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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
लक्ष्मी माता
'लक्ष्मी' शब्द
सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है, पर वस्तुतः वह चेतना का
एक गुण है, जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी
बनाया जा सकता है। लक्ष्मी माता हिन्दू
धर्म की एक प्रमुख देवी हैं। वह भगवान विष्णु की पत्नी हैं। पार्वती और सरस्वती के
साथ, वह त्रिदेवियाँ में से एक है और धन, सम्पदा, शान्ति और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं।
जिस पर यह अनुग्रह करती है, वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं
पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता। माता महालक्ष्मी के अनेक रूप है जिस में से उनके आठ
स्वरूप जिन को अष्टलक्ष्मी कहते है। लक्ष्मी का अभिषेक दो हाथी करते हैं। वह कमल
के आसन पर विराजमान है। कमल कोमलता का प्रतीक है। लक्ष्मी के एक मुख, चार हाथ हैं। वे एक लक्ष्य और चार प्रकृतियों (दूरदर्शिता, दृढ़ संकल्प, श्रमशीलता एवं व्यवस्था शक्ति) के
प्रतीक हैं। दो हाथों में कमल-सौन्दर्य और प्रामाणिकता के प्रतीक है। दान मुद्रा
से उदारता तथा आशीर्वाद मुद्रा से अभय अनुग्रह का बोध होता है। लक्ष्मी का एक वाहन
उलूक माना गया है। उलूक, निर्भीकता एवं रात्रि में अँधेरे
में भी देखने की क्षमता का प्रतीक है। उलूक अथार्त् मूखर्ता। धन का अधिक मात्रा
में संग्रह होने मात्र से किसी को सौभाग्यशाली नहीं कहा जा सकता। सद्बुद्धि के
अभाव में वह नशे का काम करती है, जो मनुष्य को अहंकारी,
उद्धत, विलासी और दुर्व्यसनी बना देता है।
सामान्यतः धन पाकर लोग कृपण, विलासी, अपव्ययी
और अहंकारी हो जाते हैं। कुसंस्कारी व्यक्तियों को अनावश्यक सम्पत्ति मूर्ख ही
बनाती है। उनसे दुरुपयोग ही बन पड़ता है और उसके फल स्वरूप वह आहत ही होता है।
लक्ष्मी का जल-अभिषेक करने वाले दो गजराजों को परिश्रम और मनोयोग कहते हैं। उनका
लक्ष्मी के साथ अविच्छिन्न संबंध है। यह युग्म जहाँ भी रहेगा, वहाँ वैभव की, श्रेय-सहयोग की कमी रहेगी ही नहीं।
प्रतिभा के धनी पर सम्पन्नता और सफलता की वर्षा होती है और उन्हें उत्कर्ष के अवसर
पग-पग पर उपलब्ध होते हैं।
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