गीता माहात्म्य अध्याय १६
इससे पूर्व आपने श्रीमद्भगवद्गीता
के सोलहवां अध्याय पढ़ा। १६वें अध्याय में देवासुर संपत्ति का विभाग बताया गया है।
आरंभ से ही ऋग्देव में सृष्टि की कल्पना दैवी और आसुरी शक्तियों के रूप में की गई
है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा
अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत।
अब यहाँ गीता के इस अध्याय १६ का माहात्म्य
अर्थात् इसके पढ़ने सुनने की महिमा के विषय में पढेंगे।
गीता माहात्म्य - अध्याय १६
श्रीमहादेवजी कहते हैं:- पार्वती !
अब मैं गीता के सोलहवें अध्याय का माहात्म्य बताऊँगा,
सुनो, गुजरात में सौराष्ट्र नामक एक नगर है,
वहाँ खड्गबाहु नाम के राजा राज्य करते थे, जो
इन्द्र के समान प्रतापी थे, उनका एक हाथी था, जो सदा मद से उन्मत्त रहता था, उस हाथी का नाम
अरिमर्दन था।
एक दिन रात में वह साँकलों और लोहे
के खम्भों को तोड़कर बाहर निकला, महावत उसको
दोनों ओर अंकुश लेकर डरा रहे थे, किन्तु क्रोधवश उन सबकी
अवहेलना करके उसने अपने रहने के स्थान हथिसार को गिरा दिया, उस
पर चारों ओर से भालों की मार पड़ रही थी फिर भी महावत ही डरे हुए थे, हाथी को तनिक भी भय नहीं होता था।
इस कौतूहलपूर्ण घटना को सुनकर राजा
स्वयं हाथी को मनाने की कला में निपुण राजकुमारों के साथ वहाँ आये,
आकर उन्होंने उस बलवान हाथी को देखा, नगर के
निवासी अन्य काम धंधों की चिन्ता छोड़ अपने बालकों को भय से बचाते हुए बहुत दूर
खड़े होकर उस महाभयंकर गजराज को देखते रहे, उसी समय कोई
ब्राह्मण तालाब से नहाकर उसी मार्ग से लौट रहा था, वे गीता
के सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का जप कर रहा था।
पुरवासियों और महावतों ने बहुत मना
किया,
किन्तु ब्राह्मण ने किसी की न मानी, उसे हाथी
से भय नहीं था, इसलिए वे चिन्तित नहीं हुआ, उधर हाथी अपनी चिंघाड़ से चारों दिशाओं को व्याप्त करता हुआ लोगों को कुचल
रहा था, वे ब्राह्मण उसके बहते हुए मद को हाथ से छूकर
निर्भयता से निकल गया, इससे वहाँ राजा तथा देखने वाले
पुरवासियों के मन मे विस्मय हुआ।
राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछाः- 'ब्राह्मण! आज आपने यह महान अलौकिक कार्य किया है, क्योंकि
इस काल के समान भयंकर गजराज के सामने से आप सकुशल लौट आये हैं, आप किस देवता का पूजन तथा किस मन्त्र का जप करते हैं? बताइये, आपने कौन-सी सिद्धि प्राप्त की है?
ब्राह्मण ने कहाः- राजन! मैं प्रतिदिन
गीता के सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का जप किया करता हूँ,
इसी से सारी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं।
श्रीमहादेवजी कहते हैं:- तब हाथी का
कौतूहल देखने की इच्छा छोड़कर राजा ब्राह्मण देवता को साथ ले अपने महल में आये,
वहाँ शुभ मुहूर्त देखकर एक लाख स्वर्णमुद्राओं की दक्षिणा दे
उन्होंने ब्राह्मण को संतुष्ट किया और उनसे गीता-मंत्र की दीक्षा ली, गीता के सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का अभ्यास कर लेने के बाद उनके मन
में हाथी को छोड़कर उसके कौतुक देखने की इच्छा जागृत हुई।
एक दिन सैनिकों के साथ बाहर निकलकर
राजा ने महावतों से उसी मत्त गजराज का बन्धन खुलवाया,
वे निर्भय हो गये, राज्य का सुख-विलास के
प्रति आदर का भाव नहीं रहा, वे अपना जीवन तृणवत् समझकर हाथी
के सामने चले गये, साहसी मनुष्यों में अग्रगण्य राजा
खड्गबाहु मन्त्र पर विश्वास करके हाथी के समीप गये।
मद की अनवरत धारा बहाते हुए उसके
गण्डस्थल को हाथ से छूकर सकुशल लौट आये, काल
के मुख से धार्मिक और खल के मुख से साधु पुरुष की भाँति राजा उस गजराज के मुख से
बचकर निकल आये, नगर में आने पर उन्होंने अपने पुत्र राजकुमार
को राज्य का कार्यभार सौंप कर स्वयं गीता के सोलहवें अध्याय का पाठ करके परम गति
प्राप्त की।
शेष जारी................ गीता माहात्म्य - अध्याय १७
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