ब्राह्मणगीता १२
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श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद
ब्राह्मणगीता। पिछले अंक में ब्राह्मणगीता ११ को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता १२
में राजा अम्बरीष की गायी हुई आध्यात्मिक स्वराज्य विषयक गाथा का वर्णन हैं ।
ब्राह्मणगीता १२
ब्राह्मणेन स्वभार्यांप्रति
कामक्रोधादिपरित्यागपूर्वकं भगवदवबोधस्य
परमपुरुषार्थसाधनतावबोधकाम्बरीषगीतगाथाकथनम्।। 1 ।।
ब्राह्मण उवाच।
त्रयो वै रिपवो लोके नवधा गुणतः
स्मृताः।
हर्षः स्तंभोतिमानश्च त्रयस्ते
सात्विका गुणाः।।
शोकः क्रोधाभिसंरम्भो राजसास्ते
गुणाः स्मृताः।
स्वप्नस्तन्द्रा च मोहश्च त्रयस्ते
तामसा गुणाः।।
एतान्निकृत्य
धृतिमान्बाणसङ्घैरतन्द्रितः।
जेतुं परानुत्सहते प्रशान्तात्मा
जितेन्द्रियः।।
अत्र गाथाः कीर्तयन्ति पुराकल्पविदो
जनाः।
अम्बरीषेण या गीता राज्ञा राज्यं
प्रशासता।।
समुदीर्णेषु दोषेषु बाध्यमानेषु
साधुषु।
जग्राह तरसा राज्यमम्बरीष इति
श्रुतिः।।
स निगृह्यात्मनो
दोषान्साधून्समभिपूज्य च।
जगाम महतीं सिद्धिं गाथाश्चेमा जगाद
ह।।
भूयिष्ठं विजिता दोषा निहताः
सर्वशत्रवः।
एको दोषो वरिष्ठश्च वध्यः स न हतो
मया।।
यत्प्रयुक्तो जन्तुरयं वैतृष्ण्यं
नाधिगच्छति।
तृष्णार्त इव निम्नानि धावमानो न
बुध्यते।।
अकार्यमपि येनेह प्रयुक्तः सेवते
नरः।
तं लोभमसिभिस्तीक्ष्णैर्निकृत्य
सुखमेधते।।
लोभाद्धि जायते तृष्णा ततश्चिन्ता
प्रवर्तते।
स लिप्समानो लभते भूयिष्ठं राजसान्गुणान्।
तदवाप्तौ तु लभते भूयिष्ठं
तामसान्गुणान्।।
स तैर्गुणैः संहतदेहबन्धनः।
पुनःपनर्जायति कर्म चेहते।
जन्मक्षये भिन्नविकीर्मदेहो
मृत्युं पुनर्गच्छति जन्मनैव।।
तस्मादेतं सम्यगवेक्ष्य लोभं
निगृह्य धृत्याऽऽत्मनि
राज्यमिच्छेत्।
एतद्राज्यं नान्यदस्तीह राज्य-
मात्मैव राजा विदितो यथावत्।।
इति राज्ञाऽम्बरीषेण गाथा गीता
यशस्विना।
आधिराज्य पुरस्कृत्य लोभमेकं
निकृन्तता।।
।। इति श्रीमन्महाभारते
आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीता १२ द्वात्रिंशोऽध्यायः।। 32 ।।
ब्राह्मणगीता १२ हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मण ने कहा-देवि! इस संसार में
सत्व,
रज और तम- ये तीन मेरे शत्रु हैं। ये वृत्तियों के भेद से नौ प्रकार
के माने गये हैं। हर्ष, प्रीति और आनन्द- ये तीन सात्त्विक
गुण हैं, तृष्णा, क्रोध और द्वेषभाव-
ये तीन राजस गुण हैं और थकावट, तन्द्रा तथा मोह- ये तीन तामस
गुण हैं। शान्तचित्त, जितेन्द्रिय, आलस्यहीन
और धैर्यवान् पुरुष शम-दम आदि बाण समूहों के द्वारा इन पूर्वोक्त गुणों का उच्छेद
करके दूसरों को जीतने का उत्साह करते हैं। इस विषय में पूर्वकाल में बातों के
जानकार लोग एक गाथा सुनाया करते हैं। पहले कभी शान्तिपरायण महाराज अम्बरीष ने इस
गाथा का गान किया था। कहते हैं- जब दोषों का बल बढ़ा और अच्छे गुण दबने लगे,
उस समय महायशस्वी महाराज अम्बरीष ने बलपूर्वक राज्य की बागडोर अपने
हाथ में ली। उन्होंने अपने दोषों को दबाया और उत्तम गुणों का आदर किया। इससे
उन्हें बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त हुई और उन्होंने यह गाथा गयी। ‘मैंने बहुत से दोषों पर विजय पायी और समस्त शत्रुओं का नाश कर डाला,
किंतु एक सबसे बड़ा दोष रह गया है। यद्यपि वह नष्ट कर देने योग्य है
तो भी अब तक मैं नाश न कर सका। ‘उसी को प्रेरणा से इस प्राणी
को वैराग्य नहीं होता। तृष्णा के वश में पड़ा हुआ मनुष्य संसार में नीच कर्मों की
ओर दौड़ता है, सचेत नहीं होता। ‘उससे
प्रेरित होकर वह यहाँ नहीं करने योग्य काम भी कर डालता है। उस दोष का नाम है लोभ।
उसे ज्ञान रूपी तलवार से काटकर मनुष्य सुखी होता है। ‘लोभ से
तृष्णा और तृष्णा से चिन्ता पैदा होती है। लोभी मनुष्य पहले बहुत से राजस गुणों को
पाता है और उनकी प्राप्ति हो जाने पर उसमें तामसिक गुण भी अधिक मात्रा में आ जाते
हैं। ‘उन गुणों के द्वारा देह बन्धन में जकड़कर वह बारंबार
जन्म लेता और तरह तरह के कर्म करता रहता है। फिर जीवन का अन्त समय आने पर उसके देह
के तत्त्व विलग-विलग होकर बिखर जाते हैं और वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसके
बाद फिर जन्म मृत्यु के बन्धन में पड़ता है। ‘इसलिये इस लोभ
के स्वरूप को अच्छी तरह समझकर इसे धैयपूर्वक दबाने और आत्मराज्य पर अधिकार पाने की
इच्छा करनी चाहिये। यही वास्तविक स्वराज्य है। यहाँ दूसरा कोई राज्य नहीं है।
आत्मा का यथार्थ ज्ञान हो जाने पर वही राजा है’। इस प्रकार
यशस्वी अम्बरीष ने आत्मराज्य को आगे रखकर एक मात्र प्रबल शत्रु लोभ का उच्छेद करते
हुए उपर्युक्त गाथा का गान किया था।
इस प्रकार श्रीमहाभारत
आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मणगीता १३ विषयक ३२ वाँ अध्याय
पूरा हुआ।
शेष जारी...........ब्राह्मणगीता १३
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