्वरस्तस्य हेमपीठाधिदेवताम् ।

रत्नपुष्पोपहारेण छायमानर्च पादयोः ॥ ४-८४॥

कामरूप देश के राजा ने पैर रखने के लिए सोने के बने हुए आसन की अधिदेवता स्वरूप उन रघु महाराज के पैरों की कान्ति की रत्नरूपी फूलों को समर्पण करके पूजा की॥ ८४॥

इति जित्वा दिशो जिष्णुर्न्यवर्तत रथोद्धतम् ।

रजो विश्रामयन्राज्ञां छत्रशून्येषु मौलिषु ॥ ४-८५॥

विजयी राजा रघु इस प्रकार से दिशाओं को विजय करके रथों से उड़ी हुई धूलि को छत्ररहित राजाओं के मुकुटों में जमाते हुए दिग्विजय करने से निवृत्त हुये ॥ ८५॥

स विश्वजितमाजह्रे यज्ञं सर्वस्वदक्षिणम् ।

आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव ॥ ४-८६॥

उन रघु महाराज ने जिसकी दक्षिणा में अपना सारा धन दे दिया जाता है, ऐसा विश्वजित् नाम का यज्ञ किया, क्योंकि यह उचित ही है कि-सज्जनों का लेना मेघों की भांति (जैसे मेघ समुद्र से जल जाता है और बरसा कर किसानों को खुश करता है) उसी प्रकार दूसरे को देने ही के लिये होता है॥ ८६ ॥

सत्रान्ते सचिवसखः पुरस्क्रियाभि - र्गुर्वीभिः शमितपराजयव्यलीकान् ।

काकुत्स्थश्चिरविरहोत्सुकावरोधान् राजन्यान्स्वपुरनिवृत्तयेऽनुमेने ॥ ४-८७॥

काकुत्स्थ के वंश में पैदा हुये रघु महाराज ने विश्वजित् नामक यज्ञ की समाप्ति होने पर मन्त्रियों के मित्र अर्थात् मन्त्रियों के मत का अनुसरण करनेवाले होते हुये, अत्यन्त आदर सत्कार द्वारा जिनके पराजय से उत्पन्न दुःख शान्त हो गये हैं और बहुत दिनों से विछोह होने के कारण जिनको अन्तःपुर की स्त्रियां देखने के लिये उत्कण्ठित हो रही है, ऐसे क्षत्रिय राजाओं को अपने २ नगर की ओर जाने के लिए आज्ञा दी। ८७॥

ते रेखाकुलिशातपत्रचिह्नंसम्राजश्चरणयुगं प्रसादलभ्यम् ।

प्रस्थानप्रणतिभिरङ्गुलीषु चक्रु - र्मौलिस्रक्च्युतमकरन्दरेणुगौरम् ॥ ४-८८॥

विश्वजित् यज्ञ के लिये निमंत्रित राजाओं ने पताका, वज्र और छत्र के चिन्ह रेखारूप से जिनमें मौजूद है और जो कि अनुग्रह से पाने योग्य हैं, ऐसे चक्रवर्त्ती महाराज रघु के चरणों की अँगुलियों  को घर जाने के समय प्रणाम करते समय अपने २ किरीटों में जो मालायें लगा रक्खी थीं, उनसे झरे हुये फूलों के रस तथा परागों से गौर वर्ण कर दिया ॥८८॥

॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदासकृतौ सजीविनीव्याख्यायां रघुदिग्विजयो नाम चतुर्थः सर्गः ॥


रघुवंशम् चतुर्थ सर्ग संक्षिप्त कथासार-

रघु के राज्यशासन प्रणाली से अत्यन्त प्रभावित होकर थोड़े ही दिनों में सारी प्रजायें दिलीप को भी भूल सी गयीं। न्याय से प्रजापालन करते हुए उनके गुणों से आकृष्ट होकर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही रूपान्तर ग्रहण कर उनके पास आ गई। शरदऋतु आने पर महाराज रघु दिग्विजय करने की भावना से शुभ मुहूर्त में होमादिविधि सम्पन्न कर बड़ी तैयारी से सेनाओं को सजाकर पूर्व दिशा की ओर चल पड़े। रास्ते में राजाओं को पराजित करते हुए समुद्र के पास पहुँचकर कलिङ्ग देश की ओर बढ़े। कलिङ्ग वासियों ने रघु को पराजित करने की बहुत कोशिश की किन्तु अन्त में वे लोग हार गये। बाद में रघु समुद्र किनारे के रास्ते से दक्षिण दिशा की ओर जाकर पाण्डयों के साथ लड़े। अन्त में पाण्डयों को जीतकर बीच के अत्यन्त बीहर पर्वतीय रास्तों को पारकर केरल देश की ओर चल पड़े। वहाँ जाकर पारसियों के साथ घमाशान लड़ाई होने लगी। उस लड़ाई में बहुत प्रतिपक्षी मारे गये। बाद में उत्तर दिशा की ओर जाते हुए पहले हुण देश में पहुंचे और हूण देश वासियों को भी लड़कर पराजित कर दिया। कम्बोजदेशवासियों ने तो रघु का नाम सुनते ही भय के मारे घबराकर आत्मसमर्पण कर दिया। बाद में बड़ी सेना के साथ कैलास पर्वत पर चढ़ गये। वहाँ भी पर्वतीयों के साथ युद्ध कर के बहुत से महत्वपूर्ण स्थानों को जीतकर प्राग् ज्योतिषेश्वर की ओर आगे बढ़े। परन्तु उनके तेज को नहीं सहन कर कामरूप की ओर जाकर उनसे सत्कृत होकर दलबल के साथ अयोध्या लौट आये। अयोध्या में महाराज रघु ने सब दिशाओं को जीतने के उपलक्ष्य में धूमधाम के साथ पुष्कळ दक्षिणा देकर विश्वजित् नामक यज्ञ को सम्पन्न किया।

इति कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्यम् चतुर्थ सर्ग समाप्त ॥४॥

शेष कथा जारी........रघुवंशम् पञ्चम सर्ग।

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