किरातार्जुनीयम् प्रथमः सर्गः
किरातार्जुनीयम् प्रथमः सर्गः- किरातार्जुनीयम् (अर्थ : किरात और अर्जुन की कथा) महाकवि भारवि द्वारा सातवीं शती ई. में रचित महाकाव्य है जिसे संस्कृत साहित्य के 'वृहत्त्रयी' में स्थान प्राप्त है। संस्कृत के छः प्रसिद्ध महाकाव्य हैं – किरातार्जनुयीयम् (भारवि), शिशुपालवधम् (माघ) और नैषधीयचरितम् (श्रीहर्ष)– बृहत्त्रयी कहलाते हैं। कुमारसम्भवम्, रघुवंशम् और मेघदूतम् (तीनों कालिदास द्वारा रचित) - लघुत्रयी कहलाते हैं।
महाभारत में वर्णित किरात वेशधारी
शिव के साथ अर्जुन के युद्ध की लघुकथा को आधार बनाकर कवि ने राजनीति,
धर्मनीति, कूटनीति, समाजनीति,
युद्धनीति, जनजीवन आदि का मनोरम वर्णन किया
है। यह काव्य विभिन्न रसों से ओतप्रोत रचना है किन्तु वीर रस प्रधान है।
इस महाकाव्य की कथा का सन्दर्भ
महाभारत से लिया गया है । जैसा कि सुप्रसिद्ध है, पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर, भीम एवं अर्जुन आदि से
धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन कि तनिक भी नहीं पटती थी । एक बार फुसलाकर दुर्योधन
ने युधिष्ठिर के साथ जुआ खेला और अपने मामा शकुनि कि धूर्तता से युधिष्ठिर को हरा
दिया । युधिष्ठिर न केवल राजपाट के अपने हिस्से को ही गँवा बैठे, प्रत्युत यह दांव भी हार गए कि वे अपने सब भाइयों के साथ बारह वर्ष तक
वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास करेंगे । फल यह हुआ कि अपने चारों भाइयों तथा पत्नी
द्रौपदी के साथ यह बारह वर्षों तक जगह-जगह ठोकर खाते हुए घूमते फिरते रहे । एक बार
वह सरस्वती नदी के किनारे द्वैतवन में निवास कर रहे थे कि उनके मन में आया की किसी
युक्ति से दुर्योधन का राज्य के प्रजावर्ग के साथ किस प्रकार का व्यवहार है,
यह जाना जाय । इसी जानकारी को प्राप्त करने के लिए उन्होंने एक चतुर
वनवासी किरात को नियुक्त किया, जिसने ब्रह्मचारी का वेश धारण
कर हस्तिनापुर में रहकर दुर्योधन की प्रजानीति के सम्बन्ध में गहरी जानकारी
प्राप्त की । प्रस्तुत कथा सन्दर्भ में उसी जानकारी को वह द्वैतवन में निवास करने
वाले युधिष्ठिर को बताने के लिए वापस लौटा है ।
किरातार्जुनीयम् महाकाव्यम् भारविकृतम्
किरातार्जुनीयम् प्रथमः सर्गः
किरातार्जुनीयम् सर्ग १
किरातार्जुनीये प्रथमः सर्गः
श्रियः कुरूणामधिपस्य पालनीं
प्रजासु वृत्तिं यमयुङ्क्त वेदितुम् ।
स वर्णिलिङ्गी विदितः समाययौ
युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचरः ।। १.१ ।।
अर्थ: कुरूपति दुर्योधन के
राजयलक्ष्मी की रक्षा करने में समर्थ, प्रजावर्ग
के साथ किये जाने वाले उसके व्यवहार को भली भाँति जानने के लिए जिस किरात को
नियुक्त किया गया था, वह ब्रह्मचारी का (छद्म) वेश धारण कर,
वहां की सम्पूर्ण परिस्थिति को समझ-बूझकर द्वैत वन में (निवास करने
वाले)राजा युधिष्ठिर के पास लौट आया।
टिप्पणी: इस पूरे सर्ग में कवि ने
वशस्थ वृत्त का प्रयोग किया है, जिसका लक्षण
है - "जतौ तु वशस्थमुदीरित जरौ ।" अर्थात् जगण, तगण,
जगण और रगण के संयोग से वशस्थ छन्द बनता है । श्लोक की प्रथम पंक्ति
में वने वनेचर" शब्दों में 'वने' की
दो बार आवृत्ति होने से 'वृत्यानुप्रास' अलङ्कार है, महाकवि ने मांगलिक 'श्री' शब्द से अपने ग्रन्थ का आरम्भ करके
वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गलाचरण किया है ।
कृतप्रणामस्य महीं महीभुजे जितां
सपत्नेन निवेदयिष्यतः ।
न विव्यथे तस्य मनो न हि प्रियं
प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिणः ।। १.२ ।।
अर्थ: उस समय के लिए उचित प्रणाम
करने के अनन्तर शत्रुओं (कौरवों) द्वारा अपहृत पृथ्वीमण्डल (राज्य) की यथातथ्य
बातें राजा युधिष्ठिर से निवेदन करते हुए उस वनवासी किरात के मन को तनिक भी व्यथा
नहीं हुई । (ऐसा क्यों न होता) क्योंकि किसी के कल्याण की अभिलाषा करने वाले लोग
(सत्य बात को छिपा कर केवल उसे प्रसन्न करने के लिए) झूठ-मूठ की प्यारी बातें (बना
कर) कहने की इच्छा नहीं करते ।
टिप्पणी: क्योंकि यदि हितैषी भी ऐसा
करने लगें तो निश्चय ही कार्य-हानि हो जाने पर स्वामी को द्रोह करने की सूचना तो
मिल ही जायेगी । इस श्लोक में भी 'मही
मही' शब्द की पुनरावृत्ति से वृत्यनुप्रास अलङ्कार है और वह
अर्थान्तरन्यास से ससृष्ट है ।
द्विषां विघाताय विधातुमिच्छतो
रहस्यनुज्ञामधिगम्य भूभृतः ।
स सौष्ठवौदार्यविशेषशालिनीं
विनिश्चितार्थामिति वाचमाददे ।। १.३ ।।
अर्थ: एकांत में उस वनवासी किरात ने
शत्रुओं का विनाश करने के लिए प्रयत्नशील राजा युधिष्ठिर की आज्ञा प्राप्तकर सरस
सुन्दर शब्दों में असन्दिग्ध अर्थ एवं निश्चित प्रमाणों से युक्त वाणी में इस
प्रकार से निवेदन किया ।
टिप्पणी: इस श्लोक से यह ध्वनित
होता है कि उक्त वनवासी किरात केवल निपुण दूत ही नहीं था,
एक अच्छा वक्ता भी था । उसने जो कहा, सुन्दर
मनोहर शब्दों में सुस्पष्ट तथा निश्चयपूर्वक कहा । उसकी वाणी में अनिश्चयात्मकता
अथवा सन्देह की कहीं गुञ्जाइश नहीं थी । उसके शब्द सुन्दर थे और अर्थ स्पष्ट तथा
निश्चित ।
इसमें सौष्ठव और औदार्य - इन दो
विशेषणों के साभिप्राय होने के कारण 'परिकर'
अलङ्कार है, जो 'पदार्थहेतुक
काव्यलिङ्ग' से अनुप्राणित है। यद्यपि 'आङ्' उपसर्ग के साथ 'दा'
धातु का प्रयोग लेने के अर्थ में ही होता है किन्तु यहाँ पर
सन्दर्भानुरोध से कहने के अर्थ में ही समझना चाहिए ।
(किरात को भय है कि कहीं मेरी
अप्रिय कटु बातों से राजा युधिष्ठिर अप्रसन्न न हो जाएँ अतः वह सर्वप्रथम
क्षमा-याचना के रूप में निवेदन करता है ।)
क्रियासु युक्तैर्नृप चारचक्षुषो न
वञ्चनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः ।
अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधु साधु वा
हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।। १.४ ।।
अर्थ: कोई कार्य पूरा करने के लिए
नियुक्त किये गए (राज) सेवकों का यह परम कर्त्तव्य है कि वे दूतों की आँखों से ही
देखने वाले अपने स्वामी को (झूठी तथा प्रिय बातें बता कर) न ठगें ।
इसलिए मैं जो कुछ भी अप्रिय अथवा
प्रिय बातें निवेदन करूँ उन्हें आप क्षमा करेंगे, क्योंकि सुनने में मधुर तथा परिणाम में कल्याण देने वाली वाणी दुर्लभ होती
है ।
टिप्पणी: दूत के कथन का तात्पर्य यह
है कि मैं अपना कर्तव्य पालन करने के लिए ही आप से कुछ अप्रिय बातें करूँगा,
वह चाहे आपको अच्छी लगें या बुरी। अतः कृपा कर उनके कहने के लिए
मुझे क्षमा करेंगे क्योंकि मैं अपने कर्तव्य से विवश हूँ।
इस श्लोक में 'पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग' अलङ्कार है, जो चतुर्थ चरण में आये हुए अर्थान्तरन्यास अलङ्कार से ससृष्ट है। यहाँ
अर्थान्तरन्यास को सामान्य से विशेष के समर्थन रूप में जानना चाहिए।
स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं
हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः ।
सदानुकूलेषु हि कुर्वते रतिं
नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः ।। १.५ ।।
अर्थ: जो मित्र अथवा मन्त्री राजा
को उचित बातों की सलाह नहीं देता वह अधम मित्र अथवा अधम मन्त्री है तथा (इसी
प्रकार) जो राजा अपने हितैषी मित्र अथवा मन्त्री की हित की बात नहीं सुनता वह राजा
होने योग्य नहीं है । क्योंकि राजा और मन्त्री के परस्पर सर्वदा अनुकूल रहने पर ही
उनमें सब प्रकार की समृद्धियाँ अनुरक्त होती हैं ।
टिप्पणी: दूत के कहने का तात्पर्य
यह है कि इस समय मैं जो कुछ निर्भय होकर कह रहा हूँ वह आपकी हित-चिन्ता ही से कह
रहा हूँ । मेरी बातें ध्यान से सुनें ।
इस श्लोक में कार्य से कारण का
समर्थन रूप अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है ।
निसर्गदुर्बोधमबोधविक्लवाः क्व
भूपतीनां चरितं क्व जन्तवः ।
तवानुभावोऽयमबोधि यन्मया
निगूढतत्त्वं नयवर्त्म विद्विषाम् ।। १.६ ।।
अर्थ: स्वभाव से ही
दुर्बोध(राजनीतिक रहस्यों से भरा) राजाओं का चरित कहाँ और अज्ञान से बोझिल मुझ
जैसा जीव कहाँ ? (दोनों में आकाश पाताल का अन्तर
है) । (अतः) शत्रुओं के अत्यन्त गूढ़ रहस्यों से भरी जो कूटनीति कि बातें मुझे
(कुछ) ज्ञात हो सकीय हैं, यह तो (केवल) आपका अनुग्रह है ।
टिप्पणी: दूत कि वक्तृत्व कला का यह
सुन्दर नमूना है। अपनी नम्रता को वह कितनी सुन्दरता से प्रकट करता है। इस श्लोक
में विषम अलङ्कार है ।
विशङ्कमानो भवतः पराभवं
नृपासनस्थोऽपि वनाधिवासिनः ।
दुरोदरच्छद्मजितां समीहते नयेन
जेतुं जगतीं सुयोधनः ।। १.७ ।।
अर्थ: राज सिंहासन पर बैठा हुआ भी
दुर्योधन (राज्याधिकार से च्युत) वन में निवास करनेवाले आप से अपनी पराजय कि
आशङ्का रखता है । अतएव जुए द्वारा कपट से जीती हुई पृथ्वी को वह न्यायपूर्ण शासन
द्वारा अपने वश में करने कि इच्छा करता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि यद्यपि
दुर्योधन सर्व-साधन सम्पन्न है और आपके पास कोई साधन नहीं है,
फिर भी आप से वह सदा डरा रहता है कि कहीं आपके न्याय-शासन से
प्रसन्न जनता आपका साथ न दे दे और आप उसे राजगद्दी से न उतार दें । इसलिए वह
यद्यपि जूआ में समूचे राजपाट को आपसे जीत चूका है, फिर भी
प्रजा का ह्रदय जीतने के लिए न्यायपरायणता में तत्पर है । वह आपकी ओर से तनिक भी
असावधान नहीं है, क्योंकि आप सब को वह वनवासी होने पर भी
प्रजवल्लभ होने के कारण अपने से अधिक बलवान समझता है । अतः जनता को अपने प्रति
आकृष्ट कर रहा है ।
पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार
[किस प्रकार की न्याय बुद्धि से
वह पृथ्वी को जीतना चाहता है - आगे इसे सुनिए]
तथाऽपि जिह्मः स भवज्जिगीषया तनोति
शुभ्रं गुणसम्पदा यशः ।
समुन्नयन्भूतिमनार्यसंगमाद्वरं
विरोधोऽपि समं महात्मभिः ।। १.८ ।।
अर्थ: आप से सशंकित होकर भी वह
कुटिल प्रकृति दुर्योधन आप को पराजित करने की अभिलाषा से दान-दाक्षिण्यादि सद्गुणों
से अपने निर्मल यश का(उत्तरोत्तर) विस्तार कर रहा है क्योंकि नीच लोगों के सम्पर्क
से वैभव प्राप्त करने की अपेक्षा सज्जनो से विरोध प्राप्त करना भी अच्छा ही होता
है ।
टिप्पणी: सज्जनों का विरोध दुष्टों
की सङ्गति से इसलिए अच्छा होता है कि सज्जनों के साथ विरोध करने से और कुछ नहीं तो
उनकी देखा-देखी स्पर्धा में उनके गुणों की प्राप्ति के लिए चेष्टा करने की प्रेरणा
तो होती ही है । जब कि दुष्टों की सङ्गति तात्कालिक लाभ के साथ ही दुर्गति का कारण
बनती है । क्योंकि दुष्टों की सङ्गति से बुरे गुणों का अभ्यास बढ़ेगा,
जो स्वयं दुर्गति के द्वार हैं ।
इस श्लोक में सामान्य से विशेष का
समर्थन रूप अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है, जो
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित है ।
कृतारिषड्वर्गजयेन मानवीमगम्यरूपां
पदवीं प्रपित्सुना ।
विभज्य नक्तंदिवमस्ततन्द्रिणा
वितन्यते तेन नयेन पौरुषम् ।। १.९ ।।
अर्थ: (वह दुर्योधन) काम,
क्रोध, लोभ, मोह,
मद एवं अहङ्कार रूप प्राणियों के छहों शत्रुओं को जीतकर, अत्यन्त दुर्गम मनु आदि नीतिज्ञों की बनाई हुई शासन-पद्धति पर कार्य करने की लालसा से
आलस्य को दूर भागकर, रात-दिन के समय को प्रत्येक काम के लिए अलग-अलग
करके, नैतिक शक्ति द्वारा अपने पुरुषार्थ को सबल बना रहा है
।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि
दुर्योधन अब वही जुआरी और आलसी दुर्योधन नहीं रह गया है। उसने छहों दुर्गुणों को
दूर करके स्वयम्भुव मनु के दुर्गम आदर्शों के अनुरूप अपने को राजा बना लिया है ।
उसमें आलस्य तो तनिक भी नहीं रह गया है । दिन और रात - सब में उसके पृथक-पृथक
कार्य नियत हैं। उसके पराक्रम को नैतिक शक्ति का बल मिल गया है और इस प्रकार वह
दुर्जेय बन गया है ।
परिकर अलङ्कार ।
सखीनिव प्रीतियुजोऽनुजीविनः
समानमानान्सुहृदश्च बन्धुभिः ।
स सन्ततं दर्शयते गतस्मयः
कृताधिपत्यामिव साधु बन्धुताम् ।। १.१० ।।
अर्थ: वह दुर्योधन अब निरहङ्कार
होकर सर्वदा निष्कपट भाव से सेवा करने वाले सेवकों को प्रीतिपात्र मित्रों कि तरह
मानता है। मित्रों को निजी कुटुम्बियों कि तरह सम्मानित करता है तथा अपने
कुटुम्बियों को राज्याधिकारी कि भांति आदर देता है।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि उसमें
अब वह पूर्व अभिमान नहीं है। यह अत्यन्त उदार ह्रदय बन गया है। उसने पूरे राज्य
में बन्धुता का विस्तार कर दिया है, उसका
यह व्यवहार सदा-सर्वथा रहता है, दिखावट कि गुंजाइश नहीं है।
और उसके इस व्यवहार से सब लोग सन्तुष्ट होते हैं। वह ऐसा करके यह दिखाना चाहता है
कि मुझमें अहङ्कार का लेश नहीं है।
असक्तमाराधयतो यथायथं विभज्य
भक्त्या समपक्षपातया ।
गुणानुरागादिव सख्यमीयिवान्न
बाधतेऽस्य त्रिगणः परस्परम् ।। १.११ ।।
अर्थ: यथोचित विभाग कर,
किसी के साथ कोई विशेष पक्षपात न करके वह दुर्योधन अनासक्त भाव से
धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है, जिससे
ये तीनों भी उसके (स्पृहणीय) गुणों से अनुरक्त होकर उसके मित्र-से बन गए हैं और
परस्पर उनका विरोध भाव नहीं रह गया है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि
दुर्योधन धर्म, अर्थ, काम
का ठीक-ठीक विभाग कर प्रत्येक का इस प्रकार आचरण करता है कि किसी में आसक्त नहीं
मालूम पड़ता। सब का समय नियत है, किसी से कोई पक्षपात नहीं
है। उसके गुणों पर ये तीनो भी रीझ उठे हैं। यद्यपि ये परस्पर विरोधी हैं, तथापि उसके लिए इनमें मित्रता हो गयी है और प्रतिदिन इनकी वृद्धि हो रही
है।
वाच्योतप्रेक्षा अलङ्कार
निरत्ययं साम न दानवर्जितं न भूरि
दानं विरहय्य सत्क्रियां ।
प्रवर्तते तस्य विशेषशालिनी
गुणानुरोधेन विना न सत्क्रिया ।। १.१२ ।।
अर्थ: उस दुर्योधन कि निष्कपट साम
नीति दान के बिना नहीं प्रवर्तित होती तथा प्रचुर दान सत्कार के बिना नहीं होता और
उसका अतिशय सत्कार भी बिना विशेष गन के नहीं होता। (अर्थात वह अतिशय सत्कार भी
विशेष गुनी तथा योग्य व्यक्तियों का ही करता
है। )
टिप्पणी: राजनीति में चार नीति कही
गयी हैं - साम, दाम, दण्ड
और भेद । दुर्योधन इन चारों उपायों को बड़ी निपुणता से प्रयोग करता है। अपने से बड़े
शत्रु को वह प्रचुर धन देकर मिला लेता है। उसका देना भी सम्मानपूर्वक होता है
अर्थात धन और सम्मान दोनों के साथ साम-नीति का प्रयोग करता है किन्तु इसमें यह भी
नहीं समझना चाहिए कि वह ऐरे-गैरे सभी लोगों को इस प्रकार धन-सम्मान देता है। नहीं,
केवल गुणियों को ही, सब को नहीं। पूर्ववर्ती
विशेषणों से परवर्ती वाक्यों की स्थापना के कारण एकावली अलङ्कार इस श्लोक में है।
[आगे दुर्योधन की दण्ड-नीति का
प्रकार कवि बतला रहा है। ]
वसूनि वाञ्छन्न वशी न मन्युना
स्वधर्म इत्येव निवृत्तकारणः ।
गुरूपदिष्टेन रिपौ सुतेऽपि वा
निहन्ति दण्डेन स धर्मविप्लवं ।। १.१३ ।।
अर्थ: इन्द्रियों को वश में
रखनेवाला वह दुर्योधन न तो धन के लोभ से और न क्रोध से (ही किसी को दण्ड देता है)
अपितु लोभादि कारणों से रहित होकर, इसे
अपना ( राजा का ) धर्म समझ कर ही वह अपने गुरु द्वारा उपदिष्ट ( शास्त्र सम्मत )
दण्ड का प्रयोग करके शत्रु हो या अपना निज का पुत्र हो, अधर्म
का उपशमन करता है।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि वह दण्ड
देने में भी पक्षपात नहीं करता । न तो किसी को धन-सम्पत्ति या राज्य पाने के लोभ
से दण्ड देता है और न किसी को क्रोधित होने पर । बल्कि दण्ड देने में वह अपना एक
धर्म समझता है । शास्त्रों के अनुसार जिसको जिस किसी अपराध का दण्ड उचित है वही वह
देगा । दण्डनीय चाहे शत्रु हो या अपना ही पुत्र क्यों न हो । दुष्ट ही उनके शत्रु
हैं और शिष्ट ही उसके मित्र हैं ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
[ अब आगे दुर्योधन कि भेदनीति का
वर्णन है । ]
विधाय रक्षान्परितः
परेतरानशङ्किताकारमुपैति शङ्कितः ।
क्रियापवर्गेष्वनुजीविसात्कृताः
कृतज्ञतामस्य वदन्ति सम्पदः ।। १.१४ ।।
अर्थ: सर्वदा अशुद्ध चित्त रहने
वाला वह दुर्योधन सर्वत्र चारों ओर अपने आत्मीय जनों को रक्षक नियुक्त करके अपने
को सब का विश्वास करने वाला प्रदर्शित करता है । कार्यों की सफल समाप्ति पर
राज-सेवकों को पुरस्कार रूप में प्रदान की गयी धन-सम्पत्ति उसको कृतज्ञता की सूचना
देती हैं ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि
दुर्योधन ने राज्य के सभी उच्च पदों पर अपने आत्मीय जनों को नियुक्त कर रखा है
तथापि वह सर्वदा सशंक रहता है और प्रकट में ऐसा व्यवहार करता है मानो सब का
विश्वास करता है । किसी भी कर्मचारी को वह यह ध्यान नहीं आने देता कि वह राजा का
विश्वासपात्र नहीं है । यही नहीं, जब कभी उसका
कोई कार्य सफल समाप्त होता है तब वह उसमें लगे हुए कर्मचारियों को प्रचुर
धन-सम्पत्ति पुरस्कार रूप में देता है । वही धन-सम्पत्तियाँ ही उसकी कृतज्ञता का
सुन्दर विज्ञापन करती हैं । इस प्रकार के कृतज्ञ एवं उपकारी राजा में सेवकों कि
सच्ची भक्ति होना स्वाभाविक ही है ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
अनारतं तेन पदेषु लम्भिता विभज्य
सम्यग्विनियोगसत्क्रियाम् ।
फलन्त्युपायाः परिबृंहितायतीरुपेत्य
संघर्षमिवार्थसम्पदः ।। १.१५ ।।
अर्थ: उस दुर्योधन द्वारा भलीभांति,
समझ-बूझकर यथायोग्य पात्र में प्रयोग किये जाने से सत्कृत साम,
दाम, दण्ड और भेद - ये चारों उपाय, एक दुसरे से परस्पर स्पर्धा करते हुए - से उत्तरोत्तर बढ़ने वाली
धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य राशि को सर्वदा उत्पन्न किया करते हैं ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि
दुर्योधन साम दामादि नीतियों का यथायोग्य पात्र में खूब समझ-बूझकर प्रयोग करता है
और इससे उत्तरोत्तर उसकी अचल धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती चली जा रही
है ।
अनेकराजन्यरथाश्वसंकुलं
तदीयमास्थाननिकेतनाजिरं ।
नयत्ययुग्मच्छदगन्धिरार्द्रतां भृशं
नृपोपायनदन्तिनां मदः ।। १.१६ ।।
अर्थ: छितवन (सप्तपर्ण) के पुष्प की
सुगन्ध के समान गन्ध वाले राजाओं द्वारा भेंट में दिए गए हाथियों के मद जल,
अनेक राजाओं के रथी और घोड़ों से भरे हुए उसके (दुर्योधन के) सभा-भवन
के प्रांगण को अत्यन्त गीला बनाये रखते हैं ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि
दुर्योधन की सभा में देश-देशान्तर के राजा सर्वदा जुटे रहते हैं और उनके रथों,
घोड़ों और हाथियों की भीड़ से उसके सभाभवन का प्रांगण गीला बना रहता
है । अर्थात उसका प्रभाव अब बहुत बढ़ गया है ।
उदात्त अलङ्कार
सुखेन लभ्या दधतः
कृषीवलैरकृष्टपच्या इव सस्यसम्पदः ।
वितन्वति क्षेममदेवमातृकाश्चिराय
तस्मिन्कुरवश्चकासति ।। १.१७ ।।
अर्थ: चिरकाल से प्रजा के कल्याण के
लिए यत्नशील उस राजा दुर्योधन के कारण नदी और नहरों आदि की सिंचाई की सुविधा से
समन्वित कुरुप्रदेश की भूमि मानो वहां के किसानों के बिना अधिक परिश्रम उठाये ही
बड़ी सुविधा के साथ स्वयं प्राप्त होने वाले अन्नों की समृद्धि से सुशोभित हो रही
है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि
दुर्योधन केवल राजनीती पर ही ध्यान नहीं दे रहा है, वह प्रजा की समृद्धि को भी बढ़ा रहा है । उसने समूचे कुरु-प्रदेश को अब
वर्षा के जल पर ही नहीं निर्भर रहने दिया है, नहरों व कुओं
से सिंचाई की सुविधा कर दी है । समूचा कुरु-प्रदेश धन-धान्य से भरा-पूरा हो गया है
।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार
महौजसो मानधना धनार्चिता धनुर्भृतः
संयति लब्धकीर्तयः ।
न संहतास्तस्य न भेदवृत्तयः
प्रियाणि वाञ्छन्त्यसुभिः समीहितुम् ।। १.१८ ।।
अर्थ: महाबलशाली,
अपने कुल एवं शील का स्वाभिमान रखनेवाले, धन-सम्पत्ति
द्वारा सत्कृत, युद्धभूमि में कीर्ति प्राप्त करनेवाले,
परोपकार परायण तथा एक कार्य
में सब के सब लगे रहने वाले धनुर्धारी शूरवीर उस दुर्योधन को अपने प्राणों से ( भी
) प्रिय करने की अभिलाषा रखते हैं ।
टिप्पणी: धनुर्धारियों के सभी
विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर तथा पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार की
ससृष्टि इस श्लोक में है ।
उदारकीर्तेरुदयं दयावतः
प्रशान्तबाधं दिशतोऽभिरक्षया ।
स्वयं प्रदुग्धेऽस्य गुणैरुपस्नुता
वसूपमानस्य वसूनि मेदिनी ।। १.१९ ।।
अर्थ: महान यशस्वी,
परदुःखकातर, समस्त उपद्रवों एवं बाधाओं को
शान्त कर प्रजावर्ग की सुरक्षा की सुव्यवस्था का सम्पादन करनेवाले, कुबेर के समान उस दुर्योधन के गुणों से रीझी हुई धरती (नवप्रसूता दुधारू
गौ की भांति) धन-धान्य (रुपी दूध स्वयं दे रही है।) को स्वयं उत्पन्न करती है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि
दुर्योधन के दया-दाक्षिण्य आदि गुणों ने पृथ्वी को द्रवीभूत सा कर दिया है । इसका
परिणाम यह हुआ है कि समूचे कुरु प्रदेश कि धरती मानो द्रवित होकर स्वयमेव दुर्योधन
को धन-धान्य रुपी दूध दे रही है ।
समासोक्ति अलङ्कार । अतिशयोक्ति का
भी पुट है ।
महीभृतां सच्चरितैश्चरैः क्रियाः स
वेद निःशेषमशेषितक्रियः ।
महोदयैस्तस्य हितानुबन्धिभिः
प्रतीयते धातुरिवेहितं फलैः ।। १.२० ।।
अर्थ: आरम्भ किये हुए कार्यों को समाप्त करके ही
छोड़ने वाला वह दुर्योधन अपने प्रशंसनीय चरित्र वाले राजदूतों के द्वारा अन्य
राजाओं कि सारी कार्यवाहियां जान लेता है । (किन्तु) ब्रह्मा के समान उसकी इच्छाओं
की जानकारी, उनकी महान समाप्ति के फलों
द्वारा ही होती है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि
दुर्योधन के गुप्तचर समग्र भूमण्डल में फैले हुए हैं । वह समस्त राजाओं कि गुप्त
बातें तो मालूम कर लेता है किन्तु उसकी इच्छा तो तभी ज्ञात होती है जब कार्य पूरा
हो जाता है ।
काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित उपमा
अलङ्कार है ।
न तेन सज्यं क्वचिदुद्यतं धनुर्न वा
कृतं कोपविजिह्ममाननम् ।
गुणानुरागेण शिरोभिरुह्यते
नराधिपैर्माल्यमिवास्य शासनम् ।। १.२१ ।।
अर्थ: उस (दुर्योधन) ने कहीं भी
अपने सुसज्जित धनुष को नहीं चढ़ाया तथा (उसने) अपने मुंह को भी (कहीं) कोढ़ से टेढ़ा
नहीं किया । (केवल उसके) दया-दाक्षिण्य आदि उत्तम गुणों के प्रति अनुरक्त होने के
कारण उसके शासन को सभी राजा लोग माला की भांति अपने शिर पर धारण किये रहते हैं ।
टिप्पणी: दुर्योधन की नीतिमत्ता का
यह फल है कि वह न तो कहीं धनुष का प्रयोग करता है और न कहीं मुंह से ही क्रोध
प्रकट करने की उसे आवश्यकता होती है, किन्तु
फिर भी सभी राजा उसके शासन को शिरसा स्वीकार करते हैं । यह केवल उसके
दया-दाक्षिण्य आदि गुणों का प्रभाव है ।
पूर्वार्द्ध में साभिप्राय विशेषणों
से प्रकार अलङ्कार है तथा उत्तरार्द्ध में पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित
उपमा अलङ्कार है ।
स यौवराज्ये नवयौवनोद्धतं निधाय
दुःशासनमिद्धशासनः ।
मखेष्वखिन्नोऽनुमतः पुरोधसा धिनोति
हव्येन हिरण्यरेतसम् ।। १.२२ ।।
अर्थ: अप्रतिहत आज्ञा वाला (जिसकी
आज्ञा या आदेश का पालन सब करते हैं) वह दुर्योधन नवयौवन-सुलभ उद्दण्डता से पीड़ित
दुःशासन को युवराज पद पर आसीन करके स्वयं पुरोहित की अनुमति से बड़ी तत्परता के साथ
आलस्य छोड़कर यज्ञों में हवनीय सामग्रियों द्वारा अग्निदेवता को प्रसन्न करता है ।
टिप्पणी: अर्थात अब वह शासन के छोटे-मोटे
कामों के सम्बन्ध से भी निश्चिन्त है और धर्म-कार्यों में अनुरक्त है । धर्म कार्य
में अनुरक्त ऐसे राजा का अनिष्ट भला हो ही कैसे सकता है ।
काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
प्रलीनभूपालमपि स्थिरायति
प्रशासदावारिधि मण्डलं भुवः ।
स चिन्तयत्येव भियस्त्वदेष्यतीरहो दुरन्ता
बलवद्विरोधिता ।। १.२३ ।।
अर्थ: वह दुर्योधन (शत्रु) राजाओं
के विनष्ट हो जाने के कारण सुस्थिर भूमण्डल पर समुद्र पर्यन्त राज्य शासन करते हुए
भी आप की ओर से आनेवाली विपदा के भय से चिन्तित ही रहता है । क्यों न ऐसा हो,
बलवान के साथ का वैर-विरोध अमङ्गलकारी ही है ।
टिप्पणी: समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का
शत्रुहीन राजा भी अनपे विरोधी से भयभीत है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
कथाप्रसङ्गेन
जनैरुदाहृतादनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रमः ।
तवाभिधानाद्व्यथते नताननः स
दुःसहान्मन्त्रपदादिवोरगः ।। १.२४ ।।
अर्थ: बातचीत के प्रसङ्ग में लोगों
द्वारा लिए जानेवाले आप के नाम से इन्द्रपुत्र अर्जुन के भयङ्कर पराक्रम को स्मरण
करता हुआ वह दुर्योधन (विष की औषधि करने वाले मन्त्रवेत्ता द्वारा गरुड़ और वासुकि
के नामों से युक्त ) मन्त्रों के प्रचण्ड पराक्रम को न सह सकने वाले सर्प की भांति
नीचे मुख करके व्यथा का अनुभव करता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि आप का
नाम सुनते ही उसे गहरी पीड़ा होती है । अर्जुन के भयङ्कर पराक्रम का स्मरण करके वह
मंत्रोच्चारण से सन्तप्त सर्प की भांति शिर नीचे कर लेता है ।
उपमा अलङ्कार ।
तदाशु कर्तुं त्वयि जिह्ममुद्यते
विधीयतां तत्रविधेयमुत्तरम् ।
परप्रणीतानि वचांसि चिन्वतां
प्रवृत्तिसाराः खलु मादृशां धियः ।। १.२५ ।।
अर्थ: अतएव आप के साथ कपट एवं
कुटिलता का आचरण करने में उद्यत उस दुर्योधन के साथ उचित उत्तर देने वाली
कार्यवाही आप शीघ्र करें । दूसरों की कही गयी बातों को भुगताने वाले सन्देशहारी
मुझ जैसे लोगों की बातें तो केवल परिस्थिति की सूचना मात्र देती हैं ।
टिप्पणी: दूत का तात्पर्य है कि अब
आपको उस दुर्योधन के साथ क्या करना चाहिए, इसका
शीघ्र निर्णय कर लें । इस सम्बन्ध में मेरे जैसे लोग तो यही कर सकते हैं कि जो कुछ
वहां देखकर आये हैं, उसकी सूचना आप को दे दें। क्या करना
चाहिए, इस सम्बन्ध में सम्मति देने के अधिकारी हम जैसे लोग
नहीं हैं ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
इतीरयित्वा गिरमात्तसत्क्रिये गतेऽथ
पत्यौ वनसंनिवासिनाम् ।
प्रविश्य
कृष्णा सदनं महीभुजा तदाचचक्षेऽनुजसन्निधौ वचः ।। १.२६ ।।
अर्थ: उपर्युक्त बातें कहकर,
पारितोषिक द्वारा सत्कृत उस वनवासी चर के (वहां से) चले जाने के
अनन्तर राजा युधिष्ठिर द्रौपदी के भवन में प्रविष्ट हो गए और वहां उन्होंने अपने
छोटे भाइयों की उपस्थिति में वे सारी बातें द्रौपदी को कह सुनाईं ।
टिप्पणी: वह वनवासी चर दुर्योधन की
गोपनीय बातों की सूचना देकर उचित पुरस्कार द्वारा सम्मानित होकर जब चला गया,
तब राजा युधिष्ठिर ने वे साड़ी बातें अपने छोटे भाइयों से तथा
द्रौपदी से भी जाकर बता दीं ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार
निशम्य सिद्धिं
द्विषतामपाकृतीस्ततस्ततस्त्या विनियन्तुमक्षमा ।
नृपस्य मन्युव्यवसायदीपिनीरुदाजहार
द्रुपदात्मजा गिरः ।। १.२७ ।।
अर्थ: द्रुपदसुता शत्रुओं की सफलता
सुनकर,
उनके द्वारा होने वाले अपकारों को दूर करने में अपने को असमर्थ समझ
कर राजा युधिष्ठिर के क्रोध को प्रज्ज्वलित करने वाली वाणी में (इस प्रकार) बोली ।
टिप्पणी: स्त्रियों को पति के क्रोध
को उद्दीप्त करने वाली कला खूब आती है । दुर्योधन के अभ्युदय की चर्चा सुन कर
द्रौपदी को वह सब विपदाएं स्मरण हो आईं, जो
अतीत में भोगनी पड़ी थीं । उसने अनुभव किया कि ये हमारे निकम्मे पति अभी तक उसका
प्रतिकार भी नहीं कर सके । अतः उसने युधिष्ठिर के क्रोध को उत्तेजित करने वाली
बातें कहना आरम्भ किया ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार
भवादृशेषु प्रमदाजनोदितं
भवत्यधिक्षेप इवानुशासनम् ।
तथापि वक्तुं व्यवसाययन्ति मां
निरस्तनारीसमया दुराधयः ।। १.२८ ।।
अर्थ: (यद्यपि) आप जैसे राजाओं के
लिए स्त्रियों द्वारा कही गयी अनुशासन सम्बन्धी बातें (आप के) तिरस्कार के समान
हैं तथापि नारी जाति सुलभ शालीनता को छुडानेवाली (छोड़ने के लिए विवश करने वाली) ये
मेरी दुष्ट मनोव्यथाएं मुझे बोलने के लिए विवश कर रही हैं ।
टिप्पणी: द्रौपदी कितनी बुद्धिमती
थी । उसकी भाषण-पटुता देखिये । कितनी विनम्रता से वह अपना अभिप्राय प्रकट करती है
। उसके कथन का तात्पर्य यह है कि दुखी व्यक्ति के लिए अनुचित कर्म भी क्षम्य होता
है ।
काव्यलिङ्ग और उपमा की समृष्टि ।
अखण्डमाखण्डलतुल्यधामभिश्चिरं धृता
भूपतिभिः स्ववंशजैः ।
त्वया स्वहस्तेन मही मदच्युता
मतङ्गजेन स्रगिवापवर्जिता ।। १.२९ ।।
अर्थ: इन्द्र के समान पराक्रमशाली
अपने वंश में उत्पन्न होनेवाले भरत आदि राजाओं द्वारा चिरकाल तक सम्पूर्ण रूप से
धारण की हुई इस धरती को तुमने मद चुवाने वाले (मदोन्मत्त) गजराज द्वारा माला की
भांति अपने ही हाथों से (तोड़फोड़) कर त्याग दिया है ।
टिप्पणी: भरत आदि पूर्ववंशजों के
महान पराक्रम की याद दिलाकर द्रौपदी युधिष्ठिर को लज्जित करना चाहती है । कहाँ थे
वह लोग और कहाँ हो तुम कि अपने ही साम्राज्य को अपने ही हाथों से नष्ट कर दिया ।
अपने ही अवगुणों से यह अनर्थ हुआ है ।
उपमा अलङ्कार ।
व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति
मायाविषु ये न मायिनः ।
प्रविश्य हि घ्नन्ति
शठास्तथाविधानसंवृताङ्गान्निशिता इवेषवः ।। १.३० ।।
अर्थ: वे मूर्ख बुद्धि के लोग
पराजित होते हैं जो (अपने) मायावी (शत्रु) लोगों के साथ मायावी नहीं बनते,
क्योंकि दुष्ट लोग उस प्रकार के सीधे-सादे निष्कपट लोगो में,
उघाड़े हुए अंगों में तीक्ष्ण बाणों की भांति प्रवेश करके उनका विनाश
कर देते हैं ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि मायावी
दुर्योधन को जीतने के लिए तुम को अपनी या धर्मात्मापने की नीति छोड़नी होगी ।
तुम्हें भी उसी तरह मायावी बनना होगा । जिस तरह उघडे शरीर में तीक्ष्ण बाण घुस कर
अंगों का नाश कर देते हैं, उसी तरह से निष्कपट
रहनेवालों के बीच में उसके कपटी शत्रु भी प्रवेश कर लेते हैं और उसका सत्यानाश कर
देते हैं ।
अर्थान्तरन्यास से अनुप्राणित उपमा
अलङ्कार ।
गुणानुरक्तां अनुरक्तसाधनः
कुलाभिमानी कुलजां नराधिपः ।
परैस्त्वदन्यः क इवापहारयेन्मनोरमां
आत्मवधूं इव श्रियं ।। १.३१ ।।
अर्थ: सब प्रकार के साधनों से युक्त
एवं अपने उच्च कुल का अभिमान करनेवाला तुम्हारे शिव दूसरा कौन ऐसा राजा होगा,
जो सन्धि आदि (सौन्दर्य आदि) राजोचित गुणों से (स्त्रियोचित गुणों
से) अनुरक्त, वंश परम्परा द्वारा प्राप्त (उच्च कुलोत्पन्न)
मन को लुभानेवाली अपनी पत्नी की भांति राज्यलक्ष्मी को दूसरों से अपहृत कराएगा ।
टिप्पणी: स्त्री के अपहरण के समान
ही राज्यलक्ष्मी का अपहरण भी मानहानिकारक है । तुम्हारे समान निर्लज्ज ऐसा कोई
दूसरा राजा मेरी दृष्टी में नहीं है, जो
अपने देखते हुए अपनी पत्नी की भांति अपनी राज्यलक्ष्मी को अपहरण करने दे रहा है ।
मालोपमा अलङ्कार
भवन्तं एतर्हि मनस्विगर्हिते
विवर्तमानं नरदेव वर्त्मनि ।
कथं न मन्युर्ज्वलयत्युदीरितः
शमीतरुं शुष्कं इवाग्निरुच्छिखः ।। १.३२ ।।
अर्थ: हे राजन ! ऐसा विपत्ति का समय
आ जाने पर भी, वीर पुरुषों के लिए निंदनीय
मार्ग पर खड़े हुए आप को (मेरे द्वारा) बढ़ाया हुआ क्रोध, सूखे
हुए शमी वृक्ष को अग्नि की भांति क्यों नहीं जला रहा है ।
टिप्पणी: अर्थात आप को तो ऐसी
विपदावस्था में उद्दीप्त क्रोध से जल उठाना चाहिए था । शत्रु द्वारा उपस्थित की
गयी ऐसी दूरदशाजनक परिस्थिति में भी आप कायरों की भांति शान्तचित्त हैं,
इसका मुझे आश्चर्य हो रहा है।
उपमा अलङ्कार ।
अवन्ध्यकोपस्य निहन्तुरापदां भवन्ति
वश्याः स्वयं एव देहिनः ।
अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न
जातहार्देन न विद्विषादरः ।। १.३३ ।।
अर्थ: जिसका क्रोध कभी निष्फल नहीं
होता - ऐसे विपत्तियों को दूर करने वाले व्यक्ति के वश में लोग स्वयं ही हो जाते
हैं (किन्तु) क्रोध से विहीन व्यक्ति के साथ प्रेम भाव पैदा होने से मनुष्य का आदर
नहीं होता और न शत्रुता होने से भय ही होता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य है कि जिस मनुष्य
में अपने अपकार का बदला चुकाने कि क्षमता नहीं होती उसकी मित्रता से न कोई लाभ
होता है और न शत्रुता से कोई भय होता है । क्रोध अथवा अमर्ष से विहीन प्राणी नगण्य
होता है । मनुष्य को समय पर क्रोध करना चाहिए और समय पर क्षमा करनी चाहिए ।
परिभ्रमंल्लोहितचन्दनोचितः पदातिरन्तर्गिरि
रेणुरूषितः ।
महारथः सत्यधनस्य मानसं दुनोति ते
कच्चिदयं वृकोदरः ।। १.३४ ।।
अर्थ: (पहले) लाल चन्दन लगाने के
अभ्यस्त,
रथ पर चलनेवाले (किन्तु सम्प्रति) धुल से भरे हुए पैदल - एक पर्वत
से दुसरे पर्वत पर भ्रमण करनेवाले यह भीमसेन क्या सत्यपरायण (आप) के चित्त को
खिन्न नहीं करते हैं ?
टिप्पणी: 'सत्यपरायण' यहाँ उलाहने के रूप में उत्तेजना देने के
लिए कहा गया है । छोटे भाइयों कि दुर्दशा का चित्र खींच कर द्रौपदी युधिष्ठिर को
अत्यन्त उत्तेजित करना चाहती है । उसके इस व्यंग्य का तात्पर्य यह है कि ऐसे
पराक्रमी भाइयों कि ऐसी दुर्गति हो रही है और आप उन मायावियों के साथ ऐसी
सत्यपरायणता का व्यवहार कर रहे हैं ।
परिकर अलङ्कार ।
विजित्य यः प्राज्यं
अयच्छदुत्तरान्कुरूनकुप्यं वसु वासवोपमः ।
स वल्कवासांसि तवाधुनाहरन्करोति
मन्युं न कथं धनंजयः ।। १.३५ ।।
अर्थ: इन्द्र के समान पराक्रमी जिस
(अर्जुन) ने सुमेरु के उत्तरवर्ती कुरुप्रदेशों को जीत कर प्रचुर सुवर्ण एवं राशि
लाकर आपको दी थी वही अर्जुन अब वल्कलोन का वस्त्र धारण कर तुम्हारे ह्रदय में
क्रोध को क्यों नहीं पैदा कर रहा है ?
टिप्पणी: जिसने जीवनपर्यन्त सुखभोग
के लिए पर्याप्त धनराशि अपने पराक्रम से जीत कर आपको दी थी,
वही आप के कारण आज वल्कलधारी है, यह देखकर भी
आप में क्रोध क्यों नहीं होता - यह आश्चर्य है ।
वनान्तशय्याकठिनीकृताकृती
कचाचितौ विष्वगिवागजौ गजौ ।
कथं त्वं एतौ धृतिसंयमौ यमौ
विलोकयन्नुत्सहसे न बाधितुं ।। १.३६ ।।
अर्थ: वन की विषम भूमि में सोने से
जिनका शरीर कठोर बन गया है, ऐसे चरों ओर बाल
उलझाए हुए, जङ्गली हाथी की भान्ति, इन
दोनों जुड़वें भाइयों (नकुल और सहदेव) को देखते हुए, (तुम्हारे)
धैर्य और सन्तोष तुम्हें छोड़ने को क्या नहीं तैयार होते ।
टिप्पणी: भीम और अर्जुन की
पराक्रम-चर्चा के साथ सौतेली माता के सुकुमार पुत्रों की दुर्दशा की चर्चा भी
युधिष्ठिर को और अधिक उत्तेजित करने के लिए की गयी है । इसमें तो उनके धैर्य और
सन्तोष की खुले शब्दों में निन्दा भी की गयी है कि ऐसा धैर्य और सन्तोष कहीं नहीं
देखा गया ।
उपमा अलङ्कार
इमां अहं वेद न तावकीं धियं
विचित्ररूपाः खलु चित्तवृत्तयः ।
विचिन्तयन्त्या भवदापदं परां
रुजन्ति चेतः प्रसभं ममाधयः ।। १.३७ ।।
अर्थ: मैं (इतनी विपत्ति में भी
आपको स्थिर रखनेवाली) आपकी बुद्धि को नहीं समझ पाती । मनुष्य-मनुष्य की
चित्तवृत्ति अलग-अलग विचित्र होती है । आप की इन भयङ्कर विपत्तियों को (तो) सोचते
हुए (भी) मेरे चित्त को मनोव्यथाएं अत्यन्त व्याकुल कर देती हैं ।
टिप्पणी: अर्थात आप जिस विपत्ति को
झेल रहे हैं वह तो देखने वालों को भी परेशान कर देती है,
किन्तु आप हैं जो बिलकुल निश्चिन्त और निष्क्रिय हैं । यह परम
आश्चर्य है ।
पुराधिरूढः शयनं महाधनं विबोध्यसे
यः स्तुतिगीतिमङ्गलैः ।
अदभ्रदर्भां अधिशय्य स स्थलीं जहासि
निद्रां अशिवैः शिवारुतैः ।। १.३८ ।।
अर्थ: जो आप पहले अत्यन्त मूलयवान
शय्या पर सोकर स्तुति पाठ करनेवाले बैतालिकों के मङ्गल गान से जगाये जाते थे,
व्है आप अब कुशों से आकीर्ण वनस्थली में शयन करते हुए अमङ्गल की
सूचना देनेवाली शृगालियों के रुदन शब्दों से निद्रा-त्याग करते हैं ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है की विपदा
ही क्यों,
आप की भी तो दुर्दशा हो रही है ।
विषम अलङ्कार
पुरोपनीतं नृप रामणीयकं
द्विजातिशेषेण यदेतदन्धसा ।
तदद्य ते वन्यफलाशिनः परं परैति
कार्श्यं यशसा समं वपुः ।। १.३९ ।।
वंशस्थ छन्द
अर्थ: हे राजन ! आपका जो यह शरीर
पहले ब्राह्मणों के भोजनादि से शेष अन्न द्वारा परिपोषित होकर मनोहर दिखाई पड़ता था,
वही आज जङ्गली फल-फूलों के भक्षण से, आपके यश
की साथ, अत्यन्त दुर्बल हो गया है ।
टिप्पणी: अर्थात न केवल शरीर ही
दुर्बल हो गया है, वरन आपकी कीर्ति भी
धूमिल हो गयी है ।
सहोक्ति अलङ्कार
अनारतं यौ
मणिपीठशायिनावरञ्जयद्राजशिरःस्रजां रजः ।
निषीदतस्तौ चरणौ वनेषु ते
मृगद्विजालूनशिखेषु बर्हिषां ।। १.४० ।।
वंशस्थ छन्द
अर्थ: सर्वदा मणि के बने हुए
सिंहासन पर विश्राम करनेवाले आप के जिन दोनों पैरों को (अभिवादन के लिए झुकने
वाले) राजाओं के मस्तक की मालाओं की धूलि लगती थी, (अब) वही दोनों चरण हरिणो अथवा ब्राह्मणों के द्वारा छिन्न कुशों के वनों
में विश्राम पाते हैं ।
टिप्पणी: इससे बढ़कर विपत्ति अब और
क्या आएगी ।
विषम अलङ्कार
द्विषन्निमित्ता यदियं दशा ततः
समूलं उन्मूलयतीव मे मनः ।
परैरपर्यासितवीर्यसम्पदां
पराभवोऽप्युत्सव एव मानिनाम् ।। १.४१ ।।
वंशस्थ छन्द
अर्थ: आप की यह दुर्दशा शत्रु के
कारण हुई है, इसलिए मेरा मन अत्यन्त क्षुब्ध
सा होता है । (वैसे) शत्रुओं द्वारा जिसके बल एवं पराक्रम का तिरस्कार नहीं हुआ है,
ऐसे मनस्वियों का पराभव भी उत्साहवर्धक ही होता है ।
टिप्पणी: मानियों की विपदा बुरी
नहीं है,
उनकी मानहानि बुरी है । वही सब से बढ़ कर असहनीय है ।
उत्प्रेक्षा और अर्थान्तरन्यास
अलङ्कारों की ससृष्टि
विहाय शान्तिं नृप धाम तत्पुनः
प्रसीद संधेहि वधाय विद्विषां ।
व्रजन्ति शत्रूनवधूय निःस्पृहाः
शमेन सिद्धिं मुनयो न भूभृतः ।। १.४२ ।।
वंशस्थ छन्द
अर्थ: (इसलिए) हे राजन ! शान्ति को
त्याग कर आप (अपने) उस तेज को शत्रुओं के विनाशार्थ पुनः प्राप्त करें तथा प्रसन्न
हों । निस्पृह मुनि लोग (ही) शत्रुओं (कामादि मनोविकारों) को तिरस्कृत कर के
शान्ति के द्वारा सिद्धि की प्राप्ति करते हैं, राजा
लोग नहीं ।
टिप्पणी: शान्ति द्वारा प्राप्त
होने वाले मोक्षादि पदार्थों की भांति राज्यलक्ष्मी शान्ति से प्राप्त नहीं होती,
वह वीरभोग्या है । आपको तो अपने शत्रु का विनाश करने वाला तेज पुनः
धारण करना होगा ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
पुरःसरा धामवतां यशोधनाः सुदुःसहं
प्राप्य निकारं ईदृशं ।
भवादृशाश्चेदधिकुर्वते
परान्निराश्रया हन्त हता मनस्विता ।। १.४३ ।।
वंशस्थ छन्द
अर्थ: तेजस्वियों में अग्रगामी,
यश को सर्वस्व माननेवाले आप जैसे शूरवीर अत्यन्त कठिनाई से सहने
योग्य, इस प्रकार से शत्रु द्वारा होने वाले अपमान को
प्राप्त करके यदि सन्तोष करते हैं तो हाय !
स्वभिमानिता बेचारी निराश्रय होकर नष्ट हो गयी ।
टिप्पणी: अर्थात आप जैसे तेजस्वी
तथा यश को ही जीवन का उद्देश्य माननेवाला भी यदि शत्रु द्वारा प्राप्त दुर्दशा को
सहन करता है तो साधारण मनुष्य के लिए क्या कहा जाय ? अतः पराक्रम करना ही अब आपका धर्म है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
अथ क्षमां एव निरस्तसाधनश्चिराय
पर्येषि सुखस्य साधनं ।
विहाय लक्ष्मीपतिलक्ष्म कार्मुकं
जटाधरः सञ्जुहुधीह पावकं ।। १.४४ ।।
वंशस्थ छन्द
अर्थ: अथवा (अपनी सूर्य तेजस्विता
का नहीं धारण करना चाहते और) अपने पराक्रम का त्याग कर चिरकाल तक शान्ति को ही सुख
का कारण मानते हो तो राजचिन्ह से चिन्हित धनुष को फेंककर जटा धारण कर लो और इस
तपोवन में अग्नि में हवन करो ।
टिप्पणी: अर्थात बलवानों के लिए भी
यदि शान्ति ही सुखदायी हो तो विरक्तों की तरह बलवानों को भी धनुष धारण करने से
क्या लाभ है ? उसे फेंक देना चाहिए ।
न समयपरिरक्षणं क्षमं ते
निकृतिपरेषु परेषु भूरिधाम्नः ।
अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा
विदधति सोपधि संधिदूषणानि ।। १.४५ ।।
पुष्पिताग्रा छन्द
अर्थ: नीचता पर उतारू शत्रुओं के
रहते हुए आप जैसे परम तेजस्वी के लिए तरह वर्ष की अवधि की रक्षा की बात सोचना
अनुचित है, क्योंकि विजय के अभिलाषी राजा
अपने शत्रुओं के साथ किसी न किसी बहाने से सन्धि आदि को भङ्ग कर ही देते हैं ।
टिप्पणी: जो शक्तिमान होते हैं,
उनके लिए सर्वदा अपना कार्य करना ही कल्याणकारी है, समय अथवा प्रतिज्ञा की रक्षा कायरों के लिए उचित है ।
काव्यलिङ्ग और अर्थान्तरन्यास
अलङ्कार
विधिसमयनियोगाद्दीप्तिसंहारजिह्मं
शिथिलबलं अगाधे मग्नं आपत्पयोधौ ।
रिपुतिमिरं उदस्योदीयमानं दिनादौ
दिनकृतं इव लक्ष्मीस्त्वां समभ्येतु भूयः ।। १.४६ ।।
मालिनी छन्द
अर्थ: देव और कालचक्र के कारण अगाध
विपत्ति समुद्र में डूबे हुए, प्रताप के
नष्ट हो जाने से अप्रसन्न, विनष्ट धन-सम्पत्ति, शत्रुरूपी अन्धकार को विनष्ट कर उदित होने वाले आप को प्रातः काल के
(कालचक्र के कारण पश्चिम समुद्र में निमग्न, प्रकाश के नष्ट
हो जाने से निस्तेज एवं अन्धकार को दूर कर उदित होने वाले) सूर्य की भान्ति
राज्यलक्ष्मी (कान्ति) फिर से प्राप्त हो ।
टिप्पणी: रात्रि भर पश्चिम के
समुद्र में डूबे हुए निस्तेज सूर्य को प्रातः काल उदित होने पर जिस प्रकार पुनः
उसकी कान्ति प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार इतने दिनों तक विपत्तियों के अगाध
समुद्र में डूबे हुए, निस्तेज एवं निर्धन
आप को भी आपकी राज्यलक्ष्मी जल्द ही प्राप्त हो - यह मेरी कामना है ।
सर्ग का आरंभ श्री शब्द से हुआ था
और उसका अन्त भी लक्ष्मी शब्द से हुआ । मंगलाचरण के लिए ऐसा ही शास्त्रीय विधान है
। यह मालिनी छन्द है, जिसका लक्षण है,
"ननमयययुतेय मालिनी भोगिलोकौ ।" छन्द में पूर्णोपमा
अलङ्कार है ।
इति भारविकृतौ महाकाव्ये
किरातार्जुनीये प्रथमः सर्गः ।।
किरातार्जुनीयम् प्रथमः सर्गः (सर्ग
१) समाप्त ।।
आगे जारी-पढ़ें................... किरातार्जुनीयम् सर्ग २ ।।
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