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वट सावित्री व्रत
हर साल ज्येष्ठ मास की अमावस्या को
उत्तर भारत की सुहागिनों द्वारा तथा ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को दक्षिण भारत की
सुहागिन महिलाओं द्वारा वट सावित्री व्रत का पर्व मनाया जाता है। कहा जाता है कि
वट वृक्ष की जड़ों में ब्रह्मा, तने में भगवानविष्णु व डालियों व पत्तियों में भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है।
इस व्रत में महिलाएं वट वृक्ष की
पूजा करती हैं, सती सावित्री की कथा सुनने व
वाचन करने से सौभाग्यवती महिलाओं की अखंड सौभाग्य की कामना पूरी होती है।
सावित्री और सत्यवान की कथा सबसे
पहले महाभारत के वनपर्व में मिलती है, जब
युधिष्ठिर मारकण्डेय ऋषि से पूछते हैं कि क्या कभी कोई और स्त्री थी, जिसने द्रौपदी जितना भक्ति प्रदर्शित की?
वट सावित्री व्रत कथा
पुराण वर्णित कथानुसार- मद्र देश के
राजा का नाम अश्वपति था। उनके कोई भी सन्तान न थी, इसलिये उन्होंने सन्तान प्राप्ति के लिये सावित्री देवी की बड़ी उपासना की,
जिसके फलस्वरूप उनकी एक अत्यन्त सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई। सावित्री
देवी की कृपा से उत्पन्न उस कन्या का नाम अश्वपति ने सावित्री ही रख दिया।
सावित्री की उम्र,
रूप, गुण और लावण्य शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की
तरह बढ़ना लगा और वह युवावस्था को प्राप्त हो गई। अब उसके पिता राजा अश्वेपति को
उसके विवाह की चिन्ता होने लगी। एक दिन उन्होंने सावित्री को बुला कर कहा कि-
"पुत्री! तुम अत्यन्त विदुषी हो, अतः अपने अनुरूप पति
की खोज तुम स्वयं ही कर लो।" पिता की आज्ञा पाकर सावित्री एक वृद्ध तथा
अत्यन्त बुद्धिमान मन्त्री को साथ लेकर पति की खोज हेतु देश-विदेश के पर्यटन के
लिये निकल पड़ी। जब वह अपना पर्यटन कर वापस अपने घर लौटी तो उस समय सावित्री के
पिता देवर्षि नारद के साथ भगवत्चर्चा कर रहे थे। सावित्री ने दोनों को प्रणाम किया
और कहा कि- "हे पिता! आपकी आज्ञानुसार मैं पति का चुनाव करने के लिये अनेक
देशों का पर्यटन कर वापस लौटी हूँ। शाल्व देश में द्युमत्सेन नाम से विख्यात एक
बड़े ही धर्मात्मा राजा थे। किन्तु बाद में दैववश वे अन्धे हो गये। जब वे अन्धे
हुये, उस समय उनके पुत्र की बाल्यावस्था थी। द्युमत्सेन के
अनधत्व तथा उनके पुत्र के बाल्यपन का लाभ उठा कर उसके पड़ोसी राजा ने उनका राज्य
छीन लिया। तब से वे अपनी पत्नी एवं पुत्र सत्यवान के साथ वन में चले आये और कठोर
व्रतों का पालन करने लगे। उनके पुत्र सत्यवान अब युवा हो गये हैं, वे सर्वथा मेरे योग्य हैं, इसलिये उन्हीं को मैंने
पतिरूप में चुना है।"
सावित्री की बातें सुनकर देवर्षि
नारद बोले कि- "हे राजन! पति के रूप में सत्यवान का चुनाव करके सावित्री ने
बड़ी भूल की है।" नारद जी के वचनों को सुनकर अश्ववपति चिन्तित होकर बोले-
"हे देवर्षि! सत्यवान में ऐसे कौन से अवगुण हैं जो आप ऐसा कह रहे हैं?"
इस पर नारद जी ने कहा कि- "राजन! सत्यवान तो वास्तव में सत्य
का ही रूप है और समस्त गुणों का स्वामी है। किन्तु वह अल्पायु है और उसकी आयु केवल
एक वर्ष ही शेष रह गई है। उसके बाद वह मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा।" नारद की
बातें सुनकर राजा अश्वपति ने सावित्री से कहा कि- "पुत्री! तुम नारद जी के
वचनों को सत्य मान कर किसी दूसरे उत्तम गुणों वाले पुरुष को अपने पति के रूप में
चुन लो।" इस पर सावित्री बोली कि- "हे तात! भारतीय नारी अपने जीवनकाल
में केवल एक ही बार पति का वरण करती है। अब चाहे जो भी हो, मैं
किसी दूसरे को अपने पति के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती।" सावित्री की दृढ़ता
को देखकर देवर्षि नारद अत्यन्त प्रसन्न हुये और उनकी सलाह के अनुसार राजा अश्वपति
ने सावित्री का विवाह सत्यवान के साथ कर दिया।
विवाह के पश्चात् सावित्री अपने
राजसी वस्त्राभूषणों को त्यागकर तथा वल्कल धारण कर अपने पति एवं सास,
श्वसुर के साथ वन में रहने लगी। पति तथा सास श्वसुर की सेवा ही उसका
धर्म बन गया। किन्तु ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता जाता था, सावित्री
के मन का भय बढ़ता जाता था। अन्त्ततः वह दिन भी आ गया, जिस
दिन सत्यवान की मृत्यु निश्चित थी। उस दिन सावित्री ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह
आज अपने पति को एक भी पल अकेला नहीं छोड़ेगी। जब सत्यवान लकड़ी काटने हेतु कंधे पर
कुल्हाड़ी रखकर वन में जाने के लिये तैयार हुये तो सावित्री भी उसके साथ जाने के
लिये तैयार हो गई। सत्यवान ने उसे बहुत समझाया कि वन का मार्ग अत्यन्त दुर्गम है
और वहाँ जाने में तुम्हें बहुत कष्ट होगा, किन्तु सावित्री
अपने निश्चय पर अडिग रही और अपने सास-श्वसुर से आज्ञा लेकर सत्यवान के साथ गहन वन
में चली गई।
लकड़ी काटने के लिये सत्यवान एक
वृक्ष पर जा चढ़े, किन्तु थोड़ी ही
देर में वे अस्वस्थ होकर वृक्ष से उतर आये। उनकी अस्वस्थता और पीड़ा को ध्यान में
रखकर सावित्री ने उन्हें वहीं वट वृक्ष के नीचे उनके सिर को अपनी जंघा पर रख कर
लिटा लिया। लेटने के बाद सत्यवान अचेत हो गये। सावित्री समझ गई कि अब सत्यवान का
अन्तिम समय आ गया है, इसलिये वह चुपचाप अश्रु बहाते हुये
ईश्वर से प्रार्थना करने लगी। अकस्मात् सावित्री ने देखा कि एक कान्तिमय, कृष्णवर्ण, हृष्ट-पुष्ट, मुकुटधारी
व्यक्ति उसके सामने खड़ा है। सावित्री ने उनसे पूछा कि- "हे देव! आप कौन हैं?"
उन्होंने उत्तर दिया कि- "सावित्री! मैं यमराज हूँ और तुम्हारे
पति को लेने आया हूँ।" सावत्री बोली- "हे प्रभो! सांसारिक प्राणियों को
लेने के लिये तो आपके दूत आते हैं, किन्तु क्या कारण है कि
आज आपको स्वयं आना पड़ा?" यमराज ने उत्तर दिया कि-
"देवि! सत्यवान धर्मात्मा तथा गुणों का समुद्र है, मेरे
दूत उन्हें ले जाने के योग्य नहीं हैं। इसीलिये मुझे स्वयं आना पड़ा है।"
इतना कह कर यमराज ने बलपूर्वक सत्यवान के शरीर में से पाश में बँधा अंगुष्ठ मात्र
परिमाण वाला जीव निकाला और दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े।
सावित्री अपने पति को ले जाते हुये देखकर
स्वयं भी यमराज के पीछे-पीछे चल पड़ी। कुछ दूर जाने के बाद जब यमराज ने सावित्री
को अपने पीछे आते देखा तो कहा कि- "हे सवित्री! तू मेरे पीछे मत आ,
क्योंकि तेरे पति की आयु पूर्ण हो चुकी है और वह अब तुझे वापस नहीं
मिल सकता। अच्छा हो कि तू लौट कर अपने पति के मृत शरीर के अन्त्येष्टि की व्यवस्था
कर। अब इस स्थान से आगे तू नहीं जा सकती।" सावित्री बोली कि- "हे प्रभो!
भारतीय नारी होने के नाते पति का अनुगमन ही तो मेरा धर्म है और मैं इस स्थान से
आगे तो क्या आपके पीछे आपके लोक तक भी जा सकती हूँ, क्योंकि
मेरे पातिव्रत धर्म के बल से मेरी गति कहीं भी रुकने वाली नहीं है।" यमराज
बोले कि- "सावित्री! मैं तेरे पातिव्रत धर्म से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। इसलिये
तू सत्यवान के जीवन को छोड़कर जो चाहे वह वरदान मुझसे माँग ले। इस पर सावित्री ने
कहा कि- "प्रभु! मेरे श्वसुर नेत्रहीन हैं। आप कृपा करके उनके नेत्रों की
ज्योति पुनः प्रदान कर दें। यमराज बोले कि- "ऐसा ही होगा, लेकिन अब तू वापस लौट जा।" सावित्री ने कहा कि- "भगवन! जहाँ
मेरे प्राणनाथ होंगे, वहीं मेरा निश्चल आश्रम होगा। इसके
सिवा मेरी एक बात और सुनिये। मुझे आज आप जैसे देवता के दर्शन हुये हैं और
देव-दर्शन तथा संत-समागम कभी निष्फल नहीं जाते।" इस पर यमराज ने कहा कि-
"देवि! तुमने जो कहा है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय लगा है।
अतः तू फिर सत्यवान के जीवन को छोड़कर एक वर माँग ले।"
सावित्री बोली- "हे देव! मेरे
श्वसुर राज्य-च्युत होकर वनवासी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। मुझे यह वर दें कि उनका
राज्य उन्हें वापस मिल जाये। यमराज बोले- "तथास्तु,
अब तू लौट जा।" सावित्री ने फिर कहा कि- "हे प्रभो! सनातन
धर्म के अनुसार मनुष्यों का धर्म है कि वह सब पर दया करे। सत्पुरुष तो अपने पास
आये हुये शत्रुओं पर भी दया करते हैं।" यमराज बोले कि- "हे कल्याणी! तू
नीति में अत्यन्त निपुण है और जैसे प्यासे मनुष्य को जल पीकर जो आनन्द प्राप्त
होता है, तू वैसा ही आनन्द प्रदान करने वाले वचन कहती है।
तेरी इस बात से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें पुनः एक वर देना चाहता हूँ; किन्तु तू सत्यवान का जीवन वर के रूप में नहीं माँग सकती।" तब
सावित्री ने कहा कि- "मेरे पिता राजा अश्वपति के कोई पुत्र नहीं है। अतः
प्रभु! कृपा करके उन्हें पुत्र प्रदान करें।" यमराज बोले कि- "मैंने
तुझे यह वर भी दिया, अब तू यहाँ से चली जा।" सावित्री
ने फिर कहा कि- "हे यमदेव! मैं अपने पति को छोड़ कर एक क्षण भी जीवित नहीं रह
सकूँगी। आप तो संत-हृदय हैं और सत्संग से सहृदयता में वृद्धि ही होती है। इसीलिये
संतों से सब प्रेम करते हैं।" यमराज बोले कि- "कल्याणी तेरे वचनों को
सुनकर मैं तुझे सत्यवान के जीवन को छोड़कर एक और अन्तिम वर देना चाहता हूँ,
किन्तु इस वर के पश्चात् तुम्हें वापस जाना होगा।" सावित्री ने
कहा कि- "प्रभु यदि आप मुझसे इतने ही प्रसन्न हैं तो मेरे श्वसुर द्युमत्सेन
के कुल की वृद्धि करने के लिये मुझे सौ पुत्र प्रदान करने की कृपा करें।"
यमराज बोले कि- "ठीक है, यह वर भी मैंने तुझे दिया,
अब तू यहाँ से चली जा।"
किन्तु सावित्री यमराज के पीछे ही
चलती रही। उसे अपने पीछे आता देख यमराज ने कहा कि- "सावित्री तू मेरा कहना
मान कर वापस चली जा और सत्यवान के मृत शरीर के अन्तिम संस्कार की व्यवस्था
कर।" इस पर सावित्री बोली कि- "हे प्रभु! आपने अभी ही मुझे सौ पुत्रों
का वरदान दिया है, यदि मेरे पति का
अन्तिम संस्कार हो गया तो मेरे पुत्र कैसे होंगे? और मेरे
श्वसुर के कुल की वृद्धि कैसे हो पायेगी?" सावित्री के
वचनों को सुनकर यमराज आश्चर्य में पड़ गये और अन्त में उन्होंने कहा कि-
"सावित्री तू अत्यन्त विदुषी और चतुर है। तूने अपने वचनों से मुझे चक्कर में
डाल दिया है। तू पतिव्रता है इसलिये जा, मैं सत्यवान को
जीवनदान देता हूँ।" इतना कह कर यमराज वहाँ से अन्तर्धान हो गये और सावित्री
वापस सत्यवान के शरीर के पास लौट आई।
सावित्री पुन: उसी वट वृक्ष के पास
लौट आई। जहां सत्यवान मृत पड़ा था। सत्यवान के मृत शरीर में फिर से संचार हुआ। इस
प्रकार सावित्री ने अपने पतिव्रता व्रत के प्रभाव से न केवल अपने पति को पुन:
जीवित करवाया बल्कि सास-ससुर को नेत्र ज्योति प्रदान करते हुए उनके ससुर को खोया
राज्य फिर दिलवाया।
तभी से वट सावित्री अमावस्या और वट
सावित्री पूर्णिमा के दिन वट वृक्ष का पूजन-अर्चन करने का विधान है। यह व्रत करने
से सौभाग्यवती महिलाओं की मनोकामना पूर्ण होती है और उनका सौभाग्य अखंड रहता है।
वट सावित्री व्रत का महत्व
हिन्दू धर्म में वट वृक्ष का खास
महत्व है। वट वृक्ष यानी बरगद के पेड़ की पूरे भारत में पूजा की जाती है। वट वृक्ष
की पूजा करने वाली महिलाओं का सुहाग अजर-अमर रहता है और उन्हें संतान सुख प्राप्त
होता है।
वट वृक्ष की शाखाओं और लटों को
सावित्री का रूप माना जाता है। देवी सावित्री ने कठिन तपस्या से अपने पति सत्यवान
के प्राण यमराज से वापस ले आई थीं। वट वृक्ष को ब्रह्मा,
विष्णु और महेश का रूप माना जाता है। यह इकलौता ऐसा वृक्ष है,
जिसे तीनों देवों का रूप माना गया है। इस वृक्ष में ब्रह्मा,
विष्णु और महेश यानी भोलेनाथ का वास होता है। वट वृक्ष की पूजा करने
से तीनों देवता प्रसन्न होते हैं और सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं।
वट सावित्री व्रत कैसे करें-
* यह व्रत 3
दिन पहले से शुरू होता है, इसलिए दिन भर व्रत रखकर औरतें शाम
को भोजन ग्रहण करती हैं।
* वट सावित्री पूर्णिमा के दिन
सुबह स्नान कर साफ वस्त्र और आभूषण पहनें।
* तत्पश्चात वट वृक्ष के नीचे
अच्छी तरह साफ-सफाई कर लें।
* वट वृक्ष के नीचे सत्यवान और
सावित्री की मूर्तियां स्थापित करें और लाल वस्त्र चढ़ाएं।
* बांस की टोकरी में 7 तरह के अनाज रखें और कपड़े के दो टुकड़े से उसे ढंक दें।
* एक और बांस की टोकरी लें और
उसमें धूप, दीप कुमकुम, अक्षत, मौली आदि रखें।
* वट वृक्ष और देवी सावित्री और
सत्यवान की एक साथ पूजा करते हैं।
* इसके बाद बांस के बने पंखे से
सत्यवान और सावित्री को हवा करते हैं और वट वृक्ष के एक पत्ते को अपने बाल में
लगाकर रखा जाता है।
* इसके बाद प्रार्थना करते हुए
लाल मौली या सूत के धागे को लेकर वट वृक्ष की परिक्रमा करते हैं और घूमकर वट वृक्ष
को मौली या सूत के धागे से बांधते हैं। ऐसा 7 बार करते हैं।
* यह प्रक्रिया पूरी करने के बाद
कथा सुनते हैं
* पंडित जी को दक्षिणा देते हैं।
आप किसी जरूरतमंद को भी दान दे सकते हैं।
* घर के बड़ों के पैर छूकर
आशीर्वाद लें और मिठाई खाकर अपना व्रत खोलें।
* पूजन के पश्चात घर में सुख,
शांति और पति की लंबी आयु के लिए प्रार्थना करें।
वट सावित्री व्रत अमावस्या वट
सावित्री पूर्णिमा से कैसे अलग है?
वर्ष में दो बार वट सावित्री का
व्रत रखा जाता है। पहला ज्येष्ठ माह की अमावस्या को और दूसरा ज्येष्ठ माह की
पूर्णिमा को। लेकिन सवाल यह है कि यह व्रत दो बार क्यों रखा जाता है?
1. स्कन्द व भविष्य पुराण के
अनुसार वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को किया जाता है, लेकिन निर्णयामृतादि के अनुसार यह व्रत ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की
अमावस्या को करने का विधान है।
यह भी कहते हैं कि भारत में अमानता
व पूर्णिमानता ये दो मुख्य कैलेंडर प्रचलित हैं। हालांकि इन दोनों में कोई फर्क
नहीं है बस तिथि का फर्क है। पूर्णिमानता कैलेंडर के अनुसार वट सावित्री व्रत
ज्येष्ठ माह की अमावस्या को मनाया जाता है जिसे वट सावित्री अमावस्या कहते हैं
जबकि अमानता कैलेंडर के अनुसार इसे ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा को मनाते हैं,
जिसे वट पूर्णिमा व्रत भी कहते हैं।
2. वट सावित्री अमावस्या का व्रत
खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश,
पंजाब और हरियाणा में ज्यादा प्रचलित है जबकि वट पूर्णिमा व्रत
महाराष्ट्र, गुजरात सहित दक्षिण भारत के क्षेत्रों में
प्रचलित है।
3. वट सावित्री का व्रत शादीशुदा
महिलाएं अपने पति की भलाई और उनकी लम्बी उम्र के लिए रखती हैं। दोनों ही व्रतों के
पीछे की पौराणिक कथा दोनों कैलेंडरों में एक जैसी है।
4. दोनों ही व्रत के दौरान
महिलाएं वट अर्थात बरगद की पूजा करके उसके आसपास धागा बांधती है। पुराणों में यह
स्पष्ट किया गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों
का वास है। मान्यता अनुसार इस व्रत को करने से पति की अकाल मृत्यु टल जाती है। वट
अर्थात बरगद का वृक्ष आपकी हर तरह की मन्नत को पूर्ण करने की क्षमता रखता है।
5. वट वृक्ष का पूजन और
सावित्री-सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री
के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस व्रत में महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं, सती सावित्री की कथा सुनने व वाचन करने से सौभाग्यवती महिलाओं की अखंड
सौभाग्य की कामना पूरी होती है। इस व्रत को सभी प्रकार की स्त्रियां (कुमारी,
विवाहिता, विधवा, कुपुत्रा,
सुपुत्रा आदि) इसे करती हैं। इस व्रत को स्त्रियां अखंड सौभाग्यवती
रहने की मंगलकामना से करती हैं।
वट सावित्री व्रत में वट
वृक्ष का ही पूजा क्यों?
भारतीय संस्कृति में 'वट सावित्री अमावस्या एवं पूर्णिमा' का व्रत आदर्श
नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। वट पूजा से जुड़े धार्मिक, वैज्ञानिक
और व्यावहारिक पहलू में 'वट' और 'सावित्री' दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है।
अमावस्या और पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला यह व्रत सौभाग्य और संतान प्राप्ति
में सहायता देने वाला माना गया है।
* पुराणों में यह स्पष्ट किया गया
है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है।
* वट पूजा से जुड़े धार्मिक,
वैज्ञानिक और व्यावहारिक पहलू हैं।
* वट वृक्ष ज्ञान व निर्माण का
प्रतीक है।
* भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के
नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था।
* वट एक विशाल वृक्ष होता है,
जो पर्यावरण की दृष्टि से एक प्रमुख वृक्ष है, क्योंकि इस वृक्ष पर अनेक जीवों और पक्षियों का जीवन निर्भर रहता है।
* इसकी हवा को शुद्ध करने और मानव
की आवश्यकताओं की पूर्ति में भी भूमिका होती है।
* दार्शनिक दृष्टि से देखें तो वट
वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व के बोध के नाते भी स्वीकार किया जाता है।
* वट सावित्री में स्त्रियों
द्वारा वट यानी बरगद की पूजा की जाती है।
* इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामना पूरी होती है।
* वट वृक्ष का पूजन और
सावित्री-सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री
के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
* धार्मिक मान्यता है कि वट वृक्ष
की पूजा लंबी आयु, सुख-समृद्धि और अखंड सौभाग्य देने के साथ
ही हर तरह के कलह और संताप मिटाने वाली होती है।
* प्राचीनकाल में मानव ईंधन और
आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए लकड़ियों पर निर्भर रहता था, किंतु बारिश का मौसम पेड़-पौधों के फलने-फूलने के लिए सबसे अच्छा समय होता
है। साथ ही अनेक प्रकार के जहरीले जीव-जंतु भी जंगल में घूमते हैं। इसलिए मानव
जीवन की रक्षा और वर्षाकाल में वृक्षों को कटाई से बचाने के लिए ऐसे व्रत विधान
धर्म के साथ जोड़े गए, ताकि वृक्ष भी फलें-फूलें और उनसे जुड़ी
जरूरतों की अधिक समय तक पूर्ति होती रहे।
वट सावित्री व्रत पूजन विधि-
सबसे पहले वट वृक्ष के पास जाकर जड़
के समीप मिट्टी से गौरी-गणेश बनाकर रखें व उनका विधिवत पुजन करें।
पात्र का या मिट्टी का कलश रख कर
उनका पूजन करें,दीप जलावें।
अब बांस कि डलिया(टुकनी) में बालू
भरकर उसमे मिट्टी या पात्र का सावित्री-सत्यवान की मूर्ति या पहले से तोड़े हुए वट वृक्ष
के पत्ते पर सावित्री-सत्यवान लिखकर उनका पूजन करें।
दूसरी बांस कि डलिया(टुकनी) में
बालू भरकर उसमे मिट्टी या पात्र का ब्रह्मा-सावित्री की मूर्ति या पहले से तोड़े
हुए वट वृक्ष के पत्ते पर ब्रह्मा-सावित्री लिखकर उनका पूजन करें।
पुनः तीसरी बांस कि डलिया(टुकनी)
में बालू भरकर उसमे मिट्टी या पात्र का लक्ष्मी-नारायण या विष्णु की मूर्ति या
पहले से तोड़े हुए वट वृक्ष के पत्ते पर लक्ष्मी-नारायण या विष्णु लिखकर उनका पूजन
करें।
अब वट वृक्ष का विधिवत पुजन करें।
अक्षत,फुल,रोली,श्रृंगार सामग्री,व भोग (अंकुरित चना,पूरी,लड्डू,मीठा व्यंजन व
फल आदि) चढ़ाकर कच्चा धागा,सूत या मौली धागा चढ़ावें व कच्चा धागा हल्दी लगाकर वट वृक्ष
को प्रदिक्षण करते हुए १०८ या सामर्थ्य अनुसार केवल ७ बार लपेटें और कथा श्रवण कर
आरती करें यदि संभव हो तो यमाष्टक का पाठ करें ।
दक्षिणा चढ़ावें और उसे ब्राह्मण या
ब्राह्मणी को दान देकर आशीर्वाद ग्रहण करें ।
घर आकर अपने से बड़ों का आशीर्वाद
लेकर व प्रसाद देकर तथा उसके बाद अपने पति का पैर छूकर और उन्हें प्रसाद देकर पति
के हाथ से पारना करें।
इस प्रकार वट सावित्री व्रत सम्पन्न करें।
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