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कर्मकाण्ड

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ब्राह्मणगीता १

ब्राह्मणगीता १

इससे पूर्व आपने पढ़ा कि- महाभारत युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवदगीता का उपदेश किया। पुनः भगवान ने युद्ध के बाद शांति के समय अर्जुन को इसी ज्ञान को अलग रूप से अनुगीता का उपदेश किया। अब अनुगीता से आगे भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत के आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व) में ही ब्राह्मणगीता का उपदेश करते हैं। यह ब्राह्मण व ब्राह्मणी के मध्य का संवाद है अतः इसे ब्राह्मणगीता कहा जाता है। यहाँ इसका श्लोक सहित हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है। इसके भी हिन्दी अनुवाद लिए krishnakosh.org साभार व्यक्त करते हुए, क्रमशः दिया जा रहा है सबसे पहले ब्राह्मणगीता १ जो कि एक ब्राह्मण का अपनी पत्नी से ज्ञान यज्ञ का उपदेश करना।

ब्राह्मणगीता १

ब्राह्मणगीता १  

कृष्णेनार्जुनंप्रति भूतप्राणादिसृष्ट्यादिप्रतिपादकब्राह्मणदंपतिसंवादानुवादः।। 1 ।।

वासुदेव उवाच।

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।

दंपत्योः पार्थ संवादो योऽभवद्भरतर्षभ।। 1

ब्राह्मणी ब्राह्मणं कंचिज्ज्ञानविज्ञानपारगम्।

दृष्ट्वा विविक्त आसीनं भार्या भर्तारमब्रवीत्।। 2

कं नु लोकं गमिष्यामि त्वामहं पतिमाश्रिता।

न्यस्तकर्माणमासीनं कीनाशमविचक्षणम्।। 3

भार्याः पतिकृताँल्लोकानाप्नुवन्तीति नः श्रुतम्।

त्वामहं पतिमासाद्य कां गमिष्यामि वै गतिम्।। 4

एवमुक्तः स शान्तात्मा तामुवाच हसन्निव।

सुभगे नाभ्यसूयामि वाक्यस्यास्य तवानघे।। 5

ग्राह्यं दृश्यं तथा श्राव्यं यदिदं कर्म विद्यते।

एतदेव व्यवस्यन्ति कर्म कर्मेति कर्मिणः।। 6

मोहमेव निगच्छन्ति कर्मिणो ज्ञानवर्जिताः।

नैष्कर्म्य न च लोकेऽस्मिन्मौर्तमित्युपलभ्यते।। 7

कर्मणा मनसा वाचा शुभं वा यदि वाऽशुभम्।

जन्मादिमूर्तिभेदानां कर्म भूतेषु वर्तते।। 8

रक्षोभिर्वध्यमानेषु दृश्यश्राव्येषु कर्मसु।

आत्मस्थमात्मना तेन दृष्टमायतनं मया।। 9

यत्र तद्ब्रह्म निर्द्वन्द्वं यत्र सोमः सहाग्निना।

व्यवायं कुरुते नित्यं धीरो भूतानि धारयन्।। 10

यत्रि ब्रह्मादयो युक्तास्तदक्षरमुपासते।

विद्वांसः सुव्रता यत्र शान्तात्मानो जितेन्द्रियाः।। 11

घ्राणेन न तदाघ्रेयं नास्वाद्यं चैव जिह्वया।

स्पर्शनेन तदस्पृश्यं मनसा त्ववगम्यते।। 12

चक्षुषा न विषह्यं च यत्किञ्चिच्छ्रवणात्परम्।

अगन्धमरसस्पर्शमरूपं शब्दवर्जितम्।

यतः प्रवर्तते तन्त्रं यत्र चैतत्प्रतिष्ठितम्।। 13

प्राणोऽपानः समानश्च व्यानश्चोदान एव च।

तत एव प्रवर्न्तते तदेव प्रविशन्ति च।। 14

समानव्यानयोर्मध्ये प्राणापानौ विचेरतुः।

तस्मिन्सुप्ते प्रलीयेते समानो व्यान एव च।। 15

अपानप्राणयोर्मध्ये उदानो व्याप्य तिष्ठति।

तस्माच्छयानं पुरुषं प्राणापानौ न मुञ्चतः।। 16

प्राणेनोपहते यत्तु तमुदानं प्रचक्षते।

तस्मात्तपो व्यवस्यन्ति तद्भवं ब्रह्मवादिनः।। 17

तेषामन्योन्यसक्तानां सर्वेषां देहचारिणाम्।

अग्निर्वैश्वानरो मध्ये सप्तधा विहितोऽन्तरा।। 18

घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वक्च श्रोत्रं च पञ्चमम्।

मनो बुद्धिश्च सप्तैता जिह्वा वैश्वानरार्चिषः।। 19

घ्रेयं दृश्यं च पेयं च स्पृश्यं श्राव्यं तथैव च।

मन्तव्यमवबोद्धव्यं ताः सप्त समिधो मताः।। 20

घ्राता भक्षयिता द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता च पञ्चमः।

मन्ता बोद्धा च स्प्तैते भवन्ति परमर्त्विजः।। 21

घ्रेये पेये च दृश्ये च स्पृश्ये श्राव्ये तथैव च।

मन्तव्येऽप्यथ बोद्धव्ये सुभगे पश्य सर्वदा।। 22

हवींष्याग्निषु होतारः सप्तधा सप्तसप्तसु।

सम्यक्प्रक्षिप्य विद्वांसो जनयन्ति स्वयोनिषु।। 23

पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्।

मनो बुद्धिश्च सप्तैता योनिरित्येव शब्दिताः।। 24

हविर्भूतगुणाः सर्वे प्रविशन्त्यग्नियं मुखम्।

अन्तर्वासमुषित्वा च जायन्ते स्वासु योनिषु।। 25

तत्रैव च निरुध्यन्ते प्रलये भूतभावने।

ततः संजायते गन्धस्ततः संजायते रसः।। 26

ततः संजायते रूपं ततः स्पर्शोऽभिजायते।

ततः संजायते शब्दः संशयस्तत्र जायते।

ततः संजायते निष्ठा जन्मैतत्सप्तधा विदुः।। 27

अनेनैव प्रकारेण प्रगृहीतं पुरातनैः।

पूर्णाहुतिभिरापूर्णास्ते पूर्यन्ते हि तेजसा।। 28

।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि एकविंशोऽध्यायः।। 21 ।।


ब्राह्मणगीता १ हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण कहते हैं- भरत श्रेष्ठ! अर्जुन! इसी विषय में पति-पत्नी के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। एक ब्राह्मण, जो ज्ञान-विज्ञान के पारगामी विद्वान् थे, एकान्त स्थान में बैठे हुए थे, यह देखकर उनकी पत्नी ब्राह्मणी अपने उन पति देव के पास जाकर बोली- प्राणानाथ! मैंने सुना है कि स्त्रियाँ पति के कर्मानुसार प्राप्त हुए लोकों को जाती हैं, किंतु आप जो कर्म छोड़कर बैठे हैं और मेरे प्रति कठोरता का बर्ताव करते हैं। आपको इस बात का पता नही है कि मैं अनन्य भाव से आपके ही आश्रित हूँ। ऐसी दशा में आप जैसे पति का आश्रय लेकर मै किस लोक में जाऊँगी? आपको पति रूप में पाकर मेरी क्या गति होगी। पत्नी के ऐसा कहने पर वे शान्तचित्त वाले ब्राह्मण देवता हँसते हुए से बोले- सौभाग्यशालिनि! तुम पाप से सदा दूर रहती हो, अत: तुम्हारे इस कथन के लिये मैं बुरा नहीं मानता। संसार में ग्रहण करने योग्य दीक्षा और व्रत आदि हैं तथा इन आँखों से दिखायी देने वाले जो स्थूल कर्म हैं, उन्हीं को वस्तुत: कर्म माना जाता है। कर्मठ लोग ऐसे ही कर्म को कर्म के नाम से पुकारते हैं। किंतु जिन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है, वे लोग कर्म के द्वारा मोह का ही संग्रह करते हैं। इस लोक में कोई दो घड़ी भी बिना कर्म किये रह सके, ऐसा सम्भव नहीं है। मन से, वाणी से तथा क्रिया द्वारा जो भी शुभ या अशुभ कार्य होता है, वह तथा जन्म, स्थिति, विनाश एवं शरीर भेद आदि कर्म प्राणियों में विद्यमान हैं। जब राक्षसों दुर्जनों ने जहाँ सोम और घृत आदि दृश्य द्रव्यों का उपयोग होता है, उन कर्म मार्गों का विनाश आरम्भ कर दिया, जब मैंने उनसे विरक्त होकर स्वयं ही अपने भीतर स्थित हुए आत्मा के स्थान को देखा। जहाँ द्वन्दों से रहित व परब्रह्म परमात्मा विराजमान है, जहाँ सोम अग्रि के साथ नित्य समागम करता है तथा जहाँ सब भूतों को धारण करने वाला धीर समीर निरन्तर चलता रहता है। जहाँ ब्रह्मा आदि देवता तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाले शान्तचित्त जितेन्द्रिय विद्वान् योगयुक्त होकर उस अविनाशी ब्रह्म की उपासना करते हैं। वह अविनाशी ब्रह्म घ्राणेन्द्रिय से सूघँने और जिह्वा द्वारा आस्वादन करने योगय नही हैं। स्पर्शेन्द्रिय त्वचा द्वारा उसका स्पर्श भी नहीं किया जा सकता, केवल बुद्धि के द्वारा उसका अनुभव किया जा सकता है। वह नेत्रों का विषय नहीं हो सकता। वह अनिर्वयनीय परब्रह्म श्रवणेन्द्रिय की पहुँच से सर्वथा परे है। गन्ध, रस, स्पर्श रूप और शब्द आदि कोई भी लक्षण उसमें उपलब्ध नहीं है। उसी से सृष्टि आदि का विस्तार होता है और उसी में उसकी स्थिति है। प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान- ये उसी से प्रकट होते और फिर उसी में प्रविष्ट हो जाते हैं। समान और व्यान- इन दोनों के बीच में प्राण और अपान विचरते हैं। उस अपान सहित प्राण के लीन होने पर समान और व्यान का भी लय हो जाता है। अपान और प्राण के बीच में उदान सबको व्याप्त करके स्थित होता है। इसीलिये सोये हुए पुरुष को प्राण और अपान नहीं छोड़ते हैं।

प्राणों का आयतन (आधार) होने के कारण उसे विद्वान् पुरुष उदान कहते हैं। इसलिये वेदवादी मुझ में स्थित तप का निश्चय करते हैं। एक दूसरे के सहारे रहने वाले तथा सबके शरीरों में संचार करने वाले उन पाँचों प्राणवायुओं के मध्य भाग में जो समान वायु का स्थान नाभिमण्डल है, उसके बीच में स्थित हुआ वैश्वानर अग्रि सात रूपों में प्रकाशमान है। घ्राण (नासिका), जिह्वा, नेत्र, त्वचा और पाँचवाँ कान एवं मन तथा बुद्धि- ये उस वैश्वानर अग्रि की सात जिह्वाएँ हैं। सूँघने योग्य गन्ध, दर्शनीय रूप, पीने योग्य रस, स्पर्श करने योग्य वस्तु, सुनने योग्य शब्द, मन के द्वारा मनन करने और बुद्धि के द्वारा समझने योग्य विषय- ये सात मुझ वैश्वानर की समिधाएँ हैं। सूँघने वाला, खाने वाला, देखने वाला, स्पर्श करने वाला, पाँचवाँ श्रवण करने वाला एवं मनन करने वाला और समझने वाला- ये सात श्रेष्ठ ऋत्विज हैं। सुभगे! सूँघने योग्य, पीने योग्य, देखने योग्य, स्पर्श करने योग्य, सुनने, मनन करने तथा समझने योग्य विषय- इन सबके ऊपर तुम सदा दृष्टिपात करो (इनमें हविष्य बुद्धि करो)। पूर्वोक्त सात होता उक्त सात हविष्यों का सात रूपों में विभक्त हुए वैश्वानर में भली भाँति हवन करके (अर्थात् विषयों की ओर से आसक्ति हटाकर) विद्वान् पुरुष अपने तन्मात्रा आदि योनियों में शब्दादि विषयों को उत्पन्न करते हैं। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, मन और बुद्धि- ये सात योनि कहलाते हैं। इनके जो समस्त गुण हैं, वे हविष्य रूप हैं। जो अग्रिजनित गुण (बुद्धिवृत्ति) में प्रवेश करते हैं। वे अन्त: करण में संस्कार रूप से रहकर अपनी योनियों में जन्म लेते हैं। वे प्रलय काल में अन्त:करण में ही अवरुद्ध रहते और भूतों की सृष्टि के समय वहीं से प्रकट होते हैं। वहीं से गन्ध और वहीं से रस की उत्पत्ति होती है। वहीं से रूप, स्पर्श और शब्द का प्राकट्य होता हैं। संशय का जन्म भी वहीं होता है और निश्चयात्मिका बुद्धि भी वहीं पैदा होती है। यह सात प्रकार का जन्म माना गया है। इसी प्रकार से पुरातन ऋषियों ने श्रुति के अनुसार घ्राण आदि का रूप ग्रहण किया है। ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय- इन तीन आहुतियों से समस्त लोक परिपूर्ण हैं। वे सभी लोक आत्मज्योति से परिपूर्ण होते हैं

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में ब्राह्मणगीता १ विषयक 21अध्याय पूरा हुआ।

शेष जारी......... ब्राह्मणगीता २

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