दुर्गा सप्तशती अध्याय 8
दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 63 श्लोक आते हैं। इस shri durga saptashati eighth chapter दुर्गा सप्तशती के 8 वें अध्याय में रक्तबीज-वध का वर्णन दिया गया है।
श्रीदुर्गा सप्तशती अष्टमोऽध्यायः
दुर्गा सप्तशती अध्याय 8
अर्थ सहित
अथ श्रीदुर्गासप्तशती
॥ अष्टमोऽध्यायः॥
॥ध्यानम्॥
ॐ अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं
धृतपाशाङ्कुशबाणचापहस्ताम्।
अणिमादिभिरावृतां मयूखै-
रहमित्येव
विभावये भवानीम्॥
मैं अणिमा आदि सिद्धिमयी किरणों से
आवृत भवानी का ध्यान करता हूँ । उनके शरीर का रंग लाल है ,
नेत्रों में करूणा लहरा रही है तथा हाथों में पाश , अंकुश , बाण और धनुष शोभा पाते हैं ।
"ॐ"
ऋषिरुवाच॥१॥
चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च
विनिपातिते।
बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः॥२॥
ततः कोपपराधीनचेताः शुम्भः
प्रतापवान्।
उद्योगं सर्वसैन्यानां
दैत्यानामादिदेश ह॥३॥
ऋषि कहते हैं - ॥१॥ चण्ड और मुण्ड
नामक दैत्यों के मारे जाने तथा बहुत - सी सेना का संहार हो जाने पर दैत्यों के
राजा प्रतापी शुम्भ के मन में बड़ा क्रोध हुआ और उसने दैत्यों की सम्पूर्ण सेना को
युद्ध के लिये कूच करने की आज्ञा दी ॥२ - ३॥
अद्य सर्वबलैर्दैत्याः
षडशीतिरुदायुधाः।
कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्यान्तु
स्वबलैर्वृताः॥४॥
वह बोला- ‘आज उदायुध नामके छियासी दैत्य-सेनापति अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये
प्रस्थान करें । कम्बु नामवाले दैत्यों के चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनी से घिरे
हुए यात्रा करें ॥४॥
कोटिवीर्याणि पञ्चाशदसुराणां कुलानि
वै।
शतं कुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु
ममाज्ञया॥५॥
पचास कोटिवीर्य - कुल के और सौ
धौम्र - कुल के असुर सेनापति मेरी आज्ञा से सेना सहित कूच करें ॥५॥
कालका दौर्हृद मौर्याः
कालकेयास्तथासुराः।
युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया
त्वरिता मम॥६॥
कालक ,
मौर्य और कालकेय असुर भी युद्ध के लिये तैयार हो मेरी आज्ञा से
तुरंत प्रस्थान करें ’ ॥६॥
इत्याज्ञाप्यासुरपतिः शुम्भो
भैरवशासनः।
निर्जगाम महासैन्यसहस्रैर्बहुभिर्वृतः॥७॥
भयानक शासन करनेवाला असुरराज शुम्भ
इस प्रकार आज्ञा दे सहस्त्रों बड़ी- बड़ी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये प्रस्थित
हुआ ॥७॥
आयान्तं चण्डिका दृष्ट्वा
तत्सैन्यमतिभीषणम्।
ज्यास्वनैः पूरयामास
धरणीगगनान्तरम्॥८॥
उसकी अत्यन्त भयंकर सेना आती देख
चण्डिका ने अपने धनुष की टंकार से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुँजा दिया ॥८॥
ततः* सिंहो महानादमतीव कृतवान् नृप।
घण्टास्वनेन तन्नादमम्बिका*
चोपबृंहयत्॥९॥
राजन् ! तदनन्तर देवी के सिंह ने भी
बड़े जोर - जोर से दहाड़ना आरम्भ किया , फिर
अम्बिका ने घण्टे के शब्द से उस ध्वनि को और भी बढ़ा दिया ॥९॥
धनुर्ज्यासिंहघण्टानां
नादापूरितदिङ्मुखा।
निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये
विस्तारितानना॥१०॥
धनुष की टंकार ,सिंह की दहाड़ और घण्टे की ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाएँ गूँज उठीं । उस भयंकर
शब्द से काली ने अपने विकराल मुख को और भी बढ़ा लिया तथा इस प्रकार वे विजयनी हुईं
॥१०॥
तं निनादमुपश्रुत्य
दैत्यसैन्यैश्चतुर्दिशम्।
देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः
परिवारिताः॥११॥
उस तुमुल नाद को सुनकर दैत्यों की
सेनाओं ने चारों ओर से आकर चण्डिका देवी , सिंह तथा काली देवी को क्रोधपूर्वक घेर लिया ॥११॥
एतस्मिन्नन्तरे भूप विनाशाय
सुरद्विषाम्।
भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः॥१२॥
ब्रह्मेशगुहविष्णूनां तथेन्द्रस्य च
शक्तयः।
शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य
तद्रूपैश्च्ण्डिकां ययुः॥१३॥
राजन् ! इसी बीच में असुरों के
विनाश तथा देवताओं के अभ्युदय के लिये ब्रह्मा ,
शिव , कार्तिकेय , विष्णु
तथा इन्द्र आदि देवों की शक्तियाँ , जो अत्यन्त पराक्रम और
बल से सम्पन्न थीं , उनके शरीरों से निकलकर उन्हीं के रूप
में चण्डिका देवी के पास गयीं ॥१२ - १३॥
यस्य देवस्य यद्रूपं यथाभूषणवाहनम्।
तद्वदेव हि तच्छक्तिरसुरान्
योद्धुमाययौ॥१४॥
जिस देवता का जैसा रूप ,
जैसी वेश-भूषा और जैसा वाहन है , ठीक वैसे ही
साधनों से सम्पन्न हो उसकी शक्ति असुरों से युद्ध करने के लिये आयी ॥१४॥
हंसयुक्तविमानाग्रे
साक्षसूत्रकमण्डलुः।
आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणी
साभिधीयते॥१५॥
सबसे पहले हंसयुक्त विमानपर बैठी
हुई अक्षसूत्र और कमण्डलु से सुशोभित ब्रह्माजी की शक्ति उपस्थित हुई ,
जिसे ‘ब्रह्माणी’ कहते
हैं ॥१५॥
माहेश्वमरी वृषारूढा
त्रिशूलवरधारिणी।
महाहिवलया प्राप्ता
चन्द्ररेखाविभूषणा॥१६॥
महादेवजी की शक्ति वृषभपर आरूढ़ हो
हाथों में श्रेष्ठ त्रिशूल धारण किये महानाग का कंकण पहने ,मस्तक में चन्द्ररेखा से विभूषित हो वहाँ आ पहुँची ॥१६॥
कौमारी शक्तिहस्ता च मयूरवरवाहना।
योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका
गुहरूपिणी॥१७॥
कार्तिकेयजी की शक्तिरूपा जगदम्बि
का उन्हीं का रूप धारण किये श्रेष्ठ मयूरपर आरूढ़ हो हाथ में शक्ति लिये दैत्यों
से युद्ध करने के लिये आयीं ॥१७॥
तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि
संस्थिता।
शङ्खचक्रगदाशाङ्र्गखड्गहस्ताभ्युपाययौ॥१८॥
इसी प्रकार भगवान् विष्णु की शक्ति
गरुड़पर विराजमान हो शंख , चक्र ,
गदा , शार्ङ्गधनुष तथा खड्ग़ हाथमें लिये वहाँ
आयी ॥१८॥
यज्ञवाराहमतुलं* रूपं या बिभ्रतो*
हरेः।
शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीं
बिभ्रती तनुम्॥१९॥
अनुपम यज्ञवाराह का रूप धारण
करनेवाले श्रीहरि की जो शक्ति है , वह
भी वाराह - शरीर धारण करके वहाँ उपस्थित हुई ॥१९॥
नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं
वपुः।
प्राप्ता तत्र
सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः॥२०॥
नारसिंही शक्ति भी नृसिंह के समान
शरीर धारण करके वहाँ आयी । उसकी गर्दन के बालों के झटके से आकाश के तारे बिखरे
पड़ते थे ॥२०॥
वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि
स्थिता।
प्राप्ता सहस्रनयना यथा शक्रस्तथैव
सा॥२१॥
इसी प्रकार इन्द्र की शक्ति वज्र
हाथ में लिये गजराज ऐरावत पर बैठकर आयी। उसके भी सहस्त्र नेत्र थे । इन्द्र का
जैसा रूप है , वैसा ही उसका भी थी
॥२१॥
ततः परिवृतस्ताभिरीशानो
देवशक्तिभिः।
हन्यन्तामसुराः शीघ्रं मम
प्रीत्याऽऽह चण्डिकाम्॥२२॥
तदनन्तर उन देव - शक्तियों से घिरे
हुए महादेवजी ने चण्डिका से कहा- ‘ मेरी
प्रसन्नता के लिये तुम शीघ्र ही इन असुरों का संहार करो’ ॥२२॥
ततो देवीशरीरात्तु
विनिष्क्रान्तातिभीषणा।
चण्डिकाशक्तिरत्युग्रा
शिवाशतनिनादिनी॥२३॥
तब देवी के शरीर से अत्यन्त भयानक
और परम उग्र चण्डी का - शक्ति प्रकट हुई। जो सैकड़ों गीदड़ियों की भाँति आवाज
करने वाली थी ॥२३॥
सा चाह धूम्रजटिलमीशानमपराजिता।
दूत त्वं गच्छ भगवन् पार्श्वं
शुम्भनिशुम्भयोः॥२४॥
उस अपराजिता देवी ने धूमिल जटावाले
महादेवजी से कहा - भगवन् ! आप शुम्भ - निशुम्भ के पास दूत बनकर जाइये ॥२४॥
ब्रूहि शुम्भं निशुम्भं च
दानवावतिगर्वितौ।
ये चान्ये दानवास्तत्र युद्धाय
समुपस्थिताः॥२५॥
और उन अत्यन्त गर्वीले दानव शुम्भ
एवं निशुम्भ दोनों से कहिये । साथ ही उनके अतिरिक्त भी जो दानव युद्ध के लिये वहाँ
उपस्थित हों उनको भी यह संदेश दीजिये - ॥२५॥
त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु
हविर्भुजः।
यूयं प्रयात पातालं यदि
जीवितुमिच्छथ॥२६॥
‘ दैत्यो ! यदि जीवित
रहना चाहते हो तो पाताल को लौट जाओ । इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य मिल जाय और
देवता यज्ञभाग का उपभोग करें ॥२६॥
बलावलेपादथ चेद्भवन्तो युद्धकाङ्क्षिणः।
तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन
वः॥२७॥
यदि बल के घमंड में आकर तुम युद्धकी
अभिलाषा रखते हो तो आओ। मेरी शिवाएँ (योगिनियाँ ) तुम्हारे कच्चे मांस से तृप्त
हों ’ ॥२७॥
यतो नियुक्तो दौत्येन तया देव्या
शिवः स्वयम्।
शिवदूतीति लोकेऽस्मिंस्ततः सा
ख्यातिमागता॥२८॥
चूँकि उस देवीने भगवान् शिवको दूतके
कार्यमें नियुक्त किया था, इसलिये वह ‘शिवदूती’ के नाम से संसार में विख्यात हुई ॥२८॥
तेऽपि श्रुत्वा वचो देव्याः
शर्वाख्यातं महासुराः।
अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्र*
कात्यायनी स्थिता॥२९॥
वे महादैत्य भी भगवान शिव के मुँह
से देवी के वचन सुनकर क्रोध में भर गये और जहाँ कात्यायनी विराजमान थीं ,
उस ओर बढ़े ॥२९॥
ततः प्रथममेवाग्रे
शरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः।
ववर्षुरुद्धतामर्षास्तां
देवीममरारयः॥३०॥
तदनन्तर वे दैत्य अमर्ष में भरकर
पहले ही देवी के ऊपर बाण , शक्ति और
ऋष्टि आदि अस्त्रों की वृष्टि करने लगे ॥३०॥
सा च तान् प्रहितान्
बाणाञ्छूलशक्तिपरश्वधान्।
चिच्छेद
लीलयाऽऽध्मातधनुर्मुक्तैर्महेषुभिः॥३१॥
तब देवी ने खेल - खेल में ही धनुष
टंकार की और उससे छोड़े हुए बड़े - बड़े बाणों द्वारा दैत्यों के चलाये हुए बाण ,
शूल , शक्ति और फरसों को काट डाला ॥३१॥
तस्याग्रतस्तथा काली शूलपातविदारितान्।
खट्वाङ्गपोथितांश्चारीन् कुर्वती
व्यचरत्तदा॥३२॥
फिर काली उनके आगे होकर शत्रुओं को
शूल के प्रहार से विदीर्न करने लगी और खट्वांग से उनका कचूमर निकालती हुई रणभूमि
में विचरने लगी ॥३२॥
कमण्डलुजलाक्षेपहतवीर्यान् हतौजसः।
ब्रह्माणी चाकरोच्छत्रून् येन येन
स्म धावति॥३३॥
ब्रह्माणी भी जिस - जिस ओर दौड़ती ,
उसी - उसी ओर अपने कमण्डलुका जल छिड़ककर शत्रुओं के ओज और पराक्रम
को नष्ट कर देती थी ॥३३॥
माहेश्वणरी त्रिशूलेन तथा चक्रेण
वैष्णवी।
दैत्याञ्जघान कौमारी तथा
शक्त्यातिकोपना॥३४॥
माहेश्वरी ने त्रिशूल से तथा वैष्णवी
ने चक्र से और अत्यन्त क्रोध में भरी हुई कुमार कार्तिकेयकी शक्ति ने शक्ति से
दैत्यों का संहार आरम्भ किया ॥३४॥
ऐन्द्रीकुलिशपातेन शतशो
दैत्यदानवाः।
पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां
रुधिरौघप्रवर्षिणः॥३५॥
इन्द्रशक्ति के वज्रप्रहार से
विदीर्ण हो सैकड़ों दैत्य - दानव रक्त की धारा बहाते हुए पृथ्वीपर सो गये ॥३५॥
तुण्डप्रहारविध्वस्ता
दंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः।
वाराहमूर्त्या न्यपतंश्चाक्रेण च
विदारिताः॥३६॥
वाराही शक्ति ने कितनों को अपनी
थूथुन की मार से नष्ट किया , दाढ़ों
के अग्रभाग से कितनों की छाती छेद डाली तथा कितने ही दैत्य उसके चक्र की चोट से
विदीर्ण होकर गिर पड़े ॥३६॥
नखैर्विदारितांश्चातन्यान्
भक्षयन्ती महासुरान्।
नारसिंही चचाराजौ
नादापूर्णदिगम्बरा॥३७॥
नारसिंही भी दूसरे - दूसरे
महादैत्यों को अपने नखोंसे विदीर्ण करके खाती और सिंहनाद से दिशाओं एवं आकाश को
गुँजाती हुई युद्धक्षेत्र में विचरने लगी ॥३७॥
चण्डाट्टहासैरसुराः
शिवदूत्यभिदूषिताः।
पेतुः पृथिव्यां
पतितांस्तांश्चभखादाथ सा तदा॥३८॥
कितने ही असुर शिवदूती के प्रचण्ड
अट्टहास से अत्यन्त भयभीत हो पृथ्वीपर गिर पड़े और गिरने पर उन्हें शिवदूती ने उस
समय अपना ग्रास बना लिया ॥३८॥
इति मातृगणं क्रुद्धं मर्दयन्तं
महासुरान्।
दृष्ट्वाभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः॥३९॥
इस प्रकार क्रोध में भरे हुए
मातृगणों को नाना प्रकार के उपायों से बड़े - बड़े असुरोंका मर्दन करते देख दैत्य
सैनिक भाग खड़े हुए ॥३९॥
पलायनपरान् दृष्ट्वा दैत्यान्
मातृगणार्दितान्।
योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो
महासुरः॥४०॥
मातृगणों से पीड़ीत दैत्यों को
युद्ध से भागते देख रक्तबीज नामक महादैत्य क्रोध में भरकर युद्ध करनेके लिये
आया॥४०॥
रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य
शरीरतः।
समुत्पतति मेदिन्यां*
तत्प्रमाणस्तदासुरः॥४१॥
उसके शरीर से जब रक्त की बूँद
पृथ्वीपर गिरती , तब उसी के समान
शक्तिशाली एक दूसरा महादैत्य पृथ्वीपर पैदा हो जाता ॥४१॥
युयुधे स गदापाणिरिन्द्रशक्त्या
महासुरः।
ततश्चैयन्द्री स्ववज्रेण
रक्तबीजमताडयत्॥४२॥
महासुर रक्तबीज हाथ में गदा लेकर
इन्द्रशक्ति के साथ युद्ध करने लगा । तब ऐन्द्री ने अपने वज्र से रक्तबीज को मारा
॥४२॥
कुलिशेनाहतस्याशु बहु* सुस्राव
शोणितम्।
समुत्तस्थुस्ततो
योधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः॥४३॥
वज्र से घायल होनेपर उसके शरीर से
बहुत - सा रक्त चूने लगा और उससे उसी के समान रूप तथा पराक्रमवाले योद्धा उत्पन्न
होने लगे ॥४३॥
यावन्तः पतितास्तस्य
शरीराद्रक्तबिन्दवः।
तावन्तः पुरुषा
जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः॥४४॥
उसके शरीर से रक्त की जितनी बूँदें
गिरीं , उतने ही पुरुष उत्पन्न हो गये ।
वे सब रक्तबीज के समान ही वीर्यवान् , बलवान् तथा पराक्रमी
थे ॥४४॥
ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा
रक्तसम्भवाः।
समं
मातृभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम्॥४५॥
वे रक्तसे उत्पन्न होनेवाले पुरुष
भी अत्यन्त भयंकर अस्त्र - शस्त्रोंका प्रहार करते हुए वहाँ मातृगणों के साथ घोर
युद्ध करने लगे ॥४५॥
पुनश्चत वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो
यदा।
ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः
सहस्रशः॥४६॥
पुन: वज्र के प्रहार से जब उसका
मस्तक घायल हुआ , तब रक्त बहने लगा
और उससे हजारों पुरुष उत्पन्न हो गये ॥४६॥
वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघान ह।
गदया ताडयामास ऐन्द्री
तमसुरेश्वरम्॥४७॥
वैष्णवी ने युद्ध में रक्तबीजपर
चक्रका प्रहार किया तथा ऐन्द्रीने उस दैत्य सेनापति को गदा से चोट पहुँचायी ॥४७॥
वैष्णवीचक्रभिन्नस्य
रुधिरस्रावसम्भवैः।
सहस्रशो जगद्व्याप्तं
तत्प्रमाणैर्महासुरैः॥४८॥
वैष्णवी के चक्र से घायल होने पर
उसके शरीर से जो रक्त बहा और उससे जो उसीके बराबर आकार वाले सहस्त्रों महादैत्य
प्रकट हुए , उनके द्वारा
सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया ॥४८॥
शक्त्या जघान कौमारी वाराही च
तथासिना।
माहेश्वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं
महासुरम्॥४९॥
कौमारी शक्तिसे ,
वाराहीने खड्गसे और माहेश्वरी ने त्रिशूल से महादैत्य रक्तबीज को
घायल किया ॥४९॥
स चापि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत्
पृथक्।
मातॄः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो
महासुरः॥५०॥
क्रोध में भरे हुए उस महादैत्य
रक्तबीज ने भी गदा से सभी मातृ - शक्तियों पर पृथक - पृथक प्रहार किया ॥५०॥
तस्याहतस्य बहुधा
शक्तिशूलादिभिर्भुवि।
पपात यो वै
रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः॥५१॥
शक्ति और शूल आदि से अनेक बार घायल
होने पर जो उसके शरीर से रक्त की धारा पृथ्वी पर गिरी ,
उससे भी निश्चय ही सैकड़ों असुर उत्पन्न हुए॥५१॥
तैश्चासुरासृक्सम्भूतैरसुरैः सकलं
जगत्।
व्याप्तमासीत्ततो देवा
भयमाजग्मुरुत्तमम्॥५२॥
इस प्रकार उस महादैत्य के रक्त से
प्रकट हुए असुरों द्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया । इससे उन देवताओं को बड़ा
भय हुआ॥५२॥
तान् विषण्णान् सुरान् दृष्ट्वा
चण्डिका प्राह सत्वरा।
उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्णं*
वदनं कुरु॥५३॥
देवताओं को उदास देख चण्डिका ने
कालीसे शीघ्रतापूर्वक कहा – ‘चामुण्डे
! तुम अपना मुख और फैलाओ’ ॥५३॥
मच्छस्त्रपातसम्भूतान्
रक्तबिन्दून्महासुरान्।
रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं
वक्त्रेणानेन वेगिना*॥५४॥
तथा मेरे शस्त्रपात से गिरने वाले
रक्त बिन्दुओं और उनसे उत्पन्न होने वाले महादैत्यों को तुम अपने इस उतावले मुख से
खा जाओ ॥५४॥
भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान्।
एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो
गमिष्यति॥५५॥
इस प्रकार रक्त से उत्पन्न होनेवाले
महादैत्यों का भक्षण करती हुई तुम रण में विचरती रहो । ऐसा करने से उस दैत्य का
सारा रक्त क्षीण हो जाने पर वह स्वयं भी नष्ट हो जायगा ॥५५॥
भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति
चापरे*।
इत्युक्त्वा तां ततो देवी
शूलेनाभिजघान तम्॥५६॥
उन भयंकर दैत्यों को जब तुम खा
जाओगी , तब दूसरे नये दैत्य उत्पन्न
नहीं हो सकेंगे । ’ काली से यों कहकर चण्डिकादेवी ने शूल से
रक्तबीज को मारा ॥५६॥
मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य
शोणितम्।
ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र
चण्डिकाम्॥५७॥
और काली ने अपने मुख में उसका रक्त
ले लिया । तब उसने वहाँ चण्डिका पर गदा से प्रहार किया ॥५७॥
न चास्या वेदनां चक्रे
गदापातोऽल्पिकामपि।
तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्राव
शोणितम्॥५८॥
किंतु उस गदापात ने देवी को तनिक भी
वेदना नहीं पहुँचायी । रक्तबीज के घायल शरीर से बहुत - सा रक्त गिरा ॥५८॥
यतस्ततस्तद्वक्त्रेण चामुण्डा
सम्प्रतीच्छति।
मुखे समुद्गता येऽस्या
रक्तपातान्महासुराः॥५९॥
तांश्चंखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च
शोणितम्।
देवी शूलेन वज्रेण*
बाणैरसिभिर्ऋष्टिभिः॥६०॥
जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम्।
स पपात महीपृष्ठे
शस्त्रणसङ्घसमाहतः*॥६१॥
नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः।
ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा
नृप॥६२॥
तेषां मातृगणो जातो ननर्तासृङ्मदोद्धतः॥ॐ॥६३॥
किंतु ज्यों ही वह गिरा त्यों ही
चामुण्डा ने उसे अपने मुख में ले लिया। रक्त गिरने से काली के मुख में जो महादैत्य
उत्पन्न हुए उन्हें भी वह चट कर गयी और उसने रक्तबीज का रक्त भी पी लिया । तदनन्तर
देवी ने रक्तबीज को , जिसका रक्त
चामुण्डा ने पी लिया था , वज्र , बाण,
खड्ग तथा ऋष्टि आदि से मार डाला । राजन् ! इस प्रकार शस्त्रों के
समुदाय से आहत एवं रक्त हीन हुआ महादैत्य रक्तबीज पृथ्वीपर गिर पड़ा । नरेश्वर !
इससे देवताओं को अनुपम हर्ष की प्राप्ति हुई ॥५९ - ६२॥ और मातृगण उन असुरों के
रक्तपान के मद से उद्धत - सा होकर नृत्य करने लगा ॥६३॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके
मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
रक्तबीजवधो नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥
उवाच १,
अर्धश्लोकः १, श्लोकाः ६१,
एवम् ६३,
एवमादितः॥५०२॥
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें
सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमहात्म्यमें ‘रक्तबीज- वध’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥८॥
शेष जारी...............आगे पढ़े- श्रीदुर्गासप्तशती नवमोऽध्यायः
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