नवग्रह स्तोत्र
ग्रहों की बुरी दशा चलने पर ये
जरूरी होता है कि आप इन ग्रहों को शांत रखने के लिए उपाय करें। शास्त्रों में
प्रत्येक ग्रह को शांत करने के कई तरह के उपाय और पूजा बताई गई हैं। हालांकि कई
बार कुंडली में एक से अधिक ग्रह अशांत रहते हैं और ऐसा होने पर आप श्री नवग्रह
स्तोत्र का पाठ करें। श्री नवग्रह स्तोत्र का पाठ करने से नौ ग्रह हमेशा शांत रहते
हैं और इन ग्रहों के प्रकोप से जातक की रक्षा होती है। इसलिए जब भी आपके ग्रह
अशांत हों तो आप श्री नवग्रह स्तोत्र का पाठ कर लें। श्री नवग्रह स्तोत्र में हर
ग्रहों के लिए मंत्र दिया गया है और इसे नवग्रह स्तोत्रम भी कहा जाता है। ये एक
प्रकार की नौ ग्रहों से जुड़ी प्रार्थना है। श्री नवग्रह स्तोत्र का पाठ करने से
ये ग्रह हमारे अनुकूल चलते हैं और जीवन की हर तरह की तकलीफ को दूर कर देते हैं। कोई
भी इंसान इस स्तोत्र का पाठ कर सकता है और ये जरूरी नहीं है कि ग्रहों की खराब दशा
चलने पर ही श्री नवग्रह स्तोत्र का पाठ किया जाए। इस स्तोत्र को रोज पढ़ने से
कुंडली में ग्रह शांत बनें रहते हैं और आपके जीवन में किसी भी तरह की दिक्कते पैदा
नहीं करते हैं। इस स्तोत्र को आप अपने घर में आसानी से बैठकर पढ़ सकते हैं। ये
स्तोत्र बेहद ही सरल है और इसमें नौ मंत्र बताए गए हैं। जो कि हर एक ग्रह से जुड़
हुए हैं। नवग्रह
स्तोत्र का पाठ करने से ग्रह सदा शांत रहते हैं और इनके प्रकोप से आपकी रक्षा होती
है। रोजाना इस स्तोत्र को करने से रोग दूर हो जाते हैं और आपको सेहतमंद शरीर मिलता
है। ग्रह शांत रहने से घर में कलह नहीं होती है और दिमाग शांत रहता है।इससे पूर्व
आपने महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित नवग्रह स्तोत्रम् पढ़ा। अब इसी क्रम में यहाँ वादिराज
द्वारा रचित व एक अन्य नवग्रहस्तोत्रं पढेंगे।
नवग्रह स्तोत्रं वादिराजयतिविरचित
भास्वान्मे भासयेत् तत्त्वं
चन्द्रश्चाह्लादकृद्भवेत् ।
मङ्गलो मङ्गलं दद्यात् बुधश्च
बुधतां दिशेत् ॥ १॥
गुरुर्मे गुरुतां दद्यात् कविश्च
कवितां दिशेत् ।
शनिश्च शं प्रापयतु केतुः केतुं
जयेऽर्पयेत् ॥ २॥
राहुर्मे रहयेद्रोगं ग्रहाः सन्तु
करग्रहाः ।
नवं नवं ममैश्वर्यं दिशन्त्वेते
नवग्रहाः ॥ ३॥
शने दिनमणेः सूनो ह्यनेकगुणसन्मणे ।
अरिष्टं हर मेऽभीष्टं कुरु मा कुरु
सङ्कटम् ॥ ४॥
हरेरनुग्रहार्थाय शत्रुणां निग्रहाय
च ।
वादिराजयतिप्रोक्तं ग्रहस्तोत्रं
सदा पठेत् ॥ ५॥
॥ इति श्रीवादिराजयतिविरचितं
नवग्रह स्तोत्रम् ॥
श्री नवग्रह स्तोत्रम्
ज्योतिर्मण्डलमध्यगं गदहरं
लोकैक-भास्वन्मणिं
मेषोच्चं प्रणतिप्रियं द्विजनुतं
छायपतिं वृष्टिदम् ।
कर्मप्रेरकमभ्रगं शनिरिपुं
प्रत्यक्षदेवं रविं
ब्रह्मेशान-हरिस्वरूपमनग़्हं
सिंहेश-सूर्यं भजे ॥ १॥
चन्द्रं शङ्कर-भूषणं मृगधरं
जैवातृकं रञ्जकं
पद्मासोदरमोषधीशममृतं
श्रीरोहिणीनायकम् ।
शुभ्राश्वं क्षयवृद्धिशीलमुडुपं
सद्बुद्धि-चित्तप्रदं
शर्वाणीप्रियमन्दिरं बुधनुतं तं
कर्कटेशं भजे ॥ २॥
भौमं शक्तिधरं त्रिकोणनिलयं
रक्ताङ्गमङ्गारकम् ।
भूदं मङ्गलवासरं ग्रहवरं
श्रीवैद्यनाथार्चकम् ।
क्रूरं षण्मुखदैवतं मृगगृहोच्चं
रक्तधात्वीश्वरं
नित्यं
वृश्चिकमेषराशिपतिमर्केन्दुप्रियं भावये ॥ ३॥
सौम्यं सिंहरथं बुधं कुजरिपुं
श्रीचन्द्र-तारासुतं
कन्योच्चं मगधोद्भवं सुरनुतं
पीतांबरं राज्यदम् ।
कन्यायुग्म-पतिं कवित्व-फलदं
मुद्गप्रियं बुद्धिदं
वन्दे तं गदिनं च पुस्तककरं विद्याप्रदं सर्वदा
॥ ४॥
देवेन्द्र-प्रमुखार्च्यमान-चरणं
पद्मासने संस्थितं
सूर्यारिं गजवाहनं सुरगुरुं
वाचस्पतिं वज्रिणम् ।
स्वर्णाङ्गं धनुमीनपं कटकगेहोच्चं
तनूजप्रदं
वन्दे दैत्यरिपुं च भौमसुहृदं
ज्ञानस्वरूपं गुरुम् ॥ ५॥
शुभ्राङ्गं नयशास्त्रकर्तृजयिनं
संपत्प्रदं भोगदं
मीनोच्चं गरुडस्थितं वृष-तुलानाथं
कलत्रप्रदम् ।
केन्द्रे मङ्गलकारिणं शुभगुणं
लक्ष्मी-सपर्याप्रियं
दैत्यार्च्यं भृगुनन्दनं कविवरं
शुक्रं भजेऽहं सदा ॥ ६॥
आयुर्दायकमाजिनैषधनुतं भीमं
तुलोच्चं शनिं
छाया-सूर्यसुतं शरासनकरं दीपप्रियं
काश्यपम् ।
मन्दं माष-तिलान्न-भोजनरुचिं
नीलांशुकं वामनं
शैवप्रीति-शनैश्चरं शुभकरं
गृध्राधिरूढं भजे ॥ ७॥
वन्दे रोगहरं करालवदनं शूर्पासने
भासुरं
स्वर्भानुं विषसर्पभीति-शमनं
शूलायुधं भीषणम् ।
सूर्येन्दु-ग्रहणोन्मुखं बलमदं
दत्याधिराजं तमं
राहुं तं भृगुपुत्रशत्रुमनिशं
छायाग्रहं भावये ॥ ८॥
गौरीशप्रियमच्छकाव्यरसिकं
धूम्रध्वजं मोक्षदं
केन्द्रे मङ्गलदं कपोतरथिनं
दारिद्र्य-विध्वंसकम् ।
चित्राङ्गं नर-पीठगं गदहरं दान्तं
कुलुत्थ-प्रियं
केतुं ज्ञानकरं कुलोन्नतिकरं
छायाग्रहं भावये ॥ ९॥
सर्वोपास्य-नवग्रहाः! जडजनो जाने न
युष्मद्गुणान्
शक्तिं वा महिमानमप्यभिमतां पूजां च
दिष्टं मम ।
प्रार्थ्यं किन्नु कियत् कदा बत कथं
किं साधु वाऽसाधु किं
जाने नैव यथोचितं दिशत मे सौख्यं
यथेष्टं सदा ॥ १०॥
नित्यं नवग्रह-स्तुतिमिमां देवालये
वा गृहे
श्रद्धा-भक्ति-समन्वितः पठति चेत्
प्राप्नोति नूनं जनः ।
दीर्घं चायुररोगतां शुभमतिं कीर्तिं
च संपच्चयं
सत्सन्तानमभीष्ट-सौख्यनिवहं
सर्व-ग्रहानुग्रहात् ॥ ११॥
॥ इति श्री नवग्रह स्तोत्रं संपूर्णम्॥
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