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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
गीता माहात्म्य अध्याय ५
इससे पूर्व आपने श्रीमद्भगवद्गीता
के पञ्चम अध्याय पढ़ा। पाँचवे अध्याय कर्मसंन्यास योग नामक में फिर वे ही युक्तियाँ
और दृढ़ रूप में कहीं गई हैं। इसमें कर्म के साथ जो मन का संबंध है,
उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है।
यह भी कहा गया है कि ऊँचे धरातल पर पहुँचकर सांख्य और योग में कोई भेद नहीं रह
जाता है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के
जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति
के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से
लिप्त नहीं होता।
भगवान श्रीकृष्ण इस अध्याय में
कर्मयोग और साधु पुरुष का वर्णन करते हैं। तथा बताते हैं कि मैं सृष्टि के हर जीव
में समान रूप से रहता हूँ अतः प्राणी को समदर्शी होना चाहिए।
“विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि
हस्तिनि।।
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता:
समदर्शिन:„
"ज्ञानी महापुरुष
विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी
एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं।"
अब यहाँ गीता के इस अध्याय ५ का माहात्म्य
अर्थात् इसके पढ़ने सुनने की महिमा के विषय में पढेंगे।
गीता माहात्म्य - अध्याय ५
श्री भगवान कहते हैं: हे देवी! अब
सब लोगों द्वारा सम्मानित पाँचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेप में बतलाता हूँ,
सावधान होकर सुनो। मद्र देश में पुरुकुत्सपुर नामक एक नगर है,
उसमें पिंगल नामक एक ब्राह्मण रहता था, वह
वेदपाठी ब्राह्मणों के विख्यात वंश में, जो सर्वदा निष्कलंक
था, उत्पन्न हुआ था, किंतु अपने कुल के
लिए उचित वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय को छोड़कर ढोल बजाते हुए उसने नाच-गान में मन
लगाया, गीत, नृत्य और बाजा बजाने की
कला में परिश्रम करके पिंगल ने बड़ी प्रसिद्धी प्राप्त कर ली और उसी से उसका राज
भवन में भी प्रवेश हो गया।
वह राजा के साथ रहने लगा,
स्त्रियों के सिवा और कहीं उसका मन नहीं लगता था, धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जाने से उच्छ्रंखल होकर वह एकान्त में राजा से
दूसरों के दोष बतलाने लगा, पिंगल की एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा, वह नीच कुल में उत्पन्न हुई थी
और कामी पुरुषों के साथ विहार करने की इच्छा से सदा उन्हीं की खोज में घूमा करती
थी, उसने पति को अपने मार्ग का कण्टक समझकर एक दिन आधी रात
में घर के भीतर ही उसका सिर काटकर मार डाला और उसकी लाश को जमीन में गाड़ दिया,
इस प्रकार प्राणों से वियुक्त होने पर वह यमलोक पहुँचा और भीषण
नरकों का उपभोग करके निर्जन वन में गिद्ध हुआ।
अरुणा भी भगन्दर रोग से अपने सुन्दर
शरीर को त्याग कर घोर नरक भोगने के पश्चात उसी वन में शुकी हुई,
एक दिन वह दाना चुगने की इच्छा से इधर उधर फुदक रही थी, इतने में ही उस गिद्ध ने पूर्वजन्म के वैर का स्मरण करके उसे अपने तीखे
नखों से फाड़ डाला, शुकी घायल होकर पानी से भरी हुई मनुष्य
की खोपड़ी में गिरी, गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा, इतने में ही जाल फैलाने वाले बहेलियों ने उसे भी बाणों का निशाना बनाया,
उसकी पूर्वजन्म की पत्नी शुकी उस खोपड़ी के जल में डूबकर प्राण
त्याग चुकी थी, फिर वह क्रूर पक्षी भी उसी में गिर कर डूब
गया।
यमराज के दूत उन दोनों को यमलोक में
ले गये,
वहाँ अपने पूर्वकृत पाप कर्म को याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे,
तदनन्तर यमराज ने जब उनके घृणित कर्मों पर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्यु के समय अकस्मात् खोपड़ी के जल में स्नान
करने से इन दोनों का पाप नष्ट हो चुका है, तब उन्होंने उन
दोनों को मनोवांछित लोक में जाने की आज्ञा दी, यह सुनकर अपने
पाप को याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मय में पड़े और पास जाकर धर्मराज के चरणों
में प्रणाम करके पूछने लगेः "भगवन ! हम दोनों ने पूर्वजन्म में अत्यन्त घृणित
पाप का संचय किया है, फिर हमें मनोवाञ्छित लोकों में भेजने
का क्या कारण है?"
यमराज ने कहा: गंगा के किनारे वट
नामक एक उत्तम ब्रह्म-ज्ञानी रहते थे, वे
एकान्तवासी, ममतारहित, शान्त, विरक्त और किसी से भी द्वेष न रखने वाले थे, प्रतिदिन
गीता के पाँचवें अध्याय का जप करना उनका सदा नियम था, पाँचवें
अध्याय को श्रवण कर लेने पर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर
लेता है, उसी पुण्य के प्रभाव से शुद्ध चित्त होकर उन्होंने
अपने शरीर का परित्याग किया था, गीता के पाठ से जिनका शरीर
निर्मल हो गया था, जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे, उन्ही महात्मा की खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गये, अतः अब तुम दोनों मनोवाञ्छित लोकों को जाओ, क्योंकि
गीता के पाँचवें अध्याय के माहात्म्य से तुम दोनों शुद्ध हो गये हो।
श्री भगवान कहते हैं: सबके प्रति
समान भाव रखने वाले धर्मराज के द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर दोनों बहुत
प्रसन्न हुए और विमान पर बैठकर वैकुण्ठधाम को चले गये।
शेष जारी................ गीता माहात्म्य - अध्याय ६
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