recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

नारदगीता

नारदगीता

इससे पूर्व गीता सीरिज में आपने श्रीमद्भगवतगीता, गर्भगीता श्रीरामचरितमानस से लक्ष्मणगीता को पढ़ा अब श्रीरामचरितमानस से ही नारदगीता दिया जा रहा है। जो कि श्रीरामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में  वर्णित है।इसमें श्रीराम जी ने नारद को बतलाया है।

नारदगीता

नारदगीता रामचरितमानस से

देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा॥

देखी सुंदर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया॥

राम ने अत्यंत सुंदर तालाब देखकर स्नान किया और परम सुख पाया। एक सुंदर उत्तम वृक्ष की छाया देखकर रघुनाथ छोटे भाई लक्ष्मण सहित बैठ गए।

तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए॥

बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला॥

फिर वहाँ सब देवता और मुनि आए और स्तुति करके अपने-अपने धाम को चले गए। कृपालु राम परम प्रसन्न बैठे हुए छोटे भाई लक्ष्मण से रसीली कथाएँ कह रहे हैं।

बिरहवंत भगवंतहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी॥

मोर साप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा॥

भगवान को विरहयुक्त देखकर नारद के मन में विशेष रूप से सोच हुआ। (उन्होंने विचार किया कि) मेरे ही शाप को स्वीकार करके राम नाना प्रकार के दुःखों का भार सह रहे हैं (दुःख उठा रहे हैं)।

ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई॥

यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना॥

ऐसे (भक्त वत्सल) प्रभु को जाकर देखूँ। फिर ऐसा अवसर न बन आवेगा। यह विचार कर नारद हाथ में वीणा लिए हुए वहाँ गए, जहाँ प्रभु सुखपूर्वक बैठे हुए थे।

गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी॥

करत दंडवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई॥

वे कोमल वाणी से प्रेम के साथ बहुत प्रकार से बखान-बखान कर रामचरित का गान कर (ते हुए चले आ) रहे थे। दंडवत करते देखकर राम ने नारद को उठा लिया और बहुत देर तक हृदय से लगाए रखा।

स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे॥

फिर स्वागत (कुशल) पूछकर पास बैठा लिया। लक्ष्मण ने आदर के साथ उनके चरण धोए।

दो० - नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि।

नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि॥ 41॥

बहुत प्रकार से विनती करके और प्रभु को मन में प्रसन्न जानकर तब नारद कमल के समान हाथों को जोड़कर वचन बोले - ॥ 41॥

सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक॥

देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अंतरजामी॥

हे स्वभाव से ही उदार रघुनाथ! सुनिए। आप सुंदर अगम और सुगम वर के देनेवाले हैं। हे स्वामी! मैं एक वर माँगता हूँ, वह मुझे दीजिए, यद्यपि आप अंतर्यामी होने के नाते सब जानते ही हैं।

जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करऊँ दुराऊ॥

कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥

(राम ने कहा - ) हे मुनि! तुम मेरा स्वभाव जानते ही हो। क्या मैं अपने भक्तों से कभी कुछ छिपाव करता हूँ? मुझे ऐसी कौन-सी वस्तु प्रिय लगती है, जिसे हे मुनिश्रेष्ठ! तुम नहीं माँग सकते?

जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरें॥

तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ ढिठाई॥

मुझे भक्त के लिए कुछ भी अदेय नहीं है। ऐसा विश्वास भूलकर भी मत छोड़ो। तब नारद हर्षित होकर बोले - मैं ऐसा वर माँगता हूँ, यह धृष्टता करता हूँ -

जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥

राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥

यद्यपि प्रभु के अनेकों नाम हैं और वेद कहते हैं कि वे सब एक-से-एक बढ़कर हैं, तो भी हे नाथ! रामनाम सब नामों से बढ़कर हो और पापरूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो।

दो० - राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम।

अपर नाम उडगन बिमल बसहुँ भगत उर ब्योम॥ 42(क)॥

आपकी भक्ति पूर्णिमा की रात्रि है; उसमें 'राम' नाम यही पूर्ण चंद्रमा होकर और अन्य सब नाम तारागण होकर भक्तों के हृदयरूपी निर्मल आकाश में निवास करें॥ 42(क)॥

एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ।

तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ॥ 42(ख)॥

कृपा सागर रघुनाथ ने मुनि से 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहा। तब नारद ने मन में अत्यंत हर्षित होकर प्रभु के चरणों में मस्तक नवाया॥ 42(ख)॥

अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी॥

राम जबहिं प्रेरेउ निज माया। मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया॥

रघुनाथ को अत्यंत प्रसन्न जानकर नारद फिर कोमल वाणी बोले - हे राम! हे रघुनाथ! सुनिए, जब आपने अपनी माया को प्रेरित करके मुझे मोहित किया था,

तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा॥

सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥

तब मैं विवाह करना चाहता था। हे प्रभु! आपने मुझे किस कारण विवाह नहीं करने दिया? (प्रभु बोले - ) हे मुनि! सुनो, मैं तुम्हें हर्ष के साथ कहता हूँ कि जो समस्त आशा-भरोसा छोड़कर केवल मुझको ही भजते हैं,

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥

गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई॥

मैं सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूँ जैसे माता बालक की रक्षा करती है। छोटा बच्चा जब दौड़कर आग और साँप को पकड़ने जाता है, तो वहाँ माता उसे (अपने हाथों) अलग करके बचा लेती है।

प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता। प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता॥

मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी॥

सयाना हो जाने पर उस पुत्र पर माता प्रेम तो करती है, परंतु पिछली बात नहीं रहती (अर्थात मातृपरायण शिशु की तरह फिर उसको बचाने की चिंता नहीं करती, क्योंकि वह माता पर निर्भर न कर अपनी रक्षा आप करने लगता है)। ज्ञानी मेरे प्रौढ़ (सयाने) पुत्र के समान है और (तुम्हारे जैसा) अपने बल का मान न करनेवाला सेवक मेरे शिशु पुत्र के समान है।

जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही॥

यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं। पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं॥

मेरे सेवक को केवल मेरा ही बल रहता है और उसे (ज्ञानी को) अपना बल होता है। पर काम-क्रोधरूपी शत्रु तो दोनों के लिए हैं। (भक्त के शत्रुओं को मारने की जिम्मेवारी मुझ पर रहती है, क्योंकि वह मेरे परायण होकर मेरा ही बल मानता है; परंतु अपने बल को माननेवाले ज्ञानी के शत्रुओं का नाश करने की जिम्मेवारी मुझ पर नहीं है।) ऐसा विचार कर पंडितजन (बुद्धिमान लोग) मुझको ही भजते हैं। वे ज्ञान प्राप्त होने पर भी भक्ति को नहीं छोड़ते।

दो० - काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।

तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि॥ 43॥

काम, क्रोध, लोभ और मद आदि मोह (अज्ञान) की प्रबल सेना है। इनमें मायारूपिणी (माया की साक्षात मूर्ति) स्त्री तो अत्यंत दारुण दुःख देनेवाली है॥ 43॥

सुनु मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता॥

जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥

हे मुनि! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते हैं कि मोहरूपी वन (को विकसित करने) के लिए स्त्री वसंत ऋतु के समान है। जप, तप, नियमरूपी संपूर्ण जल के स्थानों को स्त्री ग्रीष्मरूप होकर सर्वथा सोख लेती है।

काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका॥

दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई॥

काम, क्रोध, मद और मत्सर (डाह) आदि मेढ़क हैं। इनको वर्षा ऋतु होकर हर्ष प्रदान करनेवाली एकमात्र यही (स्त्री) है। बुरी वासनाएँ कुमुदों के समूह हैं। उनको सदैव सुख देनेवाली यह शरद ऋतु है।

धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा॥

पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई॥

समस्त धर्म कमलों के झुंड हैं। यह नीच (विषयजन्य) सुख देनेवाली स्त्री हिमऋतु होकर उन्हें जला डालती है। फिर ममतारूपी जवास का समूह (वन) स्त्रीरूपी शिशिर ऋतु को पाकर हरा-भरा हो जाता है।

पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधियारी॥

बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना॥

पापरूपी उल्लुओं के समूह के लिए यह स्त्री सुख देनेवाली घोर अंधकारमयी रात्रि है। बुद्धि, बल, शील और सत्य - ये सब मछलियाँ हैं और उन (को फँसाकर नष्ट करने) के लिए स्त्री बंसी के समान है, चतुर पुरुष ऐसा कहते हैं।

दो० - अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि।

ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि॥ 44॥

युवती स्त्री अवगुणों की मूल, पीड़ा देनेवाली और सब दुःखों की खान है। इसलिए हे मुनि! मैंने जी में ऐसा जानकर तुमको विवाह करने से रोका था॥ 44॥

सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए॥

कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती॥

रघुनाथ के सुंदर वचन सुनकर मुनि का शरीर पुलकित हो गया और नेत्र (प्रेमाश्रुओं के जल से) भर आए। (वे मन-ही-मन कहने लगे - ) कहो तो किस प्रभु की ऐसी रीती है, जिसका सेवक पर इतना ममत्व और प्रेम हो।

जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। ग्यान रंक नर मंद अभागी॥

पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिसारद॥

जो मनुष्य भ्रम को त्यागकर ऐसे प्रभु को नहीं भजते, वे ज्ञान के कंगाल, दुर्बुद्धि और अभागे हैं। फिर नारद मुनि आदर सहित बोले - हे विज्ञान-विशारद राम! सुनिए -

संतन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भंजन भीरा॥

सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥

हे रघुवीर! हे भव-भय (जन्म-मरण के भय) का नाश करनेवाले मेरे नाथ! अब कृपा कर संतों के लक्षण कहिए। (राम ने कहा - ) हे मुनि! सुनो, मैं संतों के गुणों को कहता हूँ, जिनके कारण मैं उनके वश में रहता हूँ।

षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥

अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥

वे संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर - इन) छह विकारों (दोषों) को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), अकिंचन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी,

सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना॥

सावधान, दूसरों को मान देनेवाले, अभिमानरहित, धैर्यवान, धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यंत निपुण,

दो० - गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह।

तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥ 45॥

गुणों के घर, संसार के दुःखों से रहित और संदेहों से सर्वथा छूटे हुए होते हैं। मेरे चरण कमलों को छोड़कर उनको न देह ही प्रिय होती है, न घर ही॥ 45॥

निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥

सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥

कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्याय का कभी त्याग नहीं करते। सरल स्वभाव होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं।

जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा॥

श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥

वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियम में रत रहते हैं और गुरु, गोविंद तथा ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता (प्रसन्नता) और मेरे चरणों में निष्कपट प्रेम होता है।

बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥

दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥

तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान (परमात्मा के तत्त्व का ज्ञान) और वेद-पुराण का यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दंभ, अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते।

गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥

मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥

सदा मेरी लीलाओं को गाते-सुनते हैं और बिना ही कारण दूसरों के हित में लगे रहनेवाले होते हैं। हे मुनि! सुनो, संतों के जितने गुण हैं, उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते।

छं० - कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।

अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥

सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।

ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥

'शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारद ने राम के चरणकमल पकड़ लिए। दीनबंधु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने मुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारद ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदास कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल हरि के रंग में रँग गए हैं।

दो० - रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग।

राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग॥ 46(क)॥

जो लोग रावण के शत्रु राम का पवित्र यश गाएँगे और सुनेंगे, वे वैराग्य, जप और योग के बिना ही राम की दृढ़ भक्ति पाएँगे॥ 46(क)॥

दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।

भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥ 46(ख)॥

युवती स्त्रियों का शरीर दीपक की लौ के समान है, हे मन! तू उसका पतिंगा न बन। काम और मद को छोड़कर राम का भजन कर और सदा सत्संग कर॥ 46(ख)॥

इति श्री नारदगीता समाप्त ॥

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]