शनिस्तोत्र
इस शनिस्तोत्र का पाठ करके राजा
दशरथ ने शनिदेव को प्रसन्न किया था और उनकी कृपा प्राप्त की थी। अतः भगवान शनिदेव
के प्रकोप से बचने व उन्हें प्रसन्न करने हेतु नित्य अथवा प्रत्येक शनिवार को इस स्तोत्र
का पाठ करना चाहिए। क्योंकि न्यायमूर्ति शनि भक्तों का कभी अहित नहीं होने देता।
ढय्यै या साढ़ेशाती का समय चलने पर शनि भक्तों को अग्नि में तपे सोने जैसा कुंदन
बना देता है और वह अपने भक्तों की मनोकामना को पूर्ण करते हैं।
शनिस्तोत्रम्
Shani stotram
दशरथकृतं श्रीशनिस्तोत्रम्
शनिस्तोत्र
शनि स्तोत्र
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च
।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै
नम:॥१ ॥
जिनका शरीर भगवान शंकर के समान
कृष्ण तथा नीले रंग का है। उन शनि देव को मेरा प्रणाम है। इस सम्पूर्ण संसार के
लिए कालाग्नि तथा कृतांत रूप श्री शनैश्चर को मेरा पुनः पुनः प्रणाम है।
नमो निर्मांस देहाय
दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ॥२
॥
जिनका शरीर कंकाल के समान मांस-हीन
एवं जटाएं व दाढ़ी-मूंछ बड़ी हुई है। उन शनिदेव को मेरा प्रणाम है। जिनके नेत्र
बड़े-बड़े,
पीठ से सटा हुआ पेट एवं भयानक आकार वाले भगवान शनि देव को मेरा प्रणाम
है।
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै
नम:।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र
नमोऽस्तु ते ॥३ ॥
जिनका शरीर दीर्घ है,
रोएँ मोटे है, जो लम्बे-चौड़े लेकिन जर्जर शरीर
वाले है एवं जिनकी दाढे कालरूप है। उन भगवान शनि देव को मेरा पुनः पुनः प्रणाम है।
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय
वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ॥४
॥
हे भगवान शनि देव ! आपके नयन कोटर
की भांति गहरे है, आपकी ओर देखना बहुत
ही कठिन है, आपका रूप भीषण, रौद्र तथा
बहुत ही विकराल है। आपको मेरा प्रणाम है।
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु
ते ।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु
भास्करेऽभयदाय च ॥५॥
अभय प्रदान करने वाले देवता,
भास्कर पुत्र, सूर्यनंदन, आप सब कुछ भक्षण करने वाले है। ऐसे भगवान शनि देव को मेरा प्रणाम है।
अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक
नमोऽस्तु ते ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय
नमोऽस्तुते ॥६ ॥
आपकी दृष्टि अधोमुखी है,
आप मंद गति से चलने वाले एवं जिसका प्रतीक तलवार के समान है। उन
भगवान शनि देव को मेरा पुनः पुनः प्रणाम है।
तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च
वै नम:॥७ ॥
आपने तपस्या के माध्यम से अपने शरीर
को दग्ध कर लिया है, आप हमेशा योगाभ्यास
में तत्पर, भूख से आतुर व अतृप्त रहते है। आपको सदा मेरा
प्रणाम है।
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु
कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि
तत्क्षणात् ॥८ ॥
जिनके नेत्र ही ज्ञान है,
काश्यपनंदन सूर्य पुत्र शनि देव को मेरा प्रणाम है। आप जिस व्यक्ति
से संतुष्ट हो उसे राज्य दे देते है एवं रुष्ट होने पर उसे क्षीण भी लेते है।
देवासुरमनुष्याश्च
सिद्ध-विद्याधरोरगा: ।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति
समूलत: ॥९॥
मनुष्य,
देवता, असुर, विद्याधर,
सिद्ध एवं नाग – यह सब आपकी दृष्टि पड़ने मात्र
से ही नष्ट हो जाते है। ऐसे भगवान शनि देव को मेरा प्रणाम है।
प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव
भास्करे ।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो
महाबल: ॥१० ॥
आप मुझ पर प्रसन्न होए। मैं वर पाने
के योग्य हूँ तथा आपकी शरण में आया हूँ।
॥ इति श्री शनि स्तोत्र सम्पूर्णम् ॥

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