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हंसगीता १
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से श्रीमद्भगवतगीता,गर्भगीता,अनुगीता,ब्राह्मणगीता अदि का उपदेश किये हैं। जिसे की आपने पूर्व में पढ़ा । अब यहाँ दो हंसगीता श्लोक हिंदी अनुवाद सहित दिया जा रहा है जो की क्रमशः महाभारत पुराण व श्रीमद्भागवतमहापुराण से लिया गया है। हंसगीता १ को भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव को उपदेश किया है जिसमे श्रीमद्भागवतमहापुराण के एकादशः स्कन्ध अध्याय १३ हंसरूप से सनकादि को दिये हुए उपदेश का वर्णन है।
हंसगीता १भागवतपुराणे एकादशस्कन्धे
श्रीभगवानुवाच ।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न
चात्मनः ।
सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात्सत्त्वं
सत्त्वेन चैव हि ॥ १३.१॥
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं —
प्रिय उद्धव ! सत्त्व, रज और तम — ये तीनों बुद्धि (प्रकृति) के गुण हैं, आत्मा के
नहीं । सत्त्व के द्वारा रज और तम — इन दो गुणों पर विजय
प्राप्त कर लेनी चाहिये । तदनन्तर सत्त्वगुण की शान्तवृत्ति के द्वारा उसकी दया
आदि वृत्तियों को भी शान्त कर देना चाहिये ॥ १ ॥
सत्त्वाद्धर्मो भवेद्वृद्धात्पुंसो
मद्भक्तिलक्षणः ।
सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्मः
प्रवर्तते ॥ १३.२॥
जब सत्त्वगुण की वृद्धि होती है,
तभी जीव को मेरे भक्तिरूप स्वधर्म की प्राप्ति होती है । निरन्तर
सात्त्विक वस्तुओं का सेवन करने से ही सत्त्वगुण की वृद्धि होती हैं और तब मेरे
भक्तिरूप स्वधर्म में प्रवृत्ति होने लगती है ॥ २ ॥
धर्मो रजस्तमो
हन्यात्सत्त्ववृद्धिरनुत्तमः ।
आशु नश्यति तन्मूलो ह्यधर्म उभये
हते ॥ १३.३॥
जिस धर्म के पालन से सत्त्वगुण की
वृद्धि हो, वही सबसे श्रेष्ठ है । वह धर्म
रजोगुण और तमोगुण को नष्ट कर देता है । जब वे दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब उन्हीं के कारण होनेवाला अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाता है ॥ ३ ॥
आगमोऽपः प्रजा देशः कालः कर्म च
जन्म च ।
ध्यानं मन्त्रोऽथ संस्कारो दशैते
गुणहेतवः ॥ १३.४॥
शास्त्र,
जल, प्रजा-जन, देश,
समय, कर्म, जन्म,
ध्यान, मन्त्र और संस्कार — ये दस वस्तुएँ यदि सात्त्विक हों तो सत्त्वगुण की, राजसिक
हों तो रजोगुण की और तामसिक हों तो तमोगुण की वृद्धि करती हैं ॥ ४ ॥
तत्तत्सात्त्विकमेवैषां
यद्यद्वृद्धाः प्रचक्षते ।
निन्दन्ति तामसं तत्तद्राजसं
तदुपेक्षितम् ॥ १३.५॥
इनमें से शास्त्रज्ञ महात्मा जिनकी
प्रशंसा करते हैं, वे सात्त्विक हैं,
जिनकी निन्दा करते हैं, वे तामसिक हैं और
जिनकी उपेक्षा करते हैं, वे वस्तुएँ राजसिक हैं ॥ ५ ॥
सात्त्विकान्येव सेवेत
पुमान्सत्त्वविवृद्धये ।
ततो धर्मस्ततो ज्ञानं
यावत्स्मृतिरपोहनम् ॥ १३.६॥
जब तक अपने आत्मा का साक्षात्कार
तथा स्थूल-सूक्ष्म शरीर और उनके कारण तीनों गुणों की निवृत्ति न हो,
तब तक मनुष्य को चाहिये कि सत्त्वगुण की वृद्धि के लिये सात्विक
शास्त्र आदि का ही सेवन करें, क्योंकि उससे धर्म की वृद्धि
होती हैं और धर्म की वृद्धि से अन्तःकरण शुद्ध होकर आत्मतत्त्व का ज्ञान होता है ॥
६ ॥
वेणुसङ्घर्षजो वह्निर्दग्ध्वा
शाम्यति तद्वनम् ।
एवं गुणव्यत्ययजो देहः शाम्यति
तत्क्रियः ॥ १३.७॥
बाँस की रगड़ से आग पैदा होती है और
वह उनके सारे वन को जलाकर शान्त हो जाती है । वैसे ही यह शरीर गुणों के वैषम्य से
उत्पन्न हुआ है । विचार द्वारा मन्थन करने पर इससे ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है
और वह समस्त शरीरों एवं गुणों को भस्म करके स्वयं भी शान्त हो जाती है ॥ ७ ॥
उद्धव उवाच ।
विदन्ति मर्त्याः प्रायेण
विषयान्पदमापदाम् ।
तथापि भुञ्जते कृष्ण तत्कथं
श्वखराजवत् ॥ १३.८॥
उद्धवजी ने पूछा —
भगवन् ! प्रायः सभी मनुष्य इस बात को जानते हैं कि विषय विपत्तियों
के घर हैं; फिर भी वे कुत्ते, गधे और
बकरे के समान दुःख सहन करके भी उन्हीं को ही भोगते रहते हैं । इसका क्या कारण हैं ?
॥८॥
श्रीभगवानुवाच ।
अहमित्यन्यथाबुद्धिः प्रमत्तस्य यथा
हृदि ।
उत्सर्पति रजो घोरं ततो वैकारिकं
मनः ॥ १३.९॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा —
प्रिय उद्धव ! जीव जब अज्ञानवश अपने स्वरूप को भूलकर हृदय से
सूक्ष्मस्थूलादि शरीरों में अहंबुद्धि कर बैठता है जो कि सर्वथा भ्रम ही है —
तब उसका सत्त्वप्रधान मन घोर रजोगुण की ओर झुक जाता है, उससे व्याप्त हो जाता है ॥ ९ ॥
रजोयुक्तस्य मनसः सङ्कल्पः
सविकल्पकः ।
ततः कामो गुणध्यानाद्दुःसहः
स्याद्धि दुर्मतेः ॥ १३.१०॥
बस, जहाँ मन में रजोगुण की प्रधानता हुई कि उसमें संकल्प-विकल्पों का ताँता
बँध जाता है । अब वह विषयों चिन्तन करने लगता है और अपनी दुर्बुद्धि के कारण काम
के फँदे में फँस जाता है, जिससे फिर छुटकारा होना बहुत ही
कठिन हैं ॥ १० ॥
करोति कामवशगः
कर्माण्यविजितेन्द्रियः ।
दुःखोदर्काणि सम्पश्यन्
रजोवेगविमोहितः ॥ १३.११॥
अब यह अज्ञानी कामवश अनेकों प्रकार
के कर्म करने लगता है और इन्द्रियों के वश होकर, यह जानकर भी कि इन कर्मों का अन्तिम फल दुःख ही हैं, उन्हीं को करता है । उस समय वह रजोगुण के तीव्र वेग से अत्यन्त मोहित रहता
है ॥ ११ ॥
रजस्तमोभ्यां यदपि
विद्वान्विक्षिप्तधीः पुनः ।
अतन्द्रितो मनो युञ्जन्दोषदृष्टिर्न
सज्जते ॥ १३.१२॥
यद्यपि विवेकी पुरुष का चित्त भी
कभी-कभी रजोगुण और तमोगुण के वेग से विक्षिप्त होता है,
तथापि उसकी विषयों में दोषदृष्टि बनी रहती है; इसलिये वह बड़ी सावधानी से अपने चित को एकाग्र करने की चेष्टा करता रहता
है, जिससे उसकी विषयों में आसक्ति नहीं होती ॥ १२ ॥
अप्रमत्तोऽनुयुञ्जीत मनो
मय्यर्पयञ्छनैः ।
अनिर्विण्णो यथाकालं जितश्वासो
जितासनः ॥ १३.१३॥
साधक को चाहिये कि आसन और प्राणवायु
पर विजय प्राप्त कर अपनी शक्ति और समय के अनुसार बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे मुझमें
अपना मन लगावे और इस प्रकार अभ्यास करते समय अपनी असफलता देखकर तनिक भी ऊबे नहीं,
बल्कि और भी उत्साह से उसमें जुड़ जाय ॥ १३ ॥
एतावान्योग आदिष्टो मच्छिष्यैः
सनकादिभिः ।
सर्वतो मन आकृष्य मय्यद्धावेश्यते
यथा ॥ १३.१४॥
प्रिय उद्धव ! मेरे शिष्य सनकादि
परमर्षियों ने योग का यही स्वरूप बताया है कि साधक अपने मन को सब ओर से खींचकर
विराट् आदि में नहीं, साक्षात् मुझमें ही
पूर्णरूप से लगा दें ॥ १४ ॥
उद्धव उवाच ।
यदा त्वं सनकादिभ्यो येन रूपेण केशव
।
योगमादिष्टवानेतद्रूपमिच्छामि
वेदितुम् ॥ १३.१५॥
उद्धवजी ने कहा —
श्रीकृष्ण ! आपने जिस समय जिस रूप से, सनकादि
परमर्षियों को योग का आदेश दिया था, उस रूप को मैं जानना
चाहता हूँ ॥ १५ ॥
श्रीभगवानुवाच ।
पुत्रा हिरण्यगर्भस्य मानसाः
सनकादयः ।
पप्रच्छुः पितरं सूक्ष्मां
योगस्यैकान्तिकीं गतिम् ॥ १३.१६॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा —
प्रिय उद्धव ! सनकादि परमर्षि ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं ।
उन्होंने एक बार अपने पिता से योग की सूक्ष्म अन्तिम सीमा के सम्बन्ध मे इस प्रकार
प्रश्न किया था ॥ १६ ॥
सनकादय ऊचुः ।
गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च
प्रभो ।
कथमन्योन्यसन्त्यागो
मुमुक्षोरतितितीर्षोः ॥ १३.१७॥
सनकादि परमर्षियों ने पूछा —
पिताजी ! चित्त गुणों अर्थात् विषयों में घुसा ही रहता है और गुण भी
चित्त की एक-एक वृत्ति में प्रविष्ट रहते ही हैं । अर्थात् चित्त और गुण आपस में
मिले-जुले ही रहते हैं । ऐसी स्थिति में जो पुरुष इस संसार-सागर से पार होकर
मुक्तिपद प्राप्त करना चाहता है, वह इन दोनों को एक-दूसरे से
अलग कैसे कर सकता है ? ॥ १७ ॥
श्रीभगवानुवाच ।
एवं पृष्टो महादेवः
स्वयम्भूर्भूतभावनः ।
ध्यायमानः प्रश्नबीजं नाभ्यपद्यत
कर्मधीः ॥ १३.१८॥
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं —
प्रिय उद्धव ! यद्यपि ब्रह्माजी सब देवताओं के शिरोमणि, स्वयम्भू और प्राणियों के जन्मदाता हैं । फिर भी सनकादि परमर्षियों के इस
प्रकार पूछने पर ध्यान करके भी वे इस प्रश्न का मूल कारण न समझ सके; क्योंकि उनकी बुद्धि कर्म-प्रवण थी ॥ १८ ॥
स मामचिन्तयद्देवः
प्रश्नपारतितीर्षया ।
तस्याहं हंसरूपेण सकाशमगमं तदा ॥
१३.१९॥
उद्धव ! उस समय ब्रह्माजी ने इस
प्रश्न का उत्तर देने के लिये भक्ति-भाव से मेरा चिन्तन किया । तब मैं हंस का रूप
धारण करके उनके सामने प्रकट हुआ ॥ १९ ॥
दृष्ट्वा मां त उपव्रज्य कृत्वा
पादाभिवन्दनम् ।
ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा पप्रच्छुः को
भवानिति ॥ १३.२०॥
मुझे देखकर सनकादि ब्रह्माजी को आगे
करके मेरे पास आये और उन्होंने मेरे चरणों की वन्दना करके मुझसे पूछा कि ‘आप कौन हैं ?’ ॥ २० ॥
इत्यहं मुनिभिः
पृष्टस्तत्त्वजिज्ञासुभिस्तदा ।
यदवोचमहं तेभ्यस्तदुद्धव निबोध मे ॥
१३.२१॥
प्रिय उद्धव ! सनकादि
परमार्थ-तत्त्व के जिज्ञासु थे; इसलिये उनके
पूछने पर उस समय मैंने जो कुछ कहा वह तुम मुझसे सुनो — ॥ २१
॥
वस्तुनो यद्यनानात्व आत्मनः प्रश्न
ईदृशः ।
कथं घटेत वो विप्रा वक्तुर्वा मे क
आश्रयः ॥ १३.२२॥
‘ब्राह्मणो ! यदि परमार्थरूप
वस्तु नानात्व से सर्वथा रहित है, तब आत्मा के सम्बन्ध में
आप लोगों का ऐसा प्रश्न कैसे युक्तिसंगत हो सकता है ? अथवा
मैं यदि उत्तर देने के लिये बोलूँ भी तो किस जाति, गुण,
क्रिया और सम्बन्ध आदि का आश्रय लेकर उत्तर दूँ ? ॥ २२ ॥
पञ्चात्मकेषु भूतेषु समानेषु च
वस्तुतः ।
को भवानिति वः प्रश्नो वाचारम्भो
ह्यनर्थकः ॥ १३.२३॥
देवता,
मनुष्य, पशु, पक्षी आदि
सभी शरीर पञ्च-भूतात्मक होने के कारण अभिन्न ही हैं और परमार्थरूप से भी अभिन्न
हैं । ऐसी स्थिति में ‘आप कौन हैं ? आप
लोगों का यह प्रश्न ही केवल वाणी का व्यवहार है । विचारपूर्वक नहीं है, अतः निरर्थक हैं ॥ २३ ॥
मनसा वचसा दृष्ट्या
गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः ।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति
बुध्यध्वमञ्जसा ॥ १३.२४॥
मन से,
वाणी से, दृष्टि से तथा अन्य इन्द्रियों से भी
जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ, मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है । यह सिद्धान्त आप लोग तत्त्वविचार के द्वारा
समझ लीजिये ॥ २४ ॥
गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च
प्रजाः ।
जीवस्य देह उभयं गुणाश्चेतो
मदात्मनः ॥ १३.२५॥
पुत्रों ! यह चित्त चिन्तन करते-करते
विषयाकार हो जाता है और विषय चित्त में प्रविष्ट हो जाते हैं,
यह बात सत्य है, तथापि विषय और चित्त ये दोनों
ही मेरे स्वरूपभूत जीव के देह हैं — उपाधि है । अर्थात्
आत्मा को चित्त और विषय के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है ॥ २५ ॥
गुणेषु चाविशच्चित्तमभीक्ष्णं
गुणसेवया ।
गुणाश्च चित्तप्रभवा मद्रूप उभयं
त्यजेत् ॥ १३.२६॥
इसलिये बार-बार विषयों का सेवन करते
रहने से जो चित्त विषयों में आसक्त हो गया है और विषय भी चित में प्रविष्ट हो गये
हैं,
इन दोनों को अपने वास्तविक से अभिन्न मुझ परमात्मा का साक्षात्कार
करके त्याग देना चाहिये ॥ २६ ॥
जाग्रत्स्वप्नः सुषुप्तं च गुणतो
बुद्धिवृत्तयः ।
तासां विलक्षणो जीवः साक्षित्वेन
विनिश्चितः ॥ १३.२७॥
जाग्रत्,
स्वप्न और सुषुप्ति — ये तीनों अवस्थाएँ
सत्त्वादि गुणों के अनुसार होती हैं और बुद्धि की वृत्तियाँ हैं, सच्चिदानन्द का स्वभाव नहीं । इन वृत्तियों का साक्षी होने के कारण जीव
उनसे विलक्षण हैं । यह सिद्धान्त श्रुति, युक्ति और अनुभूति
से युक्त हैं ॥ २७ ॥
यर्हि संसृतिबन्धोऽयमात्मनो
गुणवृत्तिदः ।
मयि तुर्ये स्थितो
जह्यात्त्यागस्तद्गुणचेतसाम् ॥ १३.२८॥
क्योंकि बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा
होनेवाला यह बन्धन ही आत्मा में त्रिगुणमयी वृत्तियों का दान करता है । इसलिये
तीनों अवस्थाओं से विलक्षण और उनमें अनुगत मुझ तुरीय तत्त्व में स्थित होकर इस
बुद्धि के बन्धन का परित्याग कर दे । तब विषय और चित्त दोनों का युगपत् त्याग हो
जाता है ॥ २८ ॥
अहङ्कारकृतं बन्धमात्मनोऽर्थविपर्ययम्
।
विद्वान्निर्विद्य संसारचिन्तां
तुर्ये स्थितस्त्यजेत् ॥ १३.२९॥
यह बन्धन अहङ्कार की ही रचना है और
यही आत्मा के परिपूर्णतम सत्य, अखण्डज्ञान और
परमानन्द-स्वरूप को छिपा देता है । इस बात को जानकर विरक्त हो जाय और अपने तीन
अवस्थाओं में अनुगत तुरीयस्वरूप में होकर संसार की चिन्ता को छोड़ दे ॥ २९ ॥
यावन्नानार्थधीः पुंसो न निवर्तेत
युक्तिभिः ।
जागर्त्यपि स्वपन्नज्ञः स्वप्ने
जागरणं यथा ॥ १३.३०॥
जब तक पुरुष की भिन्न-भित्र
पदार्थों में सत्यत्व-बुद्धि, अहं-बुद्धि और
मम-बुद्धि युक्तियों के द्वारा निवृत्त नहीं हो जाती, तब तक
वह अज्ञानी यद्यपि जागता है तथापि सोता हुआ-सा रहता है जैसे स्वप्नावस्था में जान
पड़ता है कि मैं जाग रहा हूँ ॥ ३० ॥
असत्त्वादात्मनोऽन्येषां भावानां
तत्कृता भिदा ।
गतयो हेतवश्चास्य मृषा स्वप्नदृशो
यथा ॥ १३.३१॥
आत्मा से अन्य देह आदि प्रतीयमान
नामरूपात्मक प्रपञ्च का कुछ भी अस्तित्व नहीं है । इसलिये उनके कारण होनेवाले
वर्णाश्रमादि-भेद, स्वर्गादि फल और
उनके कारणभूत कर्म — ये सब-के-सब इस आत्मा के लिये वैसे ही
मिथ्या हैं; जैसे स्वप्नदर्शी पुरुष के द्वारा देखे हुए
सब-के-सब पदार्थ ॥ ३१ ॥
यो जागरे बहिरनुक्षणधर्मिणोऽर्थान्
भुङ्क्ते समस्तकरणैर्हृदि
तत्सदृक्षान् ।
स्वप्ने सुषुप्त उपसंहरते स एकः
स्मृत्यन्वयात्त्रिगुणवृत्तिदृगिन्द्रियेशः
॥ १३.३२॥
जो जाग्रत् अवस्था में समस्त
इन्द्रियों के द्वारा बाहर दीखनेवाले सम्पूर्ण क्षणभङ्गुर पदार्थों को अनुभव करता
है और स्वप्नावस्था में हृदय में ही जाग्रत् में देखे हुए पदार्थों के समान ही
वासनामय विषयों का अनुभव करता है और सुषुप्ति-अवस्था में उन सब विषयों को समेटकर
उनके लय को भी अनुभव करता है, वह एक ही है ।
जाग्रत् अवस्था के इन्द्रिय, स्वप्नावस्था के मन और सुषुप्ति
की संस्कारवती बुद्धि का भी वही स्वामी है, क्योंकि वह
त्रिगुणमयी तीनों अवस्थाओं का साक्षी है । ‘जिस मैंने स्वप्न
देखा, जो मैं सोया, वही मैं जाग रहा
हूँ — इस स्मृति के बल पर एक ही आत्मा का समस्त अवस्थाओं में
होना सिद्ध हो जाता है ॥ ३२ ॥
एवं विमृश्य गुणतो मनसस्त्र्यवस्था
मन्मायया मयि कृता इति
निश्चितार्थाः ।
सञ्छिद्य
हार्दमनुमानसदुक्तितीक्ष्ण-
ज्ञानासिना भजत माखिलसंशयाधिम् ॥
१३.३३॥
ऐसा विचारकर मन की ये तीनों
अवस्थाएँ गुणों के द्वारा मेरी माया से मेरे अंशस्वरूप जीव में कल्पित की गयी हैं
और आत्मा में ये नितान्त असत्य हैं, ऐसा
निश्चय करके तुम लोग अनुमान, सत्पुरुषों द्वारा किये गये
उपनिषदों के श्रवण और तीक्ष्ण ज्ञान-खड्ग के द्वारा सकल संशयों के आधार अहंकार का
छेदन करके हृदय में स्थित मुझ परमात्मा का भजन करो ॥ ३३ ॥
ईक्षेत विभ्रममिदं मनसो विलासं
दृष्टं विनष्टमतिलोलमलातचक्रम् ।
विज्ञानमेकमुरुधेव विभाति माया
स्वप्नस्त्रिधा गुणविसर्गकृतो
विकल्पः ॥ १३.३४॥
यह जगत् मन का विलास है,
दीखने पर भी नष्टप्राय है, अलात-चक्र
(लुकारियों की बनेठी) के समान अत्यन्त चञ्चल है और भ्रममात्र है — ऐसा समझे । ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित एक ज्ञानस्वरूप आत्मा ही
अनेक-सा प्रतीत हो रहा है । यह स्थूल शरीर इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप तीन प्रकार का
विकल्प गुणों के परिणाम की रचना है और स्वप्न के समान माया का खेल है, अज्ञान से कल्पित है ॥ ३४ ॥
दृष्टिं ततः प्रतिनिवर्त्य
निवृत्ततृष्ण-
स्तूष्णीं भवेन्निजसुखानुभवो निरीहः
।
सन्दृश्यते क्व च
यदीदमवस्तुबुद्ध्या
त्यक्तं भ्रमाय न
भवेत्स्मृतिरानिपातात् ॥ १३.३५॥
इसलिये उस देहादिरूप दृश्य से
दृष्टि हटाकर तृष्णा-रहित इन्द्रियों के व्यापार से हीन और निरीह होकर आत्मानन्द
के अनुभव में मग्न हो जाय । यद्यपि कभी-कभी आहार आदि के समय यह देहादिक प्रपञ्च
देखने में आता है, तथापि यह पहले ही
आत्मवस्तु से अतिरिक्त और मिथ्या समझकर छोड़ा जा चुका है । इसलिये वह पुनः
भ्रान्तिमूलक मोह उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता । देहपातपर्यन्त केवल
संस्कारमात्र उसकी प्रतीति होती हैं ॥ ३५ ॥
देहं च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वा
सिद्धो न पश्यति
यतोऽध्यगमत्स्वरूपम् ।
दैवादपेतमथ दैववशादुपेतं
वासो यथा परिकृतं मदिरामदान्धः ॥
१३.३६॥
जैसे मदिरा पीकर उन्मत्त पुरुष यह
नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीर पर हैं या गिर गया,
वैसे ही सिद्ध पुरुष जिस शरीर से उसने अपने स्वरूप का साक्षात्कार
किया है, वह प्रारब्धवश खड़ा है, बैठा
हैं या दैववश कहीं गया या आया हैं — नश्वर शरीर-सम्बन्धी इन
बातों पर दृष्टि नहीं डालता ॥ ३६ ॥
देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत्
स्वारम्भकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः ।
तं सप्रपञ्चमधिरूढसमाधियोगः
स्वाप्नं पुनर्न भजते
प्रतिबुद्धवस्तुः ॥ १३.३७॥
प्राण और इन्द्रियों के साथ यह शरीर
भी प्रारब्ध के अधीन है । इसलिये अपने आरम्भक (बनानेवाले) कर्म जब तक हैं,
तब तक उनकी प्रतीक्षा करता ही रहता है । परन्तु आत्म-वस्तु का
साक्षात्कार करनेवाला तथा समाधि-पर्यन्त योग में आरूढ़ पुरुष, स्त्री, पुत्र, धन आदि प्रपञ्च
के सहित उस शरीर को फिर कभी स्वीकार नहीं करता, अपना नहीं
मानता, जैसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नावस्था के शरीर आदि को ॥ ३७
॥
मयैतदुक्तं वो विप्रा गुह्यं
यत्साङ्ख्ययोगयोः ।
जानीत माऽऽगतं यज्ञं युष्मद्धर्मविवक्षया
॥ १३.३८॥
सनकादि ऋषियो ! मैंने तुमसे जो कुछ
कहा है,
वह सांख्य और योग दोनों का गोपनीय रहस्य हैं । मैं स्वयं भगवान् हूँ,
तुम लोगों को तत्त्वज्ञान का उपदेश करने के लिये ही यहाँ आया हूँ,
ऐसा समझो ॥ ३८ ॥
अहं योगस्य साङ्ख्यस्य
सत्यस्यर्तस्य तेजसः ।
परायणं द्विजश्रेष्ठाः श्रियः
कीर्तेर्दमस्य च ॥ १३.३९॥
विप्रवरो ! मैं योग,
सांख्य, सत्य, ऋत
(मधुरभाषण), तेज, श्री, कीर्ति और दम (इन्द्रियनिग्रह) — इन सबका परम गति —
परम अधिष्ठान हूँ ॥ ३९ ॥
मां भजन्ति गुणाः सर्वे निर्गुणं
निरपेक्षकम् ।
सुहृदं प्रियमात्मानं साम्यासङ्गादयोऽगुणाः
॥ १३.४०॥
मैं समस्त गुणों से रहित हूँ और
किसी की अपेक्षा नहीं रखता । फिर भी साम्य, असङ्गता
आदि सभी गुण मेरा ही सेवन करते हैं, मुझमें ही प्रतिष्ठित
हैं, क्योंकि मैं सबका हितैषी, सुहृद्,
प्रियतम और आत्मा हूँ । सच पूछो, तो उन्हें
गुण कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वे सत्त्वादि गुणों के
परिणाम नहीं है और नित्य हैं ॥ ४० ॥
इति मे छिन्नसन्देहा मुनयः सनकादयः
।
सभाजयित्वा परया भक्त्यागृणत
संस्तवैः ॥ १३.४१॥
प्रिय उद्धव ! इस प्रकार मैंने
सनकादि मुनियों के संशय मिटा दिये । उन्होंने परम भक्ति से मेरी पूजा की और
स्तुतियों द्वारा मेरी महिमा का गान किया ॥ ४१ ॥
तैरहं पूजितः सम्यक्संस्तुतः
परमर्षिभिः ।
प्रत्येयाय स्वकं धाम पश्यतः
परमेष्ठिनः ॥ १३.४२॥
जब उन परमर्षियों ने भली-भाँति मेरी
पूजा और स्तुति कर ली, तब मैं ब्रह्माजी
के सामने ही अदृश्य होकर अपने धाम में लौट आया ॥ ४२ ॥
॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः हंसगीता १ समाप्त ॥
॥ ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष जारी......................आगे पढ़े- हंसगीता २
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