शुक्रकवचम्
शुक्रकवचम्- शुक्र नाम उच्चारण में
शुक्ल से मिलता हुआ है जिसका अर्थ है श्वेत या उजला। यह ग्रह भी श्वेत वर्ण का
उज्ज्वल प्रकृति का ही है। यह नाम तृतीय मनु के सप्तऋषियों में से एक वशिष्ठ के
पुत्र मरुत्वत का है। हविर्धन के एक पुत्र भव के अन्तर्गत्त यही मनु भौत्य आते
हैं। उषानस नाम धर्मशास्त्र के रचयिता का भी है।
शुक्र कवि ऋषि के वंशजों की अथर्वन
शाखा के भार्गव ऋषि थे। श्रीमद्देवी भागवत के अनुसार इनकी माँ काव्यमाता थीं।
शुक्र कुछ-कुछ स्त्रीत्व स्वभाव वाला ब्राह्मण ग्रह है। इनका जन्म पार्थिव नामक
वर्ष (साल) में श्रावण शुद्ध अष्टमी को स्वाति नक्षत्र के उदय के समय हुआ था। कई
भारतीय भाषाओं जैसे संस्कृत, तेलुगु,
हिन्दी, मराठी, गुजराती,
ओडिया, बांग्ला, असमिया
एवं कन्नड़ में सप्ताह के छठे दिवस को शुक्रवार कहा जाता है। शुक्र ऋषि अंगिरस के
अधीन शिक्षा एवं वेदाध्ययन हेतु गये, किन्तु अंगिरस द्वारा
अपने पुत्र बृहस्पति का पक्षपात करने से वे व्याकुल हो उठे। तदोपरांत वे ऋषि गौतम
के पास गये और शिक्षा ग्रहण की। बाद में इन्होंने भगवान शिव की कड़ी तपस्या की और
उनसे संजीवनी मंत्र की शिक्षा ली। यह विद्या मृत को भी जीवित कर सकती है। इनका
विवाह प्रियव्रत की पुत्री ऊर्जस्वती से हुआ और चार पुत्र हुए: चंड, अमर्क, त्वस्त्र, धारात्र एवं
एक पुत्री देवयानी।
इस समय तक बृहस्पति देवताओं के गुरु
बन चुके थे। शुक्र की माता का वध कर दिया गया था, क्योंकि उन्होंने कुछ असुरों को शरण दी थी जिन्हें विष्णु ढूंढ रहे थे। इस
कारण से इन्हें विष्णु से घृणा थी। शुक्राचार्य ने असुरों और दैत्यों का गुरु बनना
निश्चित किया और बने। तब इन्होंने दैत्यों को देवताओं पर विजय दिलायी और इन
युद्धों में शुक्र ने मृत-संजीवनी से मृत एवं घायल दैत्यों को पुनर्जीवित कर दिया
था।
शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री अरुजा
अपने आश्रम के निकट एक सरोवर के पास रुकने को कहा जब एक आंधी-तूफ़ान से दण्ड नामक
एक पापग्रस्त राज्य का ध्वंस हो रहा था।
शुक्रकवचम् के पाठ से शुक्र जनित
पीड़ा दूर होता है व धन-दौलत,वैभव-विलाशिता कि प्राप्ति होती है।
शुक्रकवचम्
ॐ अस्य
श्रीशुक्रकवचस्तोत्रमन्त्रस्य भारद्वाज ऋषिः ।
अनुष्टुप्छन्दः । श्रीशुक्रो देवता
।
शुक्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ॥
मृणालकुन्देन्दुपयोजसुप्रभं
पीताम्बरं प्रसृतमक्षमालिनम् ।
समस्तशास्त्रार्थविधिं महान्तं
ध्यायेत्कविं वाञ्छितमर्थसिद्धये ॥ १॥
ॐ शिरो मे भार्गवः पातु भालं पातु
ग्रहाधिपः ।
नेत्रे दैत्यगुरुः पातु श्रोत्रे मे
चन्दनद्युतिः ॥ २॥
पातु मे नासिकां काव्यो वदनं
दैत्यवन्दितः ।
वचनं चोशनाः पातु कण्ठं
श्रीकण्ठभक्तिमान् ॥ ३॥
भुजौ तेजोनिधिः पातु कुक्षिं पातु
मनोव्रजः ।
नाभिं भृगुसुतः पातु मध्यं पातु
महीप्रियः ॥ ४॥
कटिं मे पातु विश्वात्मा ऊरू मे
सुरपूजितः ।
जानुं जाड्यहरः पातु जङ्घे
ज्ञानवतां वरः ॥ ५॥
गुल्फौ गुणनिधिः पातु पातु पादौ
वराम्बरः ।
सर्वाण्यङ्गानि मे पातु
स्वर्णमालापरिष्कृतः ॥ ६॥
य इदं कवचं दिव्यं पठति श्रद्धयान्वितः
।
न तस्य जायते पीडा भार्गवस्य
प्रसादतः ॥ ७॥
॥ इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे शुक्रकवचं सम्पूर्णम् ॥
0 Comments