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कर्मकाण्ड

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हंसगीता २

हंसगीता २

आपने इससे पूर्व में हंसगीता १ पढ़ा जिसे की श्रीमद्भागवतमहापुराण से लिया गया है। एक हंसगीता महाभारत के शान्तिपर्व में पितामह भीष्म एवं धर्मराज युधिष्ठिर की वार्ता के अन्तर्गत भी प्राप्त होती है। इसमें साध्यगणनामक देवताओं को हंसरूपधारी भगवान्द्वारा मोक्षधर्म का तत्त्व समझाया गया है। प्रायः सभी उपदेश सदाचारविषयक तथा सर्वोपयोगी हैं। इसमें सत्यभाषण और इन्द्रियसंयम आदि को ही सार बताकर उन्हें मोक्ष का हेतु बताया गया है। अब यहाँ हंसगीता २ को भी सानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है-

हंसगीता २

हंसगीता २

Hansa geeta 2

हंसगीता - २

श्रीमहाभारत शान्तिपर्व मोक्षधर्मपर्व अध्याय २९९ हंसगीता

हंस गीता २

युधिष्ठिर उवाच ।

सत्यं दमं क्षमां प्रज्ञां प्रशंसन्ति पितामह ।

विद्वांसो मनुजा लोके कथमेतन्मतं तव ॥ १॥

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह ! संसार में बहुत-से विद्वान् सत्य, इन्द्रिय-संयम, क्षमा और प्रज्ञा ( उत्तम बुद्धि) की प्रशंसा करते हैं । इस विषय में आपका कैसा मत है ? ॥ १ ॥

भीष्म उवाच ।

अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम् ।

साध्यानामिह संवादं हंसस्य च युधिष्ठिर ॥ २॥

भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर ! इस विषय में साध्यगणों का हंस के साथ जो संवाद हुआ था, वही प्राचीन इतिहास मैं तुम्हें सुना रहा हूँ ॥ २ ॥

हंसो भूत्वाथ सौवर्णस्त्वजो नित्यः प्रजापतिः ।

स वै पर्येति लोकांस्त्रीनथ साध्यानुपागमत् ॥ ३॥

एक समय नित्य अजन्मा प्रजापति सुवर्णमय हंस का रूप धारण करके तीनों लोकों में विचर रहे थे। घूमते-घामते वे साध्यगणों के पास जा पहुँचे ॥ ३ ॥

साध्या ऊचुः ।

शकुने वयं स्म देवा वै साध्यास्त्वामनुयुज्महे ।

पृच्छामस्त्वां मोक्षधर्मं भवांश्च किल मोक्षवित् ॥ ४॥

उस समय साध्यों ने कहा- हंस! हमलोग साध्य देवता हैं और आपसे मोक्षधर्म के विषय में प्रश्न करना चाहते हैं; क्योंकि आप मोक्ष- तत्त्व के ज्ञाता हैं, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है ॥ ४ ॥

श्रुतोऽसि नः पण्डितो धीरवादी

साधुशब्दश्चरते ते पतत्रिन् ।

किं मन्यसे श्रेष्ठतमं द्विज त्वं

कस्मिन्मनस्ते रमते महात्मन् ॥ ५॥

महात्मन्! हमने सुना है कि आप पण्डित और धीर वक्ता हैं। पतत्रिन्! आपकी उत्तम वाणी का सर्वत्र प्रचार है। पक्षिप्रवर! आपके मत में सर्वश्रेष्ठ वस्तु क्या है? आपका मन किसमें रमता है ? ॥ ५ ॥

तन्नः कार्यं पक्षिवर प्रशाधि

यत्कर्मणां मन्यसे श्रेष्ठमेकम् ।

यत्कृत्वा वै पुरुषः सर्वबन्धैर्-

विमुच्यते विहगेन्द्रेह शीघ्रम् ॥ ६॥

पक्षिराज ! खगश्रेष्ठ ! समस्त कार्यों में से जिस एक कार्य को आप सबसे उत्तम समझते हों तथा जिसके करने से जीव को सब प्रकार के बन्धनों से शीघ्र छुटकारा मिल सके, उसी का हमें उपदेश कीजिये ॥ ६ ॥

हंस उवाच ।

इदं कार्यममृताशाः शृणोमि

तपो दमः सत्यमात्माभिगुप्तिः ।

ग्रन्थीन् विमुच्य हृदयस्य सर्वान्

प्रियाप्रिये स्वं वशमानयीत ॥ ७॥

हंस ने कहा - अमृतभोजी देवताओ ! मैं तो सुनता हूँ कि तप, इन्द्रियसंयम, सत्यभाषण और मनोनिग्रह आदि कार्य ही सबसे उत्तम हैं। हृदय की सारी गाँठें खोलकर प्रिय और अप्रिय को अपने वश में करे अर्थात् उनके लिये हर्ष एवं विषाद न करे ॥ ७ ॥

नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी

न हीनतः परमभ्याददीत ।

ययास्य वाचा पर उद्विजेत

न तां वदेद्रुषतीं पापलोक्याम् ॥ ८॥

किसी के मर्म में आघात न पहुँचाये। दूसरों से निष्ठुर वचन न बोले। किसी नीच मनुष्य से अध्यात्मशास्त्र का उपदेश न ग्रहण करे तथा जिसे सुनकर दूसरों को उद्वेग हो, ऐसी नरक में डालनेवाली अमंगलमयी बात भी मुँह से न निकाले ॥८॥

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति

यैराहतः शोचति रात्र्यहानि ।

परस्य नामर्मसु ते पतन्ति

तान् पण्डितो नावसृजेत्परेषु ॥ ९॥

वचनरूपी बाण जब मुँह से निकल पड़ते हैं, तब उनके द्वारा बींधा गया मनुष्य रात-दिन शोक में डूबा रहता है; क्योंकि वे दूसरों के मर्म पर आघात पहुँचाते हैं, इसलिये विद्वान् पुरुष को किसी दूसरे मनुष्य पर वाग्बाण का प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥ ९ ॥

परश्चेदेनमति वादबानैर्-

भृशं विध्येच्छम एवेह कार्यः ।

संरोष्यमाणः प्रतिहृष्यते यः

स आदत्ते सुकृतं वै परस्य ॥ १०॥

दूसरा कोई भी यदि इस विद्वान् पुरुष को कटुवचनरूपी बाणों से बहुत अधिक चोट पहुँचाये तो भी उसे शान्त ही रहना चाहिये । जो दूसरों के क्रोध करने पर भी स्वयं बदले में प्रसन्न ही रहता है, वह उसके पुण्य को ग्रहण कर लेता है ॥१०॥

क्षेपायमाणमभिषङ्गव्यलीकं    

निगृह्णाति ज्वलितं यश्च मन्युम् ।

अदुष्टचेता मुदितोऽनसूयुः

स आदत्ते सुकृतं वै परेषाम् ॥ ११॥

जो जगत् में निन्दा करानेवाले और आवेश में डालने के कारण अप्रिय प्रतीत होनेवाले प्रज्वलित क्रोध को रोक लेता है, चित्त में कोई विकार या दोष नहीं आने देता, प्रसन्न रहता और दूसरों के दोष नहीं देखता है, वह पुरुष अपने प्रति शत्रुभाव रखनेवाले लोगों के पुण्य ले लेता है ॥ ११ ॥

आक्रुश्यमानो न वदामि किंचित्

क्षमाम्यहं ताड्यमानश्च नित्यम् ।

श्रेष्ठं ह्येतत् यत् क्षमामाहुरार्याः

सत्यं तथैवार्जवमानृशंस्यम् ॥ १२॥

मुझे कोई गाली दे तो भी बदले में मैं कुछ नहीं कहता हूँ । कोई मार दे तो उसे सदा क्षमा ही करता हूँ; क्योंकि श्रेष्ठजन क्षमा, सत्य, सरलता और दया को ही उत्तम बताते हैं ॥ १२ ॥

वेदस्योपनिषत्सत्यं सत्यस्योपनिषद्दमः ।

दमस्योपनिषन्मोक्षं एतत्सर्वानुशासनम् ॥ १३॥

वेदाध्ययन का सार है सत्यभाषण, सत्यभाषण का सार है इन्द्रियसंयम और इन्द्रियसंयम का फल है मोक्ष। यही सम्पूर्ण शास्त्रों का उपदेश है ॥ १३ ॥

वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं

विधित्सा वेगमुदरोपस्थ वेगम् ।

एतान् वेगान् यो विषहदुदीर्णांस्तं

मन्येऽहं ब्राह्मणं वै मुनिं च ॥ १४॥

जो वाणी का वेग, मन और क्रोध का वेग, तृष्णा का वेग तथा पेट और जननेन्द्रिय का वेग - इन सब प्रचण्ड वेगों को सह लेता है, उसी को मैं ब्रह्मवेत्ता और मुनि मानता हूँ ॥ १४ ॥

अक्रोधनः क्रुध्यतां वै विशिष्ट

स्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः ।

अमानुषान्मानुषो वै विशिष्ट-

स्तथाज्ञानाज्ज्ञानविद् वै विशिष्ट: ।। १५ ।।

क्रोधी मनुष्यों से क्रोध न करनेवाला मनुष्य श्रेष्ठ है। असहनशील से सहनशील पुरुष बड़ा है। मनुष्येतर प्राणियों से मनुष्य ही बढ़कर है तथा अज्ञानी से ज्ञानवान् ही श्रेष्ठ है ॥ १५ ॥

आक्रुश्यमानो नाक्रुश्येन्मन्युरेनं तितिक्षतः । 

आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति ॥ १६॥

जो दूसरे के द्वारा गाली दी जाने पर भी बदले में उसे गाली नहीं देता, उस क्षमाशील मनुष्य का दबा हुआ क्रोध ही उस गाली देनेवाले को भस्म कर देता है और उसके पुण्य को भी ले लेता है ॥ १६ ॥

यो नात्युक्तः प्राह रूक्षं प्रियं वा

यो वा हतो न प्रतिहन्ति धैर्यात् ।

पापं च यो नेच्छति तस्य हन्तुस्-

तस्येह देवाः स्पृहयन्ति नित्यम् ॥ १७॥ 

जो दूसरों के द्वारा अपने लिये कड़वी बात कही जाने पर भी उसके प्रति कठोर या प्रिय कुछ भी नहीं कहता तथा किसी के द्वारा चोट खाकर भी धैर्य के कारण बदले में न तो मारनेवाले को मारता है और न उसकी बुराई ही चाहता है, उस महात्मा से मिलने के लिये देवता भी सदा लालायित रहते हैं ॥ १७ ॥

पापीयसः क्षमेतैव श्रेयसः सदृशस्य च ।

विमानितो हतोऽऽक्रुष्ट एवं सिद्धिं गमिष्यति ॥ १८॥

पाप करनेवाला अपराधी अवस्था में अपने से बड़ा हो या बराबर, उसके द्वारा अपमानित होकर, मार खाकर और गाली सुनकर भी उसे क्षमा ही कर देना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष परम सिद्धि को प्राप्त होगा ॥ १८ ॥

सदाहमार्यान्निभृतोऽप्युपासे

न मे विधित्सोत्सहते न रोषः । 

न वाप्यहं लिप्समानः परैमि

न चैव किञ्चिद् विषयेण यामि ॥ १९॥

यद्यपि मैं सब प्रकार से परिपूर्ण हूँ (मुझे कुछ जानना या पाना शेष नहीं है) तो भी मैं श्रेष्ठ पुरुषों की उपासना (सत्संग) करता रहता हूँ । मुझ पर न तृष्णा का वश चलता है न रोष का । मैं कुछ पाने के लोभ से धर्म का उल्लंघन नहीं करता और न विषयों की प्राप्ति के लिये ही कहीं आता-जाता हूँ ॥ १९ ॥

नाहं शप्तः प्रतिशपामि किंचिद्

दमं द्वारं ह्यमृतस्येह वेद्मि ।

गुह्यं ब्रह्म तदिदं वा ब्रवीमि

न मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित् ॥ २०॥

कोई मुझे शाप दे दे तो भी मैं बदले में उसे शाप नहीं देता । इन्द्रियसंयम को ही मोक्ष का द्वार मानता हूँ। इस समय तुम लोगों को एक बहुत गुप्त बात बता रहा हूँ, सुनो। मनुष्ययोनि से बढ़कर कोई उत्तम योनि नहीं है ॥ २० ॥

विमुच्यमानः पापेभ्यो धनेभ्य इव चन्द्रमाः ।

विरजाः कालमाकाङ्क्षन् धीरो धैर्येण सिध्यति ॥ २१॥

जिस प्रकार चन्द्रमा बादलों के ओट से निकलने पर अपनी प्रभा से प्रकाशित हो उठता है, उसी प्रकार पापों से मुक्त हुआ निर्मल अन्तःकरणवाला धीर पुरुष धैर्यपूर्वक काल की प्रतीक्षा करता हुआ सिद्धि को प्राप्त हो जाता है ॥ २१ ॥

यः सर्वेषां भवति ह्यर्चनीय

उत्सेधनस्तम्भ इवाभिजातः ।

यस्मै वाचं सुप्रसन्नां वदन्ति 

स वै देवान्गच्छति संयतात्मा ॥ २२॥

जो अपने मन को वश में रखनेवाला विद्वान् पुरुष ऊँचे उठानेवाले खम्भे की भाँति उच्चकुल में उत्पन्न हुआ सबके लिये आदर के योग्य हो जाता है तथा जिसके प्रति सब लोग प्रसन्नतापूर्वक मधुर वचन बोलते हैं, वह मनुष्य देवभाव को प्राप्त हो जाता है ॥ २२ ॥

न तथा वक्तुमिच्छन्ति कल्याणान् पुरुषे गुणान् ।

यथैषां वक्तुमिच्छन्ति नैर्गुण्यमनुयुञ्जकाः ॥ २३॥

किसी से ईर्ष्या रखनेवाले मनुष्य जिस तरह उसके दोषों का वर्णन करना चाहते हैं, उस प्रकार उसके कल्याणमय गुणों का बखान करना नहीं चाहते हैं ॥ २३ ॥

यस्य वाङ्मनसी गुप्ते सम्यक्प्रणिहिते सदा ।

वेदास्तपश्च त्यागश्च स इदं सर्वमाप्नुयात् ॥ २४॥

जिसकी वाणी और मन सुरक्षित होकर सदा सब प्रकार से परमात्मा में लगे रहते हैं, वह वेदाध्ययन, तप और त्याग - इन सबके फल को पा लेता है ॥ २४ ॥

आक्रोशनावमानाभ्यां नाबुधान् बोधयेद् बुधः ।     

तस्मान्न वर्धयेदन्यं न चात्मानं विहिंसयेत् ॥ २५॥

अतः समझदार मनुष्य को चाहिये कि वह कटुवचन कहने या अपमान करनेवाले अज्ञानियों को उनके उक्त दोष बताकर समझाने का प्रयत्न न करे। उसके सामने दूसरे को बढ़ावा न दे तथा उस पर आक्षेप करके उसके द्वारा अपनी हिंसा न कराये ॥ २५ ॥

अमृतस्येव सन्तृप्येदवमानस्य वै द्विजः । 

सुखं ह्यवमतः शेते योऽवमन्ता स नश्यति ॥ २६॥

विद्वान्‌ को चाहिये कि वह अपमान पाकर अमृत पीने की भाँति सन्तुष्ट हो; क्योंकि अपमानित पुरुष तो सुख से सोता है, किंतु अपमान करनेवाले का नाश हो जाता है ॥ २६ ॥

यत्क्रोधनो यजते यद्ददाति

यद्वा तपस्तप्यति यज्जुहोति ।

वैवस्वतस्तद्धरतेऽस्य सर्वं

मोघः श्रमो भवति हि क्रोधनस्य ॥ २७॥

क्रोधी मनुष्य जो यज्ञ करता है, दान देता है, तप करता है अथवा जो हवन करता है, उसके उन सब कर्मों के फल को यमराज हर लेते हैं। क्रोध करनेवाले का वह किया हुआ सारा परिश्रम व्यर्थ जाता है ॥ २७ ॥

चत्वारि यस्य द्वाराणि सुगुप्तान्यमरोत्तमाः ।

उपस्थमुदरं हस्तौ वाक्चतुर्थी स धर्मवित् ॥ २८॥

देवेश्वरो ! जिस पुरुष के उपस्थ, उदर, दोनों हाथ और वाणी- ये चारों द्वार सुरक्षित होते हैं, वही धर्मज्ञ है॥२८॥

सत्यं दमं ह्यार्जवमानृशंस्यं

धृतिं तितिक्षामतिसेवमानः ।

स्वाध्यायनित्योऽस्पृहयन्परेषाम् 

एकान्तशील्यूर्ध्वगतिर्भवेत्सः ॥ २९॥

जो सत्य, इन्द्रियसंयम, सरलता, दया, धैर्य और क्षमा का अधिक सेवन करता है, सदा स्वाध्याय में लगा रहता है, दूसरे की वस्तु नहीं लेना चाहता तथा एकान्त में निवास करता है, वह ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है ॥ २९ ॥

सर्वांश्चैनाननुचरन् वत्सवच्चतुरः स्तनान् ।

न पावनतमं किञ्चित् सत्यादध्यगमं क्वचित् ॥ ३० ॥

जैसे बछड़ा अपनी माता के चारों स्तनों का पान करता है, उसी प्रकार मनुष्य को उपर्युक्त सभी सद्गुणों का सेवन करना चाहिये। मैंने अब तक सत्य से बढ़कर परम पावन वस्तु कहीं किसी को नहीं समझा है ॥ ३० ॥

आचक्षेऽहं मनुष्येभ्यो देवेभ्यः प्रतिसञ्चरन् ।

सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव ॥ ३१॥

मैं चारों ओर घूमकर मनुष्यों और देवताओं से कहा करता हूँ कि जैसे जहाज समुद्र से पार होने का साधन है, उसी प्रकार सत्य ही स्वर्गलोक में पहुँचने की सीढ़ी है ॥ ३१ ॥

यादृशैः संनिवसति यादृशांश्चोपसेवते ।

यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पूरुषः ॥ ३२॥

पुरुष जैसे लोगों के साथ रहता है, जैसे मनुष्यों का सेवन करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही होता है ॥ ३२ ॥

यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं

तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव ।

वासो यथा रङ्गवशं प्रयाति

तथा स तेषां वशमभ्युपैति ॥ ३३॥

जैसे वस्त्र जिस रंग में रंगा जाय, वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, असज्जन, तपस्वी अथवा चोर का सेवन करता है तो वह उन्हीं जैसा हो जाता है अर्थात् उस पर उन्हीं का रंग चढ़ जाता है ॥ ३३ ॥

सदा देवाः साधुभिः संवदन्ते

न मानुषं विषयं यान्ति द्रष्टुम् ।

नेन्दुः समः स्यादसमो हि वायुर्-

उच्चावचं विषयं यः स वेद ॥ ३४॥

देवतालोग सदा सत्पुरुषों का संग – उन्हीं के साथ वार्तालाप करते हैं; इसीलिये वे मनुष्यों के क्षणभंगुर भोगों की ओर देखने भी नहीं जाते। जो विभिन्न विषयों के नश्वर स्वभाव को ठीक-ठीक जानता है, उसकी समानता न चन्द्रमा कर सकते हैं न वायु ॥ ३४ ॥

अदुष्टं वर्तमाने तु हृदयान्तरपूरुषे ।

तेनैव देवाः प्रीयन्ते सतां मार्गस्थितेन वै ॥ ३५॥

हृदयगुफा में रहनेवाला अन्तर्यामी आत्मा जब दोषभाव से रहित हो जाता है, उस अवस्था में उसका साक्षात्कार करनेवाला पुरुष सन्मार्गगामी समझा जाता है। उसकी इस स्थिति से ही देवता प्रसन्न होते हैं ॥ ३५ ॥

शिश्नोदरे ये निरता: सदैव

स्तेना नरा वाक्परुषाश्च नित्यम् ।

अपेतदोषानिति तान् विदित्वा

दूराद्देवाः सम्परिवर्जयन्ति ॥ ३६॥

किंतु जो सदा पेट पालने और उपस्थ- इन्द्रियों के भोग भोगने में लगे रहते हैं तथा जो चोरी करने एवं सदा कठोर वचन बोलनेवाले हैं, वे यदि प्रायश्चित्त आदि के द्वारा उक्त कर्मों के दोष से छूट जायँ तो भी देवतालोग उन्हें पहचानकर दूर से ही त्याग देते हैं ॥ ३६ ॥

न वै देवा हीनसत्त्वेन तोष्याः

सर्वाशिना दुष्कृतकर्मणा वा ।

सत्यव्रता ये तु नराः कृतज्ञा

धर्मे रतास्तैः सह सम्भजन्ते ॥ ३७॥

सत्त्वगुण से रहित और सब कुछ भक्षण करनेवाले पापाचारी मनुष्य देवताओं को सन्तुष्ट नहीं कर सकते। जो मनुष्य नियमपूर्वक सत्य बोलनेवाले, कृतज्ञ और धर्मपरायण हैं, उन्हीं के साथ देवता स्नेह- सम्बन्ध स्थापित करते हैं ॥ ३७ ॥

अव्याहृतं व्याकृताच्छ्रेय आहुः

सत्यं वदेद्व्याहृतं तद्द्वितीयम् ।

धर्मं वदेद्व्याहृतं तत्तृतीयं

प्रियंवदेद्व्याहृतं तच्चतुर्थम् ॥ ३८॥

व्यर्थ बोलने की अपेक्षा मौन रहना अच्छा बताया गया है, (यह वाणी की प्रथम विशेषता है) सत्य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है, प्रिय बोलना वाणी की तीसरी विशेषता है। धर्मसम्मत बोलना यह वाणी की चौथी विशेषता है ( इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठता है) ॥ ३८ ॥

साध्या ऊचुः ।

केनायमावृतो लोकः केन वा न प्रकाशते ।

केन त्यजति मित्राणि केन स्वर्गं न गच्छति ॥ ३९॥

साध्यों ने पूछा- हंस ! इस जगत्को किसने आवृत कर रखा है ? किस कारण से उसका स्वरूप प्रकाशित नहीं होता है ? मनुष्य किस हेतु से मित्रों का त्याग करता है? और किस दोष से वह स्वर्ग में नहीं जाने पाता? ॥३९॥

हंस उवाच ।

अज्ञानेनावृतो लोको मात्सर्यान्न प्रकाशते ।

लोभात्त्यजति मित्राणि सङ्गात्स्वर्गं न गच्छति ॥ ४०॥

हंस ने कहा- देवताओ! अज्ञान ने इस लोक को आवृत कर रखा है। आपस में डाह होने के कारण इसका स्वरूप प्रकाशित नहीं होता। मनुष्य लोभ से मित्रों का त्याग करता है और आसक्तिदोष के कारण वह स्वर्ग में नहीं जाने पाता ॥ ४० ॥

साध्या ऊचुः ।

कः स्विदेको रमते ब्राह्मणानां

कः स्विदेको बहुभिर्जोषमास्ते ।

कः स्विदेको बलवान् दुर्बलोऽपि

कः स्विदेषां कलहं नान्ववैति ॥ ४१॥

साध्यों ने पूछा- हंस ! ब्राह्मणों में कौन एकमात्र सुख का अनुभव करता है? वह कौन ऐसा एक मनुष्य है, जो बहुतों के साथ रहकर भी चुप रहता है? वह कौन एक मनुष्य है, जो दुर्बल होने पर भी बलवान् है तथा इनमें कौन ऐसा है, जो किसी के साथ कलह नहीं करता? ॥ ४१ ॥

हंस उवाच ।

प्राज्ञ एको रमते ब्राह्मणानां

प्राज्ञश्चैको बहुभिर्जोषमास्ते ।

प्राज्ञ एको बलवान् दुर्बलोऽपि

प्राज्ञ एषां कलहं नान्ववैति ॥ ४२॥

हंस ने कहा- देवताओ ! ब्राह्मणों में जो ज्ञानी है, एकमात्र वही परम सुख का अनुभव करता है। ज्ञानी ही बहुतों के साथ रहकर भी मौन रहता है। एकमात्र ज्ञानी दुर्बल होने पर भी बलवान् है और इनमें ज्ञानी ही किसी के साथ कलह नहीं करता है ॥ ४२ ॥

साध्या ऊचुः ।

किं ब्राह्मणानां देवत्वं किं च साधुत्वमुच्यते ।

असाधुत्वं च किं तेषां किमेषां मानुषं मतम् ॥ ४३॥

साध्यों ने पूछा- हंस ! ब्राह्मणों का देवत्व क्या है? उनमें साधुता क्या बतायी जाती है ? उनके भीतर असाधुता और मनुष्यता क्या मानी गयी है? ॥ ४३ ॥

हंस उवाच ।

स्वाध्याय एषां देवत्वं व्रतं साधुत्वमुच्यते ।

असाधुत्वं परीवादो मृत्युर्मानुष्यमुच्यते ॥ ४४॥

हंस ने कहा - साध्यगण ! वेद-शास्त्रों का स्वाध्याय ही ब्राह्मणों का देवत्व है। उत्तम व्रतों का पालन करना ही उनमें साधुता बतायी जाती है। दूसरों की निन्दा करना ही उनकी असाधुता है और मृत्यु को प्राप्त होना ही उनकी मनुष्यता बतायी गयी है ॥ ४४ ॥

भीष्म उवाच

( इत्युक्त्वा परमो देवो भगवान् नित्य अव्ययः ।

साध्यैर्देवगणैः सार्धं दिवमेवारुरोह सः ॥

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर ! ऐसा कहकर नित्य अविनाशी परमदेव भगवान् ब्रह्मा साध्य देवताओं के साथ ही ऊपर स्वर्गलोक की ओर चल दिये।

एतद् यशस्यमायुष्यं पुण्यं स्वर्गाय च ध्रुवम् ।

दर्शितं देवदेवेन परमेणाव्ययेन च ॥ )

सर्वश्रेष्ठ अविनाशी देवाधिदेव ब्रह्माजी के द्वारा प्रकाश में लाया हुआ यह पुण्यमय तत्त्वज्ञान यश और आयु की वृद्धि करनेवाला है। तथा यह स्वर्गलोक की प्राप्ति का निश्चित साधन है।

संवाद इत्ययं श्रेष्ठः साध्यानां परिकीर्तितः ।

क्षेत्रं वै कर्मणां योनिः सद्भावः सत्यमुच्यते ॥ ४५ ॥

युधिष्ठिर ! इस प्रकार साध्यों के साथ जो हंस का संवाद हुआ था, उसका मैंने तुमसे वर्णन किया। यह शरीर ही कर्मों की योनि है और सद्भाव को ही सत्य कहते हैं ।। ४५ ।

॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि हंसगीता सम्पूर्णा ॥

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में हंसगीता २ की समाप्ति विषयक दो सौ निन्याननबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ।

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