दुर्गा सप्तशती अध्याय 1
दुर्गा सप्तशती सात सौ श्वोकों का
संग्रह है और उन सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है। सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस Durga saptashati first chapter दुर्गा सप्तशती अध्याय 1 में 104 श्लोक आते
हैं। इस अध्याय में मेधा ऋषि का राजा सुरथ और समाधि को भगवती की महिमा बताते हुए
मधु – कैटभ- वध का प्रसंग सुनाना का वर्णन है।
श्रीदुर्गा सप्तशती प्रथमोऽध्याय:
दुर्गा सप्तशती अध्याय 1
– श्लोक अर्थ सहित
अथ श्रीदुर्गासप्तशती
॥ प्रथमोऽध्याय: ॥
॥ विनियोगः॥
ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः,
महाकाली देवता, गायत्री छन्दः,नन्दा शक्तिः, रक्तदन्तिका बीजम्, अग्निस्तत्त्वम्, ऋग्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः।
प्रथम चरित्र के ब्रह्मा ऋषि ,
महाकाली देवता , गायत्री छन्द , नन्दा शक्ति , रक्तदन्तिका बीज , अग्नि तत्व और ऋग्वेद स्वरूप है । श्री महाकाली देवता की प्रसन्नता के
लिये प्रथम चरित्र के जप में विनियोग किया जाता है ।
॥ध्यानम्॥
ॐ खड्गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं
भुशुण्डीं शिरः
शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां
सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे
महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं
मधुं कैटभम्॥१॥
भगवान् विष्णु के सो जानेपर मधु और
कैटभ को मारने के लिये कमलजन्मा ब्रह्माजी ने जिनका स्तवन किया था,
उन महाकाली देवीका मैं सेवन करता हूँ। वे अपने दस हाथों में खड्ग ,
चक्र, गदा , बाण,
धनुष , परिध , शूल ,
भुशुण्डि , मस्तक और शंख धारण करती है । उनके
तीन नेत्र हैं । वे समस्त अंगों में दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं। उनके शरीर की
कान्ति नीलमणि के समान है तथा वे दस मुख और दस पैरों से युक्त हैं ।
ॐ नमश्चण्डिकायै
"ॐ ऐं"
मार्कण्डेय उवाच ॥१॥
ऊँ चण्डिकादेवी को नमस्कार है ।
मार्कण्डेय जी बोले- ॥१॥
सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः
कथ्यतेऽष्टमः।
निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद् गदतो
मम॥२॥
सूर्य के पुत्र सावर्णि जो आठवें
मनु कहे जाते हैं , उनकी उत्पत्ति की
कथा विस्तारपूर्वक कहता हूँ , सुनो ॥२॥
महामायानुभावेन यथा मन्वन्तदराधिपः।
स बभूव महाभागः सावर्णिस्तनयो
रवेः॥३॥
सूर्यकुमार महाभाग सावर्णि भगवती
महामाया के अनुग्रह से जिस प्रकार मन्वन्तर के स्वामी हुए,
वही प्रसंग सुनाता हूँ॥३॥
स्वारोचिषेऽन्तरे पूर्वं
चैत्रवंशसमुद्भवः।
सुरथो नाम राजाभूत्समस्ते
क्षितिमण्डले॥४॥
पूर्वकाल की बात है,
स्वारोचिष मन्वन्तरमें सुरथ नाम के एक राजा थे , जो चैत्रवंश में उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भूमण्डल पर अधिकार था ॥४॥
तस्य पालयतः सम्यक् प्रजाः
पुत्रानिवौरसान्।
बभूवुः शत्रवो भूपाः
कोलाविध्वंसिनस्तदा॥५॥
वे प्रजा का अपने औरस पुत्रों की
भाँति धर्मपूर्वक पालन करते थे; तो भी उस समय
कोलाविध्वंसी नाम के क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये ॥५॥
तस्य तैरभवद् युद्धमतिप्रबलदण्डिनः।
न्यूनैरपि स तैर्युद्धे
कोलाविध्वंसिभिर्जितः॥६॥
राजा सुरथ की दण्डनीति बड़ी प्रबल
थी । उनका शत्रुओं के साथ संग्राम हुआ। यद्यपि कोलाविध्वंसी संख्या में कम थे,
तो भी राजा सुरथ युद्ध में उनसे परास्त हो गये ॥६॥
ततः स्वपुरमायातो निजदेशाधिपोऽभवत्।
आक्रान्तः स महाभागस्तैस्तदा
प्रबलारिभिः॥७॥
तब वे युद्ध भूमि से अपने नगर को
लौट आये और केवल अपने देश के राजा होकर रहने लगे ( समूची पृथ्वी से अब उनका अधिकार
जाता रहा ), किंतु वहाँ भी उन प्रबल शत्रुओं
ने उस समय महाभागराजा सुरथ पर आक्रमण कर दिया॥७॥
अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य
दुरात्मभिः।
कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे
ततः॥८॥
राजाका बल क्षीण हो चला था;
इसलिये उनके दुष्ट , बलवान् एवं दुरात्मा
मंत्रियों ने वहाँ उनकी राजधानी में भी राजकीय सेना और खजाने को हथिया लिया ॥८॥
ततो मृगयाव्याजेन हृतस्वाम्यः स
भूपतिः।
एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम्॥९॥
सुरथ का प्रभुत्व नष्ट हो चुका था,
इसलिये वे शिकार खेलने के बहाने घोड़े पर सवार हो वहाँ से अकेले ही
एक घने जंगल में चले गये ॥९॥
स तत्राश्रममद्राक्षीद्
द्विजवर्यस्य मेधसः।
प्रशान्तश्वापदाकीर्णं
मुनिशिष्योपशोभितम्॥१०॥
वहाँ उन्होंने विप्रवर मेधा मुनि का
आश्रम देखा , जहाँ कितने ही हिंसक जीव ( अपनी
स्वाभाविक हिंसावृति छोड़कर ) परम शांतभाव से रहते थे । मुनि के बहुत - से शिष्य
उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे ॥१०॥
तस्थौ कंचित्स कालं च मुनिना तेन
सत्कृतः।
इतश्चेतश्च
विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे॥११॥
वहाँ जानेपर मुनि ने उनका सत्कार
किया और वे उन मुनिश्रेष्ठ के आश्रम पर इधर-उधर विचरते हुए कुछ कालतक रहे॥११॥
सोऽचिन्तयपत्तदा तत्र
ममत्वाकृष्टचेतनः*।
मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मया हीनं
पुरं हि तत्॥१२॥
फिर ममता से आकृष्टचित्त होकर वहाँ
इस प्रकार चिंता करने लगे – ‘पूर्वकाल में मेरे
पूर्वजों ने जिसका पालन किया था , वही नगर आज मुझसे रहित है।
मद्भृत्यैस्तैरसद्वृत्तैर्धर्मतः
पाल्यते न वा।
न जाने स प्रधानो मे शूरहस्ती
सदामदः॥१३॥
पता नहीं ,
मेरे दुराचारी भृत्यगण उसकी धर्मपूर्वक रक्षा करते हैं या नहीं । जो
सदा मद की वर्षा करनेवाला और शूरवीर था , वह मेरा प्रधान
हाथी
मम वैरिवशं यातः कान्
भोगानुपलप्स्यते।
ये ममानुगता नित्यं
प्रसादधनभोजनैः॥१४॥
अब शत्रुओं के अधीन होकर न जाने किन
भोगों को भोगता होगा ? जो लोग मेरी कृपा ,
धन और भोजन पाने से सदा मेरे पीछे- पीछे चलते थे ,
अनुवृत्तिं ध्रुवं तेऽद्य
कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम्।
असम्यग्व्यशीलैस्तैः कुर्वद्भिः
सततं व्ययम्॥१५॥
वे निश्चय ही अब दूसरे राजाओं का अनुसरण
करते होंगे । उन अपव्ययी लोगों के द्वारा सदा खर्च होते रहने के कारण
संचितः सोऽतिदुःखेन क्षयं कोशो
गमिष्यति।
एतच्चान्यच्च सततं चिन्तयामास
पार्थिवः॥१६॥
अत्यन्त कष्ट से जमा किया हुआ मेरा
वह खजाना खाली हो जायेगा। ’ ये तथा और भी कई
बातें राजा सुरथ निरंतर सोचते रहते थे ।
तत्र विप्राश्रमाभ्याशे वैश्यमेकं
ददर्श सः।
स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्चा
गमनेऽत्र कः॥१७॥
एक दिन उन्होंने वहाँ विप्रवर
मेधाके आश्रम के निकट एक वैश्यको देखा और उससे पूछा –
‘भाई ! तुम कौन हो? यहाँ तुम्हारे आने का क्या
कारण है ?
सशोक इव कस्मात्त्वं दुर्मना इव
लक्ष्यसे।
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः
प्रणयोदितम्॥१८॥
प्रत्युवाच स तं वैश्यः
प्रश्रयावनतो नृपम्॥१९॥
तुम क्यों शोकग्रस्त और अनमने से
दिखायी देते हो ?’ राजा सुरथ का यह
प्रेमपूर्वक कहा हुआ वचन सुनकर वैश्य ने विनीतभाव से उन्हें प्रणाम करके कहा - ॥१२
- १९॥
वैश्य उवाच॥२०॥
समाधिर्नाम वैश्योचऽहमुत्पन्नो
धनिनां कुले॥२१॥
वैश्य बोला - ॥२०॥
राजन्! मैं धनियों के कुल में
उत्पन्न एक वैश्यहूँ । मेरा नाम समाधि है ॥२१॥
पुत्रदारैर्निरस्तश्च
धनलोभादसाधुभिः।
विहीनश्च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे
धनम्॥२२॥
मेरे दुष्ट स्त्री-पुत्रों ने धनके
लोभ से मुझे घर से बाहर निकाल दिया है । मैं इस समय धन,
स्त्री और पुत्रों से वंचित हूँ ।
वनमभ्यागतो दुःखी
निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः।
सोऽहं न वेद्मि पुत्राणां
कुशलाकुशलात्मिकाम्॥२३॥
मेरे विश्वसनीय बंधुओं ने मेरा ही
धन लेकर मुझे दूर कर दिया है , इसलिये दु:खी
होकर मैं वन में चला आया हूँ । यहाँ रहकर मैं इस बात को नहीं जानता कि मेरे
पुत्रों की , स्त्रीकी और स्वजनों की कुशल है या नहीं।
प्रवृत्तिं स्वजनानां च दाराणां
चात्र संस्थितः।
किं नु तेषां गृहे क्षेममक्षेमं किं
नु साम्प्रतम्॥२४॥
कथं ते किं नु सद्वृत्ता
दुर्वृत्ताः किं नु मे सुताः॥२५॥
इस समय घर में वे कुशल से रहते हैं
अथवा उन्हें कोई कष्ट है ?॥२२-२४॥ वे मेरे
पुत्र कैसे है ? क्या वे सदाचारी हैं अथवा दुराचारी हो गये
हैं ? ॥२५॥
राजोवाच॥२६॥
यैर्निरस्तो भवाँल्लुब्धैः
पुत्रदारादिभिर्धनैः॥२७॥
तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति
मानसम्॥२८॥
राजा ने पूछा - ॥२६॥ जिन लोभी
स्त्री-पुत्र आदि ने धन के कारण तुम्हें घर से निकाल दिया,
उनके प्रति चित्त में इतना स्नेहका बन्धन क्यों है ॥२७-२८॥
वैश्य उवाच॥२९॥
एवमेतद्यथा प्राह भवानस्मद्गतं
वचः॥३०॥
वैश्य बोला - ॥२९॥ आप मेरे विषय में
जैसी बात कहते हैं , वह सब ठीक है॥३०॥
किं करोमि न बध्नाति मम निष्ठुरतां
मनः।
यैः संत्यज्य पितृस्नेहं
धनलुब्धैर्निराकृतः॥३१॥
किंतु क्या करूँ ,
मेरा मन निष्ठुरता नहीं धारण करता । जिन्होंने धन के लोभ में पड़कर
पिता के प्रति स्नेह ,
पतिस्वजनहार्दं च हार्दि तेष्वेव मे
मनः।
किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि
महामते॥३२॥
पति के प्रति प्रेम तथा आत्मीयजन के
प्रति अनुराग को तिलांजलि दे मुझे घर से निकाल दिया है ,
उन्हीं के प्रति मेरे हृदय में इतना स्नेह है । महामते !
यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि
बन्धुषु।
तेषां कृते मे निःश्वा सो
दौर्मनस्यं च जायते॥३३॥
गुणहीन बन्धुओं के प्रति भी जो मेरा
चित्त इस प्रकार प्रेममग्न हो रहा है , यह
क्या है – इस बात को मैं जानकर भी नहीं जान पाता । उनके लिये
मैं लंबी साँसे ले रहा हूँ और मेरा हृदय अत्यन्त दु:खित हो रहा है ॥३१-३३॥
करोमि किं यन्न मनस्तेष्वप्रीतिषु
निष्ठुरम्॥३४॥
उन लोगों में प्रेम का सर्वथा अभाव
है;
तो भी उनके प्रति जो मेरा मन निष्ठुर नही हो पाता , इसके लिये क्या करूँ ?॥३४॥
मार्कण्डेय उवाच॥३५॥
ततस्तौ सहितौ विप्र तं मुनिं
समुपस्थितौ॥३६॥
समाधिर्नाम वैश्योऽसौ स च पार्थिवसत्तमः।
कृत्वा तु तौ यथान्यायं यथार्हं तेन
संविदम्॥३७॥
मार्कण्डेयजी कहते हैं - ॥३५॥
ब्रह्मन्! तदनन्तर राजाओं में श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य दोनों साथ-साथ
मेधा मुनिकी सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ यथायोग्य न्यायानुकूल विनयपूर्ण
बर्ताव करके बैठे।
उपविष्टौ
कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्यसपार्थिवौ॥३८॥
तत्पश्चात् वैश्य और राजा ने कुछ
वार्तालाप आरम्भ किया ॥३६ - ३८॥
राजोवाच॥३९॥
भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छाम्येकं
वदस्व तत्॥४०॥
राजा ने कहा - ॥३९॥ भगवन् ! मैं
आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, उसे बताइये
॥४०॥
दुःखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां
विना।
ममत्वं गतराज्यस्य
राज्याङ्गेष्वखिलेष्वपि॥४१॥
मेरा चित्त अपने अधीन न होने के
कारण वह बात मेरे मनको बहुत दु:ख देती है । जो राज्य मेरे हाथ से चला गया है ,
उसमें और उसके सम्पूर्ण अंगों में मेरी ममता बनी हुई है॥४१॥
जानतोऽपि यथाज्ञस्य
किमेतन्मुनिसत्तम।
अयं च निकृतः*
पुत्रैर्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः॥४२॥
मुनिश्रेष्ठ ! यह जानते हुए भी कि
वह मेरा नहीं है , अज्ञानी की भाँति
मुझे उसके लिये दु:ख होता है; यह क्या है ? इधर यह वैश्य भी घर से अपमानित होकर आया है । इसके पुत्र ,स्त्री और भृत्योंने इसे छोड़ दिया है॥४२॥
स्वजनेन च संत्यक्तस्तेषु हार्दी
तथाप्यति।
एवमेष तथाहं च
द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ॥४३॥
स्वजनों ने भी इसका परित्याग कर
दिया है ,
तो भी यह उनके प्रति अत्यन्त हार्दिक स्नेह रखता है । इस प्रकार यह
तथा मैं दोनों ही बहुत दु:खी हैं ॥४३॥
दृष्टदोषेऽपि विषये
ममत्वाकृष्टमानसौ।
तत्किमेतन्महाभाग* यन्मोहो
ज्ञानिनोरपि॥४४॥
ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य
मूढता॥४५॥
जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है,
उस विषय के लिये भी हमारे मन में ममताजनित आकर्षण पैदा हो रहा है ।
महाभाग ! हम दोनों समझदार हैं ; तो भी हम में जो मोह पैदा
हुआ है, यह क्या है ? विवेकशून्य पुरुष
की भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है ॥४४- ४५॥
ऋषिरुवाच॥४६॥
ज्ञानमस्ति समस्तस्य
जन्तोर्विषयगोचरे॥४७॥
ऋषि बोले- ॥४६॥ महाभाग !
विषयमार्गका ज्ञान सब जीवोंको है ॥४७॥
विषयश्च* महाभाग याति* चैवं पृथक्
पृथक्।
दिवान्धाः प्राणिनः
केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे॥४८॥
इसी प्रकार विषय भी सबके लिये
अलग-अलग हैं, कुछ प्राणी दिन में नहीं देखते
और दूसरे रात में ही नहीं देखते॥४८॥
केचिद्दिवा तथा रात्रौ
प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः।
ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं* तु ते न
हि केवलम्॥४९॥
तथा कुछ जीव ऐसे हैं,
जो दिन और रात्रि में भी बराबर ही देखते हैं । यह ठीक है कि मनुष्य
समझदार होते हैं; किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते॥४९॥
यतो हि ज्ञानिनः सर्वे
पशुपक्षिमृगादयः।
ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां
मृगपक्षिणाम्॥५०॥
पशु, पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं । मनुष्यों की समझ भी वैसी
ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियों कीहोती है ॥५०॥
मनुष्याणां च यत्तेषां
तुल्यमन्यत्तथोभयोः।
ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान्
पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु॥५१॥
तथा जैसी मनुष्यों की होती है,
वैसी ही उन मृग-पक्षी आदिकी होती है । यह तथा अन्य बातें भी प्राय:
दोनोंमें समान ही हैं ।
कणमोक्षादृतान्मोहात्पीड्यमानानपि
क्षुधा।
मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः
सुतान् प्रति॥५२॥
समझ होने पर भी इन पक्षियोंको तो
देखो,
ये स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी मोहवश बच्चों की चोंच में कितने
चाव से अन्न के दाने डाल रहे हैं। नरश्रेष्ठ! क्या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य
समझदार होते हुए भी लोभवश अपने किये हुए उपकारका बदला पानेके लिये पुत्रोंकी
अभिलाषा करते हैं ?
लोभात्प्रत्युपकाराय नन्वेता*न् किं
न पश्यसि।
तथापि ममतावर्त्ते मोहगर्ते
निपातिताः॥५३॥
महामायाप्रभावेण
संसारस्थितिकारिणा*।
तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा
जगत्पतेः॥५४॥
महामाया हरेश्चैःषा* तया सम्मोह्यते
जगत्।
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि
सा॥५५॥
यद्यपि उन सबमें समझ की कमी नहीं है,तथापि वे संसारकी स्थिति (जन्म-मरणकी परम्परा ) बनाये रखनेवाले भगवती
महामायाके प्रभावद्वारा ममतामय भँवरसे युक्त मोहके गर्त में गिराये गये हैं ।
इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये ।जगदीश्वर भगवान विष्णु की योगनिद्रारूपा
जो भगवती महामाया हैं, उन्हीं से यह जगत मोहित हो रहा है ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया
प्रयच्छति।
तया विसृज्यते विश्वं
जगदेतच्चराचरम्॥५६॥
वे भगवती महामायादेवी ज्ञानियों के
भी चित्तको बलपूर्वक खींचकर मोहमें डाल देती है ।वे ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत की
सृष्टि करती हैं
सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति
मुक्तये।
सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता
सनातनी॥५७॥
संसारबन्धहेतुश्चु सैव
सर्वेश्वरेश्वरी॥५८॥
तथा वे ही प्रसन्न होनेपर मनुष्यों
को मुक्ति के लिये वरदान देती हैं ।वे ही परा विद्या संसार-बन्धन और मोक्ष की
हेतुभूता सनातनीदेवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरोंकी भी अधीश्वरी हैं ॥५१- ५८॥
राजोवाच॥५९॥
भगवन् का हि सा देवी महामायेति यां
भवान्॥६०॥
ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा
कर्मास्याश्च* किं द्विज।
यत्प्रभावा* च सा देवी यत्स्वरूपा
यदुद्भवा॥६१॥
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो
ब्रह्मविदां वर॥६२॥
राजा ने पूछा- ॥५९॥ भगवन्! जिन्हें
आप महामाया कहते हैं, वे देवी कौन हैं ?
ब्रह्मन्! उनका आविर्भाव कैसे हुआ ? तथा उनके
चरित्र कौन-कौन हैं ? ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षे! उन
देवीका जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो और जिस प्रकार
प्रादुर्भाव हुआ हो, वह सब मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ॥६०-
६२॥
ऋषिरुवाच॥६३॥
नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया
सर्वमिदं ततम्॥६४॥
ऋषि बोले- ॥६३॥ राजन्! वास्तव में
तो वे देवी नित्यस्वरूपा ही हैं । सम्पूर्ण जगत् उन्हींका रूप है तथा उन्होंने
समस्त विश्वको व्याप्त कर रखा है,
तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा
श्रूयतां मम।
देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति
सा यदा॥६५॥
तथापि उनका प्राकट्य अनेक प्रकारसे
होता है । वह मुझसे सुनो ।यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं,
तथापि जब देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये प्रकट होती हैं ,
उत्पन्नेति तदा लोके सा
नित्याप्यभिधीयते।
योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते॥६६॥
आस्तीर्य शेषमभजत्कल्पान्ते् भगवान्
प्रभुः।
तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ
मधुकैटभौ॥६७॥
उस समय लोक में उत्पन्न हुई कहलाती
हैं । कल्पके अन्तमें जब सम्पूर्ण जगत् एकार्णवमें निमग्न हो रहा था और सबके प्रभु
भगवान् विष्णु शेषनागकी शय्या बिछाकर योगनिद्राका आश्रय ले सो रहे थे,
उस समय उनके कानों के मैल से दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मधु और कैटभके नाम से विख्यात थे ।
विष्णुकर्णमलोद्भूतो हन्तुं
ब्रह्माणमुद्यतौ।
स नाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा
प्रजापतिः॥६८॥
दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं
च जनार्दनम्।
तुष्टाव योगनिद्रां
तामेकाग्रहृदयस्थितः॥६९॥
विबोधनार्थाय
हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम्*।
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः
प्रभुः॥७१॥
वे दोनों ब्रह्माजी का वध करने को
तैयार हो गये । भगवान् विष्णु के नाभिकमलमें विराजमान प्रजापति ब्रह्माजी ने जब उन
दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया और भगवान् को सोया हुआ देखा,
तब एकाग्रचित होकर उन्होंने भगवान् विष्णु को जगाने के लिये उनके
नेत्रोंमें निवास करनेवाली योगनिद्राका स्तवन आरम्भ किया । जो इस विश्वकी अधीश्वरी,
जगत् को धारण करनेवाली, संसारका पालन और संहार
करनेवाली तथा तेज:स्वरूप भगवान् विष्णुकी अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं
भगवती निद्रादेवीकी भगवान् ब्रह्मा स्तुति करने लगे॥६४ - ७१॥
ब्रह्मोवाच॥७२॥
त्वं स्वाहा त्वं स्वधां त्वं हि
वषट्कारःस्वरात्मिका॥७३॥
ब्रह्माजीने कहा- ॥७२॥ देवि!
तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तुम्हीं
वषट्कार हो । स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं ।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा
मात्रात्मिका स्थिता।
अर्धमात्रास्थिता नित्या
यानुच्चार्या विशेषतः॥७४॥
तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो ।नित्य
अक्षर प्रणव में अकार,उकार,मकार- इन तीन मात्राओंके रूपमें तुम्हीं स्थित हो तथा इन तीन मात्राओं के
अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका
विशेषरूपसे उच्चारण नहीं किया जा सकता , वह भी तुम्हीं हो ।
त्वमेव संध्या* सावित्री त्वं देवि
जननी परा।
त्वयैतद्धार्यते विश्वं
त्वयैतत्सृज्यते जगत्॥७५॥
देवि! तुम्हीं संध्या ,
सावित्री तथा परम जननी हो । देवि! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्डको
धारण करती हो । तुमसे ही इस जगत् की सृष्टि होती है ।
त्वयैतत्पाल्यते देवि
त्वमत्स्यन्ते् च सर्वदा।
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं
स्थितिरूपा च पालने॥७६॥
तथा संहृतिरूपान्तेा जगतोऽस्य
जगन्मये।
महाविद्या महामाया महामेधा
महास्मृतिः॥७७॥
तुम्हींसे इसका पालन होता है और सदा
तुम्हीं कल्पके अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो । जगन्मयी देवि! इस जगत् की
उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-कालमें
स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्तके समय संहाररूप धारण करनेवाली हो ।
तुम्हीं महाविद्या,महामाया, महामेधा,महास्मृति,
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी*।
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य
गुणत्रयविभाविनी॥७८॥
महामोहरूपा,
महादेवी और महासुरी हो । तुम्हीं तीनों गुणोंको उत्पन्न करनेवाली
सबकी प्रकृति हो ।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्चा
दारुणा।
त्वं श्रीस्त्वमीश्विरी त्वं
ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा॥७९॥
भयंकर कालरात्रि,
महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो । तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा
बुद्धि हो ।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं
शान्तिः क्षान्तिरेव च।
खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी
तथा॥८०॥
लज्जा,
पुष्टि,तुष्टि, शान्ति
और क्षमा भी तुम्हीं हो । तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी,
घोररूपा तथा गदा, चक्र,
शङ्खिनी चापिनी
बाणभुशुण्डीपरिघायुधा।
सौम्या
सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी॥८१॥
शंख और धनुष धारण करनेवाली हो । बाण,भुशुण्डी और परिघ- ये भी तुम्हारेअस्त्र हैं । तुम सौम्य और सौम्यतर हो-
इतना ही नहीं जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी
अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो ।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वेरी।
यच्च किंचित्क्वचिद्वस्तु
सदसद्वाखिलात्मिके॥८२॥
पर और अपर- सबसे परे रहनेवाली
परमेश्वरी, तुम्हीं हो ।सर्वस्वरूपे देवि !
कहीं भी सत्- असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं
तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं
स्तूयसे तदा*।
यया त्वया जगत्स्रष्टा
जगत्पात्यत्ति* यो जगत्॥८३॥
और उन सबकी जो शक्ति है,
वह तुम्हीं हो । ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?
जो इस जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं,
उन भगवान् को भी
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां
स्तोतुमिहेश्वंरः।
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च॥८४॥
जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है,तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है? मुझको भगवान् शंकरको तथा भगवान् विष्णुको भी तुमने ही शरीर धारण कराया है ;
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं
शक्तिमान् भवेत्।
सा
त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता॥८५॥
अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति
किसमें है? देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावोंसे
ही प्रशंसित हो।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ।
प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो
लघु॥८६॥
बोधश्चं क्रियतामस्य हन्तुतमेतौ
महासुरौ॥८७॥
ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और
कैटभ हैं,
इनको मोहमें डाल दो और जगदीश्वर भगवान् विष्णुको शीघ्र ही जगा
दो।साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान् असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो
॥७३ - ८७॥
ऋषिरुवाच॥८८॥
एवं स्तुता तदा देवी तामसी तत्र
वेधसा॥८९॥
विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं
मधुकैटभौ।
नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः॥९०॥
ऋषि कहते हैं- ॥८८॥ राजन्! जब
ब्रह्माजी ने वहाँ मधु और कैटभको मारने के उद्देश्य से भगवान् विष्णुको जगानेके
लिये तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की ,
तब वे भगवान् के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, ह्रदय और
वक्ष:स्थल से निकलकर
निर्गम्य दर्शने तस्थौ
ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः।
उत्तस्थौ च जगन्नाथस्तया मुक्तो
जनार्दनः॥९१॥
अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी की दृष्टि
के समक्ष खड़ी हो गयीं। योगनिद्रासे मुक्त होने परजगत् के स्वामी भगवान् जनार्दन
उस
एकार्णवेऽहिशयनात्ततः स ददृशे च तौ।
मधुकैटभो दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ॥९२॥
एकार्णवके जल में शेषनागकी शय्यासे
जाग उठे । फिर उन्होंने उन दोनों असुरोंको देखा । वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त
बलवान् तथा पराक्रमी थे
क्रोधरक्तेुक्षणावत्तुं* ब्रह्माणं
जनितोद्यमौ।
समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान्
हरिः॥९३॥
और क्रोधसे लाल आँखें किये
ब्रह्माजीको खा जानेके लिये उद्योग कर रहे थे । तब भगवान् श्रीहरिने उठकर
पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो
विभुः।
तावप्यतिबलोन्मत्तौ
महामायाविमोहितौ॥९४॥
उन दोनों के साथ पाँच हजार वर्षोंतक
केवल बाहुयुद्ध किया । वे दोनों भी अत्यन्त बल के कारण उन्मत्त हो रहे थे । इधर
महामायाने भी उन्हें मोहमें डाल रखा था;
उक्तवन्तौ वरोऽस्मत्तो व्रियतामिति
केशवम्॥९५॥
इसलिये वे भगवान् विष्णुसे कहने
लगे- ‘हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हैं । तुम हमलोगों से कोई वर माँगों ’
॥८९ - ९५॥
श्रीभगवानुवाच॥९६॥
भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि॥९७॥
किमन्येन वरेणात्र एतावद्धि वृतं
मम*॥९८॥
श्रीभगवान् बोले- ॥९६॥ यदि तुम
दोनों मुझपर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथसे मारे जाओ । बस,
इतना-सा ही मैंने वर माँगा है । यहाँ दूसरे किसी वर से क्या लेना है
॥९७ - ९८॥
ऋषिरुवाच॥९९॥
वञ्चिताभ्यामिति तदा सर्वमापोमयं जगत्॥१००॥
ऋषि कहते हैं - ॥९९॥ इस प्रकार धोखे
में आ जानेपर जब उन्होंने
विलोक्य ताभ्यां गदितो भगवान्
कमलेक्षणः*।
आवां जहि न यत्रोर्वी सलिलेन
परिप्लुता॥१०१॥
सम्पूर्ण जगत् में जल-ही-जल देखा,
तब कमलनयन भगवान् से कहा- ‘जहाँ पृथ्वी जल में
डूबी हुई न हो- जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो’
॥१०० - १०१ ॥
ऋषिरुवाच॥१०२॥
तथेत्युक्त्वा भगवता
शङ्खचक्रगदाभृता।
कृत्वा चक्रेण वै च्छिन्ने जघने
शिरसी तयोः॥१०३॥
ऋषि कहते हैं- ॥१०२॥ तब ‘
तथास्तु ’ कहकर शंख, चक्र
और गदा धारण करनेवाले भगवान् ने उन दोनोंके मस्तक अपनी जाँघपर रखकर चक्रसे काट
डाले ।
एवमेषा समुत्पन्ना ब्रह्मणा
संस्तुता स्वयम्।
प्रभावमस्या देव्यास्तु भूयः श्रृणु
वदामि ते॥ ऐं ॐ॥१०४॥
इस प्रकार ये देवी महामाया
ब्रह्माजी की सतुति करने पर स्वयं प्रकट हुई थीं । अब पुन: तुमसे उनके प्रभावका
वर्णन करता हूँ, सुनो ॥१०३ - १०४॥
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके
मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
उवाच १४,
अर्धश्लोकाः २४, श्लोकाः ६६,
एवमादितः॥१०४॥
इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें ‘मधु-कैटभ- वध’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥१॥
शेष जारी...............आगे पढ़े- श्रीदुर्गासप्तशती द्वितीयोऽध्यायः
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