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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
शनिस्तोत्रम्
शनिस्तोत्रम्- शनि सभी
ग्रहों से दूर रहकर तुला राशि को अपना उच्च आसन बनाकर,
धर्म-अधर्म को न्याय के तराजू में तौलकर आमजन के लिए दूध का दूध और
पानी का पानी कर देते हैं।
शनि ग्रह का नाम सुनते ही प्राय: भय
पैदा होने लगता है, जबकि शनि
लोकतांत्रिक पद्धति के पालक तथा संसार की हर चल-अचल वस्तु से संबद्ध होने से आमजन
का ग्रह है। शनि जयंती ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को आती है।
शनि के जन्म को लेकर अनेक पौराणिक
कथाएं हैं। शनिदेव राम, कृष्ण, हनुमान, पार्वती आदि को भी अपना प्रभाव दिखाए बिना
नहीं रहे। इन कथाओं में शनिग्रह को नकारात्मक या अनिष्ट कारक ग्रह के रूप में अधिक
वर्णित कर दिया गया है, वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है।
शनि नवग्रहों में न्यायाधीश हैं।
न्यायाधीश कभी भी किसी व्यक्ति से जल्दी प्रभावित नहीं होते,
अपितु दूरियां बनाकर चलते हैं। उसी तरह शनि ग्रह भी सभी ग्रहों से
दूर रहकर, तुला राशि को अपना उच्च आसन बनाकर, धर्म-अधर्म को न्याय के तराजू में तौलकर आमजन के लिए दूध का दूध और पानी
का पानी कर देते हैं।
शनि ग्रह मानव के अंत:करण का प्रतीक
है। चर्म,
श्वास, जोड़ों में दर्द, सिरदर्द, रक्त प्रवाह, अपच,
कब्ज, मनोरोग, प्रेतबाधा,
अंधापन, मुंह एवं अन्य अंगों से दरुगध आदि
अनेक विकारों का कारण शनि होता है।
देर तक सोने वाले,
जुआ, सट्टा, शराब,
शेयर, प्रॉपर्टी, खनिज
पदार्थ आदि में भी इनका पूर्ण हस्तक्षेप रहता है। वास्तव में शनि एक गरीब बुजुर्ग
ग्रह हैं, जो सदैव आशीर्वाद देने को आतुर रहते हैं, लेकिन लोग उनकी उपेक्षा करके अपने आपको संकट में डालते रहते हैं।
हमारे शरीर में ऑक्सीजन रहित रक्त
को ले जाने वाली शिराओं का स्वामी शनि ही होता है। शनि की भूमिका तन-मन एवं धन
तीनों में महत्वपूर्ण होती है। मानव जीवन के सारे कष्टों को हरने वाला एकमात्र शनि
ग्रह ही है। यह अलग बात है कि शनि को प्राय: क्रूर ग्रह ही माना जाता है,
जबकि शनि हर राशि को अपनी तरह से सहयोग करते हैं।
वायु पुत्र हनुमान ने भगवान राम को हरसंभव सहयोग किया, तो आमजन को भी वायुग्रह शनि हमेशा सहयोगी ही बना रहता है। धोखेबाज, चोर, झूठ बोलने वाले, दुराचारी, अपराधी आदि के लिए शनि मारक समान रहता है, तो साधु संतों, विद्वानों तथा सदाचरण से चलने वालों के लिए सेवक स्वरूप प्रबल कारक ग्रह रहता है। शनिस्तोत्रम् का पाठ करने से न्यायमूर्ति शनि भक्तों का कभी अहित नहीं होने देता। ढय्यै या साढ़ेशाती का समय चलने पर शनि भक्तों को अग्नि में तपे सोने जैसा कुंदन बना देता है।
शनिस्तोत्रम्
ॐ शनैश्चरः स्वधाकारी छायाभूः
सूर्यनन्दनः ।
मार्तण्डजो यमः सौरिः पङ्गूश्च
ग्रहनायकः ॥ १॥
ब्रह्मण्योऽक्रूरधर्मज्ञो
नीलवर्णोऽञ्जनद्युतिः ।
द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं यः
पठेन्नरः ॥ २॥
तस्य पीडां नचैवाहं करिष्यामि न
संशयः ।
गोचरे जन्मलग्ने च वापस्वन्तर्दशासु
च ॥ ३॥
इति शनैश्चरस्तोत्रम् ।
शनिभार्या एवम् शनिस्तोत्रम्
शनिभार्या एवम् शनिस्तोत्रम्
यः पुरा राज्यभ्रष्टाय नलाय प्रददो
किल ।
स्वप्ने शौरिः स्वयं मन्त्रं
सर्वकामफलप्रदम् ॥ १॥
क्रोडं नीलाञ्जनप्रख्यं
नीलजीमूतसन्निभम् ।
छायामार्तण्डसम्भूतं नमस्यामि
शनैश्चरम् ॥ २॥
ॐ नमोऽर्कपुत्राय शनैश्चराय
नीहारवर्णाञ्जननीलकाय ।
स्मृत्वा रहस्यं भुवि मानुषत्वे
फलप्रदो मे भव सूर्यपुत्र ॥ ३॥
नमोऽस्तु प्रेतराजाय कृष्णवर्णाय ते
नमः ।
शनैश्चराय क्रूराय
सिद्धिबुद्धिप्रदायिने ॥ ४॥
य एभिर्नामभिः स्तौति तस्य तुष्टो
भवाम्यहम् ।
मामकानां भयं तस्य स्वप्नेष्वपि न
जायते ॥ ५॥
गार्गेय कौशिकस्यापि पिप्पलादो
महामुनिः ।
शनैश्चरकृता पीडा न भवति कदाचन ॥ ६॥
क्रोडस्तु पिङ्गलो बभ्रुः कृष्णो
रौद्रोऽन्तको यमः ।
शौरिः शनैश्चरो मन्दः पिप्पलादेन
संयुतः ॥ ७॥
एतानि शनिनामानि प्रातरुत्थाय यः
पठेत् ।
तस्य शौरेः कृता पीडा न भवति कदाचन
॥ ८॥
ध्वजनी धामनी चैव कङ्काली कलहप्रिया
।
कलही कण्टकी चापि अजा महिषी
तुरङ्गमा ॥ ९॥
नामानि शनिभार्याया नित्यं जपति यः
पुमान् ।
तस्य दुःखा विनश्यन्ति सुखसौभाग्यं
वर्धते ॥ १०॥
इति ।
शनिस्तोत्रम्
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकंठनिभाय च।
नम: कालाग्रिरूपाय कृतान्ताय च वै
नम:॥
नमो निर्मासदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय
च।
नमो: विशालनेत्राय शुष्कोदर
भयाकृते॥
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे च वै
पुन:।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदष्ट्रं
नमोस्तुते॥
नमस्ते कोटरक्षाय दुर्निरीक्ष्याय
वै नम:।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने॥
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख
नमोस्तुते।
सूर्यपुत्र नमस्तेस्तु
भास्करेअभयदाय च॥
अधोदृष्टे नमस्तेस्तु संवर्तक
नमोस्तुते।
नमो मंदगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय
नमोस्तुते॥
ज्ञान चक्षुर्नमस्तेस्तु
कश्पात्मजसूनवे।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रूष्टो हरिस
तत्क्षणात्॥
शनिस्तोत्रम् समाप्त ॥
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