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कर्मकाण्ड

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विष्णु सूक्त

विष्णु सूक्त

विष्णु सूक्त के द्रष्टा दीर्घतमा ऋषि हैं। भगवान् श्री हरी विष्णु के विविध रूप, कर्म हैं। अद्वितीय परमेश्वर रूप में उन्हें महाविष्णु-विराट पुरुष कहा  गया है, यज्ञ एवं जलोत्पादक सूर्य भी उन्हीं का रूप है। वे पुरातन हैं, जगत्स्रष्टा हैं। नित्य-नूतन एवं चिर-सुन्दर हैं। संसार को आकर्षित करने वाली माता भगवती लक्ष्मी उनकी भार्या हैं। उनके नाम एवं लीला के संकीर्तन से परमपद की प्राप्ति होती है जो कि मानव जीवन का परम् उद्देश्य, ध्येय, लक्ष्य है।  जो व्यक्ति उनकी ओर उन्मुख होता है, उसकी ओर वे भी उन्मुख होते हैं और साधक को मनोवाञ्छित फल प्रदान कर अनुगृहीत करते हैं।

विष्णु सूक्त

विष्णु सूक्त


इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्।

समूढमस्य पाशसुरे स्वाहा ॥ १ ॥

सर्वव्यापी भगवान् श्री हरी विष्णु ने इस जगत को धारण किया हुआ है और वे ही पहले भूमि, दूसरे अन्तरिक्ष और तीसरे धुलोक में तीन पदों को स्थापित करते हैं अर्थात् सर्वत्र व्याप्त हैं। इन विष्णु देव में ही समस्त विश्व व्याप्त है। हम उनके निमित्त हवि प्रदान करते हैं।

इरावती धेनुमती हि भूत सूयवसिनी मनवे दशस्या।

व्यस्कनारोदसीविष्णवेतेदाधर्थपृथिवीमभितोमयूखैः स्वाहा॥ २ ॥

यह पृथ्वी सबके कल्याणार्थ अन्न और गाय से युक्त, खाद्य-पदार्थ देने वाली तथा हित के साधनों को देने वाली है। हे विष्णुदेव! आपने इस पृथ्वी को अपनी किरणों के द्वारा सब ओर अच्छी प्रकार से धारण कर रखा है। हम आपके लिये आहुति प्रदान करते हैं।

देवश्रुतौ देवेष्वा घोषतं प्राची प्रेतमध्वरं

कल्पयन्ती ऊर्ध्वं यज्ञं नयतं मा जिह्वरतम् ।

स्वं गोष्ठमा वदतं देवी दुर्ये आयुर्मा निर्वादिष्टं प्रजां मा

निर्वादिष्टमत्र रमेथां वर्ष्मन् पृथिव्याः ॥ ३ ॥

आप देवसभा में प्रसिद्ध विद्वानों में यह कहें :- इस यज्ञ के समर्थन में पूर्व दिशा में जाकर यज्ञ को उच्च बनायें, अध:पतित न करें। देवस्थान में रहने वाले अपनी गोशाला में निवास करें। जब तक आयु है, तब तक धनादि से सम्पन्न बनायें। संततियों पर अनुग्रह करें। इस सुखप्रद स्थान में आप सदैव निवास करें।

विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजाःसि।

योअस्कभायदुत्तर सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायो विष्णवे त्वा॥ ४ ॥

जिन सर्वव्यापी भगवान् श्री हरी विष्णु ने अपने सामर्थ्य से इस पृथ्वी सहित अन्तरिक्ष, धुलोकादि स्थानों का निर्माण किया है तथा जो तीनों लोकों में अपने पराक्रम से प्रशंसित होकर उच्चतम स्थान को शोभायमान करते हैं, उन सर्वव्यापी परमात्मा के किन-किन यशों का वर्णन करें।

दिवो वा विष्ण उत वा पृथिव्या

महो वा विष्ण उरोरन्तरिक्षात् ।

उभा हि हस्ता वसुना पृणस्वा

प्र यच्छ दक्षिणादोत सव्याद्विष्णवे त्वा ॥ ५ ॥

हे विष्णु! आप अपने अनुग्रह से समस्त जगत को सुखों से पूर्ण कीजिये और भूमि से उत्पन्न पदार्थ और अन्तरिक्ष से प्राप्त द्रव्यों से सभी सुख निश्चय ही प्रदान करें। हे सर्वान्तर्यामी प्रभु! दोनों हाथों से समस्त सुखों को प्रदान करनेवाले विष्णु! हम आपको सुपूजित करते हैं।

प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः।

यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥ ६ ॥

भयंकर सिंह के समान पर्वतों में विचरण करने वाले सर्वव्यापी देव विष्णु! आप अतुलित पराक्रम के कारण स्तुति-योग्य हैं। सर्वव्यापक विष्णु देव के तीनों स्थानों में सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं।

विष्णो रराटमसि विष्णोः

श्नप्ने स्थो विष्णोः स्यूनसि विष्णोर्ध्रुवोऽसि ।

वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥ ७ ॥

इस विश्व में व्यापक देव विष्णु का प्रकाश निरन्तर फैल रहा है। विष्णु के द्वारा ही यह विश्व स्थिर है तथा इनसे ही इस जगत् का विस्तार हुआ है और कण-कण में ये ही प्रभु व्याप्त हैं। जगत की उत्पत्ति करने वाले हे प्रभु! हम आपकी अर्चना करते हैं।

विष्णु सूक्त समाप्त॥


यहाँ इस विष्णु सूक्त के अलावा भी अन्य और विष्णु सूक्त दिया जा रहा है-


विष्णु सूक्त(१)


विष्णोः नु  कं वीर्याणि प्र वोचं, यः प्रार्थिवाणि विममे रजांसि ।

यो अस्कभायदुत्तरं सद्यस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः 

अर्थ- अब मै उस विष्णु के वीर कर्मो को प्रस्थापित करुगाँ , जिसने पृथ्वी सम्बन्धी स्थानों को नाप लिया है । तथा तीन प्रकार से पाद न्यास करते हुऐ विशाल गतिशील जिसने उर्ध्वस्थ सह निवास स्थान को स्थिर कर दिया है ।

प्र तद्विष्णु;  स्तवते वीर्येण,  मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठा ।

यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ।

अर्थ- विष्णु जिसके विशाल तीन कदमों में सम्पूर्ण प्राणी निवास करते है, अपने उन वीरतायुक्त कार्य के कारण स्तुति किया जाता है, जिस प्रकार पर्वत पर रहने वाला तथा अपनी इच्छानुकुल विचरण करने वाला भयानक पशु ।

 प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म गिरिक्षित उरुगायाय वृष्ने 

य इदम् दीर्घ प्रयेत् सधस्थमेको विममे त्रिभिरित्पदेभिः ।

अर्थ- (मेरी) शक्तिशाली प्रार्थना, ऊँचे लोको में निवास करने वाले, विशाल कदमों वाले  इच्छाओं की पुर्ति करने वाले, विष्णु के पास जावें, जिसने इस बड़े अतिविस्तृत (पवित्रात्माओं) के मिलन स्थान को अकेले तीन पदों से नापा था ।

यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्य अक्षीयमाना स्वधया मदन्ति ।

य उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्याम् एको दाधार भुवनानि विश्वा ।

तदस्य प्रियमपि पाथो अस्मां नरो यत्र देवयवो मदन्ति ।

उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था , विष्णोः प्रदे परमे मध्व  उत्स ।

अर्थ- इस विष्णु के उस प्रिय लोक को मै प्राप्त करुँ जहाँ पर देवताओं के इच्छुक मनुष्य आनन्द करते है । विशाल गतिवाले विष्णु के श्रेष्ठ लोक में मधु का एक सरोवर है । इस प्रकार निश्चित ही वह (सबका) मित्र है ।

ता वां वास्तुन्युष्मति गमध्यै यत्र गावो भूरिश्रवा अयासं ।

अत्राह तदुरुगावस्य वृष्ण; , परमं पदमव भाति भूरिं ।

अर्थतुम दोनों को उन स्थानों पर जाने के लिये मै इच्छा करता हूँ । जहाँ पर बहुत सींग वाली (अत्यधिक प्रकाशवाली) हमेशा गतिशील रहनेवाली गायें (किरणें) है । यही पर विशाल गतिवाले इच्छाओं की पूर्ति करने वाले (विष्णु) का उस प्रकार का परमधाम नीचे (हमारी तरफ) अत्यधिक रुप से प्रकाशित हो रहा है ।

इति श्रीविष्णुसूक्तं १ समाप्तम् ॥


श्रीविष्णुसूक्तम् २


युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्राछिप्रस्य बृहतोविपश्चितो-

विहोत्रादधेवयुनाविदेक इन्महीदेवस्य सवितुः परिष्टुतिः स्वाहा ॥ १॥

इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदं समूढमस्य पाँ सुरे स्वाहा ॥ २॥

इरावती धेनुमती हि भूतँ सूयबसिनीम सरसस्तोत्रसारसङ्ग्रहः नवेदशस्या ।

व्यस्कब्म्नारोदसी विष्णवे ते दाधर्थपृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहा ॥ ३॥

वेदश्रुतौ देवेष्वाघोषतम्प्राचीप्रेतमध्वरं कल्पयन्ती

ऊर्ध्वं यज्ञन्नयतम्माजिह्वरतमस्वङ्गोष्टमावदतन्देवी

दुर्ये त्रायुर्म्मा निर्वादिष्टम्प्रजाम्मा निर्वादिष्टमत्ररमेथाम्वर्ष्मन्पृथिव्याः ॥ ४॥

विष्णोर्न्नुकं वीर्य्याणि प्रवोचं यः पार्थिवानि विममे रजाँसि यो

अरकभायदुत्तरँ सधस्थं इविचक्रमाणस्स्रेधोरुगायो विष्णवे त्वा ॥ ५॥

दिवोवा विष्णऽ उत वापृथिव्यामहोवा विष्ण उरोरन्तरिक्षात

उभाहिहस्तावसुना पृणस्वा प्रयच्छदक्षिणादोतसव्या विष्णवेत्वा ॥ ६॥

प्रतद्विष्णुः स्तवते वीर्य्येण मृगोनभीमः कुचरोगिरिष्टाः

यस्योरुषु त्रिषु विक्रम्णेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥ ७॥

विष्णोरराटमसि विष्णोः श्नप्त्रेस्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोऽर्धुवोसि

वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥ ८॥

देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां

आददेनार्यसीदमहँ रक्षसाङ्ग्रीवा अपिकृन्तामि बृहन्नसि

बृहद्रवा बृहतीमीन्ध्रय वाचं वद ॥ ९॥

विष्णोः कर्म्याणि पश्यत यतो व्रतानि पश्यसे इन्द्रस्य युज्यस्सखा ॥ १०॥

तद्विष्णोः परमं पदँ सदा पश्यन्ति सूरयः दिवीवन्वक्षुराततम् ॥ ११॥

इति श्रीविष्णुसूक्तं २ समाप्तम् ॥


श्रीविष्णुसूक्तम्


ॐ विष्णोर्नुकं वीर्याणि प्रवोचं यः पार्थिवानि विममे रजाँसि यो

अस्कभायदुत्तरँ सदस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायो विष्णो रराटमसि

विष्णोः पृष्ठमसि विष्णोः श्नप्त्रेस्थो विष्णॊस्स्यूरसि विष्णोर्ध्रुवमसि

वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ।

तदस्य प्रियमभिपाथो अश्याम् । नरो यत्र देवयवोमदन्ति ।

उरुक्रमस्य सहिबन्धुरित्था ।

विष्णोः पदे परमे मध्व उथ्सः ।

प्रतद्विष्णु स्स्तवते वीर्याय ।

मृगो न भीमः कुचरो गरिष्ठाः ।

यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेषु ।

अधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ।

परो मात्रया तनुवा वृधान ।

न ते महित्वमन्वश्नुवन्ति ।

उभेते विद्म रजसी पृथिव्या विष्णो देवत्वम् ।

परमस्य विथ्से ।

विचक्रमे पृथिवी मेष एताम् ।

क्षेत्राय विष्णुर्मनुषे दशस्यन् ।

ध्रुवासो अस्य कीरयो जनासः ।

ऊरुक्षितिँसुजनिमाचकार ।

त्रिर्देवः पृथिवीमेष एताम् ।

विचक्रमे शतर्चसं महित्वा ।

प्रविष्णुरस्तु तवसस्तवीयान् ।

त्वेषँह्यस्य स्थविरस्य नाम ।

अतो देवा अवन्तुनो यतो विष्णु-र्विचक्रमे ।

पृथिव्यास्सप्तधामभिः ।

इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् ।

समूढमस्यपाँसुरे ।

त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।

ततो धर्माणि धारयन् ।

विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे ।

इन्द्रस्य युज्यस्सखा॥इन्द्रस्ययुज्यस्सखा ॥

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।

दिवीव चक्षुराततम् ।

तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवाँसस्समिन्धते ।

विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥

पर्याप्त्या अनन्तरायाय सर्वस्तोमोऽति रात्र उत्तममहर्भवति सर्वस्याप्त्यै

सर्वस्यजित्त्यै सर्वमेव तेनाप्नोति सर्वं जयति ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

इति श्रीविष्णुसूक्तं ३ समाप्तम् ॥

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