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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
ऋणमोचन स्तोत्र
मानव जीवन में धन कि अति आवश्यकता
होती है बिना धन के जीवन सुचारू रूप से चला पाना संभव नहीं है। अपनी आवश्यकता कि
पूर्ति हेतू कई बार व्यक्ति ऋण के बोझ तले दब जाता है और जिनसे निकल पाना आसान
नहीं होता। ऐसे समय में ऋणमोचन स्तोत्र अत्यंत ही कारगर सिद्ध होता है। अतः यहाँ
मंगल देव से सम्बंधित दो स्तोत्र दिया जा रहा है। जब ऋण से मुक्त हो पाना असम्भव
जान पड़ता हो तो ऋणमोचकमङ्गलस्तोत्रम् या ऋणमोचन अङ्गारकस्तोत्रम् का पाठ पूरी
श्रद्धा से करें। आप निश्चय ही कुछ ही समय में ऋण से मुक्त हो जायेंगे।
ऋणमोचन अथवा ऋणमोचकमङ्गलस्तोत्रम्
मङ्गलो भूमिपुत्रश्च ऋणहर्ता
धनप्रदः ।
स्थिरासनो महाकायः सर्वकर्मविरोधकः
॥ १॥
लोहितो लोहिताक्षश्च सामगानां
कृपाकरः ।
धरात्मजः कुजो भौमो भूतिदो
भूमिनन्दनः ॥ २॥
अङ्गारको यमश्चैव सर्वरोगापहारकः ।
वृष्टेः कर्ताऽपहर्ता च
सर्वकामफलप्रदः ॥ ३॥
एतानि कुजनामानि नित्यं यः श्रद्धया
पठेत् ।
ऋणं न जायते तस्य धनं
शीघ्रमवाप्नुयात् ॥ ४॥
धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्
।
कुमारं शक्तिहस्तं च मङ्गलं
प्रणमाम्यहम् ॥ ५॥
स्तोत्रमङ्गारकस्यैतत्पठनीयं सदा
नृभिः ।
न तेषां भौमजा पीडा स्वल्पापि भवति
क्वचित् ॥ ६॥
अङ्गारक महाभाग भगवन्भक्तवत्सल ।
त्वां नमामि ममाशेषमृणमाशु विनाशय ॥
७॥
ऋणरोगादिदारिद्र्यं ये चान्ये
ह्यपमृत्यवः ।
भयक्लेशमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा
॥ ८॥
अतिवक्र दुराराध्य भोगमुक्त
जितात्मनः ।
तुष्टो ददासि साम्राज्यं रुष्टो
हरसि तत्क्षणात् ॥ ९॥
विरिञ्चिशक्रविष्णूनां मनुष्याणां
तु का कथा ।
तेन त्वं सर्वसत्त्वेन ग्रहराजो
महाबलः ॥ १०॥
पुत्रान्देहि धनं देहि त्वामस्मि
शरणं गतः ।
ऋणदारिद्र्यदुःखेन शत्रूणां च
भयात्ततः ॥ ११॥
एभिर्द्वादशभिः श्लोकैर्यः स्तौति च
धरासुतम् ।
महतीं श्रियमाप्नोति ह्यपरो धनदो
युवा ॥ १२॥
इति श्रीस्कन्दपुराणे
भार्गवप्रोक्तं ऋणमोचकमङ्गलस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
ऋणमोचन अङ्गारकस्तोत्रम्
। श्रीरस्तु ।
श्रीपरमात्मने नमः ।
अथ ऋणग्रस्तस्य ऋणविमोचनार्थं
अङ्गारकस्तोत्रम् ।
स्कन्द उवाच ।
ऋणग्रस्तनराणां तु ऋणमुक्तिः कथं भवेत् ।
ब्रह्मोवाच ।
वक्ष्येऽहं सर्वलोकानां हितार्थं
हितकामदम् ।
अस्य श्री अङ्गारकमहामन्त्रस्य गौतम
ऋषिः । अनुष्टुप्छन्दः ।
अङ्गारको देवता । मम
ऋणविमोचनार्थे अङ्गारकमन्त्रजपे विनियोगः
।
ध्यानम् ।
रक्तमाल्याम्बरधरः शूलशक्तिगदाधरः ।
चतुर्भुजो मेषगतो वरदश्च धरासुतः ॥
१॥
मङ्गलो भूमिपुत्रश्च ऋणहर्ता
धनप्रदः ।
स्थिरासनो महाकायो सर्वकामफलप्रदः ॥
२॥
लोहितो लोहिताक्षश्च सामगानां
कृपाकरः ।
धरात्मजः कुजो भौमो भूमिदो
भूमिनन्दनः ॥ ३॥
अङ्गारको यमश्चैव सर्वरोगापहारकः ।
सृष्टेः कर्ता च हर्ता च
सर्वदेशैश्च पूजितः ॥ ४॥
एतानि कुजनामानि नित्यं यः प्रयतः
पठेत् ।
ऋणं न जायते तस्य श्रियं
प्राप्नोत्यसंशयः ॥ ५॥
अङ्गारक महीपुत्र भगवन् भक्तवत्सल ।
नमोऽस्तु ते ममाशेषं ऋणमाशु विनाशय
॥ ६॥
रक्तगन्धैश्च पुष्पैश्च
धूपदीपैर्गुडोदनैः ।
मङ्गलं पूजयित्वा तु मङ्गलाहनि
सर्वदा ॥ ७॥
एकविंशति नामानि पठित्वा तु
तदन्तिके ।
ऋणरेखा प्रकर्तव्या अङ्गारेण
तदग्रतः ॥ ८॥
ताश्च प्रमार्जयेन्नित्यं वामपादेन
संस्मरन् ।
एवं कृते न सन्देहः ऋणान्मुक्तः
सुखी भवेत् ॥ ९॥
महतीं श्रियमाप्नोति धनदेन समो
भवेत् ।
भूमिं च लभते विद्वान्
पुत्रानायुश्च विन्दति ॥ १०॥
मूलमन्त्रः।
अङ्गारक महीपुत्र भगवन् भक्तवत्सल ।
नमस्तेऽस्तु महाभाग ऋणमाशु विनाशय ॥
११॥
अर्घ्यम् ।
भूमिपुत्र महातेजः स्वेदोद्भव
पिनाकिनः ।
ऋणार्थस्त्वां प्रपन्नोऽस्मि
गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते ॥ १२॥
इति ऋणमोचन अङ्गारकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
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