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कर्मकाण्ड

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ब्राह्मणगीता ५

ब्राह्मणगीता ५

आप पठन व श्रवण कर रहे हैं - भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद ब्राह्मणगीता। पिछले अंक में ब्राह्मणगीता ४ को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता ५ में देवर्षि नारद और देवमत का संवाद एवं उदान के उत्कृष्ट रूप का वर्णन हैं । 

ब्राह्मणगीता ५

ब्राह्मणगीता ५

ब्राह्मण उवाच।

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।

नारदस्य च संवादमृषेर्देवमतस्य च।। 1

देवमत उवाच।

जन्तोः संजायमानस्य किंनु पूर्वं प्रवर्तते।

प्राणोऽपानः समानो वा व्यानो वोदान एव च।। 2

नारद उवाच।

येनायं सृज्यते जन्तुस्ततोऽन्यः पूर्वमेति तम्।

प्राणद्वन्द्वं हि विज्ञेयं तिर्यगूर्ध्वमधश्च यत्।। 3

देवमत उवाच।

केनायं सृज्यते जन्तुः कश्चान्यः पूर्वमेति तम्।

प्राणद्वन्द्वं च मे ब्रूहि तिर्यगूर्ध्वमधश्च यत्।। 4

नारद उवाच।

सङ्कल्पाज्जायते हर्षः शब्दादपि च जायते।

रसात्संजायते चापि रूपादपि च जायते।। 5

`स्पर्शात्संजायते चापि गन्धादपि च जायते।'

शुक्राच्छोणितसंसृष्टात्पूर्वं प्राणः प्रवर्तते।

प्राणेन विकृते शुक्रे ततोऽपानः प्रवर्तते।। 6

शुक्रात्संजायते चापि रसादपि च जायते।

एतद्रूपमुदानस्य हर्षो मिथुनमन्तरा।। 7

कामात्संजायते शुक्रं शुक्रात्संजायते रजः।

समानव्यानजनिते सामान्ये शुक्रशोणिते।। 8

प्राणापानाविदं द्वन्द्वमवाक् चोर्ध्वं च गच्छतः।

व्यानः समानश्चैवोभौ तिर्यग्द्वन्द्वत्वमुच्यते।। 9

अग्निर्वै देवताः सर्वा इति देवस्य शासनात्।

संजायते हि प्राणेषु ज्ञानं बुद्धिसमन्वितम्।। 10

तस्य धूमस्तमोरूपं रजो भस्म सुतेजसः।

सर्वं संजायते तस्य यत्र प्रक्षिप्यते हविः।। 11

हविः समानो व्यानश्च इति यज्ञविदो विदुः।

प्राणापानावाज्यभागौ तयोर्मध्ये हुताशनः।। 12

एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।

निर्द्वन्द्वमिति यत्त्वेतत्तन्मे निगदतः शृणुः।। 13

अहोरात्रमिदं द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।

एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।। 14

`उभे सत्यानृते द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।

एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।।' 15

सच्चासच्चैव तद्द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।

एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।। 16

`उभे शुभाशुभे द्वन्द्वं तयोर्मध्ये हुताशनः।

एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।।' 17

ऊर्ध्वं समानो व्यानश्च व्यस्यते कर्म तेन तत्।

द्वितीयं तु समानेन पुनरेव व्यवस्यते।। 18

शान्त्यर्थं वामदेव्यं च शान्तिर्ब्रह्म सनातनम्।

एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः।। 19

।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि पञ्चविशोऽध्यायः।। 25 ।।

 

ब्राह्मणगीता ५ हिन्दी अनुवाद

ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! इस विषय में देवर्षि नारद और देवमत के संवाद रूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। देवमत ने पूछा- देवर्षे! जब जीव जन्म लेता है, उस समय सबसे पहले उसके शरीर में किसकी प्रवृत्ति होती है? प्राण, अपान, समान, व्यान अथवा उदान की? नारदजी ने कहा- मुने जिस निमित्त कारण से इस जीव की उत्पत्ति होती है, उससे भिन्न दूसरा पदार्थ भी पहले कारण रूप से उपस्थित होता है। वह है प्राणों द्वन्द्व। जो ऊपर (देवलोक), तिर्यक् (मनुष्यलोक) और अधोलोक (पशु आदि) में व्याप्त है, ऐसा समझना चाहिये। देवमत ने पूछा- नारदजी! किस निमित्त कारण से इस जीव की सृष्टि होती है? दूसरा कौन पहले कारण रूप से उपस्थित होता है तथा प्राणों द्वन्द्व क्या है, जो ऊपर, मध्य में और नीचे व्याप्त है? नारदजी ने कहा- मुने! संकल्प से हर्ष उत्पन्न होता है, मनोनुकूल शब्द से, रस से और रूप से भी हर्ष की उत्पत्ति होती है। रज में मिले हुए वीर्य से पहले प्राण आकर उसमें कार्य आरम्भ करता है। उस प्राण से वीर्य में विकार उत्पन्न होने पर फिर अपान की प्रवृत्ति होती है। शुक्र से और रस से भी हर्ष की उत्पत्ति होती है, यह हर्ष ही उदान का रूप है। उक्त कारण और कार्य रूप जो मिथुन है, उन दोनों के बीच में हर्ष व्याप्त होकर स्थित है। प्रवृत्ति के मूलभूत काम से वीर्य उत्पन्न होता है। उससे रज की उत्पत्ति होती है। ये दोनों वीर्य और रज समान और व्यान से उत्पन्न होते हैं। इसलिये सामान्य कहलाते हैं। प्राण और अपान- ये दोनों भी द्वन्द्व हैं। ये नीचे और ऊपर को जाते हैं। व्यान और समान- ये दोनों मध्यगामी द्वन्द्व कहे जाते हैं। अग्रि अर्थात परमात्मा ही सम्पूर्ण देवता हैं। यह वेद उन परमेश्वर की आज्ञा रूप है। उस वेद से ही ब्राह्मण में बुद्धियुक्त ज्ञान उत्पन्न होता है। उस अग्रि का धुआँ तमोमय और भस्म रजोमय है। जिसके निमित्त हविष्य की आहुति दी जाती है, उस अग्रि से (प्रकाश स्वरूप परमेश्वर से) यह सारा जगत् उत्पन्न होता है। यज्ञवेत्ता पुरुष यह जानते हैं कि सत्त्वगुण से समान और व्यान की उत्पत्ति होती है। प्राण और अपान आज्यभाग नामक दो आहुतियों के समान हैं। उनके मध्य भाग में अग्रि की स्थिति है। यही उदान का उत्कृष्ट रूप है, जिसे ब्राह्मण लोग जानते हैं। जो निर्द्वन्द्व कहा गया है, उसे भी बताता हूँ, तुम मेरे मुख से सुनो। ये दिन और रात द्वन्द्व हैं, इनके मध्य भाग में अग्रि हैं। ब्राह्मण लोग इसी को उदान का उत्कृष्ट रूप मानते हैं। सत् और असत्- ये दोनों द्वन्द्व हैं तथा इनके मध्य भाग में अग्रि हैं। ब्राह्मण लोग इसे उदान का परम उत्कृष्ट रूप मानते हैं। ऊर्ध्व अर्थात् ब्रह्म जिस संकल्प नामक हेतु से समान और व्यान रूप होता है, उसी से कर्म का विस्तार होता है। अत: संकल्प को रोकना चाहिये। जाग्रत और स्वप्न के अतिरिक्त जो तीसरी अवस्था है, उससे उपलक्षित ब्रह्म का समान के द्वारा ही निश्चय होता है। एक मात्र व्यान शान्ति के लिये हैं। शान्ति सनातन ब्रह्म है। ब्राह्मण लोग इसी को उदान का परम उत्कृष्ट रूप मानते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में ब्राह्मणगीता ५ विषयक २५वाँ अध्याय पूरा हुआ।

शेष जारी......... ब्राह्मणगीता ६      

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