गर्भ गीता
इस गर्भ गीता सुनने वाले को गर्भवास
से मुक्ति मिलती है और चौरासी लाख योनियों के झंझट से वह मुक्त होता है। वह जन्म
मरण से रहित हो नरक नहीं भोगता। यदि इसे गर्भावस्था के समय सुना जाय तो संतान
सुसंस्कारी होता है, उसको कई अश्वमेघ यज्ञ के पुण्य का फल मिलता है। गर्भ के
चक्करों से मुक्ति दिलाने से ही इसका नाम गर्भगीता पड़ा है। इसे साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रेमवश उपदेश किया है।
अथ गर्भ गीता
वन्दे कृष्णं सुरेन्द्रं
स्थितिलयजनने कारणं सर्वजन्तोः
स्वेच्छाचारं कृपालुं गुणगणरहितं
योगिनां योगगम्यम् ।
द्वन्द्वातीतं च सत्यं हरमुखविबुधैः
सेवितं ज्ञानरूपं
भक्ताधीनं तुरीयं नवघनरुचिरं
देवकीनन्दनं तम् ॥
अर्जुन उवाच --
गर्भवासं जरामृत्युं किमर्थं भ्रमते
नरः ।
कथं वा वहितं जन्म ब्रूहि देव
जनार्दन ॥ १॥
श्रीभगवानुवाच --
मानवो मूढ अन्धश्च संसारेऽस्मिन्
विलिप्यते ।
आशास्तथा न जहाति प्राणानां
जनसम्पदाम् ॥ २॥
अर्जुन उवाच --
आशा केन जिता लोकैः संसारविषयौ तथा
।
केन कर्मप्रकारेण लोको मुच्येत
बन्धनात् ॥ ३॥
कामः क्रोधश्च लोभश्च मदमात्सर्यमेव
च ।
एते मनसि वर्तन्ते कर्मपाशं कथम्
त्यजेत् ॥ ४॥
श्रीभगवानुवाच --
ज्ञानाग्निर्दहते कर्म भूयोऽपि तेन
लिप्यते ।
विशुद्धात्मा हि लोकः सः पुनर्जन्म
न भुञ्जते ॥ ५॥
जितं सर्वकृतं कर्म
विष्णुश्रीगुरुचिन्तनम् ।
विकल्पो नास्ति सङ्कल्पः पुनर्जन्म
न विद्यते ॥ ६॥
नानाशास्त्रं पठेल्लोको
नानादैवतपूजनम् ।
आत्मज्ञानं विना पार्थ सर्वकर्म
निरर्थकम् ॥ ७॥
आचारः क्रियते कोटि दानं च
गिरिकाञ्चनम् ।
आत्मतत्त्वं न जानाति
मुक्तिर्नास्ति न संशयः ॥ ८॥
कोटियज्ञकृतं पुण्यं कोटिदानं हयो
गजः ।
गोदानं च सहस्राणि मुक्तिर्नास्ति न
वा शुचिः ॥ ९॥
न मोक्षं भ्रमते तीर्थं न मोक्षं
भस्मलेपनम् ।
न मोक्षं ब्रह्मचर्यं हि मोक्षं
नेन्द्रियनिग्रहः ॥ १०॥
न मोक्षं कोटियज्ञं च न मोक्षं
दानकाञ्चनम् ।
न मोक्षं वनवासेन न मोक्षं भोजनं
विना ॥ ११॥
न मोक्षं मन्दमौनेन न मोक्षं
देहताडनम् ।
न मोक्षं गायने गीतं न मोक्षं
शिल्पनिग्रहम् ॥ १२॥
न मोक्षं कर्मकर्मेषु न मोक्षं
मुक्तिभावने ।
न मोक्षं सुजटाभारं निर्जनसेवनस्तथा
॥ १३॥
न मोक्षं धारणाध्यानं न मोक्षं
वायुरोधनम् ।
न मोक्षं कन्दभक्षेण न मोक्षं
सर्वरोधनम् ॥ १४॥
यावद्बुद्धिविकारेण आत्मतत्त्वं न
विन्दति ।
यावद्योगं च संन्यासं तावच्चित्तं न
हि स्थिरम् ॥ १५॥
अभ्यन्तरं भवेत् शुद्धं चिद्भावस्य
विकारजम् ।
न क्षालितं मनोमाल्यं किं भवेत्
तपकोटिषु ॥ १६॥
अर्जुन उवाच --
अभ्यन्तरं कथं शुद्धं चिद्भावस्य
पृथक् कृतम् ।
मनोमाल्यं सदा कृष्ण कथं तन्निर्मलं
भवेत् ॥ १७॥
श्रीभगवानुवाच --
प्रशुद्धात्मा तपोनिष्ठो
ज्ञानाग्निदग्धकल्मषः ।
तत्परो गुरुवाक्ये च पुनर्जन्म न
भुञ्जते ॥ १८॥
अर्जुन उवाच --
कर्माकर्मद्वयं बीजं लोके हि
दृढबन्धनम् ।
केन कर्मप्रकारेण लोको मुच्येत
बन्धनात् ॥ १९॥
श्रीभगवानुवाच --
कर्माकर्मद्वयं साधो
ज्ञानाभ्याससुयोगतः ।
ब्रह्माग्निर्भुञ्जते बीजं अबीजं
मुक्तिसाधकम् ॥ २०॥
योगिनां सहजानन्दः
जन्ममृत्युविनाशकम् ।
निषेधविधिरहितं अबीजं चित्स्वरूपकम्
॥ २१॥
तस्मात् सर्वान् पृथक् कृत्य
आत्मनैव वसेत् सदा ।
मिथ्याभूतं जगत् त्यक्त्वा सदानन्दं
लभेत् सुधीः ॥ २२॥
इति श्रीगर्भगीता समाप्ता ।
गर्भ गीता हिन्दी भावार्थः
भगवान् श्रीकृष्ण का वचन है कि जो
प्राणी इस गर्भगीता का सदभावना से विचार मनन करता है वह पुरुष फिर गर्भवास में
नहीं आता है।
अर्जुनोवाच-हे कृष्ण भगवान्। यह
प्राणी जो गर्भवास में आता है। वह किस दोष के कारण आता है? हे प्रभुजी! जब यह जन्मता है, तब इसको जरा आदि रोग लगते
हैं। फिर मृत्यु होती है। हे स्वामी! वह कौन-सा कर्म है जिसके करने से प्राणी जन्म
मरण से रहित हो जाता है?
श्री भगवानोवाच- हे अर्जुन! यह
मनुष्य जो है वह अन्धा है, मुर्ख है, और संसार के साथ प्रीति करता है। यह पदार्थ
मैंने पाया है और यह मै पाऊঁगा, ऐसी चिंता इस प्राणी के मन से उतरती नहीं। आठ
पहर माया को ही मांगता है। इन बातों को करके बार-बार जन्मता और मरता है। यह गर्भ
विषे दुःख पाता रहता है।
अर्जुनोवाच- हे श्री कृष्ण भगवान्।
यह मन मद-मस्त हाथी की भाঁति है। तृष्णा इसकी शक्ति है। यह मन तो पाँच इन्द्रियों
के वश में है। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार इन पांचों में अहंकार बहुत बली है।
वह कौन-सा यत्न है जिससे मन वश में हो जाए?
श्री भगवानोवाच- हे अर्जुन! यह मन
निश्चय ही हाथी की भांति है। तृष्णा इसकी शक्ति है। मन पाँच इन्द्रियों के वश में
है। अहंकार इनमें से श्रेष्ठ है। हे अर्जुन! हाथी जैसे अंकुश (कुण्डा) के वश में होता
है। वैसे ही मन रूपी हाथी को वश में करने के लिए ज्ञान रूपी अंकुश है। अहंकार करने
से यह जीव नरक में पड़ता है।
अर्जुनोवाच- हे भगवान्! जो एक तुम्हारे
नाम के लिये वन खंडों में फिरते हैं। एक वैरागी हुए हैं। एक धर्म करते हैं। इनको
कैसे जानें? जो वैष्णव है, वे कौन है?
श्री भगवानोवाच- हे अर्जुन! एक वे हैं
जो मेरे ही नाम के लिए वनों में फिरते हैं। ये संन्यासी कहलाते हैं। एक वे हैं जो
सिर पर जटा बाँधते हैं और अंग पर भस्म लगाते हैं। उनमें मैं नहीं हूं क्योंकि
इनमें अहंकार है इनको मेरा दर्शन दुर्लभ है।
अर्जुनोवाच-हे भगवान! वह कौन-सा पाप
है जिससे स्त्री की मृत्यु हो जाती है? वह
कौन सा-पाप है कि जिससे पुत्र मर जाता है? और नपुंसक कौन से पाप
से होता है?
श्रीभगवानोवाच- हे अर्जुन! जो किसी से
कर्ज लेता है और देता नहीं, इस पाप से उसकी औरत
मरती है और जो किसी की अमानत रखी हुई वस्तु पचा लेता है उसके पुत्र मर जाते है। जो
किसी का कार्य किसी के गोचर आये पड़े और वह जबानी कहे कि मैं तेरा कार्य सबसे पहले
कर दूंगा पर समय आने पर उसका कार्य न करे। इस पाप से नपुंसक होता है। ये बड़े पाप
हैं।
अर्जुनोवाच-हे भगवान्! वह कौन से पाप
है जिससे मनुष्य सदैव रोगी रहता है? किस
पाप से गधे का जन्म पाता है? स्त्री का जन्म तथा टट्टू का
जन्म क्यों कर पाता है और बिल्ली का जन्म किस पाप से होता है?
श्री भगवानोवाच-हे अर्जुन! जो भी
मनुष्य कन्यादान करते हैं, और इस दान में
मूल्य लेते हैं, वे दोषी हैं, वे मनुष्य सदा रोगी रहते हैं।
जो विषय विकार के वास्ते मदिरापान करते हैं वे टट्टू का जन्म पाते हैं और जो झूठी गवाही भरते हैं वह औरत का जन्म पाते हैं। जो औरतें
रसोई बना के पहले आप भोजन कर लेती है और पीछे परमेश्वर को अर्घ्यदान करती है तो वे
बिल्ली का जन्म पाती है और जो मनुष्य अपनी जूठी वस्तु दान करते हैं वे औरत का जन्म
पाते हैं। वह गुलाम औरतें होती हैं।
अर्जुनोवाच-हे भगवान्! कई मनुष्यों
को आपने सुवर्ण दिया है सो उन्होंने कौन-सा पुण्य किया है और कई मनुष्यों को आपने
हाथी,
घोड़ा, रथ दिये हैं, उन्होंने
कौन-सा पुण्य किया है?
श्री भगवानोवाच-हे अर्जुन!
जिन्होंने स्वर्ण दान किया है उनको हाथी,घोड़े
वाहन मिलते हैं। जो परमेश्वर के निमित्त कन्यादान करते है सो पुरुष का जन्म पाते
है।
अर्जुनोवाच-हे भगवान्! जिन पुरुषों
के अन्दर विचित्र देह है। उन्होंने कौन-सा पुण्य कार्य किया है?
किसी-किसी के घर सम्पत्ति है, कोई विद्यावान
है, उन्होंने कौन-सा पुण्य कार्य किया है?
श्री भगवानोवाच-हे अर्जुन!
जिन्होंने अन्नदान किया है उनका सुन्दर स्वरूप है। जिन्होंने विद्या दान किया है
वे विद्यावान होते हैं। जिन्होंने सन्तों की सेवा की है वे पुत्रवान होते हैं।
अर्जुनोवाच-हे भगवान्! किसी को धन
से प्रीति है,कोई स्त्रियों से प्रीति करते
है। इसका क्या कारण है समझाकर कहिये।
श्री भगवानोवाच-हे अर्जुन! धन और
स्त्री सब नाश रूप है। मेरी भक्ति का नाश नहीं है।
अर्जुनोवाच-हे भगवान्। यह राजपाट
किस धर्म के करने से मिलता है। विद्या कौन सा धर्म करने से मिलती है?
श्री भगवानोवाच-हे अर्जुन! जो
प्राणी काशी में निष्काम भक्ति से तप करते हुए देह त्यागते है। वह राजा होते हैं
और जो गुरु की सेवा करते हैं, वे विद्यावान होते है।
अर्जुनोवाच-हे भगवान! किसी को धन
अचानक बिना किसी परिश्रम से मिलता है सो उन्होंने कौन-सा पुण्य कार्य किया है?
श्री भगवानोवाच-हे अर्जुन!
जिन्होंने गुप्तदान किया है, उनको धन अचानक
मिलता है। जिसने परमेश्वर का कार्य और पराया कार्य संवारा है वे मनुष्य रोग से
रहित होते हैं।
अर्जुनोवाच-हे भगवान्! कौन पाप से
अमली होते हैं और कान पाप से गूंगे होते हैं और कौन पाप से कुष्ठी होते हैं?
श्री भगवानोवाच-हे अर्जुन! जो आदमी
नीच कुल की स्त्री से गमन करते हैं वो अमली होते हैं। जो गुरु से विद्या पढ़कर
मुकर जाते हैं सो गूंगे होते हैं। जिन्होंने गौ घात किया है वे कुष्ठी होते हैं।
अर्जुनोवाच-हे भगवान् ! जिस किसी
पुरुष की देह में रक्त का विकार होता है वह किस पाप से होता है और कोई दरिद्र होते
हैं। किसी को खङ्ग वायु होती है और कोई अन्धे होते हैं तो कोई पंगु होते हैं,
सो कौन से पाप से होते हैं और कई स्त्रियाँ बाल विधवा होती हैं तो वह
किसी पाप से होती हैं।
श्रीभगवानोवाच-हे अर्जुन! जो सदा क्रोधवान
रहते हैं,
उन्हें रक्त विकार होता है। जो मलीन रहते हैं, वे सदा दरिद्री होते हैं। जो कुकर्मी ब्राह्मण को दान देते हैं, उनको खङ्ग वायु होती है। जो पराई स्त्री को नंगी देखते हैं, गुरु की पत्नी को कुदृष्टि से देखते हैं, सो अन्धे
होते हैं। जिसने गौ,गुरु और ब्राह्मण को लात मारी है, वो
लंगड़ा व पंगु होता है। जो औरत अपने पति को छोड़कर पराये पुरुषों से संग करती है,
सो वह बाल विधवा होती है।
अर्जुनोवाच-हे भगवन्! तुम परब्रह्म
हो,
तुमको नमस्कार है। पहले मैं आपको सम्बन्धी जानता था परन्तु अब मैं
ईश्वर रूप जानता हूँ। हे परब्रह्म! गुरुदीक्षा कैसी होती है, सो कृपा कर मुझको कहो।
श्री भगवानोवाच-हे अर्जुन! तुम धन्य
हो,
तुम्हारे माता-पिता भी धन्य हैं। जिनके तुम जैसा पुत्र है। हे
अर्जुन! सारे संसार के गुरु जगन्नाथ है। विद्या का गुरु काशी, चारों वर्णों का गुरु संन्यासी है। संन्यासी उसको कहते हैं, जिसने सबका त्याग करके मेरे विषय में मन लगाया है सो ब्राह्मण जगत् गुरु
है। हे अर्जुन! यह बात ध्यान देकर सुनने की है। गुरु कैसा करें, जिसने सब इंद्रियाँ जीती हों, जिसको सब संसार ईश्वर
मय नजर आता हो और सब जगत से उदास हो। ऐसा गुरु करे जो परमेश्वर को जानने वाला हो
और उस गुरु की पूजा सब तरह से करे। हे अर्जुन! जो गुरु का भक्त होता है और जो
प्राणी गुरु के सम्मुख होकर भजन करते हैं, उनका भजन करना सफल
है। जो गुरु से विमुख हैं उनको सप्त ग्रास मारे का पाप है। गुरु से विमुख प्राणी
दर्शन करने योग्य नहीं होते। जो गृहस्थी संसार में गुरु के बिना है वे चांडाल के
समान है, जिस तरह मदिरा के भंडार में जो गंगाजल है वह
अपवित्र है। इसी तरह गुरु से विमुख व्यक्ति का भजन सदा अपवित्र होता है। उसके हाथ
का भोजन देवता भी नहीं लेते। उसके सब कर्म निष्फल हैं। कूकर, सूकर, गदर्भ, काक ये सब की सब
योनियाँ बड़ी खोटी योनियां हैं। इन सबसे वह मनुष्य खोटा है, जो
गुरू नहीं करता। गुरु बिना गति नहीं होती। वह अवश्य नरक को जायेगा। गुरु दीक्षा
बिना प्राणी के सब कर्म निष्फल होते हैं। हे अर्जुन! जैसे चारों वर्णों को मेरी
भक्ति करना योग्य है, वैसे गुरु धार के गुरु की भक्ति करना
योग्य है। जैसे गंगा नदियों में उत्तम है, सब व्रतों में
एकादशी का व्रत श्रेष्ठ है। वैसे ही हे अर्जुन! शुभकर्मों में गुरु सेवा उत्तम है,
गुरुदीक्षा बिना प्राणी पशु योनि पाता है। जो धर्म भी करता है सो
पशु योनि में फल भोगता है। वह चौरासी योनियों में भ्रमण करता रहता है।
अर्जुनोवाच-हे श्रीकृष्ण भगवान्!
गुरुदीक्षा क्या होती है?
श्रीभगवानोवाच-हे अर्जुन! धन्य जन्म
है उसका जिसने यह प्रश्न किया है। तू धन्य है। गुरुदीक्षा के दो अक्षर हैं! हरि ॐ।
इन अक्षरों को गुरु कहता है। यह चारों वर्णों को अपनाना श्रेष्ठ है। हे अर्जुन! जो
गुरु की सेवा करता है, उस पर मेरी
प्रसन्नता है। वह चौरासी योनियों से छूट जायेगा। जन्म मरण से रहित हो नरक नहीं
भोगता। जो प्राणी गुरु की सेवा नहीं करता वह साढ़े तीन करोड़ वर्ष तक नरक भोगता
है। जो गुरु की सेवा करता है, उसको कई अश्वमेघ यज्ञ के पुण्य
का फल मिलता है। गुरु की सेवा मेरी सेवा है। हे अर्जुन! हमारे तुम्हारे संवाद को
जो प्राणी पढ़ेंगे और सुनेंगे वो गर्भ के दुःख से बचेंगे उनकी चौरासी योनियाँ कट
जायेगी।
इसी कारण इस पाठ का नाम गर्भगीता
है। श्री कृष्ण भगवान् जी के मुख से अर्जुन ने श्रवण किया है। गुरुदीक्षा लेना
उत्तम कर्म है। उसका फल यह है कि नरक की चौरासी योनियों से जीव बचा रहता है,
भगवान् बहुत प्रसन्न होते हैं।
गर्भ गीता समाप्त।
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