केतुपञ्चविंशतिनामस्तोत्रम्
केतुपञ्चविंशतिनामस्तोत्रम् - हिन्दू
ज्योतिष में केतु अच्छी व बुरी आध्यात्मिकता एवं पराप्राकृतिक प्रभावों का कार्मिक
संग्रह का द्योतक है। केतु विष्णु के मत्स्य अवतार से संबंधित है। केतु भावना
भौतिकीकरण के शोधन के आध्यात्मिक प्रक्रिया का प्रतीक है और हानिकर और लाभदायक,
दोनों ही ओर माना जाता है, क्योंकि ये जहां एक
ओर दुःख एवं हानि देता है, वहीं दूसरी ओर एक व्यक्ति को
देवता तक बना सकता है। यह व्यक्ति को आध्यात्मिकता की ओर मोड़ने के लिये भौतिक
हानि तक करा सकता है। यह ग्रह तर्क, बुद्धि, ज्ञान, वैराग्य, कल्पना,
अंतर्दृष्टि, मर्मज्ञता, विक्षोभ और अन्य मानसिक गुणों का कारक है। माना जाता है कि केतु भक्त के
परिवार को समृद्धि दिलाता है, सर्पदंश या अन्य रोगों के
प्रभाव से हुए विष के प्रभाव से मुक्ति दिलाता है। ये अपने भक्तों को अच्छा स्वास्थ्य,
धन-संपदा व पशु-संपदा दिलाता है। मनुष्य के शरीर में केतु अग्नि
तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। ज्योतिष गणनाओं के लिए केतु को कुछ ज्योतिषी तटस्थ
अथवा नपुंसक ग्रह मानते हैं जबकि कुछ अन्य इसे नर ग्रह मानते हैं। केतु स्वभाव से
मंगल की भांति ही एक क्रूर ग्रह हैं तथा मंगल के प्रतिनिधित्व में आने वाले कई
क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व केतु भी करता है। यह ग्रह तीन नक्षत्रों का स्वामी है:
अश्विनी, मघा एवं मूल नक्षत्र। यही केतु जन्म कुण्डली में
राहु के साथ मिलकर कालसर्प योग की स्थिति बनाता है। ऊपर वर्णित केतू से सम्बंधित
लाभ पाने के लिए केतुपञ्चविंशतिनामस्तोत्रम् का पाठ करें।
केतुपञ्चविंशतिनामस्तोत्रम्
केतुः कालः कलयिता
धूम्रकेतुर्विवर्णकः ।
लोककेतुर्महाकेतुः
सर्वकेतुर्भयप्रदः ॥ १॥
रौद्रो रुद्रप्रियो रुद्रः
क्रूरकर्मा सुगन्धधृक् ।
पलाशधूमसंकाशश्चित्रयज्ञोपवीतधृक् ॥
२॥
तारागणविमर्दी च जैमिनेयो ग्रहाधिपः
।
गणेशदेवो विघ्नेशो विषरोगार्तिनाशनः
॥ ३॥
प्रव्रज्यादो ज्ञानदश्च तीर्थयात्राप्रवर्तकः ।
पञ्चविंशतिनामानि केतोर्यः सततं
पठेत् ॥ ४॥
तस्य नश्यति बाधा च
सर्वकेतुप्रसादतः ।
धनधान्यपशूनां च भवेद् वृद्धिर्न
संशयः ॥ ५॥
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे केतोः
पञ्चविंशतिनामस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
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