राहुपञ्चविंशतिनामस्तोत्रम्
राहुपञ्चविंशतिनामस्तोत्रम् का पाठ करने से जीवन में धोखा नहीं मिलता व राहु ग्रहपीड़ा से मुक्त होकर आरोग्य, पुत्र-पौत्र,धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है।
समुद्र मंथन के समय स्वरभानु नामक
एक असुर ने धोखे से दिव्य अमृत की कुछ बूंदें पी ली थीं। सूर्य और चंद्र ने उसे
पहचान लिया और मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु को बता दिया। इससे पहले कि अमृत उसके
गले से नीचे उतरता, विष्णु जी ने उसका
गला सुदर्शन चक्र से काट कर अलग कर दिया। परंतु तब तक उसका सिर अमर हो चुका था।
यही सिर राहु और धड़ केतु ग्रह बना और सूर्य- चंद्रमा से इसी कारण द्वेष रखता है।
इसी द्वेष के चलते वह सूर्य और चंद्र को ग्रहण करने का प्रयास करता है। ग्रहण करने
के पश्चात सूर्य राहु से और चंद्र केतु से,उसके कटे गले से
निकल आते हैं और मुक्त हो जाते हैं।
राहुपञ्चविंशतिनामस्तोत्रम्
राहुर्दानवमन्त्री च
सिंहिकाचित्तवन्दनः ।
अर्धकायः सदाक्रोधी
चन्द्रादित्यविमर्दनः ॥ १॥
रौद्रो रुद्रप्रियो दैत्यः
स्वर्भानुर्भानुभीतिदः ।
ग्रहराजः सुधापायी
राकातिथ्यभिलाषुकः ॥ २॥
कालदृष्टिः कालरूपः
श्रीकण्ठहृदयाश्रयः ।
विधुन्तुदः सैंहिकेयो घोररूपो
महाबलः ॥ ३॥
ग्रहपीडाकरो दंष्ट्री रक्तनेत्रो
महोदरः ।
पञ्चविंशतिनामानि स्मृत्वा राहुं
सदा नरः ॥ ४॥
यः पठेन्महती पीडा तस्य नश्यति
केवलम् ।
आरोग्यं पुत्रमतुलां श्रियं धान्यं
पशूंस्तथा ॥ ५॥
ददाति राहुस्तस्मै यः पठते
स्तोत्रमुत्तमम् ।
सततं पठते यस्तु जीवेद्वर्षशतं नरः
॥ ६॥
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे
राहुपञ्चविंशतिनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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