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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्राद्ध व तर्पण
मनुष्य
द्वारा श्रद्धा पूर्वक किया कर्म श्राद्ध कहलाता है व श्राद्ध के लिए किया कर्म (जलांजलि
आदि) तर्पण कहलाता है । माता-पिता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्
उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।
भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते
हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की प्रसन्नता के लिए श्राद्ध करते हैं। इन पंद्रह
दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) का श्राद्ध, तर्पण,
मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते
हैं।
श्रद्धया इदं श्राद्धम् जो श्रद्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।
भावार्थ -
प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए
श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।
जिसका
जन्म हुआ है,
उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी
मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। मृत्यु के बाद
दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर
छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है। पितृपक्ष में ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ
पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे
वह पितृप्राण अपना-अपना भाग लेकर वापस चले जाते हैं।
श्राद्ध की परिभाषा
ब्रह्म
पुराण अनुसार- जो कुछ उचित काल,
पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा
पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।
मिताक्षरा के अनुसार- पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए)
श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उससे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।
कल्पतरु के अनुसार -पितरों का उद्देश्य करके (उनके लाभ के लिए)
यज्ञिय वस्तु का त्याग एवं ब्राह्मणों के द्वारा उसका ग्रहण प्रधान श्राद्धस्वरूप
है।
याज्ञवल्क्यस्मृति के कथन अनुसार कथन है कि पितर लोग, यथा–वसु, रुद्र एवं आदित्य,
जो कि श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से
संतुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को संतुष्टि देते हैं।
श्राद्ध के प्रकार-
मत्स्य
पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है। त्रिविधं
श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार
के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।
यमस्मृति
में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक,
काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध
है।
नित्य
श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध
में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस
श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।
नैमित्तिक
श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे
नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है।
एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की
मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के
अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।
काम्य
श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य
श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
वृद्धि
श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु
प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की
प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे
नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह
एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया
जाता है।
पार्वण
श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या
या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह
श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।
सपिण्डनश्राद्ध-
सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही
सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही
सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।
गोष्ठी
श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह
में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
शुद्धयर्थश्राद्ध-
शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे
शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।
कर्मागश्राद्ध-
कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात्
किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे
कर्मागश्राद्ध कहते हैं।
यात्रार्थश्राद्ध-
यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे-
तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को
सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।
पुष्ट्यर्थश्राद्ध-
पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति
के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।
तर्पण विधि
तर्पण
को छः भागों में विभक्त किया गया है-
देव-तर्पण, ऋषि-तर्पण,दिव्य-मानव-तर्पण,दिव्य-पितृ-तर्पण,यम-तर्पण,मनुष्य-पितृ-तर्पण
(देवर्षिमनुप्यपितृतर्पणविधि:)
प्रातःकाल संध्योपासना करने के
पश्चात् बायें
और दायें
हाथ की
अनामिका अङ्गुलि में ‘पवित्रे स्थो
वैष्णव्यौ०’ इस
मन्त्र को
पढते हुए
पवित्री (पैंती)
धारण करें
। फिर
हाथ में
त्रिकुश, यव,
अक्षत और
जल लेकर
निम्नाङ्कित रूप से
संकल्प पढें---
ॐ विष्णवे नम: ३। हरि: ॐ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टार्विशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्न: अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्त:) अहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये ।
तदनन्तर एक
ताँवे अथवा
चाँदी के
पात्र में
श्वेत चन्दन,
चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस
पात्र के
ऊपर एक
हाथ या
प्रादेशमात्र लम्बे तीन
कुश रखें,
जिनका अग्रभाग पूर्व की ओर
रहे ।
इसके बाद
उस पात्र
में तर्पण
के लिये
जल भर
दें ।
फिर उसमें
रखे हुए
तीनों कुशों
को तुलसी
सहित सम्पुटाकार दायें हाथ में
लेकर बायें
हाथ से
उसे ढँक
लें और
निम्नाङ्कित मन्त्र पढते
हुए देवताओं का आवाहन करें
।
ॐ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता म ऽइम,
हवम् ।
एदं वर्हिनिषीदत ॥ (शु० यजु०
७।३४)
विश्वेदेवा: श्रृणुतेम,
हवं मे
ये ऽअन्तरिक्षे य ऽउप द्यवि
ष्ठ ।
येऽअग्निजिह्वाऽउत वा यजत्राऽआसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयद्ध्वम्
॥ (शु०
यजु० ३३।५३)
आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबला: ।
ये तर्पणेऽत्र विहिता: सावधाना भवन्तु ते ॥
ॐ ब्रह्मा तृप्यताम् । ॐ विष्णुस्तृप्यताम् । ॐ रुद्रस्तृप्यताम् । ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् । ॐ देवास्तृप्यन्ताम् । ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् । ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् । ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम् । ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् । ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ संवत्सर: सावयवस्तृप्यताम् । ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् । ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम् ।ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् । ॐ नागास्तृप्यन्ताम् । ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् । ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् । ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् । ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् । ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् ।ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् । ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् । ॐ भूतानि तृप्यन्ताम् । ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् । ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् । ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम् । ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् ।
ऋषितर्पण
इसी प्रकार
निम्नाङ्कित मन्त्रवाक्यों से मरीचि
आदि ऋषियों
को भी
एक -एक अञ्जलि
जल दें---
ॐ मरीचिस्तृप्यताम् । ॐ अत्रिस्तृप्यताम् । ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम् । ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् । ॐ पुलहस्तृप्यताम् । ॐ क्रतुस्तृप्यताम् । ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् । ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् । ॐ भृगुस्तृप्यताम् । ॐ नारदस्तृप्यताम् ॥
इसके बाद जनेऊ को माला की भाँति गले में धारण कर अर्थात् निवीती हो पूर्वोक्त कुशों को दायें हाथ की कनिष्ठिका के मूल-भाग में उत्तराग्र रखकर स्वयं उत्तराभिमुख हो निम्नाङ्कित मन्त्र-वचतों को दो-दो बार पढते
हुए दिव्य
मनुष्यों के लिये
प्रत्येक को दो-दो अञ्जलि
यवसहित जल
प्राजापत्यतीर्थ कनिष्ठिका के मूला-भाग से
अर्पण करें---
ॐ सनकस्तृप्यताम् ॥२॥ ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् ॥२॥ ॐ सनातनस्तृप्यताम् ॥२॥ ॐ कपिलस्तृप्यताम् ॥२॥ ॐ आसुरिस्तृप्यताम् ॥२॥ ॐ वोहुस्तृप्यताम् ॥२॥ ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् ॥२॥
दिव्यपितृतर्पण
तत्पश्चात उन कुशों को द्विगुण भुग्न करके उनका मूल और अग्रभाग दक्षिण की ओर किये हुए ही उन्हें अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे और स्वयं दक्षिणाभिमुख हो बायें घुटने को पृथ्वी पर रखकर अपलव्यभाव से जनेऊ को दायें कंधेपर रखकर पूर्वोक्त पात्रस्थ जल में काला तिल मिलाकर पितृतीर्थ से अंगुठा और तर्जनी के मध्यभाग से दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्किन मन्त्र-वाक्यों को पढते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें---
ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यत. कव्यवाडनलस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
ॐ सोमस्तृप्यताम् इदं
सतिलं जलं
गङ्गाजलं वा) तस्मै
स्वधा नम:
॥३॥
ॐ यमस्तृप्यताम् इदं
सतिलं जलं
गङ्गाजलं वा) तस्मै
स्वधा नम:
॥३॥
ॐ अर्यमा
तृप्यताम् इदं सतिलं
जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा
नम: ॥३॥
ॐ अग्निष्वात्ता:
पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं
जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य़: स्वधा
नम: ॥३॥
ॐ सोमपा:
पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं
जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य़: स्वधा
नम: ॥३॥
ॐ बर्हिषद: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य़: स्वधा नम: ॥३॥
यमतर्पण
इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्र-वाक्यों को पढते हुए चौदह यमों के लिये भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल सहित जल दें---
ॐ यमाय नम: ॥३॥ ॐ धर्मराजाय नम: ॥३॥ ॐ मृत्यवे नम: ॥३॥ ॐ अन्तकाय नम: ॥३॥ॐ वैवस्वताय नमः ॥३॥ ॐ कालाय नम: ॥३॥ ॐ सर्वभूतक्षयाय नम: ॥३॥ ॐ औदुम्बराय नम: ॥३॥ॐ दध्नाय नम: ॥३॥ ॐ नीलाय नम: ॥३॥ ॐ परमेष्ठिने नम: ॥३॥ ॐ वृकोदराय नम: ॥३॥ॐ चित्राय नम: ॥३॥ ॐ चित्रगुप्ताय नम: ॥३॥
मनुष्यपितृतर्पण
इसके पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्र से
पितरों का
आवाहन करें---
ॐ उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्त: समिधीमहि ।
उशन्नुशत ऽआवह पितृन्हाविषे ऽअत्तवे ॥ (शु०
यजु० १६।७०)
ॐ आयन्तु
न: पितर:
सोम्यासोऽग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवयानै: ।
अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिव्रुवन्तु तेऽवन्तस्मान् ॥
(शु० यजु०
१६।५८)
तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें---
ॐ अस्मत्पिता (बाप) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यतांम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
ॐ अस्मत्पितामह:
(दादा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं
जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा
नम: ॥३॥
ॐ अस्मत्प्रपितामह: (परदादा)
अमुकशर्मा अमुकसगोत्र आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं
जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा
नम: ॥३॥
ॐ अस्मन्माता(माता)
अमुकी देवी
दा अमुकसगोत्रा वसुरूषा तृप्यताम् इदं सतिलं
जलं तस्यै
स्वधा नम:
॥३॥
ॐअस्मत्पितामही (दादी)
अमुकी देवी
दा अमुकसगोत्रा रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं
जलं तस्यै
स्वधा नम:
॥३॥
ॐ अस्मत्प्रपितामही (परदादी) अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: ॥३॥
ॐ अस्मत्सापत्नमाता (सौतेली
माता) अमुकी
देवी दा
अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं
तस्यै स्वधा
नम: ॥२॥
इसके बाद
निम्नाङ्कित नौ मन्त्रों को पढते हुए
पितृतीर्थ से जल
गिराता रहे---
ॐ उदीरतामवर ऽउत्परास ऽउन्मध्यमा: पितर:
सोम्यास: ।
असुं य
ऽईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु
॥ ( शु०
य० १६।४६)
ॐ अङ्गिरसो न: पितरो नवग्वा
ऽअथर्वाणो भृगव: सोम्यास:
।
तेषां वय,
सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम
। (शु०
य० १६।७०)
ॐ आयन्तु
न: पितर:
सोम्यासोऽग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवयानै: ।
अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥
(शु० य०
१६।५८)
ॐ ऊर्ज्जं वहन्तीरमृतं घृतं पय:
कीलालं परिस्त्रुतम् ।
स्वधास्थ तर्पयत मे
पितृन् ॥
(शु० य०।३४)
ॐ पितृभ्य:
स्वधायिभ्य: स्वधा
नम: पितामहेभ्य:
स्वधायिभ्य:
स्वधा नम:
प्रपितामहेभ्य: स्वधायिभ्यं:
स्वधा नम:
।
अक्षन्पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृएन्त पितर:
पितर: शुन्धध्वम् ॥ (शु० य० १६।३६)
ॐ ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ २ ऽउ च न प्रविद्म ।त्वं वेत्थ यति ते जातवेद : स्वधाभिर्यज्ञ ँ सुकृतं जुषस्व ॥ (शु० य० १६।६७)
ॐ मधुव्वाताऽऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ॥ (शु० य० १३।२७)
ॐ मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव ँ रजः। मधुद्यौरस्तु नः पिता ॥(शु० य० १३।२८)
ॐ मधुमान्नो व्वनस्पतिर्म्मधुमाँऽ2 अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः।। (शु० य० १३।२६)
ॐ मधु । मधु । मधु । तृप्यध्वम्
। तृप्यध्वम् । तृप्यध्वम् ।
फिर सूत्ररुप वस्त्र अर्णप करते हुए नीचे लिखे मंत्र का पाठ करे–
ॐ नमो व: पितरो रसाय नमो व: पितर: शोषाय नमो व: पितरो जीवाय नमो व: पितर: स्वधायै नमो व: पितरो घोराय नमो व: पितरो मन्यवे नमो वर: पितर: पितरो नमो वो गृहान्न:पितरो दत्त सतो व: पितरो देष्मैतद्व: पितरो वास ऽआधत्त ॥ (शु० य० २।३२)
द्वितीय गोत्र तर्पण
इसके बाद द्वितीय गोत्र मातामह आदि का तर्पण करे, यहाँ भी पहले की ही भाँति निम्नलिखित वाक्यो को तीन-तीन बार पढकर तिलसहित जल की तीन-तीन अञ्जुलियाँ पितृतीर्थ
से दे । यथा—
ॐ अस्मन्मातामह: (नाना) अमुकशर्मा अमुकगोत्रा वसुरूप तृप्यताम् इदं सतिलं
जलं (गङ्गाजलं वा) तस्यै स्वधा
नम: ॥३॥
ॐ अस्मत्प्रमातामह: (परनाना) अमुकशर्मा अमुकगोत्रा रुद्ररूप तृप्यताम् इदं सतिलं
जलं (गङ्गाजलं वा) तस्यै स्वधा
नम: ॥३॥ ॐ
अस्मत्वृद्धप्रमातामह: (वृद्धपरनाना) अमुकशर्मा अमुकगोत्रा आदित्यरूप तृप्यताम् इदं सतिलं
जलं (गङ्गाजलं वा) तस्यै स्वधा
नम: ॥३॥
ॐ अस्मन्मातामही(नानी)
अमुकी देवी
दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं
जलं तस्यै
स्वधा नम:
॥३॥
ॐ अस्मत्प्रमातापितामही (परनानी)
अमुकी देवी
दा अमुकसगोत्रा रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं
जलं तस्यै
स्वधा नम:
॥३॥
ॐ अस्मत्वृद्धप्रमातामही (वृद्ध परनानी) अमुकी देवी दा
अमुकसगोत्रा आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम:
॥३॥
पत्न्यादि तर्पण
अस्मत्पत्नी भार्या अमकुी देवी दा अमकु सगोत्र वसुरुपा तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम:॥१॥
अस्मत्सुत बेटा अमकु शर्मा अमकु सगोत्र वसुरुप तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्कन्या बेटी अमकुी देवी दा अमकु सगोत्र वसुरुपा तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम:॥१॥
अस्मपितृव्य: पिता के भाई अमकु शर्मा अमकु सगोत्र वसुरुप
तृप्यताम् इदं सतिलं जल
तस्यै स्वधा
नम: ॥३॥
अस्मत्मातलु : मामा अमकु शर्मा अमकु सगोत्र वसुरुप तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्भ्राता अपना भाई अमकु शर्मा अमकु सगोत्र वसुरुप तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्सापत्नभ्राता सौतेला भाई अमकु शर्मा अमकु सगोत्र वसुरुप तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्पितृभगिनी बुआ अमकुी देवी दा अमकु सगोत्र वसुरुपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम:॥१॥ अस्मत्मातृभगिनी मौसी अमकुी देवी दा अमकु सगोत्र वसुरुपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम:॥१॥अस्मदात्मभगिनी अपनी बहन अमकुी देवी दा अमकु सगोत्र वसुरुपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम:॥१॥ अस्मत्सापत्नभगिनी सौताली बहन अमकुी देवी दा अमकु सगोत्र वसुरुपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम:॥१॥
अस्मत्च्छवशुर: श्वशुर अमकु शर्मा अमकु सगोत्र वसुरुप तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्गुरु: अमकु शर्मा अमकु सगोत्र वसुरुप तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम: ॥३॥
अस्मदाचार्यपत्नी अमकुी देवी दा अमकु सगोत्र वसुरुपा तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम: ॥२॥
अस्मच्छिय: अमकु शर्मा अमकु सगोत्र वसुरुप तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्सखा अमकु शर्मा अमकु सगोत्र वसुरुप तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम: ॥३॥
अस्मदाप्तपुरुष: अमकु शर्मा अमकु सगोत्र वसुरुप तृप्यताम् इदं सतिलं
जल तस्यै
स्वधा नम: ॥३॥
इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढ़ते हुए तिलमिश्रित
जल गिरावे—
देवासुरास्तथा यक्षा नागा गर्धव राक्षसा: ।
पिशाचा गुह्यका: सिद्धा: कूष्माण्डास्तरव:
खगा: ॥
जलेचरा भूनिलया वाय्वाधाराश्च जन्तव: ।
तृप्तिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला: ॥
नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिता: ।
तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥
येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा: ।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु ये चास्मत्तोयकाङ्क्षिण: ॥
ॐ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवा: ।
तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय: ॥
अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीप निवासिनाम्।
आब्रह्म भुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम्॥
वस्त्र-निष्पीडन
तत्पश्चात् वस्त्र को चार आवृत्ति लपेटकर जल में डुबावे और बाहर ले आकर निम्नांकित
मंत्र को पढ़ते हुए अपसव्य-होकर अपने बाएँ भाग मे भूमि पर उस वस्त्र को निचोड़े । पवित्रक को तर्पण किये
हुए जल मे छोड़ दे । यदि घर मे किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध आदि कर्म हो तो वस्त्र-निष्पीडन नहीं करना चाहिये ।
ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृताः ।
ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम् ॥
भीष्मतर्पण
इसके बाद दक्षिणाभिमुख हो पितृतर्पण के समान ही जनेऊ अपसव्य करके हाथ में कुश धारण
किये हुए ही बालब्रह्मचारी भक्तप्रवर भीष्म के लिये पितृतीर्थ से तिलमिश्रित जल के
द्वारा तर्पण करे । उनके लिये तर्पण का मंत्र निम्न है—
वैयाघ्रपदगोत्राय साङ्कृतिप्रवराय च ।
गङ्गापु त्राय भीष्माय प्रदास्येऽहं तिलोदकम् ।
अपुत्राय ददाम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे ॥
अर्ध्यदान
फिर शुद्ध जल से आचमन करके प्राणायाम करे । तदनन्तर यज्ञोपवीत सव्य कर बाएँ कंधे
पर करके एक पात्र में शुद्ध जल भरकर उसके मध्यभाग में अनामिका से षड्दल कमल बनावे और
उसमे श्वेत चन्दन, अक्षत, पुष्प तथा तुलसीदल
छोड़ दे । फिर दूसरे पात्र में चन्दन से षड्दल-कमल बनाकर उसमें
पूर्वादि दिशा के क्रम से ब्रह्मादि देवताओं का आवाहन-पूजन करे
तथा पहले पात्र के जल से उन पूजित देवताओं के लिये अर्ध्य अर्पण करे । अर्ध्य दान के मंत्र निम्न है —
ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमत: सुरुचो वेनऽआव: ।
स बुध्न्याऽउपमाऽअस्य विष्ठा: सतश्च योनिमसतश्च व्विव: ॥
(शु० य० १३।३)
ॐ ब्रह्मणे नम:। ब्रह्माणं पूजयामि ॥
ॐ इदं विष्णु र्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्।
समूढमस्यपा ँ सुरे स्वाहा ॥
ॐविष्णवे नम: । विष्णुं पूजयामि ॥
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽउतो त ऽइषवे नम: ।
वाहुभ्यामुत ते नम: ॥
ॐ रुद्राय नम: । रुद्रं पूजयामि ॥
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो न: प्रचोदयात्॥
ॐ सवित्रे नम: । सवितारं पूजयामि ॥
ॐ मित्रस्य चर्षणीधृतोऽवो देवस्य सानसि । द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम्॥
ॐ मित्राय नम:। मित्रं पूजयामि ॥
ॐ इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृडय । त्वामवस्युराचके ॥
ॐ वरुणाय नम: । वरुणं पूजयामि ॥
फिर भगवान सूर्य को अर्घ्य दे
सूर्योपस्थान
इसके बाद
निम्नाङिकत मन्त्र पढकर
सूर्योपस्थान सूर्य को
प्रणाम एवं
प्रार्थना करे---
ॐ अद्दश्रमस्य केतवो विरश्मयो जनाँ२अनु। भ्राजन्तो ऽअग्नयो वथा ।
उपयामगृहीतोऽसि सूर्याय त्वा भ्राजायैष ते योनि: सूर्याय त्वा भ्राजाय । सूर्य भ्राजिष्ठ भ्राजिष्ठस्त्वं देवेष्वसि भ्राजिष्ठोऽहम्मनुष्येषु भूयासम् ॥
ॐ ह,
स: शुचिषद्द्वसुरन्तरिक्षसद्धोता व्वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ।
नृपद्द्वरसद्दतसद्वयोमसदब्जा गोजा
ऽऋतजा ऽअद्रिजा ऽऋतं बृहत् ॥
इसके पश्चात् दिग्देवताओं को पूर्वादि क्रम से नमस्कार करे---
‘ॐ इन्द्राय नम:’ प्राच्यै ॥ ‘ॐ अग्नये नम:’ आग्नेय्यै ॥
‘ॐ यमाय नम:’ दक्षिणायै ॥ ॐ निऋतये नम:’ नैऋत्यै ॥ ‘ॐ वरुणाय नम:’ पश्चिमायै ॥ ‘ॐ वायवे नम: वायव्यै ॥
‘ॐ सोमाय
नम:’ उदीच्यै ॥ ‘ॐ ईशानाय
नम:’ ऐशान्यै ॥
‘ॐ ब्रह्मणे नम:’ ऊर्ध्वायै । ‘ॐ
अनन्ताय नम:’
अधरायै ॥
इसके बाद जल में नमस्कार करे--
ॐ ब्रह्मणे नम: । ॐ अग्नये नम: । ॐ पृथिव्यै नम: ।
ॐ ओषधिभ्यो नम: । ॐ वाचे नम: । ॐ वाचस्पतये नम: ।
ॐ महद्भ्यो नम: । विष्णवे नम: । ॐ अद्भ्यो नम: ।
ॐ अपाम्पतये नम: । ॐ वरुणाय नम: ॥
मुखमार्जन
फिर नीचे
लिखे मन्त्र
को पढकर
शुद्ध जल
से मुँह
धो डाले
----
ॐ संवर्चसा पयसा सन्तनूभिरगन्महि मनसा स,
शिवेन ।
त्वष्टा सुदत्रो व्विदधातु रायोऽनुमार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टम् ॥
विसर्जन
निम्नाङ्कित मन्त्र पढकर
देवताओं का
विसर्जन करे---
ॐ देवा
गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित ।
मनसस्पत ऽइमं देव यज्ञ, स्वाहा व्वाते धा: ॥
समर्पण
निम्नाङ्कित वाक्य पढकर
यह तर्पण-कर्म भगवान्
को समपित
करे---
अनेन यथाशक्तिकृतेन देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणाख्येन कर्मणा भगवान् मम समस्तपितृस्वरूपी जनार्दनवासुदेव: प्रीयतां न मम ।
श्राद्ध से पितरों की तृप्ति कैसे होती है ?
श्राद्ध से
पितरों की तृप्ति के संदर्भ में एक कथा मिलती है कि-
नारद जी कहते
हैं :– अर्जुन ! इसके बाद राजा करन्धम ने महाकाल से पूछा –
भगवन ! मेरे
मन में सदा ये संशय रहता है की मनुष्यों द्वारा पितरों का जो तर्पण किया जाता है,
उसमें जल तो
जल में ही चला जाता है; फिर हमारे पूर्वज उस से तृप्त कैसे होते हैं ?
इसी प्रकार
पिंड आदि का सब दान भी यहीं देखा जाता है। अतः हम यह कैसे कह सकते हैं कि यह पितर
आदि के उपभोग में आता है ?”
महाकाल ने कहा
:–
राजन ! पितरों
और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है कि वे दूर की कही हुई बातें सुन लेते हैं,
दूर की पूजा
भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं। इसके सिवा ये भूत,
भविष्य और
वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुचते हैं। पांच तन्मात्राएँ,
मन,
बुद्धि,
अहंकार और
प्रकृति, इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शरीर होता है। इसके भीतर
दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं। इसलिए देवता और
पितर गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं।
शब्द तत्व से रहते हैं तथा स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं और किसी को
पवित्र देख कर उनके मन में बड़ा संतोष होता है। जैसे पशुओं का भोजन तृण और मनुष्यों
का भोजन अन्न कहलाता है, वैसे ही देवयोनियों का भोजन अन्न का सार तत्व है। सम्पूर्ण
देवताओं की शक्तियाँ अचिन्त्य एवं ज्ञानगम्य हैं। अतः वे अन्न और जल का सार तत्व
ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है,
वह यहीं स्थित
देखी जाती है।
करन्धम ने पूछा
:–
श्राद्ध का
अन्न तो पितरों को दिया जाता है, परन्तु वे अपने कर्म के अधीन होते हैं। यदि वे स्वर्ग अथवा नर्क में हों,
तो श्राद्ध का
उपभोग कैसे कर सकते हैं ? और वैसी दशा में वरदान देने में भी कैसे समर्थ हो सकते हैं ?
महाकाल ने कहा
:–
नृपश्रेष्ठ !
यह सत्य है कि पितर अपने अपने कर्मों के अधीन होते हैं,
परन्तु देवता,
असुर और यक्ष
आदि के तीन अमूर्त तथा चार वर्णों के चार मूर्त;
ये सात प्रकार
के पितर माने गए हैं। ये नित्य पितर हैं, ये कर्मों के अधीन नहीं,
ये सबको सब
कुछ देने में समर्थ हैं। वे सातों पितर भी सब वरदान आदि देते हैं। उनके अधीन
अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं। राजन ! इस लोक में किया हुआ श्राद्ध उन्ही मानव
पितरों को तृप्त करता है। वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को जहाँ कहीं भी
उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं। इस प्रकार अपने पितरों के पास श्राद्ध
में दी हुई वस्तु पहुँचती है और वे श्राद्ध ग्रहण करने वाले नित्य पितर ही श्राद्ध
कर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं।
राजा ने पूछा
:–
विप्रवर !
जैसे भूत आदि को उन्हीं के नाम से ‘इदं भूतादिभ्यः” कह कर कोई वस्तु दी जाती है,
उसी प्रकार
देवता आदि को संक्षेप में क्यों नहीं दिया जाता है ?
मंत्र आदि के
प्रयोग द्वारा विस्तार क्यों किया जाता है ?
महाकाल ने कहा
:–
राजन ! सदा
सबके लिए उचित प्रतिष्ठा करनी चाहिए। उचित प्रतिष्ठा के बिना दी हुई कोई वस्तु
देवता आदि ग्रहण नहीं करते। घर के दरवाजे पर बैठा हुआ कुत्ता,
जिस प्रकार
ग्रास (फेंका हुआ टुकड़ा) ग्रहण करता है, क्या कोई श्रेष्ठ पुरुष भी उसी प्रकार ग्रहण करता है ?
इसी प्रकार
भूत आदि की भाँती देवता कभी अपना भाग ग्रहण नहीं करते। वे पवित्र भोगों का सेवन
करने वाले तथा निर्मल हैं। अतः अश्रद्धालु पुरुष के द्वारा बिना मन्त्र के दिया
हुआ जो कोई भी हव्य भाग होता है, उसे वे स्वीकार नहीं करते। यहाँ मन्त्रों के विषय में
श्रुति भी इस प्रकार कहती है :–
“सब मन्त्र ही देवता हैं,
विद्वान पुरुष
जो जो कार्य मन्त्र के साथ करता है, उसे वह देवताओं के द्वारा ही संपन्न करता है।
मंत्रोच्चारणपूर्वक जो कुछ देता है, वह देवताओं द्वारा ही देता है। मन्त्रपूर्वक जो कुछ ग्रहण
करता है, वह देवताओं द्वारा ही ग्रहण करता है। इसलिए मंत्रोच्चारण
किये बिना मिला हुआ प्रतिग्रह न स्वीकार करे। बिना मन्त्र के जो कुछ किया जाता है,
वह प्रतिष्ठित
नहीं होता।”
इस कारण
पौराणिक और वैदिक मन्त्रों द्वारा ही सदा दान करना चाहिए।
राजा ने पूछा
:–
कुश,
तिल,
अक्षत और जल,
इन सब को हाथ
में लेकर क्यों दान दिया जाता है ? मैं इस कारण को जानना चाहता हूँ।
महाकाल ने कहा :– राजन ! प्राचीन काल में मनुष्यों ने बहुत से दान किये और उन सबको असुरों ने बलपूर्वक भीतर प्रवेश करके ग्रहण कर लिया। तब देवताओं और पितरों ने ब्रह्मा जी से कहा :– “स्वामिन ! हमारे देखते देखते दैत्यलोग सब दान ग्रहण कर लेते हैं। अतः आप उनसे हमारी रक्षा करें, नहीं तो हम नष्ट हो जायेंगे।” तब ब्रह्मा जी ने सोच विचार कर दान की रक्षा के लिए एक उपाय निकला। पितरों को तिल के रूप में दान दिया जाए, देवताओं को अक्षत के साथ दिया जाए तथा जल और कुश का सम्बन्ध सर्वत्र रहे। ऐसा करने पर दैत्य उस दान को ग्रहण नहीं कर सकते। इन सबके बिना जो दान किया जाता है, उस पर दैत्य लोग बलपूर्वक अधिकार कर लेते हैं और देवता तथा पितर दुखपूर्वक उच्ह्वास लेते हुए लौट जाते हैं। वैसे दान से दाता को कोई फल नहीं मिलता। इसलिए सभी युगों में इसी प्रकार (तिल, अक्षत, कुश और जल के साथ) दान दिया जाता है।
ॐ विष्णवे नम: । ॐ
विष्णवे नम:
। ॐ
विष्णवे नम:
॥
श्राद्ध व तर्पण सम्पूर्ण
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