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सूर्योपनिषद्
सूर्योपनिषद् -इसे सूर्योपनिषत्,
सूर्याथर्वशीर्षम् व अथर्ववेदीय सामान्योपनिषत् भी कहा जाता है।
अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है।
इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई
उपनिषदों का लेखक माना जाता है। अथर्ववेदीय परम्परा से सम्बद्ध इस लघु उपनिषद में
सूर्य और ब्रह्म की अभिन्नता दर्शाई गयी है। सूर्य और आत्मा, ब्रह्म के ही रूप हैं। सूर्य के तेज़ से जगत की उत्पत्ति होती है। इसमें
सूर्य की स्तुति, उसका सर्वात्मक ब्रह्मत्त्व और उसकी उपासना
का फल बताया गया है।
सूर्योपनिषद्,
सूर्योपनिषत् सूर्याथर्वशीर्षम् च अथर्ववेदीय सामान्योपनिषत्
सूर्योपनिषद् शांति पाठ
सूदितस्वातिरिक्तारिसूरिनन्दात्मभावितम्
।
सूर्यनारायणाकारं नौमि
चित्सूर्यवैभवम् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः ।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम
देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः
। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः
। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इसका भावार्थ कृष्ण उपनिषद में देखें।
सूर्योपनिषद्
अथ सूर्योपनिषद्
हरिः ॐ अथ सूर्याथर्वाङ्गिरसं व्याख्यास्यामः । ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । आदित्यो देवता ।
हंसः सोऽहमग्निनारायणयुक्तं बीजम् । हृल्लेखा शक्तिः । वियदादिसर्गसंयुक्तं कीलकम् ।
चतुर्विधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थे
विनियोगः ।
इस सूर्यदेव सम्बन्धी
अथर्वाङ्गिरस-मन्त्र के ब्रह्मा ऋषि है। गायत्री छन्द है । आदित्य देवता हैं । 'हंस' 'सोऽहम् अग्नि नारायणयुक्त बीज है । हृल्लेखा
शक्ति है। वियत् आदि सृष्टि से संयुक्त कीलक है। चारो प्रकार के पुरुषार्थों की
सिद्धि मे इस मन्त्र का विनियोग किया जाता है।
षट्स्वरारूढेन बीजेन षडङ्गं
रक्ताम्बुजसंस्थितम् ।
सप्ताश्वरथिनं हिरण्यवर्णं
चतुर्भुजं
पद्मद्वयाभयवरदहस्तं
कालचक्रप्रणेतारं
श्रीसूर्यनारायणं य एवं वेद स वै
ब्राह्मणः ।
छः स्वरो पर आरुढ़ बीज के साथ,
छः अङ्गोवाले, लाल कमल पर स्थित, सात घोडोवाले रथ पर सवार, हिरण्यवर्ण, चतुर्भुज तथा चारो हाथों मे क्रमशः दो कमल तथा वर और अभयमुद्रा धारण किये,कालचक्र के प्रणेता श्रीसूर्यनारायण को जो इस प्रकार जानता है, निश्चयपूर्वक वही ब्राह्मण (ब्रह्मवेत्ता) है।
ॐ भूर्भुवःसुवः । ॐ
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।
जो प्रणव के अर्थभूत सच्चिदानन्दमय
तथा भूः,
भुवः और स्व: स्वरूप से त्रिभुवनमय एवं सम्पूर्ण जगत की सृष्टि
करनेवाले हैं, उन भगवान् सूर्यदेव के सर्वश्रेष्ठ तेज का हम
ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धियो को प्रेरणा देते रहते हैं
।
सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ।
सूर्याद्वै खल्विमानि भूतानि जायन्ते ।
सूर्याद्यज्ञः पर्जन्योऽन्नमात्मा
नमस्त आदित्य ।
भगवान् सूर्यनारायण सम्पूर्ण जगम
तथा स्थावर-जगत के आत्मा हैं, निश्चयपूर्वक
सूर्यनारायण से ही ये भूत उत्पन्न होते हैं। सूर्य से यज्ञ, मेघ,
अन्न (बल-वीर्य) और आत्मा (चेतना) का आविर्भाव होता है। आदित्य !
आपको हमारा नमस्कार है।
त्वमेव प्रत्यक्षं कर्मकर्तासि ।
त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
त्वमेव प्रत्यक्षं विष्णुरसि । त्वमेव प्रत्यक्षं रुद्रोऽसि ।
त्वमेव प्रत्यक्षमृगसि । त्वमेव
प्रत्यक्षं यजुरसि । त्वमेव प्रत्यक्षं सामासि ।
त्वमेव प्रत्यक्षमथर्वासि । त्वमेव
सर्वं छन्दोऽसि ।
आप ही प्रत्यक्ष कर्मकर्ता हैं,
आप ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं । आप ही प्रत्यक्ष विष्णु हैं, आप ही प्रत्यक्ष रुद्र हैं । आप ही प्रत्यक्ष ऋग्वेद है। आप ही प्रत्यक्ष
यजुर्वेद हैं । आप ही प्रत्यक्ष सामवेद
हैं । आप ही प्रत्यक्ष अथर्ववेद है । आप ही समस्त छन्दःस्वरूप हैं।
आदित्याद्वायुर्जायते ।
आदित्याद्भूमिर्जायते ।
आदित्यादापो जायन्ते ।
आदित्याज्ज्योतिर्जायते ।
आदित्याद्व्योम दिशो जायन्ते ।
आदित्याद्देवा जायन्ते ।
आदित्याद्वेदा जायन्ते ।
आदित्य से वायु उत्पन्न होती है।
आदित्य से भूमि उत्पन्न होती है, आदित्य से जल
उत्पन्न होता है। आदित्य से ज्योति (अग्नि) उत्पन्न होती है। आदित्य से आकाश और
दिशाएँ उत्पन्न होती हैं। आदित्य से देवता उत्पन्न होते हैं। आदित्य से वेद
उत्पन्न होते हैं।
आदित्यो वा एष एतन्मण्डलं तपति ।
असावादित्यो ब्रह्म ।
आदित्योऽन्तःकरणमनोबुद्धिचित्ताहङ्काराः
।
आदित्यो वै व्यानः समानोदानोऽपानः
प्राणः ।
आदित्यो वै
श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणाः ।
आदित्यो वै वाक्पाणिपादपायूपस्थाः ।
आदित्यो वै शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः ।
आदित्यो वै वचनादानागमनविसर्गानन्दाः
।
आनन्दमयो ज्ञानमयो विज्ञानानमय
आदित्यः ।
निश्चय ही ये आदित्य देवता इस
ब्रह्माण्ड-मण्डल को तपाते (गर्मी देते) हैं। वे आदित्य ब्रह्म हैं । आदित्य ही
अन्तःकरण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्काररूप हैं । आदित्य ही प्राण, अपान,
समान, व्यान और उदान-इन पाँचौ प्राणो के रूप
मे विराजते हैं। आदित्य ही श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और घ्राण-इन पाँच इन्द्रियो के रूप में
कार्य कर रहे हैं। आदित्य ही वाक, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ-ये पॉचो कर्मेन्द्रिय हैं ।
आदित्य ही शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये ज्ञानेन्द्रियो के पॉच विषय हैं । आदित्य ही वचन, आदान, गमन, मल-त्याग और
आनन्द-ये कर्मेन्द्रियो के पाँच विषय बन रहे हैं। आनन्दमय, ज्ञानमय
और विज्ञानमय आदित्य ही हैं।
नमो मित्राय भानवे मृत्योर्मा पाहि
।
भ्राजिष्णवे विश्वहेतवे नमः ।
मित्रदेवता तथा सूर्यदेव को नमस्कार
है। प्रभो ! आप मृत्यु से मेरी रक्षा करे । दीप्तिमान् तथा विश्व के कारणरूप
सूर्यनारायण को नमस्कार है ।
सूर्याद्भवन्ति भूतानि सूर्येण
पालितानि तु ।
सूर्ये लयं प्राप्नुवन्ति यः सूर्यः
सोऽहमेव च ।
चक्षुर्नो देवः सविता चक्षुर्न उत
पर्वतः ।
चक्षुर्धाता दधातु नः ।
सूर्य से सम्पूर्ण चराचर जीव
उत्पन्न होते हैं, सूर्य के द्वारा ही
उनका पालन होता है और फिर सूर्य मे ही वे लय को प्राप्त होते हैं । जो सूर्यनारायण
हैं, वह मैं ही हूँ। सविता देवता हमारे नेत्र हैं तथा पर्व
के द्वारा पुण्यकाल का आख्यान करने के कारण जो पर्वतनाम से प्रसिद्ध है, वे सूर्य ही हमारे चक्षु हैं । सबको धारण करनेवाले धाता नाम से प्रसिद्ध
वे आदित्यदेव हमारे नेत्रो को दृष्टिशक्ति प्रदान करें।
आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि
। तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ।
(श्रीसूर्यगायत्री-) हम भगवान्
आदित्य को जानते हैं—पूजते हैं, हम
सहस्र (अनन्त ) किरणों से मण्डित भगवान् सूर्यनारायण का ध्यान करते है, वे सर्यदेव हमे प्रेरणा प्रदान करे ।' ('आदित्याय
विद्महे सहस्त्रकिरणायधीमहि तन्नःसूर्यः प्रचोदयात।)
सविता पश्चात्तात्सविता पुरस्तात्सवितोत्तरात्तात्सविताधरात्तात्
।
सविता नः सुवतु सर्वतातिं सविता नो
रासतां दीर्घमायुः ।
पीछे सविता देवता हैं,
आगे सविता देवता हैं, बॉये सविता देवता हैं और
दक्षिण भाग मे भी (तथा ऊपर-नीचे भी) सविता देवता हैं । सविता देवता हमारे लिये सब
कुछ प्रसव (उत्पन्न) करे (सभी अभीष्ट वस्तुएँ दे)' सविता
देवता हमे दीर्घ आयु प्रदान करे ।
ॐइत्येकाक्षरं ब्रह्म । घृणिरिति
द्वे अक्षरे ।
सूर्य इत्यक्षरद्वयम् । आदित्य इति
त्रीण्यक्षराणि ।
एतस्यैव सूर्यस्याष्टाक्षरो मनुः ।
ॐ यह एकाक्षर मन्त्र ब्रहा है। 'घृणिः' यह दो अक्षरो का मन्त्र है, 'सूर्यः' यह दो अक्षरों का मन्त्र है। 'आदित्यः' इस मन्त्र मे तीन अक्षर हैं । इन सबको
मिलाकर सूर्यनारायण का अष्टाक्षर महामन्त्र-ॐ घृणिः सूर्य आदित्योम्' बनता है। यही अथर्वाङ्गिरस सूर्यमन्त्र है ।
यः सदाहरहर्जपति स
वै ब्राह्मणो भवति स वै ब्राह्मणो
भवति ।
इस मन्त्र का जो प्रतिदिन जप करता
है,
वही ब्राह्मण (ब्रह्मवेत्ता) होता है, वही
ब्राह्मण होता है।
सूर्याभिमुखो जप्त्वा
महाव्याधिभयात्प्रमुच्यते ।
अलक्ष्मीर्नश्यति ।
अभक्ष्यभक्षणात्पूतो भवति ।
अगम्यागमनात्पूतो भवति ।
पतितसम्भाषणात्पूतो भवति ।
असत्सम्भाषणात्पूतो भवति ।
सूर्यनारायण की ओर मुख करके जपने से
महाव्याधि के भय से मुक्त हो जाता है। उसका दारिद्रय नष्ट हो जाता है। सारे
दोषों-पापो से वह मुक्त हो जाता है ।
मध्याह्ने सूराभिमुखः पठेत् ।
सद्योत्पन्नपञ्चमहापातकात्प्रमुच्यते
।
सैषां सावित्रीं विद्यां न
किञ्चिदपि न कस्मैचित्प्रशंसयेत् ।
मध्याह्न में सूर्य की ओर मुख करके
इसका जप करे । इस प्रकार करने से मनुष्य सद्यः उत्पन्न पाँच महापातको से छूट जाता
है । यह सावित्रीविद्या है, इसकी किसी अपात्र
से कुछ भी प्रशंसा (परिचर्चा) न करे।
य एतां महाभागः प्रातः पठति स
भाग्यवाञ्जायते ।
पशून्विन्दति । वेदार्थं लभते ।
त्रिकालमेतज्जप्त्वा
क्रतुशतफलमवाप्नोति ।
यो हस्तादित्ये जपति स महामृत्युं
तरति य एवं वेद ॥
इत्युपनिषत् ॥
जो महाभाग इसका त्रिकाल-प्रातः,
मध्याह्न और सायंकाल पाठ करता है, वह भाग्यवान
हो जाता है, उसे गौ आदि पशुओं का लाभ होता है । वह वेद के
अभिप्राय का ज्ञाता होता है। इसका जप करने से सैकड़ो यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
जो सूर्यदेवता के हस्त नक्षत्र पर रहते समय (अर्थात् आश्विन मास में) इसका जप करता
है, वह महामृत्यु से तर जाता है, जो इस
प्रकार से जानता है, वह भी महामृत्यु से तर जाता है।
सूर्योपनिषद् शांति पाठ
हरिः ॐ भद्रं कर्णेभिरिति शान्तिः ॥
इति सूर्योपनिषत्समाप्ता ॥
अथर्ववेदीय सूर्योपनिषद् समाप्त ।
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