गीता माहात्म्य अध्याय १५
इससे पूर्व आपने श्रीमद्भगवद्गीता
के पन्द्रहवां अध्याय पढ़ा। १५वें अध्याय का नाम पुरुषोत्तमयोग है। इसमें विश्व का
अश्वत्थ के रूप में वर्णन किया गया है। यह अश्वत्थ रूपी संसार महान विस्तारवाला
है। देश और काल में इसका कोई अंत नहीं है। किंतु इसका जो मूल या केंद्र है,
जिसे ऊर्ध्व कहते हैं, वह ब्रह्म ही है एक ओर
वह परम तेज, जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है, सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है, दूसरी ओर वही
एक एक चैतन्य केंद्र में या प्राणि शरीर में आया हुआ है। जैसा गीता में स्पष्ट कहा
है-अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: (१५.१४)। वैश्वानर या प्राणमयी
चेतना से बढ़कर और दूसरा रहस्य नहीं है। नर या पुरुष तीन हैं-क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का
नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र
स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है।
अब यहाँ गीता के इस अध्याय १५ का माहात्म्य
अर्थात् इसके पढ़ने सुनने की महिमा के विषय में पढेंगे।
गीता माहात्म्य - अध्याय १५
श्रीमहादेवजी कहते हैं:–
पार्वती! अब गीता के पंद्रहवें अध्याय का माहात्म्य सुनो, गौड़ देश में कृपाण नामक एक राजा था, जिसकी तलवार की
धार से युद्ध में देवता भी परास्त हो जाते थे, उसका
बुद्धिमान सेनापति शस्त्र कलाओं में निपुण था, उसका नाम था
सरभमेरुण्ड, उसकी भुजाओं में प्रचण्ड बल था, एक समय उस पापी ने राजकुमारों सहित महाराज का वध करके स्वयं ही राज्य करने
का विचार किया।
इस निश्चय के कुछ ही दिनों बाद वह
हैजे का शिकार होकर मर गया. थोड़े समय में वह पापात्मा अपने पूर्व कर्म के कारण
सिन्धु देश में एक तेजस्वी घोड़ा हुआ, उसका
पेट सटा हुआ था, घोड़े के लक्षणों का ठीक-ठाक ज्ञान रखने
वाले किसी वैश्य पुत्र ने बहुत सा मूल्य देकर उस अश्व को खरीद लिया और यत्न के साथ
उसे राजधानी तक ले आया, वैश्यकुमार वह अश्व राजा को देने को
लाया था, यद्यपि राजा उस वैश्यकुमार से परिचित था, तथापि द्वारपाल ने जाकर उसके आगमन की सूचना दी।
राजा ने पूछाः- किसलिए आये हो?
तब उसने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया सिन्धु देश में एक उत्तम
लक्षणों से सम्पन्न अश्व था, जिसे तीनों लोकों का एक रत्न
समझकर मैंने बहुत सा मूल्य देकर खरीद लिया है,' राजा ने
आज्ञा दी 'उस अश्व को यहाँ ले आओ,' वास्तव
में वह घोड़ा गुणों में उच्चैःश्रवा के समान था, सुन्दर रूप
का तो मानो घर ही था, शुभ लक्षणों का समुद्र जान पड़ता था,
वैश्य घोड़ा ले आया और राजा ने उसे देखा, अश्व
का लक्षण जानने वाले राजा के मंत्रीयों ने इसकी बड़ी प्रशंसा की।
सुनकर राजा अपार आनन्द में निमग्न
हो गया और उसने वैश्य को मुँह माँगा सुवर्ण देकर तुरन्त ही उस अश्व को खरीद लिया,
कुछ दिनों के बाद एक समय राजा शिकार खेलने के लिए उत्सुक हो उसी
घोड़े पर चढ़कर वन में गया, वहाँ मृगों के पीछे उन्होंने
अपना घोड़ा बढ़ाया, पीछे-पीछे सब ओर से दौड़कर आते हुए समस्त
सैनिकों का साथ छूट गया, वे हिरनों द्वारा आकृष्ट होकर बहुत
दूर निकल गया, प्यास ने उसे व्याकुल कर दिया, तब वे घोड़े से उतर कर जल की खोज करने लगा।
घोड़े को तो उन्होंने वृक्ष के तने
के साथ बाँध दिया और स्वयं एक चट्टान पर चढ़ने लगा, कुछ दूर जाने पर उसने देखा कि एक पत्ते का टुकड़ा हवा से उड़कर शिलाखण्ड
पर गिरा है, उसमें गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक
लिखा हुआ था, राजा उसे पढ़ने लगा, उस
राजा के मुख से गीता के अक्षर सुनकर घोड़ा तुरन्त गिर पड़ा और अश्व शरीर को छोड़कर
तुरंत ही दिव्य विमान पर बैठकर वह स्वर्गलोक को चला गया।
तत्पश्चात् राजा ने पहाड़ पर चढ़कर
एक उत्तम आश्रम देखा, जहाँ नागकेशर,
केले, आम और नारियल के वृक्ष लहरा रहे थे,
आश्रम के भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे, जो
संसार की वासनाओं से मुक्त थे, राजा ने उन्हे प्रणाम करके
बड़े भक्ति के साथ पूछाः 'ब्रह्मन्! मेरा अश्व अभी-अभी
स्वर्ग को चला गया है, इसका क्या कारण है?
राजा की बात सुनकर त्रिकालदर्शी,
मंत्रवेत्ता और महापुरुषों में श्रेष्ठ विष्णु शर्मा नामक ब्राह्मण
ने कहाः 'राजन! पूर्वकाल में तुम्हारे यहाँ जो सरभमेरुण्ड
नामक सेनापति था, वह तुम्हें पुत्रों सहित मारकर स्वयं राज्य
हड़प लेने को तैयार था, इसी बीच में हैजे का शिकार होकर वह
मृत्यु को प्राप्त हो गया, उसके बाद वह उसी पाप से घोड़ा हुआ
था, तुम्हें यहाँ गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक
लिखा मिल गया था, उसी को तुम्हारे मुख से सुनकर वह अश्व
स्वर्ग को प्राप्त हुआ है।'
तदनन्तर राजा के सैनिक राजा को
ढूँढते हुए वहाँ आ पहुँचे, उन सबके साथ
ब्राह्मण को प्रणाम करके राजा प्रसन्नता पूर्वक वहाँ से चले और गीता के पंद्रहवें
अध्याय के श्लोकाक्षरों से अंकित उसी पत्र को पढ़कर प्रसन्न होने लगे, उनके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे, घर आकर उन्होंने
मन्त्रवेत्ता मन्त्रियों के साथ अपने पुत्र सिंहबल को राज्य सिंहासन पर अभिषिक्त
किया और स्वयं पंद्रहवें अध्याय के जप से विशुद्धचित्त होकर मोक्ष प्राप्त कर
लिया।
शेष जारी................ गीता माहात्म्य - अध्याय १६
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