दशरथ कृत शनि स्तोत्र
दशरथ कृत शनि स्तोत्र जातकों के हर
प्रकार के कष्टों को दूर करने वाला है। यह स्तोत्र मानसिक अशांति,
पारिवारिक कलह व दांपत्य कलह मिटाने में समर्थ है। यदि इस स्तोत्र
का २१ बार प्रति शनिवार को लगातार ७ शनिवार को पाठ किया जाये साथ ही शनिदेव का
तैलाभिषेक से पूजन किया जाए तो निश्चय ही इन बाधाओं से मुक्ति मिलती है।
श्री शनिस्तोत्रम् दशरथकृतं
‘‘तुष्टोददाति
वैराज्य रुष्टो हरति तत्क्षणात्’’ धन्य है शनिदेव। शिव का
आशीर्वाद प्राप्त कर स्वयं भी आशुतोष बन गये। प्रस्तुत स्तोत्र ज्वलंत उदाहरण है।
राजा दशरथ शनि से युद्ध करने उनके पास गये थे, किन्तु धन्य
है शनिदेव - जिसने शत्रु को मनचाहा वरदान देकर सेवक बना लिया। विशेष कहने की
आवश्यकता नहीं, स्वयं शनि स्तोत्र ही इसका प्रमाण है। अत:
इसका स्तवन, श्रवण से लाभान्वित हो स्वयं को कृतार्थ करना
चाहिए।
श्री शनि स्तोत्रं
शनि का प्रकोप शान्त करने के लिए
पुराणों में एक कथा भी मिलती है कि महाराजा दशरथ के राज्यकाल में उनके ज्योतिषियों
ने उन्हें बताया कि महाराज, शनिदेव
रोहिणी नक्षत्र को भेदन करने वाले हैं। जब भी शनिदेव रोहिणी नक्षत्र का भेदन करते
हैं तो उस राज्य में पूरे बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होती है और अकाल पड़ जाता है।
इससे प्रजा का जीवित बच पाना असम्भव हो जाता है। महाराज दशरथ को जब यह बात ज्ञात
हुई तब वह नक्षत्र मंडल में अपने विशेष रथ द्वारा आकाश मार्ग से शनि का सामना करने
के लिए पहुँच गये।
शनिदेव महाराज दशरथ का अदम्य साहस
देखकर बहुत प्रसन्न हुए और वरदन मांगने के लिए कहा। शनिदेव को प्रसन्न देख महाराज
दशरथ ने उनकी स्तुति की और कहा कि हे शनिदेव! प्रजा के कल्याण हेतु आप रोहिणी
नक्षत्र का भेदन न करें। शनि महाराज प्रसन्न थे और उन्होंने तुरन्त उन्हें वचन
दिया कि उनकी पूजा पर उनके रोहिणी भेदन का दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा और उसके साथ यह
भी कहा कि जो व्यक्ति आप द्वारा किये गये इस शनि स्तोत्र से मेरी स्तुति करेंगे,
उन पर भी मेरा अशुभ प्रभाव कभी नहीं पड़ेगा।
दशरथ कृत् शनिस्तोत्रम्
श्री गणेशाय नम:।
विनियोग :
ॐ अस्य श्री शनि स्तोत्रमन्त्रस्य,
कश्यपऋषिस्त्रिष्टुप्छन्द:, सौरिर्देवता,
रां बीजम्, नि:शक्ति, कृष्णवर्णेति
कीलकम्, धमार्थ, काम-मोक्षात्मक-चतुर्विध-पुरुषार्थसिद्धहर्थे
जपे विनियोग:।
अपने दाहिने हाथ में जल लेकर पूजा
के समय ‘अस्य श्री शनिस्तोत्रमन्त्रस्य से
जपे विनियोग:’
तक पढक़र जल छोड़ दें। फिर न्यास करें।
अथ न्यास:
करन्यास
शनैश्चराय अङ्गुष्ठाभ्यां नम: ।
मन्दगतये तर्जनीभ्यां नम: ।।१।।
करन्यास (योग मुद्राओं से नमन) - भगवान
शनि को देनों अंगुष्ठों की मुद्रा से नमस्कार है। दोनों तर्जनी से मन्दगतिरूप शनि
को नमस्कार है।
अथोक्षजाय मध्यमाभ्यां नम: ।
कृष्णाङ्गाय अनामिकाभ्यां नम: ।।२।।
दोनों मध्यमाओं से उक्षज रूप शनि को
नमस्कार है। दोनों अनामिकाओं से कृष्णांग (शनि) को नमस्कार है।
शुष्कोदराय कनिष्ठिकाभ्यां नम:।
छायात्मजाय करतलकरपृष्ठाभ्यां
नम:।।३।।
दोनों कनिष्ठिकाओं से शुष्कोदर उन
प्रभु को नमस्कार है तथा दोनों करतलों से और करपृष्ठों से उन छायापुत्र देव को
नमस्कार है।
हृदयादिन्यास:-
शनैश्चराय हृदयाय नम: ।
मन्दगतये नम: शिरसे स्वाहा ।।
अधोक्षजाय नम: शिखायै वौषट् ।
कृष्णाङ्गाय कवचाय हुं ।
शुष्कोदराय नेत्रत्रयाय वौषट् ।
छायात्मजाय नम: अस्त्राय फट्।।
इसी प्रकार हृदयविन्यास भी करें -
‘शनैश्चराय हृदयाय नम:’ से हृदय,
‘मन्दगतये शिरसे स्वाहा’ से सिर,
‘अधोक्षजाय शिखायै वषट’ से शिखा,
‘कृष्णांगाय कवचाय हुं’ से दोनों हाथों का
स्पर्श करें व ‘शुष्कोदराय नेत्रत्रयाय वौषट्’
से दोनों आंखों और मस्तक के बीच को छुएं।
‘छायात्मजाय अस्त्राय
फट्’ बोलकर दोनों हाथों से ताली बजायें।
दिग्बन्धनम् -
ॐ भुर्भुव: स्व:,
इति दिग्बन्धनम् ।
इस मन्त्र को पांच बार पढक़र
दिग्बन्धन करना चाहिए। और सामने, दायें,
पीछे, बायें, ऊपर,
नीचे जल छिडक़ें।
ध्यानम्-
नीलद्युतिं शूलधरं किरीटिनं
गृध्रस्थितं त्रासकरं धनुर्धरम् ।
चतुर्भुजं सूर्यसुतं प्रशान्तं
वन्दे सदाऽभीष्टकरं वरेण्यम् ।।१।।
ध्यान - नीलद्युति वाले,
शूलधारी, किरीटधारी, गृध्र
स्थित, त्रासकारी, और धनुर्धर, चतुर्भुजी, सूर्यपुत्र, शान्त
स्वरूप, सत् अभीष्टकारक तथा वर देने योग्य (उन श्री शनि को)
मैं नमन करता हूं।
प्रणम्य देवदेवेशं सर्वग्रह
निवारणम् ।
शनैश्चर प्रसादार्थचिन्तयामास
पार्थिव: ।।२।।
देवों के भी देव तथा सब ग्रहों के
निवारक शिव जी को प्रणाम कर उन शनिदेव की प्रसन्नता हेतु राजा ने चिन्तन किया।
शनि स्तोत्रं
रघुवंशेषु विख्यातो राजा दशरथ: पुरा
।
चक्रवर्ती च यज्ञेय:
सप्तद्वीपाधिपोऽभवत् ।।३।।
रघुवंश में दशरथ नाम के विख्यात
राजा प्राचीन काल में हुए हैं। वे सातों द्वीपों के स्वामी चक्रवर्ती सम्राट हुए
हैं।
कृतिकान्तेशनिंज्ञात्वा
दैवज्ञैंज्र्ञापितो हि स:।
रोहिणीं भेदयित्वातु शनिर्यास्यिति
साम्प्रतं ।।४।।
विद्वान ज्योतिर्विदों से यह जानकर
कि शनि इस समय कृतिका के अन्त में हैं और राहिणी को भेदन करने जा रहा है।
शकटं मेधमित्युक्तं
सुराऽसुरभयङ्करम् ।
द्वादशाब्दंतु दुर्भिज्ञे भविष्यति
सुदारूणम् ।।५।।
वे शकट मेध इस नाम से भी कहे गये
हैं,
देव व असुरों को भी वे भय प्रधान करने वाले हैं। बारह वर्ष तक भयंकर
अकाल करने वाले होंगे।
एतच्छ्रुत्वातुतद्वाक्यंमन्त्रिंभि:
सह पार्थिव:।
व्याकुलंचजगद्दृष्टवा पौर
जानपदादिकम् ।।६।।
इस प्रकार उनके वाक्य सुनकर
सम्पूर्ण जगत्, नगर वासियों, मांडलिकों को व्याकुल देखकर राजा ने मंत्रियों के साथ (विचारा)।
बु्रवन्तिसर्वलोकाश्च
भयमेतत्समागतम् ।
देशाश्चनगरग्रामा: भयभीता: समागता:
।।७।।
‘यह अत्यधिक भय की बात है’
लोग ऐसा कह रहें हैं। देश, नगर और ग्राम सब
भयभीत होकर आये हैं।
पप्रच्छ प्रयतोराजा वसिष्ठप्रमुखान्
द्विजान् ।
समाधानं किमत्राऽस्ति ब्रूहिमे
द्विजसत्तमा: ।।८।।
वशिष्ठ सदृश प्रमुख द्विजों के पास
राजा गये और पूछा - हे मुनिश्रेष्ठ ! इसका समाधन क्या है?
वशिष्ठ उवाच -
प्रजापत्ये तु नक्षत्रे तस्मिन्
भिन्नेकुत: प्रजा: ।
अयं योगोऽध्यवसायश्च ब्रह्मा
शक्रादिभि: सुरै: ।।९।।
वशिष्ठ बोले - उस प्रजापति (रोहिणी)
नक्षत्र के भिन्न (विपरीत) हो जाने पर प्रजा (का कल्याण) कहां?
यह तो ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं द्वारा योग
साध्य कर्म के ही आश्रित हैं।
तदा सञ्चिन्त्य मनसा साहसं परमं ययौ
।
समाधाय धनुर्दिव्यं
दिव्यायुधसमन्वितं ।।१०।।
तब मन में निश्चय कर दिव्य आयुधों
से समन्वित दिव्य धनुष को लेकर उन्होंने परम साहस किया।
रथमारुह्य वेगेन गतो नक्षत्रमण्डलम्
।
त्रिलक्षयोजनं स्थानं
चन्द्रस्योपरिसंस्थितम् ।।११।।
रथ पर चढक़र वेग से नक्षत्र मण्डल
में गये और तीन लाख योजन ऊपर चन्द्र के ऊपर स्थित हो गये।
रोहिणीपृष्ठमासाद्य स्थितो राजा
महाबल: ।
रथकेतुकाञ्चने दिव्ये
मणिनातद्द्विभूषिते ।।१२।।
रोहिणी के पीठ पर बैठकर मणियों से
विभूषित दिव्य सुवर्णमय रथ की ध्वजा वाले महाबलशाली राजा स्थित हो गये।
हसंवर्णहयैर्युक्ते महाकेतु
समुबिच्छ्रते ।
दीप्तमानो महारत्नै: किरीटमुकुटोज्वलै:
।।१३।।
व्यराजच्च तदाकाशे द्वितीय इव
भास्कर: ।
आकर्णचापामाकृष्य सहस्रां नियोजितं ।।१४।।
हंस वर्ण के अश्वों से युक्त,
ऊपर उठी महान् ध्वजा वाले महान् रत्नों से चमकीले, और उज्जवल किरीट मुकुटों से (युक्त राजा दशरथ) द्वितीय सूर्य के समान आकाश
में विराजित हुए। (उन्होंने) सहस्रा को रखकर धनुष को कान तक खींचा।
कृतिकान्तं शनिज्र्ञात्वा
प्रविशतांच रोहिणीम् ।
दृष्ट्वा दशरथंचाग्रे तस्थौतु
भृकुटामुख: ।।१५।।
शनि कृतिका के अन्त को जानकर और
रोहिणी को प्रविष्ट हुई तथा दशरथ को उग्र देखकर टेढ़ी दृष्टि कर ठहर गये।
सहस्त्रास्त्रां शनिर्दृष्टवा,सुराऽसुरनिषूदनम् ।
प्रहस्य चभयात् सौरिरिदं
वचनमब्रवीत् ।।१६।।
शनिदेव ने दशरथ के सहस्त्र अस्त्रों
को देख पीडि़त होने वाले देवों व असुरों को भयभीत देखकर हँसकर यह वचन कहा।
शनिरुवाच-
पौरुषं तव राजेन्द्र ! मया दृष्टं न
कस्यचित् ।
देवासुरामनुष्याश्च
सिद्ध-विद्याधरोरगा: ।।१७।।
मयाविलोकिता: सर्वेभयं ‘गच्छन्ति तत्क्षणात् ।
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र!
तपसापौरुषेण च ।।१८।।
शनिदेव बोले - हे राजेन्द्र !
तुम्हारे जैसा पौरुष (पराक्रम) मैंने किसी में नहीं देखा है। देव,
असुर, मनुष्य, सिद्ध,
विद्याधर आदि जितने भी हैं, वे सभी मुझे देखते
ही तत्क्षण भयभीत हो जाते हैं। हे राजन् ! मैं आपके तप और पौरुष से सन्तुष्ट हूँ।
वरं बू्रहि प्रदस्यामि स्वेच्छया
रघुनन्दन ।
हे रघु नन्दन ! (आप) स्वेच्छा से
बतायें मैं आपको (क्या) वर दूँ।
दशरथ उवाच-
प्रसन्नोयदि मे सौरे ! एकश्चास्तु
वर: पर: ।।१९।।
दशरथ बोले- हे सौर स्वामिन् ! यदि
आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो एक ही वर दें वही श्रेष्ठ है।
रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं
कदचन ।
सरित: सागरा
यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी ।।२०।।
तो कभी भी रोहिणी को भेदकर न जायें।
जब तक नदी, सागर, सूर्य,
चन्द्र और पृथ्वी हैं।
याचितं तु महासौरे !
नान्यमिच्छाम्यहं परम् ।
एवमस्तुशनि प्रोक्तं वरंलब्धवा तु
शाश्वतम् ।।२१।।
प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा
।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरय
सुब्रत ।।२२।।
हे महासौरिन् ! मैंने जो याचना की
है इससे बढक़र अन्य कुछ मैं नहीं मांगना चाहता हूं। तब शनि देव के एवमस्तु कहने पर
दशरथ उनसे यह शाश्वत वर प्राप्त कर कृतकृत्य हो गये। तब पुन: सन्तुष्ट होकर शनि ने
कहा कि हे सुव्रती राजन् ! अन्य वर और मांग लो।
प्रार्थयामास हृष्टात्मा वरमन्यं
शनिं तदा ।
नभेत्तव्यं न भेत्तव्यं त्वया
भास्करनन्दन ।।२३।।
तब भगवान् शनि को अन्य वरदायक जान
कर राजा ने प्रार्थना की - हे भास्कर नन्दन ! आपसे हम भयभीत न हों कभी भयभीत न
हों।
द्वादशाब्दं तुं दुर्भिक्षं न
कर्तव्यं कदाचन ।
कीर्तिरेषामदीयां च त्रैलोक्ये
स्थापय प्रभो ।।२४।।
हे प्रभो ! बारह वर्षो का दुर्भिक्ष
(अकाल) कभी न हो। तीनों लोकों में मेरी इस कीर्ति की स्थापना करें।
एवं वरं तु संप्राप्य हृष्टरोमा स
पार्थिव: ।
रथोपरिधनु: स्थाप्यभूत्वा चैव
कृताञ्जलि: ।।२५।।
इस प्रकार वर प्राप्त कर प्रसन्न
चित्त होकर उस राजा ने रथ के ऊपर धनुष रख दिया और दोनों हाथ जोड़ कर।
ध्यात्वा सरस्वतीं देवीं गणनाथं
विनायकम् ।
राजादशरथ: स्तोत्रं
सौरेरिदमथाऽकरोत् ।।२६।।
(इस प्रकार) सरस्वती देवी को और
विनायक गणेश जी को ध्यान कर राजा दशरथ ने शनिदेव की यह स्तुति की।
दशरथ कृतं श्रीशनिस्तोत्रम्
।। अथ श्री शनि स्तोत्रम् ।।
दशरथ उवाच
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च ।
नम: सुरूपगात्राय स्थूलरोमे नमो नम:
।।२७।।
दशरथ बोले - हे कृष्ण,
नील वर्ण वाले, मोर कण्ठ की आभा वाले आपको
नमस्कार है। सुन्दर शरीर और स्थूलरोम वाले आपको नमस्कार है।
नमोनित्यं क्षुधात्र्ताय अतृप्ताय च
वै नम: ।
नम: कालाग्निरूपायकृष्णाङ्गाय च वै
नम: ।।२८।।
सदा क्षुधाकुल अतृप्त रहने वाले
आपको नमस्कार है। साक्षात् कालाग्नि रूप तथा कृष्णांग आपको नमस्कार है।
नमोदीर्घाय शुष्काय कालदृष्टे नमो
नम: ।
नमोऽस्तुकोटराक्षाय दुर्भिक्षाय
कपालिने ।।२९।।
सबसे दीर्घ,
शुष्क, कालदृष्टि आपको नमस्कार है। कोटराक्षी,
दुर्भिक्ष, कपाली नाम वाले आपको नमस्कार है।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ।
नमो मन्दते ! रौद्र भानुज !
भयदायिने ।।३०।।
घोर, रूद्र, भीषण, कपाली आपको नमन
है। हे मन्दगामी!हे रूद्र! हे सूर्य पुत्र! हे भयदता! आपको नमस्कार है।
अधोदृष्टे! नमस्तेऽस्तु संवर्तकभयाय
च ।
तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च
।।३१।।
हे अधोदृष्टे ! हे संवर्तक ! हे
भयानक ! आपको नमस्कार है। तप से दग्ध शरीर वाले और नित्य योग में रत आपको नमस्कार
है।
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेतु
कश्यपात्मजसूनवे ।
तुष्टो ददासिवै राज्यं रूष्टोहरसि
तत्क्षणात् ।।३२।।
हे ज्ञाननेत्र! हे कश्यप के पौत्र!
यदि आप तुष्ट होते हैं तो राज्य प्रदान करते हैं और यदि रुष्ट होते हैं तो उसी
क्षण (राज्य) हरण करते हैं।
सूर्यपुत्र ! नमस्तेऽस्तु
सर्वभक्षाय वै नम: ।
देवा-ऽसुर-मनुष्याश्च
पशु-पक्षि-सरीसृप: ।।३३।।
हे सर्वभक्षी सूर्यपुत्र,
आपको नमस्कार है। संसार में देव, असुर,
मनुष्य, पशु, पक्षी,
सरीसृप (साँप आदि)।
त्वया विलोकिता: सर्वे
देवाचाशुव्रजन्तिते ।
ब्रह्माशक्रोहरिश्चैव ऋषय:
सप्ततारका: ।।३४।।
सब देवता और ब्रह्मा,
इन्द्र, हरि (विष्णु), ऋषिगण
और सातों नक्षत्र समूह (ध्रुव आदि) आपके देखते ही चले जाते हैं।
राज्यभ्रष्टा:
पतन्त्येयेत्वयादृष्ट्यावलोकिता ।
देशाश्चनगरग्रामा
द्वीपाश्चैवतथाद्रुमा: ।।३५।।
आपके नेत्र दर्शन से राज्य भ्रष्ट
हो पतन को प्राप्त होते हैं। देश, ग्राम,
नगर, द्वीप आदि सब (आपसे दृष्ट हैं)।
त्वयाविलोकिता सर्वे विनश्यन्ति समूलत:
।
प्रसादं कुर हे सौरे ! वरदे भव
भानुज ।।३६।।
आपके देखते ही सभी समूल विनष्ट हो
जाते हैं। हे सौरे (शने), कृपा करो। हे
भानुपुत्र, आशीर्वाद दो।
दशरथ कृत शनि स्तोत्र महात्म्य
एवं स्तुतस्तद सौरि: स: राजो महाबल:
।
अब्रवीच्च शनिर्वाक्यं हृष्टरोमा च
पार्थिव: ।।३७।।
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र !
स्तोत्रेणाऽनेन सुव्रत ।
एवं वरं दास्यामि यत्ते मनसि वर्तते
।।३८।।
इस प्रकार शनि भगवान् की स्तुति की
महापराक्रमी राजा (ऐसा) और पुलकायमान होकर शनि ने कहा - हे राजेन्द्र मैं आपके इस
स्तोत्र से प्रसन्न हूँ। मैं ऐसा वर तुम्हें दे रहा हूँ जैसा तुम्हारे मन में है।
दशरथ उवाच
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि
ममेप्सितम् ।
अद्य प्रभृतिपिंगाक्ष ! पीडादेया न
कस्यचित् ।।३९।।
दशरथ ने कहा - हे सौरनेमि! यदि आप
प्रसन्न हैं, तो मुझे इच्छित वर प्रधान करें।
हे पिंगाक्ष! आज से लेकर आप किसी को भी पीड़ा न दिया करें।
प्रसादं कुरू मे सोरे! वरोऽयं मे
मयेसिप्त: ।
हे सौरिन्! मुझ पर कृपा करें। यह
मेरा अभीष्ट वर है।
शनिरुवाच
अदेयस्तु वरोयुस्मत् तुष्टोऽहं च
ददामि ते ।।४०।।
राजन् ! यह अदेय वर होते हुए भी मैं
आपसे प्रसन्न हूं और तुम्हें यह वर दे रहा हूं।
त्वयाप्रोक्तं च मे स्तोत्रं ये
पठिष्यन्तिमानवा: ।
देवासुर मनुष्याश्चसिद्ध
विद्याधरोरगा: ।।४१।।
तुमने जो मेरा स्तोत्र कहा है,
जो भी मनुष्य उसे पढ़ेंगे तथा देव, असुर,
मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर
जो भी है।
न तेषां बाधते पीड़ा मत्कृता वै
कदाचन ।
मृत्यु स्थानचतुर्थेवाजन्म-व्यय-द्वितीयगे
।।४२।।
(जन्म कुन्डली में) मृत्यु स्थान
अष्टम भाव, चतुर्थ भाव, लग्न, व्यय या द्वितीय स्थान में उन सबको (इसे पढऩे
पर) कभी भी मेरे द्वारा पीड़ा नहीं होगी।
गोचरे जन्मकाले वा दशास्वन्तर्दशासु
च ।
य: पठेद् द्वि-त्रिसन्ध्यां वा
शुचिर्भूत्वासमाहित: ।।४३।।
न तस्य जायते पीडा कृता वै
ममनिश्चितम् ।
प्रतिमां लोहजां कृत्वा मम राजन्
चतुर्थजाम् ।।४४।।
वरदांच धनु: शूल बाणांकितकरांशुभाम्
।
अयुतमेकजप्यं च तद्दशांशेन होमत: ।।४५।।
कृष्णैस्तिलै: शमीपत्रैघृतनीलपंकजै:
।
पायसंशर्करायुक्तं घृतमिश्रं च
होमयेत् ।।४६।।
(इस कुण्डली की स्थिति में) गोचर
में,
लग्न में दशा, अन्तर्दशाओं में जो भी दोनों या
तीनों सन्धिकालों (प्रात:, मध्याह्न, सायं)
में पवित्र होकर इसे पढ़ेगा, उसे किसी प्रकार की पीड़ा मेरे
द्वारा नहीं होगी, यह निश्चित है। हे राजन्! वरमुद्रा युक्त,
धनुष शूल, बाण से अंकित शोभित चार भुजा वाली
मेरी लौह प्रतिमा को बनवाकर दस सह जप कर उसके दशांश काले तिलों, शमी पत्रों, घृत और नील पुष्पों, शर्करा युक्त खीर तथा घृत मिश्रित शाकल्य से होम करना चाहिये।
ब्राह्मणान् भोजयेत्तत्र
स्वशक्त्याघृत पायसै: ।
तैले वा तिलराशौ वा प्रत्यक्षं
चयथाविधि ।।४७।।
बाद में अपनी शक्ति के अनुसार
ब्राह्मणों को घृत, खीर तथा तेल व तिल
से बने पदार्थों का भोजन कराना चाहिये।
पूजनं चैव मन्त्रेण कुकुंमंच
विलेपयेत् ।
नील्यावाकृष्णतुलसी शमीपत्रादिभि:
शुभै: ।।४८।।
ददन्मे प्रीतये यस्तुकृष्णवादिंक
शुभम् ।
धेनुवृषभंवाऽपि सवत्सां च
पयस्विनीम् ।।४९।।
नीली या कृष्ण तुलसी,
शमी पत्रादि शुभपत्रों, कृष्णवादि को जो मेरी
प्रसन्नता हेतु देता हुआ पूजन करता है। बैल को भी या बछड़े वाली दूध देने वाली
सवत्सा गाय को विशेष-पूजा सहित मुझे समर्पित करता है।
एवं विशेषपूजां य: मद्द्वा कुरूते
नृप ।
मन्त्र द्वारा विशेषेन
स्तोत्रेणानेन पूजयेत् ।।५०।।
पूजयित्वा जपेत्स्तोत्रं भूत्वा चैव
कृतांजलि ।
तस्यपीडां नचैवाहं करिष्यामि कदाचन ।।५१।।
हे राजन्,
इस प्रकार इस मंत्र और स्तोत्र से जो मेरी विशेष पूजा करता है,
उस पुरुष को मैं कभी पीडि़त नहीं करूंगा।
रक्षामि सततं तस्य पीडां
चान्यग्रहस्यच ।
अनेनैव प्रकारेण पीडामुक्तं
जगद्भवेत् ।।५२।।
उसकी और अन्य ग्रह की पीड़ा से मैं
निरन्तर रक्षा करता हूँ। यह जगत् इसी प्रकार से पीड़ा मुक्त हो सकता है।
वरद्वयं तु सम्प्राप्य राजा
दशरथस्तदा ।
मत्वा कृतार्थमात्मनं नमस्कृत्य
शनैश्चरं ।।५३।।
शनैश्चराभ्यनुज्ञातो रथमारूह्य
वीर्यवान् ।
स्वस्थानं च गतो राजा
प्राप्तकामोऽभवत्तदा ।।५४।।
(इस प्रकार) राजा दशरथ ने दो वर
प्राप्त कर स्वयं को कृतार्थ मानकर और शनिदेव को नमन किया फिर उन शनिदेव से आज्ञा
प्राप्त कर रथ पर चढक़र वह पराक्रमी राजा, अपने
स्थान को गया और सिद्ध मनोरथ बन गया।
स्वार्थसिद्धिभवाप्याथ विजयी
सर्वदाऽभवत् ।
कोणस्थ: पिंङ्गलोवभ्रु:
कृष्णोरौद्रान्तको यम: ।।५५।।
सौरि: शनैश्चरौ मन्द:
पिप्पलाश्रयसस्थित: ।
एतानिशनिनामानिजपेदश्वत्थ सन्निधौ ।।५६।।
वह अपना मनोरथ सिद्ध कर सर्वदा विजय
को प्राप्त हुआ। कोणस्थ, पिंगल, बभ्रु, कृष्ण, रौद्र, अन्तक, यम, सौरि, शनैश्चर, मन्द, पिप्पल
आश्रयस्थान के ये सब शनि - नाम हैं जो अश्वत्थ (पीपल) के समीप स्मरण करने चाहिये।
शनैश्चरकृता पीडा न कदापि भविष्यति ।
अल्पमृत्युविनाशाय दु:खस्योद्धारणायच
।।५७।।
स्नातव्यं तिलतैलेन धान्य माषादिकं
तथा ।
लौहं देव च विप्राय सुवर्णेन
समन्वितम् ।।५८।।
अल्प मृत्यु के विनाश के लिए और
दु:ख से उद्धार के लिए तिल तेल लगाकर स्नान करना चाहिये तथा धान्य,
उड़द, लौह और स्वर्ण से समन्वित देव मूर्ति
(शनि) विप्र (ब्राह्मण) को देनी चाहिये। ऐसा करने से उसे शनि की पीड़ा कभी न होगी।
उशनिस्तोत्रं पठेद्यस्तु
श्रृणुयाद्वा समाहित:।
विजयंचार्थकामंचारोग्यं
सुखमवाप्नुयात् ।।५९।।
जो व्यक्ति एकाग्रचित्त समाहित होकर
शनि स्तोत्र का पाठ एवं श्रवण करता है, वह
विजय, अर्थ, काम, आरोग्य और सब प्रकार का सुख प्राप्त करता है।
इति दशरथ कृत श्री शनिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।
(यह शनिस्तोत्र पूर्ण हुआ)

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