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कर्मकाण्ड

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एकाक्षर उपनिषद्

एकाक्षर उपनिषद्

एकाक्षर उपनिषद् यजुर्वेद से संबंधित है। इन्हें एकाक्षर, एकाक्षर उपनिषद, एकाक्षर उपनिषद्, एकाक्षरोपनिषद्, एकाक्षरोपनिषत् भी कहा जाता है जिसमे बताया गया है कि- जड़, चेतन, दृश्य, अदृश्य सम्पूर्ण प्रकृति में केवल एक ही पुराण पुरुषोत्तम आदिपुरुष है। भ्रम बुद्धि के कारण ही हमें वह अलग-अलग भाषता है।

एकाक्षर उपनिषद्

॥ एकाक्षर उपनिषद् ॥

॥ शांतिपाठ ॥

एकाक्षरपदारूढं सर्वात्मकमखण्डितम् ।

सर्ववर्जितचिन्मात्रं त्रिपान्नारायणं भजे ॥

ॐ सह नाववतु ।

सह नौ भुनक्तु ।

सह वीर्यं करवावहै ।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

इनका भावार्थ गर्भउपनिषद् में दिया गया है ।


॥ अथ एकाक्षरोपनिषत् ॥

एकाक्षर उपनिषद्

एकाक्षरं त्वक्षरेऽत्रास्ति सोमे सुषुम्नायां चेह दृढी स एकः ।

त्वं विश्वभूर्भूतपतिः पुराणः पर्जन्य एको भुवनस्य गोप्ता ॥ १॥

हे भगवन! आप अक्षर, सोम, परब्रह्म के रूप में तथा सुषम्ना में अपनी सत्ता सहित प्रतिष्ठित एक ही अविनाशी तत्त्व एकाक्षर में स्थित रहते हैं। आप ही विश्व के कारणरूप, प्राणिमात्र के स्वामी, पुराण पुरुष एवं सभी रूपों में विद्यमान हैं। (आप ही) पर्जन्य के द्वारा सभी लोकों की रक्षा करने वाले हैं ॥ १ ॥

विश्वे निमग्नपदवीः कवीनां त्वं जातवेदो भुवनस्य नाथः ।

अजातमग्रे स हिरण्यरेता यज्ञैस्त्वमेवैकविभुः पुराणः ॥ २॥

आप ही समस्त विश्व-वसुधा के कण-कण में जीवनी शक्ति के रूप में विद्यमान हैं। आप कवियों के आश्रयभूत हैं, समस्त लोकों की रक्षा करने वाले हैं। आप ही हिरण्यरेती (अग्नि) रूप और यज्ञ रूप भी हैं। आप ही एक मात्र विराट् एवं पूर्ण पुरुष हैं ॥ २ ॥

प्राणः प्रसूतिर्भुवनस्य योनिर्व्याप्तं त्वया एकपदेन विश्वम् ।

त्वं विश्वभूर्योनिपारः स्वगर्भे कुमार एको विशिखः सुधन्वा ॥ ३॥

जिस प्रकार माला के प्रत्येक दाने में सूत्र रहता है, उसी प्रकार आप ही प्रमुख रूप से समस्त विश्व में प्राण रूप में संव्याप्त एवं उसके उत्पत्ति के कारण स्वरूप हैं। आपने ही समस्त विश्व को एक पग से माप लिया है, अतः आप ही इस विश्व संरचना के उत्पत्ति स्थल भी हैं। आप ही प्राण रूप में सर्वत्र व्याप्त संसार के रक्षक रूप तथा श्रेष्ठ धनुष को धारण करने वाले कुमार स्वरूप हैं ॥ ३ ॥

वितत्य बाणं तरुणार्कवर्णं व्योमान्तरे भासि हिरण्यगर्भः ।

भासा त्वया व्योम्नि कृतः सुताय॑स्तवं वै कुमारस्त्वमरिष्टनेमिः ॥ ४॥

हे परमात्मन्! आप ही मध्याह्नकालीन सूर्य के तेज की भाँति बाण को अपनी ओर आकृष्ट करके, माया द्वारा रचित इन समस्त प्राणियों के हृदयरूप आकाश में प्रकाशमान हिरण्यगर्भ रूप हैं। आपके ही दिव्य प्रकाश से भगवान् भास्कर आकाश में प्रकाशित होते हैं। आप ही देवताओं के सेनापति कार्तिकेय के रूप में प्रतिष्ठित हैं और गरुड़ की तरह सभी अरिष्टों (विघ्नों) का भलीभाँति नियमन करने वाले हैं ॥४॥

त्वं वज्रभृद्भूतपतिस्त्वमेव। कामः प्रजानां निहितोऽसि सोमे ।

स्वाहा स्वधा यच्च वषट् करोति रुद्रः पशूनां गुहया निमग्नः ॥ ५॥

आप ही वज्र को धारण करने वाले इन्द्र के रूप में तथा रुद्र रूप में समस्त प्रजाओं के स्वामी हैं। आप ही अभीष्ट फलदायी पितरों के रूप में चन्द्रलोक में स्थित हैं तथा देवों एवं पितरों की तृप्ति हेतु सम्पन्न होने वाले यज्ञ और श्राद्ध अर्थात् स्वाहा, स्वधा एवं वषट्कार रूप हैं। आप ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हैं ॥५॥

धाता विधाता पवनः सुपर्णो विष्णुर्वराहो रजनी रहश्च ।

भूतं भविष्यत्प्रभवः क्रियाश्च। कालः क्रमस्त्वं परमाक्षरं च ॥६॥

आप ही धाता तथा विधाता, पवन, गरुड़, विष्णु, वाराह, रात एवं दिन हैं। आप ही भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान भी हैं। सभी क्रियाएँ, कालगति और परमाक्षर रूप में आप ही विद्यमान हैं ॥ ६ ॥

ऋचो यजूंशि प्रसवन्ति वक्त्रात्सामानि सम्राड्वसुवन्तरिक्षम् ।

त्वं यज्ञनेता हुतभुग्विभुश्च रुद्रास्तथ दैत्यगणा वसुश्च ॥ ७॥

जिसके मुख से ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद आदि उत्पन्न होते हैं, वे आप ही हैं। आप ही सम्राट, वसु, अन्तरिक्ष, यज्ञीय प्रक्रिया सम्पन्न करने वाले, यज्ञीय भाग ग्रहण करने वाले एवं सर्वशक्तिमान हैं। आप ही एकादश रुद्र, दैत्यरूप एवं सर्वत्र व्याप्त होने वाले हैं ॥ ७ ॥

स एष देवोऽम्बरगश्च चक्रे अन्येऽभ्यधिष्ठेत तमो निरुन्ध्यः ।

हिरण्मयं यस्य विभाति सर्वं व्योमान्तरे रश्मिमिवांशुनाभिः ॥ ८॥

विभिन्न रूपों वाले आप ही सूर्य मण्डल में विद्यमान तथा अन्यत्र अज्ञानान्धकार को विनष्ट करते हुए प्रतिष्ठित हैं। जिस विराट् स्वरूप के हृदयरूपी आकाश में ब्रह्माण्ड गर्भिणी 'सुनाभि' स्थित है, वह भी आप ही हैं। सूर्यादि में जो प्रकाशमान रश्मियाँ हैं, वे आपकी ही प्रकाश किरणें हैं ॥ ८ ॥

स सर्ववेत्ता भुवनस्य गोप्ता ताभिः प्रजानां निहिता जनानाम् ।

प्रोता त्वमोता विचितिः क्रमाणां प्रजापतिश्छन्दमयो विगर्भः ॥ ९॥

वही सब कुछ जानने वाला, समस्त भुवनों का रक्षक एवं समस्त प्राणि-समुदाय का आधार स्वरूप नाभि है। अन्तर्यामी रूप में आप ही सर्वत्र ओत-प्रोत हैं। आप ही विविध प्रकार की गतियों के विश्रान्ति रूप हैं। आप की विष्णु के गर्भ में प्रजापति के रूप में स्थित हैं एवं वेद भी आप ही हैं ॥ ९ ॥

सामैश्चिदन्तो विरजश्च बाहूं हिरण्मयं वेदविदां वरिष्ठम् ।

यमध्वरे ब्रह्मविदः स्तुवन्ति सामैर्यजुर्भिः क्रतुभिस्त्वमेव ॥ १०॥

वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ज्ञानीजन रजोगुण से परे, स्वर्ण कान्ति वाले के अन्त को साम आदि वेदों से भी नहीं जान पाते। ब्रह्मवेत्ताजन यज्ञों में यजुर्वेद के मन्त्रों से तथा सामवेदी जन साम मन्त्रों से जिसकी स्तुति करते हैं, वे आप ही हैं ॥ १० ॥

त्वं स्त्री पुमांस्त्वं च कुमार एकस्त्वं वै कुमारी ह्यथ भूस्त्वमेव ।

त्वमेव धाता वरुणश्च राजा त्वं वत्सरोऽग्न्यर्यम एव सर्वम् ॥ ११॥

आप अकेले ही स्त्री, पुरुष, कुमार एवं कुमारी हैं । आप ही पृथिवी हैं। आप ही धाता, वरुण, सम्राट्, संवत्सर, अग्नि और अर्यमा हैं। आप ही सब कुछ हैं ॥ ११ ॥

मित्रः सुपर्णश्चन्द्र इन्द्रो रुद्रस्त्वष्टा विष्णुः सविता गोपतिस्त्वम् ।

त्वं विष्णुभूतानि तु त्रासि दैत्यांस्त्वयावृतं जगदुद्भवगर्भः ॥ १२॥

सूर्य, गरुड़, चन्द्र, वरुण, रुद्र, प्रजापति, विष्णु सविता, गोपति जो कि वागादि इन्द्रियों के स्वामी कहे जाते हैं, वे आप ही हैं। आप ही विष्णु बन कर समस्त मानव जाति को दैत्यों के भय से त्राण दिलाने वाले हैं। आप ही जगत् के जनक भूगर्भरूप हैं। आपके द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आवृत है ॥ १२ ॥

त्वं भूर्भुवः स्वस्त्वं हि स्वयंभूरथ विश्वतोमुखः ।

य एवं नित्यं वेदयते गुहाशयं प्रभुं पुराणं सर्वभूतं हिरण्मयम् ॥ १३॥

हिरण्मयं बुद्धिमतां परां गतिं स बुद्धिमान्बुद्धिमतीत्य तिष्ठतीत्युपनिषत् ॥

आप ही स्वयम्भू एवं विश्वतोमुख हैं। आप ही भू:, भुवः, स्व: आदि में प्रतिष्ठित हैं। जो भी मनुष्य अपने गुहारूप हृदय क्षेत्र में स्थित पुराण पुरुषोत्तम आदिपुरुष को 'प्राणस्वरूप' एवं 'प्रकाश स्वरूप' जानता है। वह ब्रह्मज्ञानियों की परमगति को, अज्ञानग्रस्त भ्रम बुद्धि का अतिक्रमण करके प्राप्त कर लेता है। यही उपनिषद् है॥ १३ ॥

एकाक्षर उपनिषद

शान्तिपाठ

ॐ सह नाववत ।

सह नौ भनक्त ।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

इनका भावार्थ स्कन्दउपनिषद् में दिया गया है ।

॥ इति एकाक्षरोपनिषत् ॥

॥ एकाक्षर उपनिषद समाप्त ॥

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