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किरातार्जुनीयम् सर्ग ६
किरातार्जुनीयम् सर्ग ६- छठे सर्ग का वर्ण्य विषय है : अर्जुन की आँखों से देखी इंद्रनील की अप्रतिम शोभा, वहाँ पहुंचकर अर्जुन द्वारा तप का प्रारम्भ, प्रकृति के विभिन्न उपादानों का तप में सहयोग, वहाँ तैनात वनदेवों द्वारा अमरावती पहहुँचकर इन्द्र को सूचित करना, इंद्र द्वारा देवांगनाओं को उनके सहचर गंधर्वों के साथ वहाँ जाकर अपने हाव-भाव और सौन्दर्य से अर्जुन की तपस्या में विघ्न डालने का आदेश देना, ताकि उनकी निष्ठा की परीक्षा हो सके।
किरातार्जुनीयम् महाकाव्यम् भारविकृतम्
किरातार्जुनीयम् षष्ठः सर्ग
किरातार्जुनीयम्
सर्ग ६
किरातार्जुनीये षष्ठः सर्गः
रुचिराकृतिः कनकसानुं अथो परमः
पुमानिव पतिं पततां ।
धृतसत्पथस्त्रिपथगां अभितः स तं
आरुरोह पुरुहूतसुतः ।। ६.१ ।।
अर्थ: इन्द्रकील पर्वत पर पहुँचने
के अनन्तर मनोहर शरीरधारी तथा सन्मार्गगामी इन्द्रपुत्र अर्जुन ने सुवर्णमय शिखरों
से युक्त उस इन्द्रकील पर्वत पर त्रिपथगा गङ्गा के सामने की ओर से होकर इस प्रकार
आरोहण किया जिस प्रकार से भगवान् विष्णु अपने वाहन पक्षीराज गरुड़ पर आरूढ़ होते
हैं।
टिप्पणी: उपमा अलङ्कार। प्रमिताक्षरा वृत्त।
तं अनिन्द्यबन्दिन इवेन्द्रसुतं
विहितालिनिक्वणजयध्वनयः ।
पवनेरिताकुलविजिह्मशिखा
जगतीरुहोऽवचकरुः कुसुमैः ।। ६.२ ।।
अर्थ: जय-जयकार की तरह भ्रमरों के
गुञ्जन से युक्त, वायु द्वारा
प्रकम्पित होने के कारण डालियों के टेढ़े-मेढ़े अग्रभागों वाले वृक्षों ने अच्छे
स्तुतिपाठकों की भांति उस इन्द्रपुत्र अर्जुन के ऊपर पुष्पों की वर्षा की।
टिप्पणी: उपमा अलङ्कार।
अवधूतपङ्कजपरागकणास्तनुजाह्नवीसलिलवीचिभिदः
।
परिरेभिरेऽभिमुखं एत्य सुखाः सुहृदः
सखायं इव तं मरुतः ।। ६.३ ।।
अर्थ: कमलों के परागकणों को बिखेरते
हुए,
छोटी-छोटी गङ्गाजल की लहरियों का संपर्क करते हुए शीतल सुखदायी वायु
ने अर्जुन को अपने सन्मित्र की भांति सम्मुख आकर परिरम्भण(अंक मिलन) किय।
टिप्पणी: उपमा अलङ्कार।
उदितोपलस्खलनसंवलिताः
स्फुटहंससारसविरावयुजः ।
मुदं अस्य माङ्गलिकतूर्यकृतां
ध्वनयः प्रतेनुरनुवप्रं अपां ।। ६.४ ।।
अर्थ: ऊंचे-ऊंचे पत्थरों की शिलाओं
से टकराकर चूर-चूर होने वाली, हंस और सारस
के गुञ्जन से युक्त नीचे गिरती हुई जल की कल-कल ध्वनियों ने अर्जुन के लिए
मङ्गलसूचक तुरुही आदि के शब्दों से होने वाली प्रसन्नता का विस्तार किया।
टिप्पणी: निदर्शना अलङ्कार।
अवरुग्णतुङ्गसुरदारुतरौ निचये पुरः
सुरसरित्पयसां ।
स ददर्श वेतसवनाचरितां प्रणतिं
बलीयसि समृद्धिकरीं ।। ६.५ ।।
अर्थ: अर्जुन ने ऊंचे ऊंचे देवदार
के वृक्षों को उखाड़ फेंकने वाले प्रखर वेगयुक्त सुरनदी गङ्गा के जल प्रवाह में
बेंत के वनों की कल्याणदायी विनम्रता को देखा।
टिप्पणी: अर्थात एक ओर तो ऊंचे ऊंचे
देवदार के वृक्षों को गङ्गा की प्रखर धारा उखाड़ फेंकती थी किन्तु विनम्रतायुक्त
बेंत के वन उसी में आनन्दपूर्वक झूम रहे थे।
जो लोग गर्वोन्मत्त होकर अपना शिर व्यर्थ ही ऊंचा उठाकर अकड़ते फिरते हैं
उनका गर्व चूर्ण हुए बिना नहीं रहता है, किन्तु
विनम्रता से व्यवहार करनेवाले सर्वत्र कल्याण प्राप्त करते हैं, आपत्तियां उन्हें नहीं सता सकतीं।
विनम्रता कितनी हितकारिणी है, यह बात बेतों के उदहारण
से अर्जुन के ध्यान में आयी।
प्रबभूव नालं अवलोकयितुं परितः
सरोजरजसारुणितं ।
सरिदुत्तरीयं इव संहतिमत्स
तरङ्गरङ्गि कलहंसकुलं ।। ६.६ ।।
अर्थ: अर्जुन चारों ओर से कमल-पराग
से लाल रङ्ग में रङ्गे हुए , बिलकुल एक
दुसरे से सटे हुए, जलतरङ्गों के समान शोभायमान, गङ्गा के स्तनों को ढंकने वाली ओढ़नी की भांति दिखाई पड़ने वाले राजहंसों की
पंक्तियों को बड़ी देर तक देखने में समर्थ नहीं हुए।
टिप्पणी: अर्थात उनका सौंदर्य
अत्यधिक उत्तेजक था। अर्जुन विचलित होने
लगे।
दधति क्षतीः परिणतद्विरदे
मुदितालियोषिति मदस्रुतिभिः ।
अधिकां स रोधसि बबन्ध धृतिं महते रुजन्नपि
गुणाय महान् ।। ६.७ ।।
अर्थ: अर्जुन ने मतवाले हाथियों के
तिरछे दन्त-प्रहारों की चोटों को धारण करने वाले, मद के चूने के कारण उसकी सुगन्ध से लुब्ध प्रमुदित एवं भ्रमरियों से युक्त
गङ्गातट में अत्यधिक प्रीति प्रकट की।
क्यों न हो, महान लोग पीड़ा पहुंचा कर भी पीड़ित को
उत्कर्ष की प्राप्ति करा ही देते हैं।
टिप्पणी: मतवाले हाथियों के
दन्त-प्रहारों से गङ्गातट क्षत-विक्षत हो गया था, उसकी शोभा नष्ट हो गयी थी, किन्तु हाथियों के मद की
धरा उनमें बही थी, अतः वहां मद-सुगन्ध लोभी भ्रमरियन गुञ्जार
कर रही थीं, जिससे अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। क्यों न होती, महान लोगों
का विरोध भी उत्कर्ष का कारण होता है।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।
अनुहेमवप्रं अरुणैः समतां गतं
ऊर्मिभिः सहचरं पृथुभिः ।
स रथाङ्गनामवनितां करुणैरनुबध्नतीं
अभिननन्द रुतैः ।। ६.८ ।।
अर्थ: अर्जुन ने (इन्द्रकील गिरि
के) सुवर्णमय शिखर के समीप, (शिखर के स्वर्णिम
कान्ति से युक्त होने के कारण) लाल रङ्ग की विशाल तरङ्गों की समानता को प्राप्त
अपने प्रिय सहचर को अपने करुण स्वरों में खोजती हुई चक्रवाकी का अभिनन्दन किया।
टिप्पणी: सुवर्णमय शिखर की समीपता
के कारण गङ्गा की बड़ी-बड़ी लहरें लाल रङ्ग के चक्रवाकों के समान दिखाई पड़ रही
थी। उनमें से अपने प्यारे चक्रवाक को अपने
करुण स्वर से कोई चक्रवाकी ढूंढना चाहती थी।
वह अर्जुन को बहुत पसन्द आयी, उन्होंने
उसके इस अत्यधिक प्रेम की मन में प्रशन्सा की।
तद्गुण और भ्रान्ति अलङ्कार का
अङ्गागी भाव से सङ्कर।
सितवाजिने निजगदू
रुचयश्चलवीचिरागरचनापटवः ।
मणिजालं अम्भसि निमग्नं अपि
स्फुरितं मनोगतं इवाकृतयः ।। ६.९ ।।
अर्थ: चञ्चल तरङ्गों को अपने रङ्ग
में रङ्ग देने की रचना में निपुण मणिकान्तियों ने जल की तह में डूबे हुए मणियों के
समूहों के होने की सूचना भ्रूभङ्ग आदि बाह्य विकारों द्वारा मन के क्रोधादि
विकारों की भान्ति अर्जुन को दे दी।
टिप्पणी: गङ्गा की निर्मल शुभ्र
जल-धारा की तह में मणियाँ पड़ी थीं, उनकी
कान्तियाँ ऊपर चञ्चल जल तरङ्गों में भी सक्रान्त हो रही थी और इस प्रकार अर्जुन को
ऊपर की लहरों को देखकर ही उनकी सूचना मिल गयी थी। बाह्य आकृति से मनोगत विकारों की
सूचना चतुर लोग पा ही जाते हैं । उपमा
अलङ्कार
उपलाहतोद्धततरङ्गधृतं जविना
विधूतविततं मरुता ।
स ददर्श केतकशिखाविशदं सरितः
प्रहासं इव फेनं अपां ।। ६.१० ।।
अर्थ: अर्जुन ने बड़े-बड़े पत्थरों के
कारण चञ्चल तरङ्गो से युक्त, तीव्र वायु के
झोंकों से प्रकम्पित एवं खण्ड-खण्ड में विशीर्ण केतकी के शिखाग्र की भान्ति श्वेत
जल के फेनों को मानो गङ्गा के हास्य के समान देखा।
टिप्पणी: हास्य भी श्वेत ही वर्णित
होता है। उत्प्रेक्षा अलङ्कार।
बहु बर्हिचन्द्रिकनिभं विदधे धृतिं
अस्य दानपयसां पटलं ।
अवगाढं ईक्षितुं इवैभपतिं
विकसद्विलोचनशतं सरितः ।। ६.११ ।।
अर्थ: मयूरों की पुच्छों के चन्द्रक
के समान दिखाई पड़नेवाले अनेक मदजल के बिन्दुओं ने जल के भीतर डूबे हुए गजराज को
देखने के लिए मानो नदी के खुले हुए सैकड़ों नेत्रों के समान अर्जुन में प्रीति
उत्पन्न की।
टिप्पणी: गजराज तो पानी में डूब कर
आनन्द ले रहा था और उसके मदजल के बिन्दु धारा के ऊपर तेल की तरह तैर रहे थे,
जो रङ्ग-बिरङ्गे होकर मयूरों के पुच्छों में रहने वाले चन्द्रकों की
भान्ति दिखाई पड़ रहे थे। कवी उसी की उत्प्रेक्षा कर रहा है, मानो
नदी अपने सैकड़ो नेत्रों को खोलकर उस गजराज को ढूंढना चाहती है कि वह क्या हो गया ?
अर्जुन को यह दृश्य परम प्रीतिकर लगा। उत्प्रेक्षा अलङ्कार।
प्रतिबोधजृम्भणविभीनमुखी पुलिने
सरोरुहदृशा ददृशे ।
पतदच्छमौक्तिकमणिप्रकरा गलदश्रुबिन्दुरिव
शुक्तिवधूः ।। ६.१२ ।।
अर्थ: कमलनयन अर्जुन ने स्फुटित
होने के कारण (नीन्द से जागने के कारण जम्भाई लेने से) खुले मुखवाली,
अतएव स्वच्छमुक्ता की कान्तियों का प्रसार करती हुई, एवं मानो जलबिंदु गिरती हुई सीपी रूपिणी वधु को तटवर्ती प्रदेश पर देखा।
टिप्पणी: जैसे कोई नववधू निद्रा से
जागकर अपनी शैय्या पर जम्भाई लेती हुई मुंह बाती है, अपने शुभ्र दांतों की किरणों का प्रसार करती है तथा आनन्दाश्रु बहाती है
उसी प्रकार नदी के तटवर्ती प्रदेश पर वह सीपी पड़ी हुई थी। उसका मुंह चटक गया था और उसमें से मोती की
कान्ति बहार झलक रही थी तथा जलबिन्दु चू रहे थे।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार।
शुचिरप्सु
विद्रुमलताविटपस्तनुसान्द्रफेनलवसंवलितः ।
स्मरदायिनः स्मरयति स्म भृशं
दयिताधरस्य दशनांशुभृतः ।। ६.१३ ।।
अर्थ: (नदी की) जलराशि में स्वच्छ,
छोटे-छोटे एवं सघन फेन के टुकड़ों के साथ मिले हुए प्रवलता के पल्लव,
कामोत्तेजना देनेवाले, स्वच्छ दांतों की
किरणों से मनोहर प्रियतम के अधरों का अत्यधिक स्मरण करा रहे थे।
टिप्पणी: स्मरण अलङ्कार
उपलभ्य चञ्चलतरङ्गहृतं मदगन्धं
उत्थितवतां पयसः ।
प्रतिदन्तिनां इव स सम्बुबुधे
करियादसां अभिमुखान्करिणः ।। ६.१४ ।।
अर्थ: अर्जुन ने चञ्चल लहरों पर
तैरते हुए मदगन्ध को सूंघकर जल की सतह से ऊपर निकले हुए गजाकृति जलजन्तुओं
(जलहस्ती) को अपने प्रतिपक्षी हाथी समझ कर उन पर आक्रमण करने के लिए तत्पर हाथियों
को देखा।
स जगाम विस्मयं उद्वीक्ष्य पुरः
सहसा समुत्पिपतिषोः फणिनः ।
प्रहितं दिवि प्रजविभिः श्वसितैः
शरदभ्रविभ्रमं अपां पटलं ।। ६.१५ ।।
अर्थ: अर्जुन ने आगे की ओर अकस्मात्
ऊपर आने के इच्छुक एक सर्प के अत्यन्त वेगयुक्त फुफकार से आकाश में फेंके हुए,
शरद ऋतु के बादल की भांति दिखाई पड़नेवाले जल के मण्डलाकार समूह के
देखकर बड़ा आश्चर्य माना।
टिप्पणी: उपमा से अनुप्राणित
स्वभावोक्ति अलङ्कार।
स ततार सैकतवतीरभितः
शफरीपरिस्फुरितचारुदृशः ।
ललिताः सखीरिव बृहज्जघनाः
सुरनिम्नगां उपयतीः सरितः ।। ६.१६ ।।
अर्थ: अर्जुन ने बालुकामय तटवर्ती
प्रदेशों से युक्त, चारों ओर मछलियों
के फुदकने रुपी सुन्दर नेत्रों से सुशोभित सुरनदी गङ्गा में मिलनेवाली उसकी सहायक
नदियों को मोटी जंघाओं वाली मनोहर सखियों की भांति पार किया।
टिप्पणी: रूपक और उपमा अलङ्कार।
अधिरुह्य पुष्पभरनम्रशिखैः परितः
परिष्कृततलां तरुभिः ।
मनसः प्रसत्तिं इव मूर्ध्नि गिरेः
शुचिं आससाद स वनान्तभुवं ।। ६.१७ ।।
अर्थ: अर्जुन ने इन्द्रकील पर्वत पर
चढ़ कर उसके शिखर पर पुष्पों के भार से अवनत शिखा वाले वृक्षों के चारों ओर
झाड़-बुहारकर परिष्कृत एवं पवित्र वन्यभूमि को मानो मन की मूर्तिमती प्रसन्नता की
भांति प्राप्त किया।
टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार
अनुसानु पुष्पितलताविततिः
फलितोरुभूरुहविविक्तवनः ।
धृतिं आततान तनयस्य
हरेस्तपसेऽधिवस्तुं अचलां अचलः ।। ६.१८ ।।
अर्थ: प्रत्येक शिखर पर फूली हुयी
लताओं के वितानों से युक्त एवं फले हुए वृक्षों से सुशोभित पवित्र अथवा निर्जन वनों
से विभूषित इन्द्रकील पर्वत ने इन्द्रपुत्र अर्जुन को तपश्चर्या के अनुष्ठान में
अविचल उत्साह प्रदान किया।
टिप्पणी: काव्यलिङ्ग अलङ्कार।
प्रणिधाय तत्र विधिनाथ धियं दधतः
पुरातनमुनेर्मुनितां ।
श्रमं आदधावसुकरं न तपः किं
इवावसादकरं आत्मवतां ।। ६.१९ ।।
अर्थ: तदनन्तर उस इन्द्रकील पर्वत
पर योग शास्त्र के अनुसार अपनी चित्तवृत्तियों का नियमन कर मुनियों जैसी वृत्ति
धारण करनेवाले उस पुराने मुनि (नर के अवतार) अर्जुन को दुष्कर तपस्या के क्लेशों
ने नहीं सताया। मनस्वियों को क्लेश पहुँचाने
वाली भला कौन सी वस्तु है ? (कोई नहीं)
टिप्पणी: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
शमयन्धृतेन्द्रियशमैकसुखः
शुचिभिर्गुणैरघमयं स तमः ।
प्रतिवासरं सुकृतिभिर्ववृधे विमलः
कलाभिरिव शीतरुचिः ।। ६.२० ।।
अर्थ: इन्द्रियदमन को ही
मुख्य-मुख्य सुख के रूप में स्वीकार कर पवित्र गुणों से अपने पापमय अन्धकार का शमन
करते हुए पापरहित अर्जुन प्रतिदिन अपनी उस विधिविहित तपस्या से (दूसरों के सन्ताप
को दूर करने को ही मुख्य कार्य समझनेवाले अपनी कान्ति से अन्धकार को दूर करने वाले
एवं अपनी कमनीय कलाओं से शुक्लपक्ष में प्रतिदिन बढ़्नेवाले) चन्द्रमा की भांति
बढ़ने लगे।
टिप्पणी: उपमा अलङ्कार।
अधरीचकार च विवेकगुणादगुणेषु तस्य
धियं अस्तवतः ।
प्रतिघातिनीं विषयसङ्गरतिं
निरुपप्लवः शमसुखानुभवः ।। ६.२१ ।।
अर्थ: और भी विवेक के उदय से तत्वों
के विनिश्चय रूप-गुण के द्वारा काम-क्रोधादि विकारों में प्रवृत्तियों को रोकने
वाले निष्कण्टक शान्ति एवं सुखोपभोग ने उस अर्जुन की तपश्चर्या में अनेक प्रकार का
विघ्न पहुँचाने वाली विषय-वासनाओं की अभिरुचि को दबा दिया।
टिप्पणी: अर्थात अर्जुन
विषय-वासनाओं से निर्मुक्त होकर तपश्चर्या में रत हो गया।
मनसा जपैः प्रणतिभिः प्रयतः
समुपेयिवानधिपतिं स दिवः ।
सहजेतरे जयशमौ दधती बिभरांबभूव
युगपन्महसी ।। ६.२२ ।।
अर्थ: अहिंसा आदि में निरत रहकर
ध्यान,
जप एवं नमस्कारादि के द्वारा स्वर्ग के अधिपति इन्द्र को प्राप्त
करने की चेष्टा में लगे हुए अर्जुन ने अपने स्वाभाविक एवं अभ्यास से प्राप्त वीररस
एवं शान्त रसों को पुष्ट करनेवाले तेजों को एक साथ धारण किया।
टिप्पणी: अर्थात वीरों के समान
शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होकर भी वह जप, तप,
अहिंसा आदि शान्त कर्मों के उपासक बन गए। एक साथ ही इन दो परस्पर विरोधी तेजों को धारण
करना अद्भुत महिमा का कार्य है।
शिरसा हरिन्मणिनिभः स
वहन्कृतजन्मनोऽभिषवणेन जटाः ।
उपमां ययावरुणदीधितिभिः
परिमृष्टमूर्धनि तमालतरौ ।। ६.२३ ।।
अर्थ: मरकत मणि के समान हरे वर्ण
वाले एवं नियमानुष्ठित स्नान करने के कारण पिङ्गल वर्ण की जटाओं को धारण किये हुए
अर्जुन बाल सूर्य की किरणों से सुशोभित शिखर वाले तमाल के वृक्ष के समान सुशोभित
हो रहे थे।
टिप्पणी: उपमा अलङ्कार
धृतहेतिरप्यधृतजिह्ममतिश्चरितैर्मुनीनधरयञ्शुचिभिः
।
रजयांचकार विरजाः स मृगान्कं इवेशते
रमयितुं न गुणाः ।। ६.२४ ।।
अर्थ: हथियार धारण करने पर भी सरल
बुद्धि वाले एवं पवित्र आचरणों में मुनियों को नीचे दिखाने वाले रजोगुणविहीन
अर्जुन ने वन्य पशुओं को प्रसन्न कर दिया।
भला गुण किसे नहीं वश में कर सकते।
टिप्पणी: चरित्र की शुद्धता ही
विश्वास का कारण होती है, वेश अथवा परिचय
नहीं। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।
अनुकूलपातिनं अचण्डगतिं किरता
सुगन्धिं अभितः पवनं ।
अवधीरितार्तवगुणं सुखतां नयता रुचां
निचयं अंशुमतः ।। ६.२५ ।।
नवपल्लवाञ्जलिभृतः प्रचये
बृहतस्तरून्गमयतावनतिं ।
स्तृणता तृणैः प्रतिनिशं मृदुभिः
शयनीयतां उपयतीं वसुधां ।। ६.२६ ।।
पतितैरपेतजलदान्नभसः पृषतैरपां
शमयता च रजः ।
स दयालुनेव परिगाढकृशः
परिचर्ययानुजगृहे तपसा ।। ६.२७ ।।
अर्थ: अर्जुन की उस तपश्चर्या के
अनुकूल मन्द मन्द सुगन्धित वायु को उसके (अर्जुन के) चारों और विकीर्ण कर दिया तथा
सूर्य की किरणों की ग्रीष्मकालीन तेजस्विता को दबाकर उसे सुखस्पर्शी बना
दिया। पुष्प चुनने के अवसर पर नूतन पल्लव
रुपी अञ्जलियों को धारण करने वाले विशाल वृक्षों को नम्र बना दिया तथा प्रत्येक रात्रि
में शयन-स्थान अर्थात शैय्या बनने वाली पृथ्वी को कोमल तृणों से आच्छादित कर दिया
। एवं जलरहित बादलों से बरसते हुए जल
बिंदुओं द्वारा धरती की धुल को शान्त कर दिया।
इस प्रकार की उस दयालु तपश्चर्या की शुश्रूषा से मानो अन्यन्त क्षीणशरीर
अर्जुन परम अनुग्रहीत हुए।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि उस कठोर
साधना में निरत अर्जुन को प्रकृति कि सारी सुविधाएं प्राप्त हुईं। यद्यपि वह खुली धुप में रहते थे,
पृथ्वी पर शयन करते थे, स्वयं वृक्षों से
पुष्प चुनते थे और वह तपोभूमि धूल धक्कड़ से भरी थी किन्तु उनके तपोलीन होने पर वह
सब असुविधाएं स्वतः दूर हो गयी। तीनों
श्लोकों में उत्प्रेक्षा ही प्रधान अलङ्कार है।
जैसे किसी दुर्बल दीन-हीन व्यक्ति को देखकर कोई दयालु व्यक्ति उसकी सेवा
सुश्रूषा में लीन हो जाता है, उसी प्रकार उनकी तपस्या भी
मानो उस पर दयालु हो गयी।
महते फलाय तदवेक्ष्य शिवं
विकसन्निमित्तकुसुमं स पुरः ।
न जगाम विस्मयवशं वशिनां न निहन्ति
धैर्यं अनुभावगुणः ।। ६.२८ ।।
अर्थ: महान सिद्धि रूप कल्याण(फल)
की प्राप्ति के लिए विक्सित होने वाले उन कल्याणकारी शकुन रुपी पुष्पों को सामने
देखकर विस्मित नहीं हुए। जितेन्द्रिय लोग
फल प्राप्ति के सूचक अनुभवों के होने पर भी अपना धैर्य नहीं छोड़ते।
टिप्पणी: क्योंकि यदि विस्मय करते
तो तप सिद्धि क्षीण हो जाती, जैसा कि
शास्त्रीय विधान है। "तप क्षरति
विस्मयात्। " अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।
तदभूरिवासरकृतं सुकृतैरुपलभ्य वैभवं
अनन्यभवं ।
उपतस्थुरास्थितविषादधियः शतयज्वनो
वनचरा वसतिं ।। ६.२९ ।।
अर्थ: इस प्रकार की तपश्चर्या
द्वारा थोड़े ही दिनों में अर्जुन के, दूसरों
द्वारा असम्भव अर्थात अलौकिक प्रभाव को देखकर खेद से भरे हुए किरातवृन्द इन्द्र की
पूरी अमरावती पहुँच गए।
टिप्पणी: किरातों को भ्रम हुआ कि
कहीं अपनी कठोर तपस्या से यह इन्द्रपद प्राप्त तो नहीं करना चाहता।
विदिताः प्रविश्य विहितानतयः
शिथिलीकृतेऽधिकृतकृत्यविधौ ।
अनपेतकालं अभिरामकथाः
कथयांबभूवुरिति गोत्रभिदे ।। ६.३० ।।
अर्थ: उन वनचरों ने अनुमति लेकर
इन्द्र के समीप प्रवेश किया और हाथ जोड़कर नमस्कार किया। पर्वत की रक्षा का गुरु
कार्य छोड़कर वे आये थे अतः व्यर्थ में अधिक समय न लगाकर इन्द्र से इस प्रकार का
श्रवणसुखद संवाद कह सुनाया।
शुचिवल्कवीततनुरन्यतमस्तिमिरच्छिदां
इव गिरौ भवतः ।
महते जयाय मघवन्ननघः पुरुषस्तपस्यति
तपज्जगतीं ।। ६.३१ ।।
अर्थ: हे महाराज इन्द्र ! पवित्र
वल्कल से शरीर को आच्छादित कर अन्धकार को दूर करनेवाले सूर्य आदि तेजस्वियों में
से मानो अन्यतम कोई एक निष्पाप पुरुष आपके इन्द्रकील नमक पर्वत पर,
संसार को उत्तप्त करता हुआ, किसी महान विजय
लाभ के लिए तपस्या कर रहा है।
टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार
स बिभर्ति भीषणभुजंगभुजः पृथि विद्विषां
भयविधायि धनुः ।
अमलेन तस्य धृतसच्चरिताश्चरितेन
चातिशयिता मुनयः ।। ६.३२ ।।
अर्थ: भयङ्कर सर्पों के समान भुआजों
वाला वह पुरुष शत्रुओं को भयभीत करनेवाला विशाल धनुष धारण किये हुए है। उसके
निर्मल आचरणों ने सच्चरित ऋषि मुनियों को भी जीत लिया है।
टिप्पणी: उपमा अलङ्कार
मरुतः शिवा नवतृणा जगती विमलं नभो
रजसि वृष्टिरपां ।
गुणसम्पदानुगुणतां गमितः कुरुतेऽस्य
भक्तिं इव भूतगणः ।। ६.३३ ।।
अर्थ: उस तपस्वी पुरुष के सद्गुणों
के प्रभाव से अनुकूलता को प्राप्त होने वाले पृथ्वी, जल आदि पाँचों महाभूत भी मानो उसके प्रति भक्ति करते हैं, क्योंकि हवाएं सुखदायिनी हो गयी हैं, धरती नूतन कोमल
घासों से आच्छादित हो गयी है, आकाश निर्मल हो गया है,
धुल उठने पर जल की वृष्टि होती है।
टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार
इतरेतरानभिभवेन मृगास्तं उपासते
गुरुं इवान्तसदः ।
विनमन्ति चास्य तरवः प्रचये परवान्स
तेन भवतेव नगः ।। ६.३४ ।।
अर्थ: वन्य पुरुष उस तपस्वी पुरुष
की सेवा विद्यार्थियों द्वारा गुरु के समान परस्पर वैर-विरोध भूलकर करते हैं।
पुष्प चुनने के समय वृक्ष उसके सामने स्वयं झुक जाते हैं। (इस प्रकार) वह
इन्द्रकील आप की भांति ही अब उस तपस्वी के अधीन सा हो गया है।
उरु सत्त्वं आह विपरिश्रमता परमं
वपु प्रथयतीव जयं ।
शमिनोऽपि तस्य नवसंगमने
विभुतानुषङ्गि भयं एति जनः ।। ६.३५ ।।
अर्थ: कठिन परिश्रम करने पर भी उसका
श्रान्त न होना उसके महान आन्तरिक बल की सूचना देता है,
उसका सुन्दर एवं विशाल शरीर उसकी विजय की सूचना देता है, यद्यपि वह शांत रहता है तथापि जब कभी किसी से उसका प्रथम समागम होता है उस
समय आगन्तुक व्यक्ति में उसकी विभुता से भय उत्पन्न हो जाता है।
ऋषिवंशजः स यदि दैत्यकुले यदि
वान्वये महति भूमिभृतां ।
चरतस्तपस्तव वनेषु सदा न वयं
निरूपयितुं अस्य गतिं ।। ६.३६ ।।
अर्थ: वह तपस्वी ऋषियों का वंशज है
अथवा दैत्यों के वंश का है अथवा राजाओं के महान कुल में उत्पन्न हुआ है?
आपके वन में तपस्या करनेवाले उस पुरुष के भेद को जानने में हम
असमर्थ हैं।
विगणय्य कारणं अनेकगुणं निजयाथवा
कथितं अल्पतया ।
असदप्यदः सहितुं अर्हति नः क्व
वनेचराः क्व निपुणा मतयः ।। ६.३७ ।।
अर्थ: (उसकी इस तपस्या का क्या
प्रयोजन है, इसका) अनेक प्रकार से अनुमान
करके अथवा अपनी स्वल्पबुद्धि से जो यह बात हमने आप से निवेदन की है, वह अनुचित भी हो तो आप उसे क्षमा करें। क्योंकि कहाँ हम जङ्गली लोग और
कहाँ वह कुशलमति तपस्वी।
टिप्पणी: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
अधिगम्य गुह्यकगणादिति तन्मनसः
प्रियं प्रियसुतस्य तपः ।
निजुगोप हर्षं उदितं मघवा
नयवर्त्मगाः प्रभवतां हि धियः ।। ६.३८ ।।
अर्थ: देवराज इन्द्र ने इस प्रकार
यक्षों के मुख से मन को आनन्दित करने वाली अपने प्यारे पुत्र की तपस्या का
वृत्तान्त सुनकर अपनी प्रकट होने वाली प्रसन्नता को छिपा लिया। क्यों न हो, प्रभुओं
अर्थात बड़े लोगों की बुद्धि नीतिमार्गानुसारिणी होती है।
टिप्पणी: बड़े लोग किसी इष्ट कार्य
के सिद्ध होने से उत्पन्न अपने मन की प्रसन्नता छिपा कर रखते हैं क्योंकि उसके
प्रकट होने से कार्यहानि की सम्भावना रहती है।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।
प्रणिधाय चित्तं अथ भक्ततया
विदितेऽप्यपूर्व इव तत्र हरिः ।
उपलब्धुं अस्य नियमस्थिरतां
सुरसुन्दरीरिति वचोऽभिदधे ।। ६.३९ ।।
अर्थ: तदनन्तर इन्द्र ने समाधिस्थ
होकर अर्जुन को अपना अनन्य भक्त जान लेने पर भी, अनजान की भांति उसकी नियम निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए देवांगनाओं से इस
प्रकार की बातें की।
टिप्पणी: इन्द्र यद्यपि यह जान गए
थे कि अर्जुन अनन्य भाव से तपस्या में लीन है तथापि लोक प्रतीति के लिए अप्सराओं
द्वारा इसकी दृढ़ नियमानुवर्तिता की परीक्षा लेना उन्होंने उचित समझा। क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। पुत्र के प्रति अनायास कृपा भाव का होना उनके
पक्षपाती कहे जाने का कारण बनता। अतः
लोगों को दिखने के लिए उन्होंने यह नाटक रचा।
सुकुमारं एकं अणु मर्मभिदां
अतिदूरगं युतं अमोघतया ।
अविपक्षं अस्त्रं अपरं कतमद्विजयाय
यूयं इव चित्तभुवः ।। ६.४० ।।
अर्थ: मर्म पर आघात करनेवाले
शस्त्रास्त्रों में भला दूसरा कौन सा ऐसा अस्त्र हमारे पास है जो तुम लोगों की तरह
सुकुमार,
एकमात्र, सूक्ष्म, अत्यन्त
दूरगामी, कभी निष्फल न होनेवाला एवं प्रतिकार रहित है। कामदेव के ऐसे अस्त्रों को छोड़कर (आप लोगों की)
विजय प्राप्ति के लिए कोई दूसरा अस्त्र नहीं है।
टिप्पणी: अर्थात दूसरे अस्त्र तो
कठोर होते हैं, बहुत से धारण करने पड़ते हैं
क्योंकि एक से कभी काम चलने वाला नहीं होता, भारी और बड़े
होते हैं, बहुत कम अथवा निर्दिष्ट दूरी तक जा सकते हैं,
कभी कभी निष्फल हो जाते हैं और उनके प्रतिकार भी हैं, किन्तु तुम लोगों के सम्बन्ध में ऐसी कोई बात नहीं है। उपमा और परिकर अलङ्कार।
भववीतये हतबृहत्तमसां अवबोधवारि
रजसः शमनं ।
परिपीयमाणं इव वोऽसकलैरवसादं एति
नयनाञ्जलिभिः ।। ६.४१ ।।
अर्थ: सांसारिक दुःखों से सदा के
लिए छूट जाने की इच्छा से माया-मोह को दूर हटाने वाले महान योगियों के ,
रजोगुण को शान्त करनेवाले तत्वबोध रूप जल को, आप
लोग अपने नेत्रों के कटाक्ष रुपी अंजलियों से मानो क्षण भर में पान करके उसे
विनष्ट कर देती है।
टिप्पणी: जब मुमुक्षुओं की यह दशा
केवल आपके कटाक्षों से हो जाती है तो साधारण व्यक्ति की बात ही क्या है।
उत्प्रेक्षा और रूपक का सङ्कर।
बहुधा गतां जगति भूतसृजा कमनीयतां
समभिहृत्य पुरा ।
उपपादिता विदधता भवतीः
सुरसद्मयानसुमुखी जनता ।। ६.४२ ।।
अर्थ: प्राचीनकाल में अनेक स्थलों
में बिखरी हुई सुन्दरता को एकत्र कर आप लोगों की रचना कर्णवाले विधाता ने साधारण
जनता को स्वर्गलोक की यात्रा के लिए लालायित बना दिया है।
टिप्पणी: अर्थात चन्द्रमा आदि अनेक
पदार्थों में जो भी सुन्दरता बिखरी हुई थी उसी को एकत्र कर विधाता ने तुम लोगों की
रचना की है और लोग जो स्वर्ग की प्राप्ति के लिए लालायित रहते हैं,
उसमें केवल तुम लोगों की प्राप्ति की लालसा ही मूल कारण है।
अतिश्योक्ति अलङ्कार।
तदुपेत्य विघ्नयत तस्य तपः कृतिभिः
कलासु सहिताः सचिवैः ।
हृतवीतरागमनसां ननु वः सुखसङ्गिनं
प्रति सुखावजितिः ।। ६.४३ ।।
अर्थ: अतएव आप लोग गायन-वादनादि
कलाओं में निपुण अपने सहचर गन्धर्वों के साथ जाकर उस तपस्वी पुरुष की तपस्या में
विघ्न प्रस्तुत करें। आप लोग जब वीतराग
तपस्वियों के मन को भी अपनी ओर खींच लेतीं हैं तो सुखभिलाषी पुरुष तो सुगमता से वश
में हो सकता है।
टिप्पणी: अर्थात वह तपस्वी तो बड़ी
सुगमता से आप लोगों के वश में हो जाएगा।
उसे वश में करना कठिन नहीं है।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।
अविमृष्यं एतदभिलष्यति स द्विषतां
वधेन विषयाभिरतिं ।
भववीतये न हि तथा स विधिः क्व
शरासनं क्व च विमुक्तिपथः ।। ६.४४ ।।
अर्थ: वह तपस्वी अपने शत्रुओं का
संहार कर विषय-सुख भोगने का अभिलाषी है, यह
बात तो असंदिग्ध ही है। उसकी यह तपस्या
संसार से मुक्ति पाने के लिए नहीं है।
क्योंकि कहाँ धनुष और कहाँ मुक्ति का मार्ग?
टिप्पणी: वह धनुष लेकर तपस्या कर
रहा है,
यही इस बात का प्रमाण है कि मुमुक्षु नहीं है, क्योंकि मुक्ति हिंसा द्वारा प्राप्त नहीं होती, दोनों
विरोधी चीज़ें हैं अतः निश्चय ही वह विषयसुखाभिलाषी है। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।
पृथुदाम्नि तत्र परिबोधि च मा
भवतीभिरन्यमुनिवद्विकृतिः ।
स्वयशांसि विक्रमवतां अवतां न
वधूष्वघानि विमृष्यन्ति धियः ।। ६.४५ ।।
अर्थ: महान तेजस्वी उस तपस्वी पुरुष
के सम्बन्ध में दुसरे मुनियों की तरह क्रुद्ध होकर शाप देने की शङ्का तुम लोग मत
करो। क्योंकि अपने यश की रक्षा करनेवाले पराक्रमी लोगों की बुद्धि नारी जाति के
प्रति प्रतिहिंसा की भावना नहीं रखती।
टिप्पणी: पराक्रमी एवं वीर लोग अपने
यश की हानि की चिन्ता से नारी जाति के प्रति प्रतिहिंसा की भावना नहीं रखते।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
आशंसितापचितिचारु पुरः सुराणां
आदेशं इत्यभिमुखं समवाप्य भर्तुः ।
लेभे परां द्युतिं अमर्त्यवधूसमूहः
सम्भावना ह्यधिकृतस्य तनोति तेजः ।। ६.४६ ।।
अर्थ: अप्सराओं का समूह देवताओं के
समक्ष इस प्रकार की प्रशंसा से युक्त अपने स्वामी इन्द्र का उपर्युक्त आदेश
प्राप्त कर और अधिक सुन्दर हो गया, वह
खिल उठा। क्यों नहीं स्वामी द्वारा
प्राप्त समादर किसी कर्त्तव्य पर नियुक्त सेवक की तेजोवृद्धि तो करता ही है।
टिप्पणी: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
प्रणतिं अथ विधाय प्रस्थिताः
सद्मनस्ताः स्तनभरनमिताङ्गीरङ्गनाः प्रीतिभाजः ।
अचलनलिनलक्ष्मीहारि नालं बभूव
स्तिमितं अमरभर्तुर्द्रष्टुं अक्ष्णां सहस्रं ।। ६.४७ ।।
अर्थ: तदनन्तर इन्द्र को प्रणाम कर
अमरावती से प्रस्थित, स्तनों के भार से
अवनत अङ्गों वाली एवं स्वामी के समादर से संतुष्ट उन अप्सराओं को निश्चल कमल की
शोभा को हरनेवाली अर्थात कमलों के समान मनोहर एवं विस्मय से निर्निमेष देवराज
इन्द्र की सहस्त्र आँखें भी देखने में असमर्थ रह गयी।
टिप्पणी:अर्थात एक तो वे वैसे ही
सुन्दरी थी, दुसरे इन्द्र ने देवताओं के
समक्ष उनका जो अभिनन्दन किया, उससे वे और खिल उठी तथा उनका
सौंदर्य सागर हिलोरे लेने लगा। उपमा
अलङ्कार।
इति
भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये षष्ठः सर्गः ।।
किरातार्जुनीयम्
षष्ठः सर्गः (सर्ग ६) समाप्त ।।
आगे जारी-पढ़ें................... किरातार्जुनीयम् सर्ग ७।।
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