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कर्मकाण्ड

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ब्राह्मणगीता १०

ब्राह्मणगीता १०

आप पठन व श्रवण कर रहे हैं - भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेशीत ब्राह्मण और ब्राह्मणी के मध्य का संवाद ब्राह्मणगीता। पिछले अंक में ब्राह्मणगीता ९ को पढ़ा अब उससे आगे ब्राह्मणगीता १० में परशुरामजी के द्वारा क्षत्रिय कुल का संहार का वर्णन हैं ।

ब्राह्मणगीता १०

ब्राह्मणगीता १०

ब्राह्मणेन स्वभार्यांप्रति हिंसाया अकर्तव्यत्वे महर्षिवचसां प्रमाणीकरणोपयोगितया परशुरामचरित्रकथनारम्भः।। 1 ।। रामेण कार्तवीर्ये निहते तदनुयायिभिर्जमदग्नेर्हनम्।। 2 ।। ततः क्रुद्धेन रामेण त्रिःसप्तकृत्वः सर्वक्षत्रियहनने तत्पितृभी रामस्य परिसान्त्वप्रयतनम्।। 3।।

ब्राह्मण उवाच। 

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।

कार्तवीर्यस्य संवादं समुद्रस्य च भामिनि।। 

कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।

येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही।।  

स कदाचित्समुद्रान्ते विचरन्बलदर्पितः।

अवीकिरच्छरशतैः समुद्रमिति नः श्रुतम्।। 

तं समुद्रो नमस्कृत्य कृताञ्जलिरुवाचह।

मा मुञ्च वीर नाराचान्ब्रूहि किं करवाणि ते।।        

मदाश्रयाणि भूतानि त्वद्विसृष्टैर्महेषुभिः।

वध्यन्ते राजशार्दूल तेभ्यो देह्यभयं विभो।।

अर्जुन उवाच।   

मत्समो यदि संग्रामे शरासनधरः क्वचित्।

विद्यते तं समाचक्ष्व यः समो मे महामृधे।।

समुद्र उवाच।   

महर्षिर्जमदग्निस्ते यदि राजन्पुरा श्रुतः।

तस्य पुत्रस्तवातिथ्यं यथावत्कर्तुमर्हति।।    

ततः स राजा प्रययौ क्रोधेन महता वृतः।

स तमाश्रममागम्य राममेवान्वपद्यत।।     

स रामप्रतिकूलानि चकार सह बन्धुभिः।

आयासं जनयामास रामस्य च महात्मनः।।

ततस्तेजः प्रजज्वाल रामस्यामिततेजसः।

प्रदहन्रिपुसैन्यानि तदा कमललोचने।।      

ततः परशुमादाय स तं बाहुसहस्रिणम्।

चिन्छेद सहसा रामो बहुशाखमिव द्रुमम्।।

तं हतं पतितं दृष्ट्वा समेताः सर्वबान्धवाः।

असीनादाय शक्तीर्श्च भार्गवं पर्यधावयन्।। 

रामोऽपि धनुरादाय रथमारुह्य सत्वरः।

विसृजञ्शरवर्षाणि व्यधमत्पार्थिवं बलम्।।

ततस्तु क्षत्रियाः केचिज्जमदग्निं निहत्य च।

विविशुर्गिरिदुर्गाणि मृगाः सिंहार्दिता इव।।

तेषां स्वविहितं कर्म तद्भयान्नानुतिष्ठताम्।

प्रजा वृषलतां प्राप्ता ब्राह्मणानामदर्शनात्।।

एवं ते द्रविडाऽभीराः पुण्ड्राश्च शबरैः सह।

वृषलत्वं परिगता व्युत्थानात्क्षत्रधर्मतः।।   

ततश्च हतवीरासु क्षत्रियासु पुनः पुनः।

द्विजैरुत्पादितं क्षत्रं जामदग्न्यो न्यकृन्तत।। 

एकविंशतिमे याते रामं वागशरीरिणी।

दिव्या प्रोवाच मधुरा सर्वलोकपरिश्रुता।।  

रामराम निवर्तस्व कं गुणं तात पश्यसि।

क्षत्रबन्धूनिमान्प्राणैर्विप्रयोज्य पुनः पुनः।।  

तथैव तं महात्मानमृचीकप्रमुखास्तदा।

पितामहा महाभाग निवर्तस्वेत्यथाब्रुवन्।। 

पितुर्वधममृष्यंस्तु रामः प्रोवाच तानृषीन्।

नार्हन्तीह भवन्तो मां निवारयितुमित्युत।।

पितर ऊचुः।     

नार्हसे क्षत्रबन्धूंस्त्वं निहन्तुं जयतांवर।

नेह युक्तं त्वया हन्तुं ब्राह्मणेन सता नृपान्।।         

।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीता १० त्रिंशोऽध्यायः।। 30 ।। 

    

ब्राह्मणगीता १० हिन्दी अनुवाद

ब्राह्मण ने कहा- भामिनि! इस विषय में भी कार्तवीर्य और समुद्र के संवाद रूप का एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। पूर्वकाल में कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से प्रसिद्ध एक राजा था, जिसकी एक हजार भुजाएँ थीं। उसने केवल धनुष-बाण की सहायता से समुद्र पर्यन्त पृथ्वी को अपने अधिकार में कर लिया था। सुना जाता है, एक दिन राजा कार्तवीर्य समुद्र के किनारे विचर रहा था। वहाँ उसने अपने बल के घमण्ड में आकर सैकड़ों बाणों की वर्षा से समुद्र को आच्छादित कर दिया। तब समुद्र ने प्रकट होकर उसके आगे मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर कहा- वीरवर! राजसिंह! मुझ पर बाणों की वर्षा न करो। बोलो, तुम्हारी किस आज्ञा का पालन करूँ? शक्तिशाली नरेश्वर! तुम्हारे छोड़े हुए इन महान् बाणों से मेरे अन्दर रहने वाले प्राणियों की हत्या हो रही है। उन्हें अभय दान करो। कार्तवीर्य अर्जुन बोला- समुद्र! यदि कहीं मेरे समान धनुर्धर वीर मौजूद हो, जो युद्ध में मेरा मुकाबला कर सके तो उसका पता बता दो। फिर मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊँगा। समुद्र ने कहा- राजन्! यदि तुमने महर्षि जमदग्नि का नाम सुना हो तो उन्हीं के आश्रम पर चले जाओ। उनके पुत्र परशुरामजी तुम्हारा अच्छी तरह सत्कार कर सकते है। ब्राह्मण ने कहा- कमल के समान नेत्रों वाली देवी! तदनन्तर राज कार्तवीर्य बड़े क्रोध में भरकर महर्षि जमदग्नि के आश्रम पर परशुराम जी के पास जा पहुँचा और अपने भाई-बन्धुओं के साथ उनके प्रतिकूल बर्ताव करने लगा। उसने अपने अपराधों से महात्मा परशुरामजी को उद्विग्न कर दिया। फिर तो शत्रु सेना को भस्म करने वाला अमित तेजस्वी परशुरामजी का तेज प्रज्वलित हो उठा। उन्होंने अपना फरसा उठाया और हजार भुजाओं वाले उस राजा को अनेक शाखाओं से युक्त वृक्ष की भाँति सहसा काट डाला। उसे मारकर जमीन पर पड़ा देख उसके सभी बन्धु-बान्धव एकत्र हो गये तथा हाथों में तलवार और शक्तियाँ लेकर परशुरामजी पर चारों ओर से टूट पड़े। इधर परशुरामजी भी धनुष लेकर तुरंत रथ पर सवार हो गये और बाणों की वर्षा करते हुए राजा की सेना का संहार करने लगे। उस समय बहुत से क्षत्रिय पराशुरामजी के भय से पीड़ित हो सिंह के सताये हुए मृगों की भाँति पर्वतों की गुफाओं में घुस गये। उन्होंने उनके डर से अपने क्षत्रियोचित कर्मों का भी त्याग कर दिया। बहुत दिनों तक ब्राह्मणों दर्शन न कर सकने के कारण वे धीरे-धीरे अपने कर्म भूलकर शूद्र हो गये। इस प्रकार द्रविड, आभीर, पुण्ड्र और शबरों के सहवास में रहकर वे क्षत्रिय होते हुए भी धर्म त्याग के कारण शूद्र की अवस्था में पहुँच गये। तत्पश्चात् क्षत्रिय वीरों के मारे जाने पर ब्राह्मणों ने उनकी स्त्रियों से नियोग की विधि के अनुसार पुत्र उत्पन्न किये, किंतु उन्हें भी बड़े होने पर परशुरामजी ने फरसे से काट डाला। इस प्रकार एक-एक करके जब इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार हो गया, तब परशुरामली को दिव्य आकाशवाणी ने मधुर स्वर में सब लोगों के सुनते हुए यह कहा- बेटा! परशुराम! इस हत्या के काम से निवृत्त हो जाओ। परशुराम! भला बारंबार इन बेचारे क्षत्रियों के प्राण लेने में तुम्हें कौन सा लाभ दिखलायी देतो है?’

उस समय महात्मा परशुरामजी को उनके पितामह ऋचीक आदि ने भी इसी प्रकार समझाते हुए कहा- महाभाग! यह काम छोड़ दो, क्षत्रियों को न मारो। पिता के वध को सहन न करते हुए परशुरामजी ने उन ऋषियों से इस प्रकार कहा- आप लोगों को मुझे इस काम से निवारण नहीं करना चाहिये। पितर बोल- विजय पाने वालों में श्रेष्ठ परशुराम! बेचारे क्षत्रियों को मारना तुम्हारे योग्य नहीं है, क्योंकि तुम ब्राह्मण हो, अत: तुम्हारे हाथ से राजाओं का वध होना उचित नहीं है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में ब्राह्मणगीता १० विषयक ३० वाँ अध्याय पूरा हुआ।

शेष जारी..............ब्राह्मणगीता ११ 

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