अनंत चतुर्दशी व्रत

अनंत चतुर्दशी व्रत

अनंत चतुर्दशी के दिन भगवान श्रीहरि की पूजा की जाती है। यह व्रत भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को किया जाता है। इस व्रत में सूत या रेशम के धागे को लाल कुमकुम से रंग, उसमें चौदह गांठे (14 गांठे भगवान श्री हरि के द्वारा 14 लोकों की प्रतीक मानी गई है) लगाकर राखी की तरह का अनंत बनाया जाता है। इस अनंत रूपी धागे को पूजा में भगवान पर चढ़ा कर व्रती अपने बाजु में बाँधते हैं। पुरुष दाएं तथा स्त्रियां बाएं हाथ में अनंत बाँधती है। यह अनंत हम पर आने वाले सब संकटों से रक्षा करता है। यह अनंत धागा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनंत फल देता है। यह व्रत धन पुत्रादि की कामना से किया जाता है। इस दिन नये धागे के अनंत को धारण कर पुराने धागे के अनंत का विसर्जन किया जाता है ।

अनंत चतुर्दशी व्रत

अनन्तचतुर्दशी-व्रत-विधान

अनन्त चतुर्दशी व्रत की सम्पूर्ण विधि-विधान का सविस्तार वर्णन व अनन्त चतुर्दशी व्रत कथा भविष्यपुराण के उत्तरपर्व अध्याय ९४ में इस प्रकार आता है-

अनन्त चतुर्दशी व्रत कथा

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा राजन् ! सम्पूर्ण पापों का नाशक, कल्याणकारक तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला अनन्त चतुर्दशी नामक एक व्रत है, जिसे भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को सम्पन्न किया जाता है । युधिष्ठिर ने पूछा भगवन् !आपने जो अनन्त नाम लिया है, क्या ये अनन्त शेषनाग हैं या कोई अन्य नाग हैं या परमात्मा हैं या ब्रह्म हैं ? अनन्त संज्ञा किसकी है ? इसे आप बतलायें । भगवान् श्रीकृष्ण बोले राजन् ! अनन्त मेरा ही नाम है । कला, काष्ठा, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग तथा कल्प आदि काल-विभागों के रूप में मैं ही अवस्थित हूँ । संसार का भार उतारने तथा दानवों का विनाश करने के लिये वसुदेव के कुल में मैं ही उत्पन्न हुआ हूँ । पार्थ ! आप मुझे ही विष्णु, जिष्णु, हर, शिव, ब्रह्मा, भास्कर, शेष, सर्वव्यापी ईश्वर समझिये और अनन्त भी मैं ही हूँ । मैंने आपको विश्वास उत्पन्न करने के लिये ऐसा कहा है । युधिष्ठिर ने पुनः पूछा भगवन् ! मुझे आप अनन्त-व्रत के माहात्म्य और विधि को तथा इसे किसने पहले किया था और इस व्रत का क्या पुण्य है, इसे बतलायें । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा युधिष्ठिर ! इस सम्बन्ध में एक प्राचीन आख्यान है, उसे आप सुनें । कृतयुग में वसिष्ठगोत्री सुमन्तु नाम के एक ब्राह्मण थे । उनका महर्षि भृगु की कन्या दीक्षा से वेदोक्त-विधि से विवाह हुआ था । उन्हें सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसका नाम शीला रखा गया । कुछ समय बाद उसकी माता दीक्षा का ज्वर से देहान्त हो गया और उस पतिव्रता को स्वर्गलोक प्राप्त हुआ । सुमन्तु ने पुनः एक कर्कशा नाम की कन्या से विवाह कर लिया । वह अपने कर्कशा नाम के समान ही दुःशील, कर्कश तथा नित्य कलहकारिणी एवं चण्डीरूपा थी । शीला अपने पिता के घर में रहती हुई दीवाल, देहली तथा स्तम्भ आदि में माङ्गलिक स्वस्तिक, पद्म, शङ्ख आदि विष्णुचिह्नों को अङ्कित कर उनकी अर्चना करती रहती । सुमन्तु को शीला के विवाह की चिन्ता होने लगी । उन्होंने शीला का विवाह कौंडिन्यमुनि के साथ कर दिया । विवाह के अनन्तर सुमन्तु ने अपनी पत्नी से कहा — ‘देवि ! दामाद के लिये पारितोषिक रूप में कुछ दहेज द्रव्य देना चाहिये ।यह सुनकर कर्कशा क्रुद्ध हो उठी और उसने घर में बने मण्डप को उखाड़ डाला तथा भोजन से बचे हुए कुछ पदार्थों को पाथेय के रूप में प्रदान कर कहा चले जाओ, फिर उसने कपाट बंद कर लिया । कौंडिन्य भी शीला को साथ लेकर बैलगाड़ी से धीरे-धीरे वहाँ से चल पड़े । दोपहर का समय हो गया । वे एक नदी के किनारे पहुंचे । शीला ने देखा कि शुभ वस्त्रों को पहने हुए कुछ स्त्रियाँ चतुर्दशी के दिन भक्तिपूर्वक जनार्दन की अलग-अलग पूजा कर रही हैं । शीला ने उन स्त्रियों के पास आकर पूछा — ‘देवियो । आपलोग यहाँ किसकी पूजा कर रही है, इस व्रत का क्या नाम है ।इस पर वे स्त्रियाँ बोलीं — ‘यह व्रत अनन्तचतुर्दशी नाम से प्रसिद्ध है ।शीला बोली — ‘मैं भी इस व्रत को करूंगी, इस व्रत का क्या विधान है, किस देवता की इसमें पूजा की जाती है और दान में क्या दिया जाता है, इसे आप लोग बतायें ।इस पर स्त्रियों ने कहा — ‘शीले ! प्रस्थ भर पकान्न का नैवेद्य बनाकर नदी तट पर जाय, वहाँ स्नान कर एक मण्डल में अनन्तस्वरूप भगवान् विष्णु की गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि उपचारों से पूजा करे और कथा सुने । उन्हें नैवेद्य अर्पित करे । नैवेद्य का आधा भाग ब्राह्मण को निवेदित कर आधा भाग प्रसाद-रूप में ग्रहण करने के लिये रखें । भगवान् अनन्त के सामने चौदह ग्रन्थि युक्त एक दोरक (डोरा) स्थापित कर उसे कुंकुमादि से चर्चित करे । भगवान् को वह दोरक निवेदित करके पुरुष दाहिने हाथ में और स्त्री बायें हाथ में बाँध ले ।

दोरक-बन्धन का मन्त्र इस प्रकार है

अनन्त-संसार-महासमुद्रे मग्नान् समभ्युद्धर वासुदेव ।

अनन्तरुपे विनियोजितात्मा ह्यनन्तरूपाय नमो नमस्ते ।।” (उतरपर्व ९४ । ३३)

हे वासुदेव ! अनन्त संसाररूपी महासमुद्र में मैं डूब रही हूँ, आप मेरा उद्धार करें, साथ ही अपने अनन्तस्वरूप में मुझे भी आप विनियुक्त कर लें । हे अनन्तस्वरूप ! आपको मेरा बार-बार प्रणाम है ।

दोरक बाँधने के अनन्तर नैवेद्य ग्रहण करना चाहिये । अन्त में विश्वरुपी अनन्तदेव भगवान् नारायण का ध्यान कर अपने घर जाय । शीले ! हमने इस अनन्तव्रत का वर्णन किया । तदनन्तर शीला ने भी विधि से इस व्रत का अनुष्ठान किया । पाथेय निवेदित कर उसका आधा भाग ब्राह्मण को प्रदान कर आधा स्वयं ग्रहण किया और दोरक भी बाँधा । उसी समय शीला के पति कौंडिन्य भी यहाँ आये । फिर वे दोनों बेलगाड़ी से अपने घर की ओर चल पड़े । पर पहुँचते ही व्रत के प्रभाव से उनका घर प्रचुर धन-धान्य एवं गोधन से सम्पन्न हो गया । वह शीला भी मणि-मुक्ता तथा स्वर्णादि के हारों और वस्त्रों से सुशोभित हो गयी । वह साक्षात् सावित्री के समान दिखलायी देने लगी । कुछ समय बाद एक दिन शीला के हाथ में बँधे अनन्त-दोरक को उसके पति ने क्रुद्ध हो तोड़ दिया । उस विपरीत कर्मविपाक से उनकी सारी लक्ष्मी नष्ट हो गयी, गोधन आदि चोरों ने चुरा लिया । सभी कुछ नष्ट हो गया । आपस में कलह होने लगा । मित्रों ने सम्बन्ध तोड़ लिया । अनंत भगवान् के तिरस्कार करने से उनके घर में दरिद्रता का साम्राज्य छा गया । दुःखी होकर कौडिन्य एक गहन वन में चले गये और विचार करने लगे कि मुझे कब अनन्त भगवान् के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगा । उन्होंने पुनः निराहार रहकर तथा ब्रह्मचर्यपूर्वक भगवान् अनन्त का व्रत एवं उनके नामों का जप किया और उनके दर्शनों की लालसा से विह्वल होकर वे पुनः दूसरे निर्जन वन में गये । वहाँ उन्होंने एक फले-फूले आम्रवृक्ष को देखा और उससे पूछा कि क्या तुमने अनन्त भगवान् को देखा है ? तब उसने कहा —’ब्राह्मण देवता ! मैं अनन्त को नहीं जानता ।इस प्रकार वृक्षों आदि से अनन्त भगवान् के विषय में पूछते-पूछते घास चरती हुई एक सवत्सा गौ को देखा । कौंडिन्य ने गौ से पूछा — ‘धेनुके ! क्या तुमने अनन्त को देखा है ?’ गौ ने कहा — ‘विभो ! मैं अनन्त को नहीं जानती ।इसके पश्चात् कौंडिन्य फिर आगे बढ़े । वहाँ उन्होंने देखा कि एक वृषभ घास पर बैठा है । पूछने पर वृषभ ने भी बताया कि मैंने अनन्त को नहीं देखा है । फिर आगे जाने पर कौडिन्य को दो रमणीय तालाब दिखलायी पड़े । कौंडिन्य ने उनसे भी अनन्त भगवान् के विषय में पूछा, किंतु उन्होंने भी अनभिज्ञता प्रकट की । इसी प्रकार कौंडिन्य ने अनन्त के विषय में गर्दभ तथा हाथी से पूछा, उन्होंने भी नकारात्मक उत्तर दिया । इस पर वे कौडिन्य अत्यन्त निराश हो पृथ्वी पर गिर पड़े । उसी समय कौडिन्य मुनि के सामने कृपा करके भगवान् अनन्त ब्राह्मण के रूप में प्रकट हो गये और पुनः उन्हें अपने दिव्य चतुर्भुज विश्वरूप का दर्शन कराया । भगवान् के दर्शन कर कौंडिन्य अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उनकी प्रार्थना करने लगे तथा अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगने लगे — 

पापोऽहं पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भवः ।

पाहि मां पुण्डरीकाक्ष सर्वपापहरो भव ।।

अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम् । (उत्तरपर्व ९४ ! ६०-६१)

कौंडिन्य ने भगवान् से पुनः पूछा भगवन् ! घोर वन में मुझे जो आम्रवृक्ष, वृषभ, गौ, पुष्करिणी, गर्दभ तथा हाथी मिले, वे कौन थे ? आप तत्त्वतः इसे बतलायें । भगवान् बोले — ‘द्विजदेव ! वह आम्रवृक्ष पूर्वजन्म में एक वेदज्ञ विद्वान् ब्राह्मण था, किंतु उसे अपनी विद्या का बड़ा गर्व था । उसने शिष्यों को विद्या-दान नहीं किया, इसलिये वह वृक्ष-योनि को प्राप्त हुआ । जिस गौ को तुमने देखा, वह उपजाऊ शक्ति रहित वसुन्धरा थी, वह भूमि सर्वथा निष्फल थी, अतः वह गौ बनी । वृषभ सत्य धर्म का आश्रय ग्रहण कर धर्मस्वरूप ही था । वे पुष्करिणियाँ धर्म और अधर्म की व्यवस्था करनेवाली दो ब्राह्मणियाँ थीं । वे परस्पर बहिनें थीं, किंतु धर्म-अधर्म के विषय में उनमें परस्पर अनुचित विवाद होता रहता था । उन्होंने किसी ब्राह्मण, अतिथि अथवा भूखे को दान भी नहीं किया । इसी कारण वे दोनों बहनें-पुष्करिणी हो गयीं, यहाँ भी लहरों के रूप में आपस में उनमें संघर्ष होता रहता है । जिस गर्दभ को तुमने देखा, वह पूर्वजन्म में महान् क्रोधी व्यक्ति था और हाथी पूर्वजन्म में धर्मदूषक था । हे विप्र ! मैंने तुम्हें सारी बाते बतला दीं । अब तुम अपने घर जाकर अनन्त-व्रत करो, तब मैं तुम्हें उत्तम नक्षत्र का पद प्रदान करूंगा । तुम स्वयं संसार में पुत्र-पौत्रों एवं सुख को प्राप्त कर अन्त में मोक्ष प्राप्त करोगे । ऐसा वर देकर भगवान् अन्तर्धान हो गये । कौंडिन्य ने भी घर आकर भक्तिपूर्वक अनन्त व्रत का पालन किया और अपनी पत्नी शीला के साथ वे धर्मात्मा उत्तम सुख प्राप्त कर अन्त में स्वर्ग में पुनर्वसु नामक नक्षत्र के रूप में प्रतिष्ठित हुए । जो व्यक्ति इस व्रत को करता है या इस कथा को सुनता है, वह भी भगवान् के स्वरूप में मिल जाता है ।

अनन्त चतुर्दशी व्रत विधि व कथा समाप्त ।

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