रघुवंशम् छटवां सर्ग
इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की
महाकाव्य रघुवंशम् पञ्चम सर्ग में आपने... अज को विदर्भ के राजा भोजराज ने उन्हें
तथा उनके साथ के सैनिकगणों को बड़े आदर के साथ रक्खा,यहाँ तक की कथा पढ़ा । अब इससे
आगे की कथा रघुवंशम् छटवां सर्ग में पढ़ेंगे-
रघुवंशमहाकाव्यम् षष्ठः सर्गः
रघुवंशम् छटवां सर्ग
जाह्नवी मूनि पादे वा कालः कण्ठे
वपुष्यथ ।
कामारि कामतातं वा कञ्चिद्देवं
भजामहे ।।
सुरनदी शिर या चरण में श्यामता गल
कण्ठ में ।
काम के रिपु वा पिता उस देव को इम
नित मजें।
॥ अथ रघुवंशं सर्ग ६ कालिदासकृतम् ॥
स तत्र मञ्चेषु मनोज्ञवेषान्सिंहासनस्थानुपचारवत्सु
।
वैमानिकानां
मरुतामपश्यदाकृष्टलीलान्नरलोकपालान् ॥ ६-१॥
उस
अज ने राजकीय साधनों से सजाये गये मञ्चों पर सुन्दर वेग वाले तथा विमानरथ देवताओं
के अनुकरण
करनेवाले राजाओं को उस स्वयंवर में देखा ॥१॥
रतेर्गृहीतानुनयेन कामं प्रत्यर्पितस्वाङ्गमिवेश्वरेण
।
काकुत्स्थमालोकयतां नृपाणां मनो
बभूवेन्दुमतीनिराशम् ॥ ६-२॥
रति ( कामपत्नी) की प्रार्थना को
स्वीकार कर शिवजी से फिर अपने शरीर को प्राप्त किये हुए काम के समान अज को देखते
हुए राजाओं का मन इन्दुमती ( को पाने) से निराश हो गया ॥२॥
वैदर्भनिर्दिष्टमसौ कुमारः कॢप्तेन
सोपानपथेन मञ्चम् ।
शिलाविभङ्गैर्मृगराजशावस्तुङ्गं
नगोत्सङ्गमिवारुरोह ॥ ६-३॥
वे कुमार (अज) विदर्भ नरेश (भोज) से
बतलाये गये मञ्च पर बनाये गये सीढ़ी के रास्ते से, चट्टानों के रास्ते से पहाड़ पर सिंह के बच्चे के समान चढ़ गये ॥३॥
परार्ध्यवर्णास्तरणोपपन्नमासेदिवान्रत्नवदासनं
सः ।
भूयिष्ठमासीदुपमेयकान्तिर्मयूरपृष्ठाश्रयिणा
गुहेन ॥ ६-४॥
बहुमूल्य रंगीन चादर से विछाये गये
रत्नजटित आसन पर बैठे हुए वे अज मोर की पीठ पर बैठे हुए कार्तिकेय के समान अधिक
शोभमान हुए ॥ ४ ॥
तासु श्रिया राजपरंपरासु
प्रभाविशेषोदयदुर्निरीक्ष्यः ।
सहस्रधात्मा व्यरुचद्विभक्तः
पयोमुचां पङ्क्तिषु विद्युतेव ॥ ६-५॥
उन राजङ्पक्तियों में लक्ष्मी
(शोभा) से हजारों भागों में (तरङ्गों में सूर्य के समान) आत्मा को फैलाये हुए वे
अज,
मेघपङ्क्तियों में बिजली से हजारों भागों में विभक्त (सब तरफ फैलाये
गये) आत्मा अर्थात् प्रकाश के समान शोभित हुए ॥५॥
तेषां
महार्हासनसंस्थितानामुदारनेपथ्यभृतां स मध्ये ।
रराज धाम्ना रघुसूनुरेव
कल्पद्रुमाणामिव पारिजातः ॥ ६-६॥
बहुमूल्य आसनों पर बैठे हुए तथा
श्रेष्ठ भूषणों को पहने हुए उन राजाओं के बीच में रघुकुमार अज ही,
कल्पद्रुमों के बीच में पारिजात के समान अपने तेज से शोभायमान हुए ॥
६ ॥
नेत्रव्रजाः पौरजनस्य तस्मिन्विहाय
सर्वान्नृपतीन्निपेतुः ।
मदोत्कटे रेचितपुष्पवृक्षा
गन्धद्विपे वन्य इव द्विरेफाः ॥ ६-७॥
नागरिकों की दृष्टि सब राजाओं को
छोड़कर उस अज पर ही उस प्रकार गयी, जिस प्रकार भौरे फूले हुए वृक्षों को छोड़कर
तीव्र गन्धवाले हाथी ( के गण्डस्थल ) पर जाते हैं ॥७॥
अथ स्तुते बन्दिभिरन्वयज्ञैः
सोमार्कवंश्ये नरदेवलोके ।
संचारिते चागुरुसारयोनौ धूपे
समुत्सर्पति वैजयन्तीः ॥ ६-८॥
इसके बाद वंश ( की परम्परा ) को जाननेवाले
बन्दियों से सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी राजाओं के प्रशंसित होने पर अर्थात्
प्रशंसात्मक वचनों से परिचय दिये जाने पर, जलाये
गये अगर की धूपबत्तियों (के धूएं) को पताकाओं से ऊपर तक फैलते रहने पर-॥८॥
पुरोपकण्टोपवनाश्रयाणां
कलापिनामुद्धतनृत्तहेतौ ।
प्रध्मातशङ्खे परितो
दिगन्तांस्तूर्यस्वने मूर्च्छति मङ्गलार्थे ॥ ६-९॥
नगर के पार्श्ववती उपवनों में रहने वाले
मयूरों के अधिक नाचने का कारण बने हुए तथा शङ्ख बजाये जानेवाले,
मङ्गल के लिये तुरही (आदि बाजाओं) की ध्वनि को दिगन्त तक फैलते रहने
पर-॥९॥
मनुष्यवाह्यं चतुरन्तयानमध्यास्य
कन्या परिवारशोभि ।
विवेश मञ्चान्तरराजमार्गं पतिंवरा
कॢप्तविवाहवेषा ॥ ६-१०॥
पति को स्वयं वरण करनेवाली,
विवाह के भूषणों को पहनी हुई कुमारी इन्दुमती परिवारों से शोभमान
तथा मनुष्यों से ढोये जाने वाले पालकी या तामदानपर सवार होकर मञ्चों के मध्य में
(बनी हुई) सड़क पर पहुँची ॥१०॥
तस्मिन्विधानातिशये विधातुः
कन्यामये नेत्रशतैकलक्ष्ये ।
निपेतुरन्तःकरणैर्नरेन्द्रा देहैः
स्थिताः केवलमासनेषु ॥ ६-११॥
सैकड़ों नेत्रों का एक लक्ष्य कन्या
(इन्दुमती ) रूप, ब्रह्मा की श्रेष्ठ
रचना में राजा लोग अन्तःकरण से मग्न हो गये और आसन पर (तो वे केवल ) शरीर से बैठे
रहे। (इन्दुमती में सब राजाओं का अन्तःकरण आकृष्ट हो गया)॥११॥
तां प्रत्यभिव्यक्तमनोरथानां
महीपतीनां प्रणयाग्रदूत्यः ।
प्रवालशोभा इव पादपानां शृङ्गारचेष्टा विविधा बभूवुः ॥ ६-१२॥
उस इन्दुमती के प्रति स्पष्ट अभिलाषा
वाले राजाओं की प्रेम सम्बन्धिनी प्रथम दूती, वृक्षों
की नवपल्लवों की शोभा के समान, अनेक चेष्टायें (श्लो० १३-१९
में वर्णित ) हुई ॥ १२ ॥
कश्चित्कराभ्यामुपगूढनालमालोलपत्राभिहतद्विरेफम्
।
रजोभिरन्तः परिवेषबन्धि लीलारविन्दं
भ्रमयांचकार ॥ ६-१३॥
कोई राजा दोनों हाथ से पकड़े गये
नालदण्डवाले, हिलते हुए पत्तों से भ्रमरों को
दूर करने वाले और भीतर में परागों के मण्डल बांधते हुए लीलाकमल को घुमा रहा था। ('मेरे हाथ में स्थित इस लीला-कमल के समान तुम्हारे साथ में भ्रमण करूंगा या
तुम मेरे साथ भ्रमण करना' यह राजा का अभिप्राय था और 'हाथ को घुमानेवाला यह राजा कुलक्षण है। यह इन्दुमती का अभिप्राय था)॥ १३ ॥
विस्रस्तमंसादपरो विलासी
रत्नानुविद्धाङ्गदकोटिलग्नम् ।
प्रालम्बमुत्कृष्य यथावकाशं निनाय
साचीकृतचारुवक्त्रः ॥ ६-१४॥
दूसरा विलासी राजा कन्धे से नीचे
सरकी हुई तथा रत्नजटित विजायठ के किनारे में अटकी हुई माला को ( पाठान्तर से-दुपट्टे
को ) मुख को थोड़ा तिर्छा करता हुआ यथास्थान रखा । ('दुपट्टे को हटाने के बहाने से मैं तुमको इसी प्रकार आलिङ्गन करूंगा'
यह राजा का अभिप्राय था और यह राजा अपने दूषित अङ्ग को छिपा रहा है।
यह इन्दुमती का अभिप्राय था ॥ १४॥
आकुञ्चिताग्राङ्गुलिना ततोऽन्यः
किञ्चित्समावर्जितनेत्रशोभः ।
तिर्यग्विसंसर्पिनखप्रभेण पादेन
हैमं विलिलेख पीठम् ॥ ६-१५॥
उसके अतिरिक्त दूसरा राजा नेत्र को थोड़ा
नीचे करके शोभायुक्त होता हुआ अर्थात् कटाक्ष विक्षेप करता हुआ अङ्गुलि को थोड़ा सिकोड़कर
तिर्यक् फैलती हुई नखकान्तिवाले पैर से सुवर्ण- रचित पादपीठ (सिंहासन के नीचे रखे
हुए पावदान ) को खुरचने लगा । ('हे प्रिये !
इन्दुमति ! तुम मेरे समीप आवो' यह राजा का अभिप्राय था,
और 'भूमि को खुरचनेवाले राजा में लक्ष्मी के
बिनाश का सूचक अशुभ लक्षण है' ऐसा इन्दुमती का अभिप्राय था)॥
१५ ॥
निवेश्य वामं भुजमासनार्धे
तत्संनिवेशात् अधिकोन्नतांसः ।
कश्चिद्विवृत्तत्रिकभिन्नहारः
सुहृत्समाभाषणतत्परोऽभूत् ॥ ६-१६॥
सिंहासन के आधे भाग में बायें हाथ को
रखकर उस हाथ को आसन पर रखने से ऊंचे (उठे हुए दहिने) कन्धेवाला तथा पीठ पर पहुँचे
(लटकते) हुए हारवाला कोई राजा मित्र के साथ बात करने लगा। ('तुमको बायें अङ्ग में बैठाकर इसी प्रकार मैं तुमसे वार्तालाप करूंगा'
यह राजा का अभिप्राय था और 'दूसरे के सामने
मुख फेर कर कर्तव्यविमुख होने वाला यह राजा है' यह इन्दुमती का
अभिप्राय था) ॥ १६ ॥
विलासिनीविभ्रमदन्तपत्रमपाण्डुरं
केतकबर्हमन्यः ।
प्रियानितम्बोचितसंनिवेशैर्विपाटयामास
युवा नखाग्रैः ॥ ६-१७॥
दूसरा युवक राजा विलासिनियों के
विलासार्थ निर्मित दन्तपत्रवाले एवं श्वेतवर्ण केतकी पुष्प के पत्ते को प्रिया के नितम्ब पर रखने योग्य अर्थात् प्रिया के नितम्ब को
विलिखित करनेवाले नखाग्रों से खुरचता था । ('मैं
तुम्हारे नितम्ब पर सम्भोगकाल में इसी प्रकार नखाग्रों से विलेखन करूंगा' यह राजा का अभिप्राय था और 'तृणच्छेदन करने की अशुभ
प्रकृतिवाला यह केतकी-पुष्प के पत्र को विदीर्ण कर रहा है। यह इन्दुमती का
अभिप्राय था) ॥ १७ ॥
कुशेशयाताम्रतलेन कश्चित्करेण
रेखाध्वजलाञ्छनेन ।
रत्नाङ्गुलीयप्रभयानुविद्धानुदीरयामास
सलीलमक्षान् ॥ ६-१८॥
कोई राजा कमल के समान लाल
तलहत्यीवाले तथा ध्वजा के चिह्न से युक्त रेखा वाले हाथ से,
रत्न जड़ी हुई अंगूठी की कान्ति से युक्त पाशे को उछाल रहा था। ('मैं तुम्हारे साथ इसी प्रकार रमण करूंगा' यह राजा का
अभिप्राय था और यह जुआरी है' यह इन्दुमती का अभिप्राय
था)॥१८॥
कश्चिद्यथाभागमवस्थितेऽपि
स्वसंनिवेशाद्व्यतिलङ्घिनीव ।
वज्रांशुगर्भाङ्गुलिरन्ध्रमेकं
व्यापारयामास करं किरीटे ॥ ६-१९॥
कोई राजा उचित स्थान पर स्थित होने पर
भी इधर-उधर सरके हुए के समान मुकुट पर हीरे की किरणों से युक्त
अङ्गुलिच्छिद्रोंवाले हाथ को मुकुट पर रखा । ( 'मस्तक पर रहने पर भी तुमको मुकुट के समान भार नहीं समझूंगा' यह राजा का अभिप्राय था और 'मस्तक पर हाथ रखनेवाला
यह कुलक्षण राजा है' यह इन्दुमती का अभिप्राय था) ॥ १९ ॥
ततो नृपाणां श्रुतवृत्तवंशा
पुंवत्प्रगल्भा प्रतिहाररक्षी ।
प्राक्संनिकर्षं मगधेश्वरस्य नीत्वा
कुमारीमवदत्सुनन्दा ॥ ६-२०॥
इसके बाद राजाओं के आचरण एवं
वंश-परम्परा को जाननेवाली तथा ढीठ ( अथवा पुरुष के समान ढीठ) द्वारपालिका 'सुनन्दा' पहले कुमारी इन्दुमती को मगध नरेश के समीप
ले जाकर पुरुष के समान बोली ॥२०॥
असौ शरण्यः शरणोन्मुखानामगाधसत्त्वो
मगधप्रतिष्ठः ।
राजा प्रजारञ्जनलब्धवर्णः परंतपो
नाम यथार्थनामा ॥ ६-२१॥
यह शरणार्थियों के लिये शरण्य (शरणागतों
के साथ सद्वयवहार करनेवाला), अपरिमित
बलवाला, मगध देश की प्रतिष्ठा अर्थात् मगध देश में रहनेवाला,
प्रजाओं के अनुरञ्जन करने में विद्वान् और शत्रुओं को सन्तप्त करने से
यथार्थ नामवाला 'परन्तप' नामक राजा है
॥ २१ ॥
कामं नृपाः सन्तु सहस्रशोऽन्ये
राजन्वतीमाहुरनेन भूमिम् ।
नक्षत्रताराग्रहसंकुलापि
ज्योतिष्मती चन्द्रमसैव रात्रिः ॥ ६-२२॥
दूसरे हजारों राजा भले ही हों,
(किन्तु लोग ) इसी राजा से पृथ्वी को श्रेष्ठ राजावाली कहते हैं।
क्योंकि अश्विनी आदि नक्षत्र, अन्य ताराएं तथा मङ्गल आदि
ग्रहों से परिपूर्ण भी रात्रि चन्द्रमा से ही 'चाँदनीवाली'
होती है ॥ २२ ॥
क्रियाप्रबन्धादयमध्वराणामजस्रमाहूतसहस्रनेत्रः
।
शच्याश्चिरं
पाण्डुकपोललम्बान्मन्दारशून्यानलकांश्चकार ॥ ६-२३॥
सर्वदा यज्ञ करने से इन्द्र को बार
२ बुलाने वाला यह राजा इन्द्राणी के (पति विरह से) पाण्डुर कपोलो पर लटकते हुए
बालों को मन्दार-पुष्प से रहित कर दिया है। (जब २ इन्द्र राजा के यहां यज्ञभाग
लेने के लिये जाते हैं तब २ प्रोषित (परदेश में गये हुए) पतिवाली इन्द्राणी का
कपोल मण्डल पति विरह से श्वेतवर्ण हो जाता है और वह केशों में मन्दार-पुष्पों को
गूंथकर शृङ्गार करना छोड़ देती है)॥२३॥
अनेन चेदिच्छसि गृह्यमाणं पाणिं
वरेण्येन कुरु प्रवेशे ।
प्रासादवातायनसंस्थितानां
नेत्रोत्सवं पुष्पपुराङ्गनानाम् ॥ ६-२४॥
तुम श्रेष्ठ इस राजा के साथ विवाह
करना चाहती हो तो (इस राजा की राजधानी में अपने ) प्रवेशकाल में महलों की
खिड़कियों पर बैठी हुई 'पुष्पपुर' ('पटना'-इस राजा की राजधानी ) की महिलाओं के नेत्रों को
उत्सवयुक्त अर्थात् अपना दर्शन देकर सुप्रसन्न करो।
एवं तयोक्ते तमवेक्ष्य
किंचिद्विस्रंसिदूर्वाङ्कमधूकमाला ।
ऋजुप्रणामक्रिययैव तन्वी
प्रत्यादिदेशैनमभाषमाणा ॥ ६-२५॥
उस सुनन्दा के ऐसा कहने पर दूर्वायुक्त
महुए की माला को कुछ नीचे सरकाती हुई कृशाङ्गी इन्दुमती ने विना बोले सरल
(श्रद्धा-भक्ति से रहित) अर्थात् सामान्यः प्रणाम करने से ही उसका त्याग कर दिया
॥२५॥
तां सैव वेत्रग्रहणे नियुक्ता
राजान्तरं राजसुतां निनाय ।
समीरणोत्थेव तरंगरेखा पद्मान्तरं मानसराजहंसीम्
॥ ६-२६॥
वेत्रयष्टि को ग्रहण करने में
नियुक्त अर्थात् द्वारपालिका वही सुनन्दा, वायु
से समुत्पन्न तरङ्गपंक्ति मानसरोवर की राजहंसी को जिस प्रकार एक कमल से दूसरे कमल के
पास ले जाती है, वैसे (राजकुमारी इन्दुमती को उस मगध नरेश के
पास से) दूसरे राजा के पास ले गयी ।
जगाद चैनामयमङ्गनाथः
सुराङ्गनाप्रार्थितयौवनश्रीः ।
विनीतनागः किल सूत्रकारैरैन्द्रं
पदं भूमिगतोऽपि भुङ्क्ते ॥ ६-२७॥
और बोली-'देवाङ्गनाओं (अप्सराओं) से अभीप्सित यौवनश्रीवाला गजशास्त्र के पण्डितों
(पालकादि ऋषियों) से हाथियों को शिक्षित करानेवाला यह अङ्गदेश का राजा पृथ्वी पर
स्वर्ग के पद को भोग करता है अर्थात् पृथ्वी पर ही स्वर्गतुल्य सुख भोग रहा है
॥२७॥
पौराणिक कथा-१. एक समय यह राजा
असुरपीडित इन्द्र की सहायता के लिये स्वर्ग में गया था तो अप्सराएँ इसकी
यौवनावस्था की शोभा पर मुग्ध होकर इसे चाहने लगी थीं।
२. पहले किसी के शाप के कारण भूलोक में
आये हुए दिग्गजों को देखकर इन्द्र के स्वयं असमर्थ होने के कारण उनकी अनुमति से
पालकादि देवर्षियों को बुलाकर उनके बनाये गजशास्त्र में वर्णित विधि के अनुसार उन
दिग्गजों को वश में करके इस राजा ने 'गज-शिक्षा'
का सम्प्रदाय भूलोक में चलाया।
अनेन
पर्यासयताश्रुबिन्दून्मुक्ताफलस्थूलतमान्स्तनेषु ।
प्रत्यर्पिताः
शत्रुविलासिनीनामुन्मुच्य सूत्रेण विनैव हाराः ॥ ६-२८॥
शत्रुओं की स्त्रियों के स्तनों पर
मोती के समान बड़ी २ आंसुओं के बूंदों को फैलाता हुआ यह राजा,
उनके मोतियों के हारों को हटाकर बिना सूत्र के ही हारों को पहना
दिया। (इस राजा के द्वारा पति के मारे जाने से शत्रु स्त्रियां हारों को फैक करके
रोती हुई मोती के समान बड़ी २ आंसुओं की जो बूंदे स्तनों पर गिरा रही है, वे मुक्ताहार के समान मालूम पड़ रहे हैं)।
निसर्गभिन्नास्पदमेकसंस्थमस्मिन्द्वयं
श्रीश्च सरस्वती च ।
कान्त्या गिरा सूनृतया च योग्या
त्वमेव कल्याणि तयोस्तृतीया ॥ ६-२९॥
स्वभाव से ही भिन्न २ स्थानों में
रहनेवाली लक्ष्मी और सरस्वती-इस राजा में एक साथ रहती हैं (यह राजा विद्वान् तथा
ऐश्वर्यवान्-दोनों ही है ) 'हे कल्याणि !
शोभा तथा मधुर भाषण से योग्य (साथ में निवास करने योग्य) उन दोनों (लक्ष्मी और
सरस्वती) में तुम्हीं तीसरी होओ' ( अथवा-शोभा तथा मधुर भाषण से
उन दोनों के योग्य तीसरी तुम्ही हो-अन्य कोई नहीं, अत एव तुम
इस राजा को वरण करो)॥२९॥
अथाङ्गराजदवतार्य चक्षुर्याहीति
जन्यामवदत्कुमारी ।
नासौ न काम्यो न च वेद
सम्यग्द्रष्टुं न सा भिन्नरुचिर्हि लोकः ॥ ६-३०॥
इसके बाद कुमारी इन्दुमती ने
अङ्गराज से दृष्टि को हटाकर मातृसखी सुनन्दा से (पाठा०सवारी ढोनेवालों से) 'चलो' ऐसा कहा । 'यह राजा
सुन्दर नहीं था' यह बात नहीं थी और 'वह
इन्दुमती देखना (देखकर ग्राह्य तथा त्याज्य का विचार करना) नहीं जानती थी' यह बात भी नहीं थी; किन्तु लोग भिन्न २ रुचिवाले
होते हैं (अतः जिसको जो रुचता है, वही उसके लिये सुन्दर एवं
ग्राह्य होता है)॥३०॥
ततः परं दुःप्रसहं द्विषद्भिर्नृपं
नियुक्ता प्रतिहारभूमौ ।
निदर्शयामास विशेषदृश्यमिन्दुं
नवोत्थानमिवेन्दुमत्यै ॥ ६-३१॥
इसके बाद द्वारपालिका सुनन्दा ने
शत्रुओं से असह्य, विशेष सुन्दर तथा
नयी अवस्था या उन्नतिवाले (अत एव) विशेष सुन्दर तथा नया उदय लेते हुए चन्द्रमा के
समान राजा को इन्दुमती के लिये दिखलाया ॥ ३१ ॥
अवन्तिनाथोऽयमुग्रबाहुर्विशालवक्षास्तनुवृत्तमध्यः
।
आरोप्य
चक्रभ्रममुष्णतेजास्त्वष्ट्रेव यत्नोल्लिखितो विभाति ॥ ६-३२॥
लम्बी (घुटने तक ) बाहुवाला,
चौड़ी छातीवाला तथा कृश एवं गोलाकार कटिवाला यह अवन्ती देश का राजा,
(कन्या की प्रार्थना करने से ) विश्वकर्मा द्वारा सान पर चढ़ाकर यत्नपूर्वक
उल्लिखित अर्थात घिसे गये सूर्य के समान है ।। ३२ ।।
पौराणिक कथा-विश्वकर्मा ने अपनी
पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्य के साथ कर दिया तो पति सूर्य के तेज को सहन नहीं कर
सकने वाली उस संज्ञा के प्रार्थना करने पर विश्वकर्मा ने शाकद्वीप में सूर्य को
सान पर चढ़ाकर बड़े यत्नपूर्वक उन्हें छोटा किया।
अस्य प्रयाणेषु
समग्रशक्तेरग्रेसरैर्वाजिभिरुत्थितानि ।
कुर्वन्ति सामन्तशिखामणीनां
प्रभाप्ररोहास्तमयं रजांसि ॥ ६-३३॥
समस्त शक्ति (प्रभुशक्ति,
मन्त्रशक्ति तथा उत्साहशक्ति-ये तीन शक्तियाँ हैं) से युक्त इस राजा
की दिग्विजय की यात्रा में आगे चलनेवाले घोड़ों (के खुरों) से उड़ी हुई धूलियां
सामन्त राजाओं के मुकुटमणियों की प्रभाओं के अङ्कुरों को छिपा (नष्ट कर ) देती हैं
॥ ३३ ॥
असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल
चन्द्रमौलेः ।
तमिस्रपक्षेऽपि सहप्रियाभिर्ज्योत्स्नावतो
निर्विशति प्रदोषान् ॥ ६-३४॥
महाकाल (नामक उज्जयिनीय स्थान )
निवासी शिवजी के समीप में रहनेवाला यह ( अवन्तिनरेश ) कृष्ण पक्ष (की रात्रियों)
में भी प्रियाओं के साथ चाँदनी रातों (का आनन्द) अनुभव करता है॥ ३४ ॥
अनेन यूना सह पार्थिवेन रम्भोरु
कच्चिन्मनसो रुचिस्ते ।
सिप्रातरंगानिलकम्पितासु
विहर्तुमुद्यानपरंपरासु ॥ ६-३५॥
'हे केले के स्तम्भ के समान
ऊरुवाली इन्दुमति ! इस युवक राजा के साथ क्षिप्रानदी के तरङ्गों की हवा से कम्पित
उद्यानों के समूह में विहार करने के लिये तुम्हारी चाहना है क्या ? ॥ ३५॥
तस्मिन्नभिद्योतितबन्धुपद्मे
प्रतापसंशोषितशत्रुपङ्के ।
बबन्ध सा नोत्तमसौकुमार्या
कुमुद्वती भानुमतीव भावम् ॥ ६-३६॥
अत्यन्त सुकुमारी वह इन्दुमती
बन्धुरूप कमलों को विकसित करनेवाले तथा क्षात्र अर्थात् क्षत्रिय सम्बन्धी प्रताप से
शत्रुरूप पङ्को को सुखानेवाले उस अवन्ति नरेश में (बन्धुओं के समान कोमलों को
विकसित करनेवाले तथा धूप से शत्रुओं के समान पङ्क को सुखानेवाले सूर्य के अत्यन्त
कोमल) कुमुदिनी के समान भाव नहीं किया अर्थात् उसकी चाहना नहीं की ॥ ३६॥
तामग्रतस्तामरसान्तराभामनूपराजस्य
गुणैरनूनाम् ।
विधाय सृष्टिं ललितां विधातुर्जगाद
भूयः सुदतीं सुनन्दा ॥ ६-३७॥
सुनन्दा ने कमलोदर (कमलपत्र का
भीतरी भाग) के समान आभा वाली, गुणों से
परिपूर्ण, ब्रह्मा की मनोहर रचनारूप और सुन्दर दांतोंवाली उस
इन्दुमती को अनूप-नरेश के सामने ले जाकर फिर कहा-॥ ३७॥
सङ्ग्रामनिर्विष्टसहस्रबाहुरष्टादशद्वीपनिखातयूपः
।
अनन्यसाधारणराजशब्दो बभूव योगी किल
कार्तवीर्यः ॥ ६-३८॥
युद्ध में हजारों बाहुओं को प्राप्त
करनेवाला,
अठारहों द्वीपों में यशस्तम्भों को गाड़नेवाला और अनन्य साधारण
(दूसरों में अप्रयुक्त) 'राजा' इस
शब्दवाला और योगी कार्तवीर्य (सहस्रार्जुन) हुआ था ॥ ३८ ॥
अकार्यचिन्ता समकालमेव
प्रादुर्भवंश्चापधरः पुरस्तात् ।
अन्तःशरीरेष्वपि यः प्रजानां
प्रत्यादिदेशाविनयं विनेता ॥ ६-३९॥
शासक जो ( कार्तवीर्य ),
नहीं करने योग्य कार्य के विचार करने के समय में ही सामने धनुष धारण
किया हुआ उपस्थित होकर प्रजाओं के मन में या इन्द्रियों में भी अविनय दूर करता था।
(प्रजाओं में से कोई व्यक्ति नहीं करने योग्य कार्य को करने के लिये जब विचार करता
था, तब उसके मन में उक्त विचार आते ही उसे ऐसा मालूम पड़ता
था कि धनुष धारण किया हुआ राजा कार्तवीर्य हमें दण्ड देने के लिये आ गये, अत एव उसकी प्रजा नहीं करने योग्य किसी भी कार्य को करने का विचार तक भी
नहीं करती थी)॥ ३९॥
ज्याबन्धनिष्पन्दभुजेन यस्य
विनिःश्वसद्वक्त्रपरंपरेण ।
कारागृहे निर्जितवासवेन
लङ्केश्वरेणोषितमा प्रसादात् ॥ ६-४०॥
प्रत्यञ्चा के बन्धन से स्तब्ध
(निश्चेष्ट ) बाहुवाला, लम्बी २ श्वास लेते
हुए मुख समूह वाला और इन्द्र को पराजित करनेवाला लङ्काधिपति रावण जेल में जिस (
कार्तवीर्य) के प्रसन्न होने तक पड़ा रहा। (जब तक कार्तवीर्य ने कृपाकर रावण को
नहीं छोडा, तब तक वह उसके जेल में ही विवश होकर पड़ा रहा)॥
४०॥
पौराणिक कथा--एक समय कार्तवीर्य
अपने बाहुओं से नर्मदा की धारा को रोककर रमणियों के साथ में जलक्रीडा कर रहा था,
उसी समय में दिग्विजय के लिये निकला हुआ इन्द्रविजयी रावण वहां
पहुँचकर उससे युद्ध करने लगा, तब कार्तवीर्य ने रावण को
जीतकर और धनुष की डोरी से बांधकर कैदी बना लिया और जब तक वह प्रसन्न नहीं हुआ तब
तक रावण वहीं जेल में पड़ा रहा।
तस्यान्वये भूपतिरेष जातः प्रतीप
इत्यागमवृद्धसेवी ।
येनः श्रियः संश्रयदोषरूढं
स्वभावलोलेत्ययशं प्रमृष्टम् ॥ ६-४१॥
शास्त्रों तथा वृद्धजनों का सेवक 'प्रतीप' नामक यह राजा उस कार्तवीर्य के वंश में
उत्पन्न हुआ है, जिसने आश्रय के दोष से लक्ष्मी के 'लक्ष्मी' स्वभाव से ही चञ्चला होती है। इस अयश को
दूर कर दिया है। ('वास्तविक में लक्ष्मीपात्रों के दुर्गुणों
के कारण ही लक्ष्मी उन पुरुषों का त्याग करती है, योग्य एवं
गुणवान् व्यक्ति को लक्ष्मी कदापि नहीं छोड़ती' इस बात को
सदगुणवान् इस 'प्रतीप' राजा ने
प्रमाणित करके लक्ष्मी के 'स्वभाव चञ्चला' होने की लोक निन्दा को दूर कर दिया है अर्थात् इसके पास लक्ष्मी सर्वदा
निवास करती है)४१॥
आयोधने कृष्णगतिं सहायमवाप्य यः
क्षत्रियकालरात्रिम् ।
धारां शितां रामपरश्वधस्य संभावयत्युत्पलपत्रसाराम्
॥ ६-४२॥
जो 'प्रतीप' राजा युद्ध में अग्नि को सहायक पाकर
क्षत्रियों के लिये कालरात्रि परशुरामजी के फरसे की तेज धार को कमलपत्र के समान
शक्तिवाला अर्थात् निःसार समझता है ॥ ४२ ॥
पौराणिक कथा-पहले अग्नि ने इस
प्रतीप राजा को वरदान दिया था कि 'इसके
नगर को जीतने के लिये आये हुए शत्रुओं को में स्वयं जला दिया करूंगी' अतः क्षत्रियों के २१ वार संहार करनेवाले परशुरामजी इस प्रतीप राजा को कभी
नहीं जीत सके ।
अस्याङ्कलक्ष्मीर्भव
दीर्घबाहोर्माहिष्मतीवप्रनितम्बकाञ्चीम् ।
प्रासादजालैर्जलवेणिरम्यां रेवां
यदि प्रेक्षितुमस्ति कामः ॥ ६-४३॥
माहिष्मती ( नामक इस राजा की
राजधानी) के परकोटा (चहारदिवारी) रूप नितम्ब की करधनी तथा जलरूप वेणी (केश की
चोटी) से रमणीय रेवा नदी को महलों के झरोखों से देखने की इच्छा है तो इस राजा के
अङ्क की शोभा बनो अर्थात् इस राजा को वरण करो ॥४३॥
तस्याः प्रकामं प्रियदर्शनोऽपि न स
क्षितीशो रुचये बभूव ।
शरत्प्रमृष्टाम्बुधरोपरोधः शशीव
पर्याप्तकलो नलिन्याः ॥ ६-४४॥
देखने में अत्यन्त सुन्दर भी वह
राजा कमलिनी को शरद् ऋतु से दूर किये गये मेष के आवरणवाले अर्थात् मेघरहित तथा
पूर्ण कलावाले चन्द्रमा के समान, उस इन्दुमती को
रुचि के लिये नहीं हुआ (इन्दुमती ने उसे नहीं चाहा)॥ ४४ ॥
सा शूरसेनाधिपतिं सुषेणमुद्दिश्य
लोकान्तरगीतकीर्तिम् ।
आचारशुद्धोभयवंशदीपं
शुद्धान्तरक्ष्या जगदे कुमारी ॥ ६-४५॥
रनिवास की रक्षा में नियुक्त सुनन्दा
ने अन्य लोक ( स्वर्गादि) में गाये गये यशवाले तथा आचरण से शुद्ध दोनों वंश
(मातृकुल तथा पितृकुल) वाले शूरसेन देश के राजा 'सुषेण' को दिखाकर इन्दुमती से कहा-॥ ४५ ॥
नीपान्वयः पार्थिव एष यज्वा
गुणैर्यमाश्रित्य परस्परेण ।
सिद्धाश्रमं शान्तमिवेत्य
सत्त्वैर्नैसर्गिकोऽप्युत्ससृजे विरोधः ॥ ६-४६॥
विधिपूर्वक यश को किया हुआ यह राजा 'नीप' के वंश के हैं, जिसे
आश्रयकर (क्षमा, वीरता, दया, शान आदि) गुणों ने शान्त सिद्धाश्रम को प्राप्त कर (परस्पर विरोधी
सिंह-मृग, गो-व्याघ, नकुल-सर्प आदि)
जीवों के समान स्वभाविक विरोध को छोड़ दिया है ॥ ४६ ॥
यस्यात्मगेहे नयनाभिरामा
कान्तिर्हिमांशोरिव संनिविष्टा ।
हर्म्याग्रसंरूढतृणाङ्कुरेषु
तेजोऽविषह्यं रिपुमन्दिरेषु ॥ ६-४७॥
चन्द्रमा के समान नयनों को आह्लादित
करनेवाली जिसकी कान्ति अपने घरों में स्थित तथा असह्य तेज शत्रुओं के महलों के
छज्जों पर जमे हुए घास के अङ्कुरोंवाले, उनके
महलों में स्थत है। (शत्रुओं के मारे जाने से या इसके भय से घर छोड़कर भाग जाने से
उनके महलों के ऊपर घासों के जमने से वह इसके असह्य प्रताप तुल्य दिखलाई पड़ता है)
॥ ४७ ॥
यस्यावरोधस्तनचन्दनानां
प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले ।
कलिन्दकन्या मथुरां गतापि
गङ्गोर्मिसंसक्तजलेव भाति ॥ ६-४८॥
जिस राजा की जलक्रीडा के समय में
रानियों के स्तनों के श्वेत चन्दन के धुल जाने से मधुरा में भी यमुना गङ्गा के
तरङ्गों से मिली हुई के समान शोभमान होती है। (जिस प्रकार प्रयाग में गङ्गा की
धारा के मिलने पर यमुना का जल श्वेत-नीलवर्ण दिखलाई पडता है,
वैसे ही मथुरा में भी इस राजा की जलक्रीडा के समय में रानियों के
स्तनों के श्वेत चन्दन के धुलने से यमुना का जल श्वेत मिश्रित नीलवर्ण दिखलाई
पड़ता है ) ॥४८॥
त्रस्तेन तार्क्ष्यात्किल कालियेन
मणिं विसृष्टं यमुनौकसा यः ।
वक्षःस्थलव्यापिरुचं दधानः
सकौस्तुभं ह्रेपयतीव कृष्णम् ॥ ६-४९॥
गरुड से डरे हुए यमुना में रहनेवाले
कालिय नाग के द्वारा (अभयदान देने से उपहार में) दिये गये तथा छाती पर फैलती हुई
कान्तिवाले रत्न को धारण किया हुआ यह 'सुषेण'
राजा कौस्तुभ मणि को धारण किये हुए विष्णु भगवान को मानो लज्जित कर
रहा है॥४९॥
संभाव्य भर्तारममुं युवानं
मृदुप्रवालोत्तरपुष्पशय्ये ।
वृन्दावने चैत्ररथादनूने
निर्विश्यतां सुन्दरि यौवनश्रीः ॥ ६-५०॥
हे सुन्दरि ! इस युवक राजा को पति
मानकर ऊपर में कोमल पत्ते बिछी हुई पुष्पशय्या वाले चैत्ररथ (नामक कुबेरोद्यान) के
समान वृन्दावन में जवानी की शोभा को चरितार्थ करो।
अध्यास्य चाम्भःपृषतोक्षितानि
शैलेयगन्धीनि शिलातलानि ।
कलापिनां प्रावृषि पश्य नृत्यं
कान्तासु गोवर्धनकन्दरासु ॥ ६-५१॥
और सुन्दर गोवर्धन पर्वत की गुफाओं
में जल की बूंदों से छिड़काव किये गये एवं शिलाजीत के गन्ध से युक्त चट्टानों पर
बैठकर बरसात में मोरों के नृत्य को देखो ॥५१॥
नृपं तमावर्तमनोज्ञनाभिः सा
व्यत्यगादन्यवधूर्भवित्री ।
महीधरं मार्गवशादुपेतं स्रोतोवहा
सागरगामिनीव ॥ ६-५२॥
पानी के भौर के समान सुन्दर नाभिवाली
तथा भविष्य में दूसरे अर्थात् 'अज' की भार्या होनेवाली उस इन्दुमती ने, रास्ते में आने से
प्राप्त पर्वत को समुद्रगामिनी एवं प्रवाह से बहने वाली नदी के समान (भावी-पति 'अज' के यहां जाते समय मार्ग में प्राप्त) उस राजा को
छोड़ दिया अर्थात् उस राजा को छोड़कर आगे बढ़ी ॥ ५२ ॥
अथाङ्गदालिष्टभुजं भुजिष्या
हेमाङ्गदं नाम कलिङ्गनाथम् ।
आसेदुषीं सादितशत्रुपक्षं
बालामबालेन्दुमुखीं बभाषे ॥ ६-५३॥
इसके बाद दासी सुनन्दा ने बाहु में
बिजायठ पहने हुए तथा शत्रुपक्ष को नष्ट करने वाले अङ्ग देश के राजा 'हेमाङ्गद' को ( बतलाकर ) समीप में स्थित तथा
पूर्णचन्द्रतुल्य इन्दुमती से कहा ॥ ५३॥
असौ महेन्द्रादिसमानसारः
पतिर्महेन्द्रस्य महोदधेश्च ।
यस्य क्षरत्सैन्यगजच्छलेन यात्रासु
यातीव पुरो महेन्द्रः ॥ ६-५४॥
महेन्द्र पर्वत के समान सार (शक्ति
तथा सम्पत्ति ) वाला यह 'हेमाङ्गद' राजा महेन्द्र पर्वत का तथा महासमुद्र का स्वामी है, जिसकी (दिग्विजय की) यात्रा में मद जल को बहाने वाले हाथियों के बहाने से महेन्द्र पर्वत मानों आगे चलता है ।। ५४ ॥
ज्याघातरेखे सुभुजो भुजाभ्यां
बिभर्ति यश्चापभृतां पुरोगः ।
रिपुश्रियां साञ्जनबाष्पसेके
बन्दीकृतानामिव पद्धती द्वे ॥ ६-५५॥
सुन्दर भुजाओं वाला तथा
धनुर्धारियों में प्रधान जो 'हेमाङ्गद'
राजा दोनों भुजाओं में, बन्दिनी बनायी गयीं
शत्रुओं की राजलक्ष्मियों के अञ्जनयुक्त आँसू से सिक्त दो रेखाओं के समान
प्रत्यञ्चा के आघात से उत्पन्न दो चिह्नों (घट्ठों) को धारण करता है । ( सर्वदा
धनुष चलाने से इसकी भुजाओं में जो प्रत्यश्चा के आघात से उत्पन्न कृष्णवर्ण दो घट्ठे
हैं, वे वश में की गयी शत्रुओं की राजलक्ष्मी के अञ्जनयुक्त
श्यामवर्ण की दो रेखाओं के समान मालूम पड़ते हैं)॥५५॥
यमात्मनः सद्मनि संनिकृष्टो
मन्द्रध्वनित्याजितयामतूर्यः ।
प्रासादवातायनदृश्यवीचिः प्रबोधयत्यर्णव
एव सुप्तम् ॥ ६-५६॥
अपने महल में सोये हुए जिस 'हेमाङ्गद' राजा को समीपस्थ, महल
के झरोखों से दिखाई पड़ते हुए तरङ्गों वाला और गम्भीर शब्द से प्रहर-सूचक वाद्य को
व्यर्थ करनेवाला समुद्र ही जगाता है॥५६॥
अनेन सार्धं विहराम्बुराशेस्तीरेषु
तालीवनमर्मरेषु ।
द्वीपान्तरानीतलवङ्गपुष्पैरपाकृतस्वेदलवा
मरुद्भिः ॥ ६-५७॥
तालीवनों से 'मर्मर' ध्वनि करनेवाले, समुद्र
के तट पर अन्य द्वीपों से लवङ्ग पुष्पो को लाने वाली हवा से पसीने को सुखानेवाली
तुम इस राजा के साथ विहार करो ॥ ५७ ।।
प्रलोभिताप्याकृतिलोभनीया
विदर्भराजावरजा तयैवम् ।
तस्मादपावर्तत दूरकृष्टा नीत्येव
लक्ष्मीः प्रतिकूलदैवात् ॥ ६-५८॥
रूप से लोभनीय वह भोज की छोटी बहन
इन्दुमती उस सुनन्दा के बहुत लुभाने पर भी नीति अर्थात् पुरुषार्थ के द्वारा दूर
खीची गई लक्ष्मी के समान प्रतिकूल भाग्य वाले उस राजा से दूर हट गई ।। ५८॥
अथोरगाख्यस्य पुरस्य नाथं दौवारिकी
देवसरूपमेत्य ।
इतश्चकोराक्षि विलोकयेति
पूर्वानुशिष्टां निजगाद भोज्याम् ॥ ६-५९॥
इसके बाद द्वारपालिका सुनन्दा
देवतुल्य कान्तिवाले 'उरग' (पाड्यदेश में कान्यकुब्ज के तटवर्ती नागपुर ) के राजा को प्राप्तकर
पूर्वोक्त भोजवंशोत्पन्न इन्दुमती से 'हे चकोरनेत्रे! इधर
देखो' इस प्रकार बोली-॥ ५९ ॥
पाण्ड्योऽयमंसार्पितलम्बहारः
कॢप्ताङ्गरागो हरिचन्दनेन ।
आभाति बालातपरक्तसानुः
सनिर्झरोद्गार इवाद्रिराजः ॥ ६-६०॥
कन्धों से लटकते हुए हार को पहना हुआ तथा हरिचन्दन का अङ्गराग (
अङ्गों में लेप) लगाया हुआ यह पाड्यदेश का राजा प्रातःकाल के धूप से रक्तवर्ण युक्त
शिखर वाले झरनों से जल बहाते हुए हिमालय के समान शोभमान हो रहा है॥६०॥
विन्ध्यस्य संस्तम्भयिता
महाद्रेर्निःशेषपीतोज्झितसिन्धुराजः ।
प्रीत्याश्वमेधावभृथार्द्रमूर्तेः
सौस्नातिको यस्य भवत्यगस्त्यः ॥ ६-६१॥
विन्ध्य महापर्वत को स्तब्ध करने वाले
तथा सम्पूर्ण समुद्र को पी जाने वाले अगस्त्य ऋषि अवभृथ ( यज्ञान्त में कर्तव्य
स्नान-विशेष ) से भीगे हुए शरीरवाले अर्थात् स्नान किये हुए जिस राजा के प्रसन्नता
से सुखपूर्वक स्नान करने का कुशल पूछते हैं ॥ ६१॥
पौराणिक कथा-१. पूर्वकाल में सूर्य के
साथ स्पर्धा कर उनके मार्ग को रोकने के लिए बड़े वेग से बढ़ते हुए विन्ध्यपर्वत को
देखकर देवताओं के सहित इन्द्र ने अगस्त्य मुनि से उसे मना करने के लिये प्रार्थना
की,
तब उनकी प्रार्थना सुनकर अगस्त्यजी दक्षिण दिशा को जाने लगे तब
शिष्य विन्ध्यपर्वत के गुरु अगस्त्यजी को दण्डवत् भूमि में लेटकर प्रणाम करने पर
ऋषि ने कहा कि 'जब तक मैं वापस नहीं लौटता तब तक तुम यों ही
पड़े रहना, उठना नहीं' तदनुसार
विन्ध्यपर्वत आज तक अगस्त्य ऋषि के दक्षिण दिशा से नहीं लौटने से वैसे ही भूमि पर
दण्डवत् पड़ा हुआ है।
२. एक समय ब्राह्मणों की हत्या
करनेवाले वातापि तथा इल्वल नामक दो असुर हुए । उनमें इल्वल ब्राह्मण का रूप धारण कर
संस्कृत में बोलता हुआ श्राद्ध के नाम से ब्राह्मणों को भोजन के लिये निमन्त्रण
देता था और भेड़े का रूप धारण किये हुए वातापि को मारकर उसके मांस को विधिपूर्वक
श्राद्ध में उन ब्राह्मणों को भोजन कराता था। उनके भोजन कर लेने पर उच्च स्वर से 'हे वातापि ! बाहर निकलो' पुकारता था, भाई का पुकारना सुनकर उन ब्राह्मणों के पेट को फाड़कर वातापि बाहर आ जाता
था और वे ब्राह्मण मर जाते थे। इस प्रकार वे राक्षस हजारों ब्राह्मणों का वध कर
उनके मांस का भक्षण करते थे। यह देख देवताओं की प्रार्थना करने पर महर्षि
अगस्त्यजी वहां गये और इल्वल ने उसी प्रकार उन्हें निमन्त्रित कर भेडरूपधारी
वातापि के मांस को, विधिवत् श्राद्ध कर भोजन कराने के
उपरान्त 'हे वातापि ! बाहर निकलो' इस
प्रकार उच्च स्वर से पुकारने लगा। यह देख महर्षि अगस्त्यजी ने हंसते हुए कहा-'भेड़ का रूप धारण करने वाला तुम्हारा भाई मेरे पेट में पच गया है, अब बाहर निकलने की शक्ति उसमें नहीं है।' यह सुनकर
क्रुद्ध वह इल्वल मुनि को मारने के लिये दौड़ा तो मुनि ने क्षण मात्र में
क्रोधाग्नि से उसको भी भस्म कर दिया। (वाल्मीकि रामा० आरण्यकाण्ड ११:५६-६७)। उक्त
आतापि-वातापि को मारने के लिये अगस्त्यजी द्वारा समुद्रपान की कथा भी कहीं २ मिलती
है।
अस्त्रं हरादाप्तवता दुरापं
येनेन्द्रलोकावजयाय दृप्तः ।
पुरा जनस्थानविमर्दशङ्की संधाय
लङ्काधिपतिः प्रतस्थे ॥ ६-६२॥
पहले जनस्थान के नाश की आशङ्का करने
वाले उद्धत लकेश्वर रावण ने, दुर्लभ
(ब्रह्मशिर नामक ) अस्त्र को शिवजी से पाये हुये जिस पाण्ड्य नरेश के साथ सन्धि
करके इन्द्रलोक (स्वर्ग) की विजय के लिये यात्रा की ॥ ६२ ॥
अनेन पाणौ विधिवद्गृहीते महाकुलीनेन
महीव गुर्वी ।
रत्नानुविद्धार्णवमेखलाया दिशः
सपत्नी भव दक्षिणस्याः ॥ ६-६३॥
श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न इस पाण्ड्य
राजा के साथ विवाह करने पर तुम पृथ्वी के समान रत्नयुक्त समुद्रूप मेखला (करधनी)
वाली दक्षिण दिशा की सपत्नी ( सौत) बनो ॥ ६३ ॥
ताम्बूलवल्लीपरिणद्धपूगास्वेलालतालिङ्गितचन्दनासु
।
तमालपत्रास्तरणासु रन्तुं प्रसीद
शश्वन्मलयस्थलीषु ॥ ६-६४॥
जलीय लताओं से वेष्टित सुपारी के
वृक्षों वाली, छोटी इलायची की लताओं से
वेष्टित चन्दन वृक्षोंवाली और तमालपत्रों की ऊपरी चादरवाली (तमाल के पत्तों से ढकी
हुई ) मलयाचल की भूमि में निरन्तर रमण करने के लिये प्रसन्न होओ ॥ ६४ ॥
इन्दीवरश्यामतनुर्नृपोऽसौ त्वं
रोचनागौरशरीरयष्टिः ।
अन्योन्यशोभापरिवृद्धये वां
योगस्तडित्तोयदयोरिवास्तु ॥ ६-६५॥
यह राजा नीलकमल के समान श्यामवर्ण
देहवाला है तथा तुम गोरोचन के समान गौर शरीरयष्टिवाली हो,
(अत एव ) तुम दोनों का सम्बन्ध बिजली तथा मेघ के समान परस्पर को
शोभा बढ़ानेवाला होए॥६५॥
स्वसुर्विदर्भाधिपतेस्तदीयो
लेभेऽन्तरं चेतसि नोपदेशः ।
दिवाकरादर्शनबद्धकोशे
नक्षत्रनाथांशुरिवारविन्दे ॥ ६-६६॥
सूर्य के नहीं देखने से बन्द
कोशवाले (मुकुलित) कमल में चन्द्रमा के समान, विदर्भ
नरेश की बहन इन्दुमती के हृदय में उसके (सुनन्दा के ) उपदेश ने स्थान नहीं पाया
॥६६॥
संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं
व्यतीयाय पतिंवरा सा ।
नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे
विवर्णभावं स स भूमिपालः ॥ ६-६७॥
पति को स्वयं वरण करनेवाली वह
इन्दुमती रात्रि में चलती हुई दीपक के लौ के समान जिस २ राजा को छोड़कर आगे बढ़
गयी,
वह २ राजा सड़क की अट्टलिका के समान उदासीन भाव ( पक्ष में-अँधेरा)
को प्राप्त किया अर्थात इन्दुमती के छोड़कर आगे बढ़ जाने से वे राजा उदासीन हो गये
॥ ६७॥
तस्यां रघोः सूनुरुपस्थितायां वृणीत
मां नेति समाकुलोऽभूत् ।
वामेतरः संशयमस्य बाहुः
केयूरबन्धोच्छ्वसितैर्नुनोद ॥ ६-६८॥
उस (इन्दुमती) के पास पहुंचने पर
रघुपुत्र अज 'यह 'इन्दुमती'
मुझे वरण करेगी या नही? इस प्रकार सन्देह करने
लगे, (फिर ) इनकी दहनी भुजा ने बिजायठ बाँधने के स्थान के
स्फुरित होने (फड़कने) से इनके सन्देह को दूर कर दिया। ( सामुद्रिक शास्त्रानुसार
दहनी भुजा के स्फुरण से स्त्री लाभ होता है, अतः दहनी भुजा के
स्फुरित होने से अज को इन्दुमती के लाभ में सन्देह नहीं रहा )॥६८॥
तं प्राप्य सर्वावयवानवद्यं व्यावर्ततान्योपगमात्कुमारी
।
न हि प्रफुल्लं सहकारमेत्य
वृक्षान्तरं काङ्क्षति षट्पदाली ॥ ६-६९॥
कुमारी इन्दुमती सम्पूर्ण अङ्गों में
अनिन्दनीय उस अज को पाकर अन्यत्र जाने से रुक गयी अर्थात् दूसरे राजा के पास जाने का
विचार छोड़ दिया, क्योंकि भ्रमरों की
पक्ति खिले (मोजरों मौरों से लदे) हुए आम को छोड़कर दूसरे वृक्ष को चाहना नहीं
करती है ।। ६९ ॥
तस्मिन्समावेशितचित्तवृत्तिमिन्दुप्रभामिन्दुमतीमवेक्ष्य
।
प्रचक्रमे वक्तुमनुक्रमज्ञा
सविस्तरं वाक्यमिदं सुनन्दा ॥ ६-७०॥
पूर्वापर क्रम अर्थात् अवसर को
जाननेवाली सुनन्दा उस अज में मन को लगायी हुई, चन्द्रतुल्य
कान्तिवाली इन्दुमती को देखकर विस्तारपूर्वक यह (श्लोक० ७१-७९) वचन कहने लगी॥७॥
इक्ष्वाकुवंश्यः ककुदं नृपाणां
ककुत्स्थ इत्याहितलक्षणोऽभूत् ।
काकुत्स्थशब्दं यत उन्नतेच्छाः
श्लाघ्यं दधत्युत्तरकोसलेन्द्राः ॥ ६-७१॥
इक्ष्वाकु (ऊख को भेदन कर उत्पन्न
होने से मनु पुत्र का नाम 'इक्ष्वाकु' पड़ा) के वंश में उत्पन्न, राजाओं में श्रेष्ठ
प्रख्यात गुणोंवाले 'ककुस्थ' राजा हुए,
जिससे आरम्भ कर उच्च आशय वाले उत्तर कोसल के स्वामी (दिलीप आदि )
श्रेष्ठ, 'काकुत्स्थ' शब्द को धारण
करते हैं। (तब से ही उत्तर कोसल के राजा 'काकुत्स्थ' कहलाते हैं)॥७१ ॥
महेन्द्रमास्थाय महोक्षरूपं यः
संयति प्राप्तपिनाकिलीलः ।
चकार बाणैरसुराङ्गनानां गण्डस्थलीः
प्रोषितपत्रलेखाः ॥ ६-७२॥
जिस 'ककुत्स्थ' राजा ने युद्ध में वृषभ रूपधारी इन्द्र पर
सवार होकर शङ्करजी की लीला को प्राप्त कर बाणों से असुर पत्नियों के कपोल मण्डल को
पत्र रचना से शून्य कर दिया अर्थात् असुरों को मार डाला ।। ७२ ॥
पौराणिक कथा-पहले साक्षात् विष्णु
भगवान्के अवतार इक्ष्वाकुवंशोत्पन्न 'पुरञ्जय'
राजा हुए। असुरों से देवताओं के पीडित होने पर इन्द्र ने सहायता के
लिये उनसे प्रार्थना की। तब 'यदि बैल का रूप आप धारण करें तो
मैं वृषभरूपधारी आपको वाहन बनाकर असुरों का संहार करूंगा' ऐसा
इन्द्र से पुरञ्जय के कहने पर इन्द्र ने वृषभ का रूप धारण किया और पुरञ्जय ने उन पर
सवार होकर युद्ध में असुरों का संहार किया। अत एव उनका नाम ककुत्स्थ (ककुद बैल की
डील अर्थात् गर्दन पर स्थित उच्च माण्डपिण्ड विशेष पर बैठनेवाला) पड़ा और उनके
वंशज 'काकुत्स्थ' कहलाये ।
ऐरावतस्फालनविश्लथं यः
संघट्टयन्नङ्गदमङ्गदेन ।
उपेयुषः
स्वामपि मूर्तिमग्र्यामर्धासनं गोत्रभिदोऽधितष्ठौ ॥ ६-७३॥
जो 'ककुत्स्थ' राजा, ऐरावत के
हांकने से ढीले पड़े हुए (इन्द्र की) विजायठ को अपनी विजायठ से रगड़ता हुआ,
अपने ही उत्तम मूर्त्ति को प्राप्त किये हुए इन्द्र के आधे आसन पर
बैठे॥ ७३ ॥
जातः कुले तस्य किलोरुकीर्तिः
कुलप्रदीपो नृपतिर्दिलीपः ।
अतिष्ठदेकोनशतक्रतुत्वे शक्राभ्यसूयाविनिवृत्तये
यः ॥ ६-७४॥
उस 'ककुत्स्थ' राजा के वंश में महायशस्वी, कुलदीपक (वंश को दीपक के समान प्रकाशित करने वाले) "दिलीप' राजा उत्पन्न हुए, जो इन्द्र की असूया (गुण में भी
दोष बताना) को दूर करने के लिये निन्यानबे (अश्वमेध) यज्ञ करके ठहर गये (केवल
इन्द्र को ही सौ अश्वमेध यज्ञ करने का अधिकार होने से ९९ यज्ञों को करके रुक गये देखें
सर्ग ३ श्लो० ३८)॥७४।।
यस्मिन्महीं शासति वाणिनीनां
निद्रां विहारार्धपथे गतानाम् ।
वातोऽपि नास्रंसयदंशुकानि को
लम्बयेदाहरणाय हस्तम् ॥ ६-७५॥
जिस दिलीप'
राजा के शासन करते रहने पर क्रीडा स्थान के आधे मार्ग में सोई हुई
मतवाली स्त्रीयों के वस्त्रों को वायु भी नहीं हटाया (तो फिर दूसरा) कौन पुरुष
उन्हें हटाने के लिये हाथ बढ़ावे ॥७५॥
पुत्रो रघुस्तस्य पदं प्रशास्ति
महाक्रतोर्विश्वजितः प्रयोक्ता ।
चतुर्दिगावर्जितसंभृतां यो
मृत्पात्रशेषामकरोद्विभूतिम् ॥ ६-७६॥
'विश्वजित्' यज्ञ को करनेवाला, उस 'दिलीप' का पुत्र रघु उसके पद अर्थात् राज्य का शासन करते हैं, जिसने चारों दिशाओं से लाकर सञ्चित की हुई सम्पत्ति को (दानकर)
मृण्मयपात्र मात्र अवशिष्ट कर दिया (समस्त सम्पत्ति को इस प्रकार दान कर दिया कि
उनके यहां केवल मिट्टी के बर्तन रह गये । देखें सर्ग ४ श्लो० ८६)॥ ७६ ॥
आरूढमद्रीनुदधीन्वितीर्णं
भुजंगमानां वसतिं प्रविष्टम् ।
ऊर्ध्वं गतं यस्य न चानुबन्धि यशः
परिच्छेत्तुमियत्तयालम् ॥ ६-७७॥
पर्वतों पर चढ़ा हुआ,
समुद्रों के पार गया हुआ, नागलोक ( पाताल )
में घुसा हुआ, ऊपर फैला हुआ और निरन्तर (त्रिकाल में )
अविच्छिन्न जिसका यश 'यहाँ तक गया है या इतना है ऐसा प्रमाण
करने में अशक्य है अर्थात् दिलीप के यश की सीमा तथा प्रमाण नहीं हो सकता ॥ ७७॥
असौ
कुमारस्तमजोऽनुजातस्त्रिविष्टपस्येव पतिं जयन्तः ।
गुर्वीं धुरं यो जगतस्य पित्रा
धुर्येण दम्यः सदृशं बिभर्ति ॥ ६-७८॥
यह कुमार 'अज' स्वर्गपति इन्द्र से जयन्त के समान उस रघु से
उत्पन्न हुआ है, शिक्षणीय ( अवस्थावाला )जो अज संसार के
(बड़े भारी प्रजा पालन रूप) भार को भारवाहक पिता के समान धारण करता है ।। ७८ ॥
कुलेन कान्त्या वयसा नवेन गुणैश्च
तैस्तैर्विनयप्रधानैः ।
त्वमात्मनस्तुल्यममुं वृणीष्व रत्नं
समागच्छतु काञ्चनेन ॥ ६-७९॥
कुल से,
सौन्दर्य से, नई अवस्था ( युवावस्था ) से और
विनयादि प्रधान उन २ (शास्त्रज्ञान, शील, दया, दाक्षिण्य, आदि) गुणों से
अपने समान इस कुमार अज को तुम वरण करो, (इस प्रकार ) रत्न
सुवर्ण के साथ संयुक्त हो (तुम दोनों का सम्बन्ध सुवर्ण में जड़े रत्न के समान
उचित एवं सर्वप्रिय होगा) ॥ ७९ ॥
ततः सुनन्दावचनावसाने लज्जां
तनूकृत्य नरेन्द्रकन्या ।
दृष्ट्या प्रसादामलया कुमारं
प्रत्यग्रहीत्संवरणस्रजेव ॥ ६-८०॥
तब सुनन्दा के वचन के अन्त में
राजकुमारी इन्दुमती ने लज्जा को कम करके संवरण की माला के समान प्रसन्नतायुक्त
निर्मल दृष्टि से कुमार 'अज' को स्वीकार किया । (अनुरागयुक्त होकर इन्दुमती ने अज को अच्छी तरह देखा) ॥
८॥
सा यूनि तस्मिन्नभिलाषबन्धं शशाक
शालीनतया न वक्तुम् ।
रोमाञ्चलक्ष्येण स गात्रयष्टिं
भित्त्वा निराक्रामदरालकेश्याः ॥ ६-८१॥
वह इन्दुमती युवक उस अज विषयक
अनुराग को सरलता के कारण कह नहीं सकी (तथापि ) वह अनुराग कुटिल केशों (अंगुठिया
बालों) वाली उस इन्दुमती के शरीर को भेदन कर रोमाञ्च के बहाने बाहर निकल आया।
(इन्दुमती के रोमाञ्च से उसके बिना कहे ही 'अज' में उसका अनुराग स्पष्ट मालूम पड़ने लगा)॥ ८१ ।
तथागतायां परिहासपूर्वं सख्यां सखी
वेत्रभृदाबभाषे ।
आर्ये व्रजामोऽन्यत इत्यथैनां
वधूरसूयाकुटिलं ददर्श ॥ ६-८२॥
अज में उस इन्दुमती के वैसा अनुराग
करने पर द्वारपालिका सखी सुनन्दा ने परिहास पूर्वक कहा कि-'हे आर्यें ! दूसरी जगह चलें' इसके बाद वधू इन्दुमती ने
उसे असूयापूर्वक वक्र दृष्टि (टेढ़ी नजर ) से देखा ॥ ८२ ॥
सा चूर्णगौरं रघुनन्दनस्य
धात्रीकराभ्यां करभोपमोरूः ।
आसञ्जयामास यथाप्रदेशं कण्ठे गुणं
मूर्तमिवानुरागम् ॥ ६-८३॥
करभ (हाथ की कलाई से कनिष्ठा
अङ्गुलि के मूल तक का स्थान) के समान ऊरुवाली उस इन्दुमती ने मङ्गलचूर्ण से
गौरवर्ण माला को मूर्तिमान् अनुराग के समान, धाई
'सुनन्दा' के हाथों से ( अज के) कण्ठ में
यथास्थान पहनवाया ॥ ८३ ॥
तया स्रजा मङ्गलपुष्पमय्या
विशालवक्षःस्थललम्बया सः ।
अमंस्त कण्ठार्पितबाहुपाशां
विदर्भराजावरजां वरेण्यः ॥ ६-८४॥
श्रेष्ठ उस अज ने मङ्गलमय पुष्पो से
बनी हुई तथा चौड़ी छाती पर लटकती हुई उस माला से विदर्भ नरेश की छोटी बहन इन्दुमती
को कण्ठ में बाहुपाश अर्पण की हुई (गले में बांह को डाली हुई) समझा ॥ ८४॥
शशिनमुपगतेयं कौमुदी मेघमुक्तं
जलनिधिमनुरूपं जह्नुकन्यावतीर्णा ।
इति समगुणयोगप्रीतयस्तत्र पौराः
श्रवणकटु नृपाणामेकवाक्यं विवव्रुः ॥ ६-८५॥
उस स्वयंवर में समान गुणों के
सम्बन्ध होने से प्रसन्न नागरिक लोग 'यह
इन्दुमती' मेघ से मुक्त (होने से निर्मल) चन्द्रमा को प्राप्त
चांदनी तथा योग्य समुद्र को प्राप्त गङ्गा (के सदृश ) हुई इस प्रकार राजाओं के
सुनने में कटु वचन एक स्वर से कहने लगे । (अज को वरण करने से प्रसन्न नागरिकों की
बातें राजाओं को कटु मालूम पड़ती थीं। ) ।। ८५॥
प्रमुदितवरपक्षमेकतस्तत्क्षितिपतिमण्डलमन्यतो
वितानम् ।
उषसि सर इव प्रफुल्लपद्मं
कुमुदवनप्रतिपन्ननिद्रमासीत् ॥ ६-८६॥
एक ओर प्रसन्न वर-पक्षवाला तथा
दूसरी ओर उदासीन वह राज-समूह प्रातःकाल में खिले हुए कमलों वाले तथा मुकुलित
(बन्द) कुमुदोवाले तडाग के समान था । (अज पक्षवाले व्यक्ति सुप्रसन्न थे तथा उनसे
भिन्न राजा लोग इन्दुमती को पाने की आशा के भग्न होने से उदासीन थे। ) ॥ ८६ ॥
॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये
कविश्रीकालिदासकृतौ स्वयंवरवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः ॥
यह रघुवंशम् (रघुवंशमहाकाव्यम्) का 'स्वयंवर वर्णन' नामक छटवां सर्ग समाप्त हुआ ॥ ६ ॥
रघुवंशम् छटवां सर्ग संक्षिप्त कथासार
अज विदर्भ नगरी में पहुंच कर बड़े
आदर के साथ रहने लगे। स्वयम्बर का दिन आ गया। अज बढ़िया पोशाक पहनकर सभा में गये ।
वहाँ उन्होंने देखा कि सभा बड़ी ही सुन्दरता के साथ सजाई गई है। चारों ओर मनोहर
मनोहर मंच रखे गये हैं उन पर कीमती कपड़े बिछे हुए हैं जिनकी झालरों पर मोती,
हीरा आदि लटक रहे हैं। हर एक मंच पर सोने का सिंहासन धरा हुआ है ।
मतलब यह कि सभा की शोभा बड़ी मनोहारिणी थी। विदर्भ राजा ने जब अज को आते देखा तब
बड़े प्रेम से आदरपूर्वक उठकर उनके हाथ को पकड़कर एक मंच के निकट ले गये और बोले
कि आप यहाँ बैठिये। अज उस पर जाके बैठ गये । इसी प्रकार सब आये हुए राजागण अपने-
अपने दिखलाये मंचों पर बैठ गये। इतने में भोज की बहन इन्दुमती विवाह के बढ़िया
कपड़े पहनकर अपनी सखी- सहेलियों को संग लिए सभा में आई। उसकी सुन्दरता देखकर बहुत से
राजा मोहित हो गये। कितने ही चित्र की भांति उसे एकटक देखते रह गये और अपने कपड़े,मुकुट
आदि इधर उधर हो जाने के कारण इन्दुमती कहीं हमें नापसन्द न कर दे इस विचार से
कितने ही राजा झटपट अपने कपड़े सम्हालने लगे; कितने ही अपने
मुकुट ठीक करने लगे। इन्दुमती को सुनन्दा नाम की एक दासी थी । वह सब राजाओं के कुल
शील आचार व्यवहार जानती थी सुनन्दा इन्दुमती को सबसे पहले मगध के राजा के पास ले जाकर
कहने लगी:-मगध देश में पुष्पपुरी नाम की एक नगरी है। यह महाराज उसी नगरी के राजा हैं
। आपका नाम परन्तप है। आप बड़े प्रजापालक प्रतापी न्यायी और धार्मिक राजा हैं ।
यदि तुम्हारी इच्छा हो तो इनका पाणिग्रहण करो। यह कह सुनन्दा चुप हो गई। इन्दुमती
कुछ न कह सिर झुकाकर वहाँ से आगे बढ़ी। इसी भांति अङ्गन्देश के राजा, अवन्ती देश के राजा, अनूप देश के राजा (प्रतीप )
मथुरा पुरी के राजा (सुषेण ), महेन्द्र देश के राजा तथा
पाण्डु देश के राजा (पाण्डु) आदि के कुल, शील, रूप, गुण, बल, बुद्धि पराक्रम का वर्णन करती हुई सुनन्दा इन्दुमती को सभा में लेती चली ।
किन्तु इन्दुमती ने उनमें से एक को भी पसन्द न किया । आखिर सुनन्दा इन्दुमती को
साथ में ले अज के निकट पहुँची और इस प्रकार उनके कुल, शील,
रूप, गुण, बुद्धि, बल
आदि का वर्णन करने लगीः यह राजकुमार सामान्य नहीं हैं । भगवान सूर्य के पुत्र मनु
नाम के एक सुप्रसिद्ध राजा थे। महाराज मनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुए । उनके विशुद्ध
वंश में पुरंजय नाम के एक बड़े गुणी राज-ऋषि थे इन्होंने सदेह स्वर्गारोहण किया था
और इन्द्र के साथ एक ही आसन में बैठा करते हैं और समय पड़ने पर ऐरावत हाथी पर एक
साथ बैठकर शत्रुओं से युद्ध किया करते हैं। एक समय देवता और असुरों में घोर युद्ध
हुआ था । पुरंजय उन असुरो को लडाई में न हरा सके । इससे उन्होंने महादेव का रूप
धरकर एक बैलरूपी महेन्द्र पर : सवार हो असुरो को हराया था। बैल के ककुद (कन्धे) पर
सवार होने के कारण, उनका नाम ककुत्स्थ पड़ा इसके पीछे कोशल
देश के राजाओं ने अपने वंश को 'ककुत्स्थ' नाम से विख्यात किया । महाराज ककुत्स्थ के कुल में 'दिलीप'
नाम के एक विख्यात और प्रबल प्रतापी राजा हुए । दिलीप असाधारण गुण संपन्न
और पराक्रमी थे। उन्होंने ९९ यज्ञ निर्विघ्न समाप्त किये । सौवां अश्वमेध यज्ञ वे
केवल इन्द्रराज की ईर्ष्या से न करने पाये। उन्हीं के पुत्र 'रघु राज्य शासन कर रहे हैं। उनके गुण अवर्णनीय है। यह परम सुन्दर कुमार
उन्हीं रघु के सुयोग्य पुत्र हैं । इनका नाम अज है। यह पिता के दिये हुए राज्य पाकर
पिता की भांति प्रजाओं का पालन कर रहे हैं । पिता इन पर राज्यभार सौंपकर आनन्द से ईश्वर के भजन पूजन में
दिन बिता रहे हैं। क्या रूप में, क्या गुण में, क्या विद्या में और क्या पराक्रम में अब तुम्हारे ही योग्य हैं । इससे जब
तुम्हें रुचे वो इन्हें 'जयमाला, से भूषित
करो। यह कह सुनन्दा चुप हो गई। इन्दुमती लाज छोड़कर अज की ओर एक टक लगा देखने लगी
। उनका मन नयन के द्वार से अज के सौंदर्य पर जा अटका। फिर उन्होंने सुनन्दा से कहा
कि, ले यह जयमाला उन्हीं राजकुमार के गले में डाल आ। सुनन्दा
ने इन्दुमती के कहने पर जयमाला अज को पहना दिया। यह देखकर पुरवासी बहुत ही
सन्तुष्ट और आनन्दित हुए।
इस प्रकार रघुवंशम् छटवां सर्ग समाप्त हुआ
शेष जारी..............आगे रघुवंशमहाकाव्यम् सातवाँ सर्ग।
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