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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अपामार्जन स्तोत्र
यह अपामार्जन स्तोत्र भगवान विष्णु
का श्रेष्ठ स्तोत्र है। समस्त प्रकार के रोग जैसे- नेत्ररोग,
शिरोरोग, उदररोग, श्वासरोग,
कम्पन, नासिकारोग, पादरोग,
कुष्ठरोग, क्षयरोग, भंगदर,
अतिसार, मुखरोग, पथरी, वात, कफ, पित्त, समस्त प्रकार के
ज्वर तथा अन्य महाभयंकर रोग इस विचित्र स्तोत्र के पाठ करने से समाप्त हो जाते है।
परकृत्या, भूत-प्रेत-वेताल-डाकिनी-शाकिनी तथा शत्रुपीड़ा,
ग्रहपीड़ा, भय, शोक
दुःखादि बन्धनों से साधक को मुक्ति मिलती है।
अपामार्जन स्तोत्र भगवान् विष्णु का
स्तोत्र है जिसका प्रयोग विषरोगादि के निवारण के लिए किया जाता है। इस स्तोत्र के
नित्य गायन या पाठन से सभी प्रकार के रोग शरीर से दूर रहते हैं,
तथा इसका प्रयोग रोगी व्यक्ति के मार्जन द्वारा रोग निराकरण में
किया जाता है।
इस स्तोत्र का उल्लेख भारतीय
धर्मग्रन्थों में दो बार प्राप्त हुआ है --- प्रथम विष्णुधर्मोत्तरपुराण में तथा
द्वितीय पद्मपुराण में ६वें स्कन्द का ७९वाँ अध्याय। जहाँ विष्णुधर्मोत्तरपुराण
में पुलत्स्य मुनि ने दाल्भ्य के लिए कहा है वहीं पद्मपुराण में इसे भगवान् शिव ने
माता पार्वती को सुनाया है। यहाँ पद्मपुराण में वर्णित अपामार्जन स्तोत्र दिया जा
रहा है।
पद्मपुराण में वर्णित अपामार्जन स्तोत्र
महादेव उवाच –
अथातः संप्रवक्ष्यामि
अपामार्जनमुत्ततम्।
पुलस्त्येन यथोक्तं तु दालभ्याय
महात्मने॥०१॥
सर्वेषां रोगदोषाणां नाशनं
मंगलप्रदम्।
तत्तेऽहं तु प्रवक्ष्यामि श्रृणु
त्वं नगनन्दिनि॥०२॥
पार्वत्युवाच –
भगवन्प्राणिनः सर्वे
बिषरोगाद्युपद्रवाः।
दुष्टग्रहाभिभूताश्च सर्वकाले
ह्युपद्रुताः॥०३॥
अभिचारककृत्यादिबहुरोगैश्च दारुणैः।
न भवन्ति सुरश्रेष्ठ तन्मे त्वं
वक्तुमर्हसि॥०४॥
महादेव उवाच –
व्रतोपवासैर्नियमैर्बिष्णुर्वै
तोषितस्तु यैः।
ते नरा नैव रोगार्ता जायन्ते
नगनन्दिनि॥०५॥
यैः कृतं न व्रतं पुण्यं न दानं न
तपस्तथा।
न तीर्थं देवपूजा च नान्नं दत्तं तु
भूरिशः॥०६॥
अपामार्जन न्यास
महादेव उवाच –
तद्वक्ष्यामि सुरश्रेष्ठे
समाहितमनाः श्रृणु।
रोगदोषाशुभहरं
विद्विडापद्विनाशनम्॥१६॥
शिखायां श्रीधरं न्यस्य शिखाधः
श्रीकरं तथा।
हृषीकेशं तु केशेषु मूर्ध्नि
नारायणं परम्॥१७॥
ऊर्ध्वश्रोत्रे न्यसेद्विष्णुं
ललाटे जलशायिनम्।
बिष्णुं वै भ्रुयुगे न्यस्य
भ्रूमध्ये हरिमेव च॥१८॥
नरसिंहं नासिकाग्रे
कर्णयोरर्णवेशयम्।
चक्षुषोः पुण्डरीकाक्षं तदधो भूधरं
न्यसेत्॥१९॥
कपोलयोः कल्किनाथं वामनं
कर्णमूलयोः।
शंखिनं शंखयोर्न्यस्य गोविन्दं वदने
तथा॥२०॥
मुकुन्दं दन्तपंक्तौ तु जिह्वायां
वाक्पतिं तथा।
रामं हनौ तु विन्यस्य कण्ठे
वैकुण्ठमेव च॥२१॥
बलघ्नं बाहुमुलाधश्चांसयोः
कंसघातिनम्।
अजं भुजद्वये न्यस्य शार्ंगपाणिं
करद्वये॥२२॥
संकर्षणं करांगुष्ठे
गोपमंगुलिपंक्तिषु।
वक्षस्यधोक्षजं न्यस्य श्रीवत्सं
तस्य मध्यतः॥२३॥
स्तनयोरनिरुद्धं च दामोदरमथोदरे।
पद्मनाभं तथा नाभौ नाभ्यधश्चापि
केशवम्॥२४॥
मेढ्रे धराधरं देवं गुदे चैव
गदाग्रजम्।
पीताम्बरधरं कट्यामूरुयुग्मे
मधुद्विषम्॥२५॥
मुरद्विषं पिण्डकयोर्जानुयुग्मे
जनार्दनम्।
फणीशं गुल्फयोर्न्यस्य क्रमयोश्च
त्रिविक्रमम्॥२६॥
पादांगुष्ठे श्रीपतिं च पादाधो
धरणीधरम्।
रोमकूपेषु सर्वेषु बिष्वक्सेनं
न्यसेद्बुधः॥२७॥
मत्स्यं मांसे तु विन्यस्य कूर्मं
मेदसि विन्यसेत्।
वाराहं तु वसामध्ये सर्वास्थिषु
तथाऽच्युतम्॥२८॥
द्विजप्रियं तु मज्जायां शुक्रे
श्वेतपतिं तथा।
सर्वांगे यज्ञपुरुषं
परमात्मानमात्मनि॥ २९॥
एवं न्यासविधिं कृत्वा
साक्षान्नारायणो भवेत्।
यावन्न
व्याहरेत्किंचित्तावद्विष्णुमयः स्थितः॥ ३०॥
गृहीत्वा तु
समूलाग्रान्कुशांशुद्धान्समाहितः।
मार्जयेत्सर्वगात्राणि कुशाग्रैरिह
शान्तिकृत्॥ ३१॥
विष्णुभक्तो विशेषेण रोगग्रहविषार्तिनः(र्दितः)।
विषार्तानां रोगिणां च
कुर्याच्छान्तिमिमां शुभाम्॥ ३२॥
जपेत्तत्र तु भो देवि
सर्वरोगप्रणाशनम्।
ॐ नमः श्रीपरमार्थाय पुरुषाय
महात्मने॥ ३३॥
अरूपबहुरूपाय व्यापिने परमात्मने।
वाराहं नारसिंहं च वामनं च
सुखप्रदम्॥ ३४॥
ध्यात्वा कृत्वा नमो विष्णोर्नामान्यंगेषु
विन्यसेत्।
निष्कल्मषाय शुद्धाय व्याधिपापहराय
वै॥ ३५॥
गोविन्दपद्मनाभाय वासुदेवाय भूभृते।
नमस्कृत्वा प्रवक्ष्यामि
यत्तत्सिध्यतु मे वच(चः) ॥ ३६॥
त्रिविक्रमाय रामाय वैकुण्ठाय नराय
च।
वाराहाय नृसिंहाय वामनाय महात्मने॥
३७॥
हयग्रीवाय शुभ्राय हृषीकेश
हराशुभम्।
परोपतापमहितं प्रयुक्तं
चाभिचारिण(णा)म्॥ ३८॥
गरस्पर्शमहारोगप्रयोगं जरया जर।
नमोऽस्तु वासुदेवाय नमः कृष्णाय
खंगिने॥ ३९॥
नमः पुष्करनेत्राय
केशवायऽऽदिचक्रिणे।
नमः किंजल्कवर्णाय पीतनिर्मलवाससे॥
४०॥
महादेववपुःस्कन्धधृष्टचक्राय
चक्रिणे।
दंष्ट्रोद्धृतक्षितितलत्रिमूर्तिपतये
नमः॥ ४१॥
महायज्ञवराहाय श्रीविष्णवे नमोऽस्तु
ते।
तप्तहाटककेशान्तज्वलत्पावकलोचन॥ ४२॥
वज्राधिकनखस्पर्शदिव्यसिंह नमोऽस्तु
ते।
कश्यपायातिह्रस्वाय
ऋग्यजुःसामलक्षण॥ ४३॥
तुभ्यं वामनरूपाय क्रमते गां नमो
नमः।
वाराहाशेषदुःखानि सर्वपापफलानि च॥
४४॥
मर्द मर्द महादंष्ट्र मर्द मर्द च
तत्फलम्।
नरसिंह करालास्यदन्तप्रान्त
नखोज्ज्वल॥ ४५॥
भंज भंज निनादेन
दुःखान्यस्याऽऽर्तिनाशन।
ऋग्यजुःसामभिर्वाग्भिः
कामरूपधरादिधृक्॥ ४६॥
प्रशमं सर्वदुःखानि नय त्वस्य
जनार्दन।
ऐकाहिकं व्द्याहिकं च तथा त्रिदिवसं
ज्वरम्॥ ४७॥
चातुर्थिकं तथाऽनुग्रं तथा वै
सततज्वरम्।
दोषोत्थं संनिपातोत्थं
तथैवाऽऽगन्तुकज्वरम्॥ ४८॥
शमं नयतु गोविन्दो भित्त्वा
छित्त्वाऽस्य वेदनम्।
नेत्रदुःखं शिरोदुःखं दुःखं
तूदरसंभवम्॥ ४९॥
अनुच्छ्वासं महाश्वासं परितापं तु
वेपथुम्।
गुदघ्राणांघ्रिरोगांश्च कुष्ठरोगं
तथा क्षयम्॥ ५०॥
कामलादींस्तथा रोगान्प्रमेहादींश्च
दारुणान्।
ये वातप्रभवा रोगा
लूताविस्फोटकादयः॥ ५१॥
ते सर्वे विलयं यान्तु
वासुदेवापमार्जिताः।
विलयं यान्ति ते सर्वे
विष्णोरुच्चारणेन वा॥ ५२॥
क्षयं गच्छन्तु चाशेषास्ते
चक्राभिहता हरेः।
अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात्॥
५३॥
नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं
वदाम्यहम्।
स्थावरं जंगमं यच्च कृत्रिमं चापि
यद्विषम्॥ ५४॥
दन्तोद्भवं नखोद्भूतमाकाशप्रभवं च
यत्।
भूतादिप्रभवं यच्च
विषमत्यन्तदुःसहम्॥ ५५॥
शमं नयतु तत्सर्वं कीर्तितोस्य
जनार्दनः।
ग्रहान्प्रेतग्रहांश्चैव
तथाऽन्यांशाकिनीग्रहान्॥ ५६॥
मुखमण्डलकान्कूरान्रेवतीं
वृद्धरेवतीम्।
वृद्धिकाख्यान्ग्रहांश्चोग्रांस्तथा
मातृग्रहानपि॥ ५७॥
बालस्य विष्णोश्चरितं हन्ति
बालग्रहानपि।
वृद्धानां ये ग्रहाः केचिद्बालानां
चापि ये ग्रहाः॥ ५८॥
नृसिंहदर्शनादेव नश्यन्ते
तत्क्षणादपि।
दंष्ट्राकरालवदनो नृसिंहो
दैत्यभीषणः॥ ५९॥
तं दृष्ट्वा ते ग्रहाः सर्वे दूरं
यान्ति विशेषतः।
नरसिंह महासिंह
ज्वालामालोज्ज्वलानन॥ ६०॥
ग्रहानशेषान्सर्वेश नुद
स्वास्यविलोचन।
ये रोगा ये महोत्पाता यद्विषं ये
महाग्रहाः॥ ६१॥
यानि च क्रूरभूतानि ग्रहपीडाश्च
दारुणाः।
शस्त्रक्षतेषु ये रोगा
ज्वालागर्दभकादयः॥ ६२॥
विस्फोटकादयो ये च ग्रहा गात्रेषु
संस्थिताः।
त्रैलोक्यरक्षाकर्तस्त्वं
दुष्टदानववारण॥ ६३॥
सुदर्शनमहातेजश्छिन्धि च्छिन्धि
महाज्वरम्।
छिन्धि वातं च लूतं च च्छिन्धि घोरं
महाविषम्॥ ६४॥
उद्दण्डामरशूलं च
विषज्वालासगर्दभम्।
ॐ ह्रांह्रांह्रूंह्रूं प्रधारेण
कुठारेण हन द्विषः॥ ६५॥
ॐ नमो भगवते तुभ्यं दुःखदारणविग्रह।
यानि चान्यानि दुष्टानि
प्राणिपीडाकराणि वै॥ ६६॥
तानि सर्वाणि सर्वात्मा परमात्मा
जनार्दनः।
किंचिद्रूपं समास्थाय वासुदेव
नमोऽस्तु ते॥ ६७॥
क्षिप्त्वा सुदर्शनं चक्रं
ज्वालामालाविभीषणम्।
सर्वदुष्टोपशमनं कुरु देववराच्युत॥
६८॥
सुदर्शन महाचक्र गोविन्दस्य वरायुध।
तीक्ष्णधार महावेग
सूर्यकोटिसमद्युते॥ ६९॥
सुदर्शन महाज्वाल च्छिन्धि च्छिन्धि
महारव।
सर्वदुःखानि रक्षांसि पापानि च
विभीषण॥ ७०॥
दुरितं हन चाऽऽरोग्यं कुरु त्वं भोः
सुदर्शन।
प्राच्यां चैव प्रतीच्यां च
दक्षिणोत्तरतस्तथा॥ ७१॥
रक्षां करोतु विश्वात्मा नरसिंहः
स्वगर्जितैः।
भूम्यन्तरिक्षे च तथा पृष्ठतः
पार्श्वतोऽग्रतः॥ ७२॥
रक्षां करोतु भगवान्बहुरूपी
जनार्दनः।
[तथा विष्णुमयं सर्वं सदेवासुरमानुषम्]॥
७३॥
तेन सत्येन सकलं दुःखमस्य
प्रणश्यतु।
यथा योगेश्वरो विष्णुः सर्ववेदेषु
गीयते॥ ७४॥
तेन सत्येन सकलं दुःखमस्य
प्रणश्यतु।
परमात्मा यथा विष्णुर्वेदांगेषु च
गीयते॥ ७५॥
तेन सत्येन विश्वात्मा सुखदस्तस्य
केशवः।
शान्तिरस्तु शिवं चास्तु प्रणाशं
यातु चासुखम्॥ ७६॥
वासुदेवशरीरोत्थैः कुशैः संमार्जितं
मया।
अपामार्जितगोविन्दो नरो
नारायणस्तथा॥ ७७॥
तथाऽपि सर्वदुःखानां प्रशमो
वचनाद्धरेः।
शान्ताः समस्तदोषास्ते ग्रहाः सर्वे
विषाणि च।
भूतानि च प्रशाम्यन्ति संस्मृते
मधुसूदने॥ ७८॥
एते कुशा विष्णुशरीरसंभवा
जनार्दनोऽहं स्वयमेव चाग्रतः।
हतं मया दुःखमशेषमस्य वै स्वस्थो
भवत्वेष वचो यथा हरेः॥ ७९॥
शान्तिरस्तु शिवं चास्तु
प्रणश्यत्वसुखं च यत्।
यदस्य दुरितं किंचित्क्षिप्तं
तल्लवणाम्भसि॥ ८०॥
स्वास्थ्यमस्य सदैवास्तु हृषीकेशस्य
कीर्तनात्।
यद्यतोऽत्र गतं पापं तत्तु तत्र
प्रगच्छतु॥ ८१॥
एतद्रोगेषु पीडासु जन्तूनां
हितमिच्छुभिः।
विष्णुभक्तैश्च कर्तव्यमपामार्जनकं
परम्॥ ८२॥
अनेन सर्वदुःखानि विलयं
यान्त्यशेषतः।
सर्वपापविशुद्ध्यर्थं
विष्णोश्चैवापमार्जनात्॥ ८३॥
आर्द्रं शुष्कं लघु स्थूलं
ब्रह्महत्यादिकं तु यत्।
तत्सर्वं नश्यते तूर्णं
तमोवद्रविदर्शनात्॥ ८४॥
नश्यन्ति रोगा दोषाश्च
सिंहात्क्षुद्रमृगा यथा।
ग्रहभूतपिशाचादि श्रवणादेव नश्यति॥
८५॥
द्रव्यार्थं लोभपरमैर्न कर्तव्यं
कदाचन।
कृतेऽपामार्जने किंचिन्न ग्राह्यं
हितकाम्यया॥ ८६॥
निरपेक्षैः
प्रकर्तव्यमादिमध्यान्तबोधकैः।
विष्णुभक्तैः सदा शान्तैरन्यथाऽसिद्धिदं
भवेत्॥ ८७॥
अतुलेयं नृणां सिद्धिरियं रक्षा परा
नृणाम्।
भेषजं परमं
ह्येतद्विष्णोर्यदपमार्जनम्॥ ८८॥
उक्तं हि ब्रह्मणा पूर्वं
पौ(पु)लस्त्याय सुताय वै।
एतत्पुलस्त्यमुनिना दालभ्यायोदितं
स्वयम्॥ ८९॥
सर्वभूतहितार्थाय दालभ्येन
प्रकाशितम्।
त्रैलोक्ये तदिदं विष्णोः समाप्तं
चापमार्जनम्॥ ९०॥
तवाग्रे कथितं देवि यतो भक्ताऽसि मे
सदा।
श्रुत्वा तु सर्वं भक्त्या च रोगान्दोषान्व्यपोहति॥ ९१॥
अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
पार्वती बोलीं-भगवन् ! सभी प्राणी
विष और रोग आदि के उपद्रव से ग्रस्त तथा दुष्ट ग्रहों से हर समय पीड़ित रहते हैं।
सुरश्रेष्ठ ! जिस उपाय का अवलम्बन करने से मनुष्यों को अभिचार (मारण-उच्चाटन आदि)
तथा कृत्या आदि से उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकार के भयङ्कर रोगों का शिकार न होना
पड़े,
उसका मुझसे वर्णन कीजिये।
महादेवजी बोले-पार्वती ! जिन लोगों ने
व्रत,
उपवास और नियमों के पालन द्वारा भगवान् विष्णु को संतुष्ट कर लिया
है, वे कभी रोग से पीड़ित नहीं होते। जिन्होंने कभी व्रत,
पुण्य, दान, तप, तीर्थ-सेवन, देव पूजन तथा अधिक मात्रा में अन्न-दान
नहीं किया है, उन्हीं लोगों को सदा रोग और दोष से पीड़ित
समझना चाहिये। मनुष्य अपने मन से आरोग्य तथा उत्तम समृद्धि आदि जिस-जिस वस्तु की
इच्छा करता है, वह सब भगवान् विष्णु को सेवा से निश्चय ही
प्राप्त कर लेता है। श्रीमधुसूदन के संतुष्ट हो जाने पर न कभी मानसिक चिन्ता सताती
है, न रोग होता है, न विष तथा ग्रहों के
कष्ट में बंधना पड़ता है और न कृत्या के ही स्पर्श का भय रहता है। श्रीजनार्दन के
प्रसन्न होने पर समस्त दोषों का नाश हो जाता है। सभी ग्रह सदा के लिये शुभ हो जाते
हैं तथा वह मनुष्य देवताओं के लिये भी दुर्धर्ष बन जाता है। जो सम्पूर्ण प्राणियों
के प्रति समान भाव रखता है और अपने प्रति जैसा बर्ताव चाहता है वैसा ही दुसरो के
प्रति भी करता है, उसने मानो उपवास आदि करके भगवान् मधुसूदन को
संतुष्ट कर लिया। ऐसे लोगों के पास शत्रु नहीं आते, उन्हें
रोग या आभिचारिक कष्ट नहीं होता तथा उनके द्वारा कभी पाप का कार्य भी नहीं बनता।
जिसने भगवान् विष्णु की उपासना की है, उसे भगवान के चक्र आदि
अमोघ अस्त्र सदा सब आपत्तियों से बचाते रहते हैं।
पार्वती बोलीं-भगवन् ! जो लोग
भगवान् गोविन्द की आराधना न करने के कारण दुःख भोग रहे हैं,
उन दुःखी मनुष्यों के प्रति सब प्राणियों में सनातन वासुदेव को
स्थित देखने वाले समदर्शी एवं दयालु पुरुषों का जो कर्तव्य हो, वह मुझे विशेषरूप से बताइये।
महादेवजी बोले-देवेश्वरि ! बतलाता
हूँ,
एकाग्रचित्त होकर सुनो। यह उपाय रोग, दोष एवं
अशुभ को हरनेवाला तथा शत्रुजनित आपत्ति का नाश करने वाला है। विद्वान् पुरुष शिखा में
श्रीधर का, शिखा के निचले भाग में भगवान् श्रीकर का, केशों में हृषीकेश का, मस्तक में परम पुरुष नारायण का,
कान के ऊपरी भाग में श्रीविष्णु का, ललाट में
जलशायी का, दोनों भौहों में श्रीविष्णु का, भौंहों के मध्य-भाग में श्रीहरि का, नासिका के अग्रभाग
में नरसिंह का, दोनों कानों में अर्णवेशय (समुद्र में शयन
करनेवाले भगवान्) का, दोनों नेत्रों में पुण्डरीकाक्ष का,
नेत्रों के नीचे भूधर (धरणीधर) का, दोनों
गालों में कल्किनाथ का, कानों के मूल भाग में वामन का,
गले की दोनों हंसलियों में शङ्खधारी का, मुख में
गोविन्द का, दाँतों की पक्ति में मुकुन्द का, जिह्वा में वाणीपति का, ठोढ़ी में श्रीराम का,
कण्ठ में वैकुण्ठ का, बाहुमूल के निचले भाग
(काँख) में बलन (बल नामक दैत्यके मारनेवाले) का, कंधों में
कंसघाती का, दोनों भुजाओ में अज (जन्मरहित) का, दोनों हाथो मे शार्ङ्गपाणि का, हाथ के अंगूठे में
संकर्षण का, अँगुलियों में गोपाल का, वक्षःस्थल
में अधोक्षज का, छाती के बीच में श्रीवत्स का, दोनों स्तनों में अनिरुद्ध का, उदर में दामोदर का,
नाभि में पद्मनाभ का, नाभि के नीचे केशव का,
लिङ्ग में धराधर का, गुदा में गदाग्रज का,
कटि में पीताम्बरधारी का, दोनों जाँघों में
मधुद्विट् (मधुसूदन) का, पिंडलियों में मुरारि का, दोनों घुटनों में जनार्दन का, दोनों घुट्ठियों में
फणीश का, दोनों पैरों की गति में त्रिविक्रम का, पैर के अँगूठे में श्रीपति का, पैर के तलवों में
धरणीधर का, समस्त रोमकूपों में विष्वक्सेन का, शरीर के मांस में मत्स्यावतार का, मेदे में
कूर्मावतार का, वसा में वाराह का, सम्पूर्ण
हड्डियों में अच्युत का, मज्जा में द्विजप्रिय (ब्राह्मणों के
प्रेमी) का, शुक्र (वीर्य) में श्वेतपति का, सर्वाङ्ग में यज्ञपुरुष का तथा आत्मा में परमात्मा का न्यास करे। इस
प्रकार न्यास करके मनुष्य साक्षात् नारायण हो जाता है; वह जब
तक मुंह से कुछ बोलता नहीं, तब तक विष्णुरूप से ही स्थित
रहता है।*
शान्ति करनेवाला पुरुष मूलसहित
शुद्ध कुशों को लेकर एकाग्रचित्त हो रोगी के सब अङ्गों को झाड़े;
विशेषतः विष्णुभक्त पुरुष रोग, ग्रह और विष से
पीड़ित मनुष्य की अथवा केवल विष से ही कष्ट पाने वाले रोगियों की इस प्रकार शुभ
शान्ति करे। पार्वती ! कुश से झाड़ते समय सब रोगों का नाश करने वाले इस स्तोत्र का
पाठ करना चाहिये।
ॐ परमार्थस्वरूप,
अन्तर्यामी, महात्मा, रूपहीन
होते हुए भी अनेक रूपधारी तथा व्यापक परमात्मा को नमस्कार है। वाराह, नरसिंह और सुखदायी वामन भगवान का ध्यान एवं नमस्कार करके श्रीविष्णु के
उपर्युक्त नामों का अपने अङ्गों में न्यास करे । न्यास के पश्चात् इस प्रकार कहे-'मैं पाप के स्पर्श से रहित, शुद्ध, व्याधि और पापों का अपहरण करने वाले गोविन्द, पद्मनाभ,
वासुदेव और भूधर नाम से प्रसिद्ध भगवान को नमस्कार करके जो कुछ कहूँ,
वह मेरा सारा वचन सिद्ध हो । तीन पगों से त्रिलोकी को नापने वाले
भगवान् त्रिविक्रम, सबके हृदय में रमण करने वाले राम,
वैकुण्ठधाम के अधिपति, बदरिकाश्रम में तपस्या करनेवाले
भगवान् नर, वाराह, नृसिंह, वामन और उज्ज्वल रूपधारी हयग्रीव को नमस्कार है। हषीकेश ! आप सारे अमङ्गल को
हर लीजिये। सबके हृदय में निवास करनेवाले भगवान् वासुदेव को नमस्कार है। नन्दक
नामक खङ्ग धारण करनेवाले सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण को नमस्कार है। कमल के समान
नेत्रों वाले आदि चक्रधारी श्रीकेशव को नमस्कार है। कमल-केसर के समान वर्णवाले
भगवान को नमस्कार है। पीले रंग के निर्मल वस्त्र धारण करने वाले भगवान् विष्णु को
नमस्कार है। अपनी एक दाढ़ पर समूची पृथ्वी को उठा लेने वाले त्रिमूर्तिपति भगवान्
वाराह को नमस्कार है। जिसके नखो का स्पर्श वज्र से भी अधिक तीक्ष्ण और कठोर है,
ऐसे दिव्य सिंह का रूप धारण करनेवाले भगवान् नृसिंह ! आपको नमस्कार
है। ऋग्वेद, यजर्वेद और सामवेद से लक्षित होनेवाले परमात्मन्
! अत्यन्त लघु शरीरवाले कश्यप पुत्र वामन का रूप धारण करके भी समूची पृथ्वी को एक
ही पग में नाप लेने वाले ! आपको बारंबार नमस्कार है। बहुत बड़ी दाढ़वाले भगवान्
वाराह ! सम्पूर्ण दुःखों और समस्त पाप के फलो को रौद डालिये, रौंद डालिये। पाप के फल को नष्ट कर डालिये, नष्ट कर
डालिये। विकराल मुख और दाँतोंवाले, नखों से उद्दीप्त दिखायी देनेवाले,
पीड़ाओं के नाशक भगवान् नृसिंह! आप अपनी गर्जना से इस रोगी के
दुःखों का भञ्जन कीजिये, भञ्जन कीजिये। इच्छानुसार रूप ग्रहण
करके पृथ्वी आदि को धारण करने वाले भगवान् जनार्दन अपनी ऋक्, यजुः और साममयी वाणी द्वारा इस रोगी के सब दुःखो की शान्ति कर दे। एक,
दो, तीन या चार दिन का अन्तर देकर आने वाले हल
के या भारी ज्वर को, सदा बने रहने वाले ज्वर को, किसी दोष के कारण उत्पन्न हुए ज्वर को, सन्निपात से
होनेवाले तथा आगन्तुक ज्वर को विदीर्ण कर उसकी वेदना का नाश करके भगवान् गोविन्द
उसे सदा के लिये शान्त कर दें। नेत्र का कष्ट, मस्तक का कष्ट,
उदररोग का कष्ट, अनुच्छ्वास (साँस का रुकना),
महाश्वास (साँस का तेज चलना-दमा), परिताप,
(ज्वर), वेपथु (कम्प या जूड़ी), गुदारोग, नासिका रोग, पादरोग,
कुष्ठरोग, क्षयरोग, कमला
आदि रोग, प्रमेह आदि भयङ्कर रोग, बातरोग,
मकड़ी और चक्क आदि समस्त रोग भगवान् विष्णु के चक्र की चोट खाकर
नष्ट हो जायें। अच्युत, अनन्त और गोविन्द नामों के
उच्चारणरूपी औषधि से समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं यह बात मैं सत्य-सत्य कहता हूँ।
स्थावर, जङ्गम अथवा कृत्रिम विष हो या दाँत, नख, आकाश तथा भूत आदि से प्रकट होनेवाला अत्यन्त दुस्सह
विष हो; वह सारा-का-सारा श्रीजनार्दन का नामकीर्तन करने पर
इस रोगी के शरीर में शान्त हो जाय । बालक के शरीर में ग्रह, प्रेतग्रह
अथवा अन्यान्य शाकिनी-ग्रहों का उपद्रव हो या मुख पर चकत्ते निकल आये हों अथवा
रेवती, वृद्ध रेवती तथा वृद्धिका नाम के भयङ्कर ग्रह,
मातृग्रह एवं बालग्रह पीड़ा दे रहे हों; भगवान्
श्रीविष्णु का चरित्र उन सबका नाश कर देता है। वृद्धों अथवा बालकों पर जो कोई भी
ग्रह लगे हों, वे श्रीनृसिंह के दर्शनमात्र से तत्काल शान्त
हो जाते हैं। भयानक दाढ़ों के कारण विकराल मुखवाले भगवान् नृसिंह दैत्यों को भयभीत
करनेवाले है। उन्हें देखकर सभी ग्रह बहुत दूर भाग जाते हैं। ज्वालाओं से
देदीप्यमान मुखवाले महासिंहरूपधारी नृसिंह ! सुन्दर मुख और नेत्रोंवाले सर्वेश्वर
! आप समस्त दुष्ट ग्रहों को दूर कीजिये। जो-जो रोग, महान्
उत्पात, विष, महान् ग्रह, क्रूरस्वभाववाले भूत, भयङ्कर ग्रह-पीड़ाएँ, हथियार से कटे हुए घावों पर होनेवाले रोग, चेचक आदि
फोड़े और शरीर के भीतर स्थित रहनेवाले ग्रह हो, उन सबको हे
त्रिभुवन की रक्षा करनेवाले! दुष्ट दानवों के विनाशक ! महातेजस्वी सुदर्शन ! आप
काट डालिये, काट डालिये। महान् ज्वर, वातरोग,
लूता रोग तथा भयानक महाविष को भी आप नष्ट कर दीजिये, नष्ट कर दीजिये। असाध्य अमरशूल विष की ज्वाला और गर्दभ रोग-ये सब-के-सब
शत्रु हैं, 'ॐ ह्रां ह्रां ह्रूं ह्रूं' इस बीजमन्त्र के साथ तीखी धारवाले कुठार से आप इन शत्रुओं को मार डालें।
दूसरों का दुःख दूर करने के लिये शरीर धारण करनेवाले परमेश्वर ! आप भगवान को नमस्कार
है। इनके सिवा और भी जो प्राणियों को पीड़ा देनेवाले दुष्ट ग्रह और रोग हों,
उन सबको सबके आत्मा परमात्मा जनार्दन दूर करें। वासुदेव ! आपको
नमस्कार है। आप कोई रूप धारण करके ज्वालाओं के कारण
अत्यन्त भयानक सदर्शन नामक चक्र
चलाकर सब दुष्टों को नष्ट कर दीजिये। देववर ! अच्युत ! आप दुष्टो का संहार कीजिये।
महाचक्र सुदर्शन ! भगवान् गोविन्द के
श्रेष्ठ आयुध ! तीखी धार और महान् वेगवाले शस्त्र ! कोटि सूर्य के समान तेज धारण
करनेवाले महाज्वालामय सुदर्शन ! भारी आवाज से सबको भयभीत करनेवाले चक्र ! आप समस्त
दुःखों और सम्पूर्ण राक्षसों का उच्छेद कर डालिये, उच्छेद कर डालिये। हे सुदर्शनदेव ! आप पापों का नाश और आरोग्य प्रदान
कीजिये। महात्मा नृसिंह अपनी गर्जनाओं से पूर्व, पश्चिम,
दक्षिण और उत्तर-सब ओर रक्षा करें। अनेक रूप धारण करने वाले भगवान्
जनार्दन भूमि पर और आकाश में, पीछे-आगे तथा पार्श्वभाग में
रक्षा करें। देवता, असुर और मनुष्यों के सहित सम्पूर्ण विश्व
श्रीविष्णुमय है। योगेश्वर श्रीविष्णु ही सब वेदों में गाये जाते हैं, इस सत्य के प्रभाव से इस रोगी का सारा दुःख दूर हो जाय। समस्त वेदाङ्गों में
भी परमात्मा श्रीविष्णु का ही गान किया जाता है। इस सत्य के प्रभाव से विश्वात्मा
केशव इसको सुख देनेवाले हो। भगवान् वासुदेव के शरीर से प्रकट हुए कुशों के द्वारा
मैंने इस मनुष्य का मार्जन किया है। इससे शान्ति हो, कल्याण
हो और इसके दुःखों का नाश हो जाय । जिसने गोविन्द के अपामार्जन स्तोत्र से मार्जन
किया है, वह भी यद्यपि साक्षात् श्रीनारायण का ही स्वरूप है;
तथापि सब दुःखों की शान्ति श्रीहरि के वचन से ही होती है। श्रीमधुसूदन का स्मरण
करने पर सम्पूर्ण दोष, समस्त ग्रह, सभी
विष और सारे भूत शान्त हो जाते हैं। अब यह श्रीहरि के वचनानुसार पूर्ण स्वस्थ हो
जाय । शान्ति हो, कल्याण हो और दुःख नष्ट हो जायें। भगवान्
हृषीकेश के नाम-कीर्तन के प्रभाव से सदा ही इसके स्वास्थ्य की रक्षा रहे। जो पाप
जहाँ से इसके शरीर में आये हों, वे वहीं चले जायें।
यह परम उत्तम 'अपामार्जन' नामक स्तोत्र है। समस्त प्राणियों का
कल्याण चाहने वाले श्रीविष्णुभक्त पुरुषों को रोग और पीड़ाओ के समय इसका प्रयोग
करना चाहिये। इससे समस्त दुःखो का पूर्णतया नाश हो जाता है। यह सब पापों की शुद्धि
का साधन है। श्रीविष्णु के 'अपामार्जन स्तोत्र' से आर्द्र(स्वेच्छा से किये हुए पाप)-शुष्क(अनिच्छा
से किये हुए पाप), लघु-स्थूल (छोटे-बड़े) एवं ब्रह्महत्या
आदि जितने भी पाप हैं, वे सब उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं
जैसे सूर्य के दर्शन से अन्धकार दूर हो जाता है। जिस प्रकार सिंह के भय से छोटे
मृग भागते हैं, उसी प्रकार इस स्तोत्र से सारे रोग और दोष
नष्ट हो जाते हैं। इसके श्रवण मात्र से ही ग्रह, भूत और
पिशाच आदि का नाश हो जाता है। लोभी पुरुष धन कमाने के लिये कभी इसका उपयोग न करें।
अपामार्जन स्तोत्र का उपयोग करके किसी से कुछ भी नहीं लेना चाहिये, इसी में अपना हित है। आदि, मध्य और अन्त का ज्ञान
रखनेवाले शान्तचित्त श्रीविष्णुभक्तो को निःस्वार्थ भाव से इस स्तोत्र का प्रयोग
करना उचित है; अन्यथा यह सिद्धिदायक नहीं होता। भगवान्
विष्णु का जो अपामार्जन नामक स्तोत्र है, यह मनुष्यों के
लिये अनुपम सिद्धि है, रक्षा का परम साधन है और सर्वोत्तम औषधि
है। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने अपने पुत्र पुलस्त्य मुनि को इसका उपदेश किया था;
फिर पुलस्त्य मुनि ने दाल्भ्य को सुनाया। दाल्भ्य ने समस्त
प्राणियों का हित करने के लिये इसे लोक में प्रकाशित किया; तब
से श्रीविष्णु का यह अपामार्जन स्तोत्र तीनों लोकों में व्याप्त हो गया। यह सब
प्रसङ्ग भक्तिपूर्वक श्रवण करने से मनुष्य अपने रोग और दोषों का नाश करता है।
'अपामार्जन' नामक स्तोत्र परम अद्भुत और दिव्य है। मनुष्य को चाहिये कि पुत्र, काम और अर्थ की सिद्धि के लिये इसका विशेषरूप से पाठ करे। जो द्विज एक या
दो समय बराबर इसका पाठ करते हैं, उनकी आयु, लक्ष्मी और बल की दिन-दिन वृद्धि होती है। ब्राह्मण- विद्या, क्षत्रिय- राज्य, वैश्य- धन-सम्पत्ति और शूद्र-
भक्ति प्राप्त करता है। दूसरे लोग भी इसके पाठ, श्रवण और जप से
भक्ति प्राप्त करते हैं।
पार्वती ! जो इसका पाठ करता है,
उसे सामवेद का फल होता है; उसकी सारी पाप-राशि
तत्काल नष्ट हो जाती है। देवि ! ऐसा जानकर एकाग्रचित्त से इस स्तोत्र का पाठ करना
चाहिये। इससे पुत्र की प्राप्ति होती है और घर में निश्चय ही लक्ष्मी परिपूर्ण हो
जाती हैं। जो वैष्णव इस स्तोत्र को भोजपत्र पर लिखकर सदा धारण किये रहता है,
वह इस लोक में सुख भोगकर अन्त में श्रीविष्णु के परमपद को प्राप्त
होता है। जो इसका एक-एक श्लोक पढ़कर भगवान को तुलसीदल समर्पित करता है, वह तुलसी से पूजन करने पर सम्पूर्ण तीर्थों के सेवन का फल पा लेता है। यह
भगवान् विष्णु का स्तोत्र परम उत्तम और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। सम्पूर्ण पृथ्वी
का दान करने से मनुष्य श्रीविष्णुलोक में जाता है; किन्तु जो
ऐसा करने में असमर्थ हो, वह श्रीविष्णुलोक की प्राप्ति के
लिये विशेषरूप से इस स्तोत्र का जप करे। यह रोग और ग्रहों से पीड़ित बालकों के
दुःख को शान्ति करनेवाला है। इसके पाठ मात्र से भूत, ग्रह और
विष नष्ट हो जाते हैं। जो ब्राह्मण कण्ठ में तुलसी की माला पहनकर इस स्तोत्र का
पाठ करता है, उसे वैष्णव जानना चाहिये; वह निश्चय ही श्रीविष्णुधाम में जाता है। इस लोक का परित्याग करने पर उसे
श्रीविष्णुधाम की प्राप्ति होती है। जो मोह-माया से दूर हो दम्भ और तृष्णा का
त्याग करके इस दिव्य स्तोत्र का पाठ करता है, वह परम मोक्ष को
प्राप्त होता है। इस भूमण्डल में जो ब्राह्मण भगवान् विष्णु के भक्त हैं, वे धन्य माने गये हैं, उन्होंने कुलसहित अपने आत्मा का
उद्धार कर लिया-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। जिन्होंने भगवान् नारायण की शरण
ग्रहण कर ली है, संसार में वे परम धन्य हैं। उनकी सदा भक्ति
करनी चाहिये, क्योंकि वे भागवत (भगवद्भक्त) पुरुष हैं।
अपामार्जन स्तोत्र प्रयोग विधि
किसी विशेष महामारी या रोग फ़ैल जाने पर किसी लोटा या पात्र में जल डालकर हाथों में
लेकर उस जल को इस स्तोत्र का पाठ करते हुए कुशा से चलाते(हिलाते)हुए अभिमंत्रित कर
लेवें। अब इस जल को उसी कुशा से पुरे घर व घर के सभी सदस्यों के ऊपर पूरी श्रद्धा
के साथ छिड़काव कर दें। महामारी या रोग उस घर से पूरी तरह नष्ट हो जायेगा। यदि कोई
रोगी हो तो कुश लेकर अपामार्जन स्तोत्र का पाठ करते हुए झाड़ा देवें। भगवान् की
कृपा से रोगी शीघ्र ही रोग मुक्त हो जायेगा।
अपामार्जन स्तोत्र समाप्त ।
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